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Saturday, 9 May 2015
जनता और जन-विचारक अपराधी के विरुद्ध : समर्थक कौन?
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साधारण जनता और उससे सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवी विचारक जहां एक अपराधी को न्यायिक-अव्यवस्था से मिली छूट के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे हैं वहीं जनता से कटे हुये (जनाधार विहीन) अमीर नेता गण एवं खुद अपने में ही मद-मस्त रहने वाले स्वार्थी स्वभाव के लोग अपराधी का महिमा-मंडन करके गरीबों के साथ भद्दा और क्रूर मज़ाक कर रहे हैं। यही कारण है कि भारत में कम्युनिस्ट कर्णधारों की अदूरदर्शिता के कारण कम्यूनिज़्म सफल नहीं हो पा रहा है।
Tuesday, 2 December 2014
कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ काम नहीं करेगा क्यों भाई? ---Ameeque Jamei
उत्तर
प्रदेश का सम्पन्न मुसलमान समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी की गाली और जूठन
खा लेगा लात खा लेगा लेकिन साहेब कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ काम नहीं करेगा
क्यों भाई? कम्युनिस्टो ने इनकी कौनसी भैंस बाँध ली?
- Dinesh Reghunath R, Emran Rizvi, Asharaf Pookkom and 27 others like this.
- Ranjeet Kumar हिंदुस्तानी कम्युनिस्टों जिनको अपनी बुद्धि और नेतृत्व का झूठा गुमान है, ने ऐसा किया क्या है जिसके लिए हिंदुस्तानी अवाम (सिर्फ मुस्लिम ही क्यूँ , महिलाओँ , दलितों और तमाम दबे कुचले तबकों ) को इन पे भरोसा हो , कम्युनिस्ट पार्टी के रहनुमा का कोई ठौर ठिकाना नहीं, कल किससे हाथ मिला लेंगे और किसको अपना प्रधानमंत्री घोषित कर देंगे ! अवाम को ये लोग बताएं कि इनके किस काम काम से भरोसे की बू आती है जिसको सूंघने के लिए मुसलमान अपनी नाक खोले. भरोसा पैदा करना होगा अवाम में कि कम्युनिस्ट उनके लिए काम करते हैं , और इस काम में बहुत समय लगेगा , ५ साल , १० साल या शायद उससे भी बहुत ज्यादा। वामपंथी राजनीति की बहुत गुंजाइश और जरुरत है इस देश को लेकिन आज की कमम्युनिस्ट पार्टियों के पास उतना मज़बूत कन्धा नहीं है जिसपे ये
जिम्मेदारियों का ये बोझ डाला जा सके ! *** - Afeef Siddiqui कम्युनिस्टों के शासन में बंगाल ,त्रिपुरा केरला ने तरक़्क़ी की. खासतौर से बंगाल सरकार का आपरेशन "बरगा" तो भाई लोगो को याद होगा , जिसने देहात -कसबे के लोगो को ज़मीन का हिस्सेदार बनाया , जो गरीब लोगो को मुख्यधारा में लेन का सबब बना , इन कम्युनिस्टों के शासन में मुसलमानो-सिक्खो - ईसाइयो -आदिवासी क़त्ल नहीं हुय, इन्ही कम्युनिस्टों ने बराबरी की बात की ,सभी को एक साथ चलने का ईमानदार मौका दिया ,जो नही चलने को तैयार उसके लिय क्या कहा जा सकता है...... हाँ एक बात और साले कम्युनिस्ट बहुत "ईमानदार" होते हैं ,इन्हे भी भाजपाइयों , कोंग्रेसियों की तरह बेईमान होना चाहिए ,इनमे लालू-मुलयम -जयललिता-चौटाला -मायावती-सुखराम- बंगारू- मारन- महतो- क़ाज़ी-पासवान जैसे भी होना चाहिय तब कम्युनिस्टों में सुगंध आयगी........
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कम्युनिस्ट बहुत "ईमानदार" होते हैं:
इसमें कोई शक नहीं कि आम कम्युनिस्ट बहुत ईमानदार होते हैं । लेकिन उत्तर प्रदेश में जो लोग निर्णायक नेतृत्व में हैं उनमें से कुछ ने जनता में दोहरे आचरण की छाप छोड़ रखी है और वे लोग ईमानदार लोगों को परिदृश्य से धकेल देते हैं। जनता की निगाह से कुछ भी छिपा हुआ नहीं रहता है। इसलिए ऐसे लोगों की छटनी की जानी चाहिए जिससे जनता की हमदर्दी हासिल की जा सके।
पश्चिम बंगाल में माकपा की स्थिति एक मार्क्स वादी पार्टी की नही बल्कि 'बंगाली पार्टी' की छवी जनता के दिमाग में थी। उस दौरान भी 'दुर्गा पूजा' आदि ढोङ्गोत्सव उसी प्रकार होते रहे थे जैसे पहले होते थे।
जिम्मेदारियों का ये बोझ डाला जा सके ! ***
वह शख्स हैं कामरेड अतुल अंजान साहब :
अवाम की आवाज़ और चेहरा :लखनऊ की शान और उत्तर प्रदेश का सितारा - अतुल अनजान
http://communistvijai.blogspot.in/2013/12/blog-post_24.html
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Comment on Facebook :02-12-2014
Comment in Fb AISA group:
Comm.in fb group-COMMUNIST:
--- विजय राजबली माथुर
Sunday, 31 August 2014
शैलेंद्र :ज़िंदगी की जीत ---राजीव कुमार यादव
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
#KhabarMantra #article तू जि़न्दा है तो जि़न्दगी की जीत में यकीन कर By Rajeev Yadav
- शैलेन्द्र एक प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार थे। जिनकी रचनाएं उनके
राजनीतिक विचारों की वाहक थीं और इसीलिए वे कम्युनिस्ट राजनीति के नारों के
रुप में आज भी सड़कों पर आम-आवाम की आवाज बनकर संघर्ष कर रही हैं। ‘हर
ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है ! (1949) आज किसी भी मजदूर
आंदोलन के दौरान एक ‘राष्ट्रगीत’ के रुप
में गाया जाता है। शैलेन्द्र ट्रेड यूनियन से लंबे समय तक जुड़े थे, वे
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और खांके के प्रति बहुत सजग थे। आम बोल-चाल
की भाषा में गीत लिखना उनकी एक राजनीति थी। क्योंकि क्लिष्ट भाषा को जनता
नहीं समझ पाती, भाषा का ‘जनभाषा’ के स्वरुप में जनता के बीच प्रसारित होना
एक राजनीतिक रचनकार की जिम्मेवारी होती है, जिसे उन्होंने पूरा किया। आज
वर्तमान दौर में जब सरकारें बार-बार मंदी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से
भाग रही हैं, ऐसा उस दौर में भी था। तभी तो शैलेन्द्र लिखते हैं ‘मत करो
बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है।’ बार-बार पूंजीवाद के हित में
जनता पर दमन और जनता द्वारा हर वार का जवाब देने पर वे कहते हैं ‘समझौता
? कैसा समझौता ?हमला तो तुमने बोला है, मत समझो हमको याद नहीं हैं जून
छियालिस की रातें।’ पर शैलेन्द्र के जाने के बाद आज हमारे फिल्मी गीतकारों
का यह
पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि वक्त जरुर पूछेगा कि जब पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ
में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे।
पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि वक्त जरुर पूछेगा कि जब पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ
में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे।
साभार :
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Wednesday, 13 February 2013
कांग्रेस -कौन सी कांग्रेस?---विजय राजबली माथुर
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hindustaan,lakhnau ,28 janvaree 2013
उपरोक्त समाचार मे 'राहुल गांधी' को 'कांग्रेस उपाध्यक्ष' बताया गया है। परंतु प्रश्न यह है कि,यह कांग्रेस कौन सी कांग्रेस है?निश्चय ही राहुल जी की कांग्रेस वह कांग्रेस नहीं है जिसने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया था।राहुल जी की कांग्रेस मात्र 44 वर्ष की पार्टी है जिसका जन्म उनकी दादी साहिबा द्वारा स्वतन्त्रता आंदोलन की कांग्रेस के प्रति बगावत का नतीजा है।
सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या 'क्रान्ति' के विफल हो जाने के 18 वर्षों बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती (जिनहोने उस संग्राम मे सक्रिय भाग लिया था) सन 1875 ई .मे चैत्र प्रतिपदा (प्रथम नवरात्र ) के दिन 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी जिसका मूल उद्देश्य जनता को 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'के विरुद्ध जाग्रत करके भारत को स्वाधीन करना था। जहां-जहां ब्रिटिश छावनियाँ थीं वहाँ-वहाँ इसकी शाखाओं का गठन प्राथमिकता के आधार पर किया गया । ब्रिटिश हुकूमत ने स्वामी दयानन्द को क्रांतिकारी संत (Revolutionary Saint) की संज्ञा दी थी। भयभीत अङ्ग्रेज़ी सरकार ने लार्ड डफरिन के इशारे पर अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता मे सन 1885 ई मे इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य 'औपनिवेशिक राज्य'-Dominiyan State की स्थापना था। अतः स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाजी अधिकांश संख्या मे कांग्रेस मे शामिल हो गए और उसका उद्देश्य 'पूर्ण स्वाधीनता' करवाने मे कामयाब रहे। 'कांग्रेस का इतिहास' के लेखक डॉ पट्टाभि सीता रमेय्या ने लिखा है कि,'स्वाधीनता आंदोलन मे जेल जाने वाले कांग्रेसियों मे 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे'।
अतः स्वाधीनता आंदोलन को छीण करने हेतु ब्रिटिश सरकार ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को प्रेरित करके 'मुस्लिम लीग' की स्थापना 1906 मे तथा पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा 1920 मे 'हिन्दू महासभा' की स्थापना करवाई। भारतीयों को 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' मे विभाजित करके परस्पर विरोध मे ब्रिटिश सरकार द्वारा खड़ा किया गया किन्तु हिन्दू महासभा ज़्यादा कामयाब न हो सकी । अतः पूर्व कांग्रेसी डॉ हेडगेवार एवं पूर्व क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को माध्यम बना कर ब्रिटिश सरकार ने RSS की स्थापना 1925 ई मे करवाई। मुस्लिम लीग और RSS ने देश को 'दंगों' की आग मे झोंक दिया जिसकी अंतिम परिणति 'देश-विभाजन' के रूप मे सामने आई।
1925 ई मे देश-भक्त कांग्रेसियों ने 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की जिसका मूल उद्देश्य देश के स्वाधीनता आंदोलन को गति प्रदान करना तथा साम्राज्यवादी विदेशी सरकार की विभाजनकारी नीतियों को विफल करना था। 'गेंदा लाल दीक्षित','स्वामी सहजानन्द सरस्वती' सरीखे कट्टर आर्यसमाजी 'क्रांतिकारी कम्युनिस्ट' बने। 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ कर ही सरदार भगत सिंह जिनके चाचा कट्टर आर्यसमाजी थे 'क्रांतिकारी कम्युनिस्ट' बने।
क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के प्रभाव को छीण करने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रह के साथ समझौते करने शुरू किए जिसका जनता पर यह प्रभाव पड़ा कि,जनता ने गांधी जी के पीछे खुद को लामबंद कर लिया और इस प्रकार देश की स्वाधीनता का श्रेय गांधीजी और उनकी कांग्रेस को दे दिया जबकि क्रांतिकारी कम्युनिस्टों तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की INA-आज़ाद हिन्द फौज,एयर फोर्स व नेवी के विद्रोहों का बड़ा योगदान 15 अगस्त 1947 की आज़ादी के पीछे है।
आज़ादी दिलाने का श्रेय मिलना ही कांग्रेस की 'पूंजी' बना और वह सत्ता प्राप्त कर सकी। शनैः शनैः कांग्रेस सरकार जनता से कटती गई और 'पूंजीपतियों' को समृद्ध करती गई। 1967 मे सम्पूर्ण उत्तर भारत से कांग्रेस की सत्ता का सफाया हो गया। सत्ता पर अपनी पकड़ को बनाए रखने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी जी (राहुल साहब की दादी )ने जनता को ठगने हेतु 'समाजवाद' का नारा लगा कर 1969 मे राष्ट्रपति चुनावों मे कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के विरुद्ध निर्दलीय उम्मीदवार खड़ा करके मूल कांग्रेस से बगावत कर दी और 'इन्दिरा कांग्रेस' की स्थापना की। यह उपाध्यक्ष राहुल साहब इसी बागी कांग्रेस-इन्दिरा कांग्रेस के नेता हैं जिसका उद्देश्य शोषक/उत्पीड़क 'पूँजीपतियों' व 'उद्योगपतियों' का हितसाधन है और इंनका देश के स्वाधीनता आंदोलन से किसी प्रकार का कोई सरोकार कभी भी नहीं रहा है न ही देश की जनता से । न ही इनको कोई अधिकार है कि वह स्वाधीनता आंदोलन की विरासत का खुद को वारिस बताएं। ऐसा करना सिर्फ गलत बयानी ही होगा।
1971 मे बांग्लादेश के स्वाधीनता आंदोलन को सफल समर्थन देकर इंदिराजी की लोकप्रियता बढ़ गई थी और उसी को भुनाते हुये मध्यावधी चुनाव करा दिये थे। प्रचंड बहुमत का दुरुपयोग करते हुये संविधान मे संशोधन करके लोकसभा का कार्यकाल 6 वर्ष कर दिया था और खुद इन्दिरा जी का राय बरेली का चुनाव हाई कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने पर देश मे 'आपात काल' थोप कर प्रभावशाली नेताओं को जेलों मे ठूंस दिया था जिनमे 'लोकनायक जय प्रकाश नारायण''भी शामिल थे। जनता के साथ-साथ सरकारी कर्मचारी/अधिकारी बहुत त्रस्त थे और खुफिया विभाग ने गुमराह करके 1977 मे उनसे मध्यवधी चुनाव करवा दिये जिसमे इन्दिरा जी खुद भी और जहां का प्रतिनिधितित्व राहुल कर रहे हैं वहाँ से संजय गांधी भी चुनाव हार गए थे।
1980 के मध्यवधी चुनावों मे राहुल की दादी साहिबा ने RSS से 'गुप्त समझौता ' करके सांप्रदायिक आधार पर बहुमत हासिल कर लिया था और पूर्व 'जनता सरकार' को परेशान करने हेतु अपने द्वारा खड़े किए गए और 'भस्मासुर' बने भिंडरा वाले का सैन्य कारवाई मे खात्मा करा दिया था। परिणाम स्वरूप अपने ही अंग रक्षकों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी जिसकी सहानुभूति प्राप्त कर उनके उत्तराधिकारी -राहुल के पिता राजीव गांधी ने तीन चौथाई बहुमत हासिल कर लिया था और पहले 'शाहबानों'को न्याय से वंचित करने हेतु 'मुस्लिम सांप्रदायिकता 'फिर राम मंदिर की आड़ मे 'हिन्दू सांप्रदायिकता' से समझौता करके विद्वेष भड़का कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पुरानी नीतियों को लागू कर दिया था । उनके कार्यकाल मे सरकार को कारपोरेट लाबी मे तब्दील कर दिया गया जो उनकी हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर मे प्रधानमंत्री बने पी वी नरसिंघा राव के वित्त मंत्री जो अब पी एम हैं के द्वारा और परिपुष्ट किया गया।
आज की राहुल कांग्रेस घोर जन-विरोधी एवं शोषक/उत्पीड़क शक्तियों का संरक्षक दल बन गई है।
वे कम्युनिस्ट जो प्रथम आम चुनावों के जरिये संसद मे 'मुख्य विपक्षी'दल थे और जिन्हों ने केरल मे विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार का गठन किया था जनता की नब्ज़ न पकड़ने के कारण पिछड़ गए हैं और अब राहुल जी उनको ही देश से उखाड़ फेंकने की दहाड़ लगा रहे हैं। मैं ढाई वर्षों से अपने ब्लाग के माध्यम ('क्रांतिस्वर'---http://krantiswar.blogspot.in)
से अपने विचारों मे जनता की नब्ज़ पर ध्यान रख कर चलने का निवेदन करता रहा हूँ जिसका संकीर्ण साम्यवादी लगातार विरोध करते रहे हैं। खुशी की बात है कि कभी साम्यवादी दल के प्रशिक्षक रहे डॉ मोहन श्रोत्रिय साहब ने भी आज ऐसे ही विचारों का समर्थन किया है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
hindustaan,lakhnau ,28 janvaree 2013
उपरोक्त समाचार मे 'राहुल गांधी' को 'कांग्रेस उपाध्यक्ष' बताया गया है। परंतु प्रश्न यह है कि,यह कांग्रेस कौन सी कांग्रेस है?निश्चय ही राहुल जी की कांग्रेस वह कांग्रेस नहीं है जिसने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया था।राहुल जी की कांग्रेस मात्र 44 वर्ष की पार्टी है जिसका जन्म उनकी दादी साहिबा द्वारा स्वतन्त्रता आंदोलन की कांग्रेस के प्रति बगावत का नतीजा है।
सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या 'क्रान्ति' के विफल हो जाने के 18 वर्षों बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती (जिनहोने उस संग्राम मे सक्रिय भाग लिया था) सन 1875 ई .मे चैत्र प्रतिपदा (प्रथम नवरात्र ) के दिन 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी जिसका मूल उद्देश्य जनता को 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'के विरुद्ध जाग्रत करके भारत को स्वाधीन करना था। जहां-जहां ब्रिटिश छावनियाँ थीं वहाँ-वहाँ इसकी शाखाओं का गठन प्राथमिकता के आधार पर किया गया । ब्रिटिश हुकूमत ने स्वामी दयानन्द को क्रांतिकारी संत (Revolutionary Saint) की संज्ञा दी थी। भयभीत अङ्ग्रेज़ी सरकार ने लार्ड डफरिन के इशारे पर अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता मे सन 1885 ई मे इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य 'औपनिवेशिक राज्य'-Dominiyan State की स्थापना था। अतः स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाजी अधिकांश संख्या मे कांग्रेस मे शामिल हो गए और उसका उद्देश्य 'पूर्ण स्वाधीनता' करवाने मे कामयाब रहे। 'कांग्रेस का इतिहास' के लेखक डॉ पट्टाभि सीता रमेय्या ने लिखा है कि,'स्वाधीनता आंदोलन मे जेल जाने वाले कांग्रेसियों मे 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे'।
अतः स्वाधीनता आंदोलन को छीण करने हेतु ब्रिटिश सरकार ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को प्रेरित करके 'मुस्लिम लीग' की स्थापना 1906 मे तथा पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा 1920 मे 'हिन्दू महासभा' की स्थापना करवाई। भारतीयों को 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' मे विभाजित करके परस्पर विरोध मे ब्रिटिश सरकार द्वारा खड़ा किया गया किन्तु हिन्दू महासभा ज़्यादा कामयाब न हो सकी । अतः पूर्व कांग्रेसी डॉ हेडगेवार एवं पूर्व क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को माध्यम बना कर ब्रिटिश सरकार ने RSS की स्थापना 1925 ई मे करवाई। मुस्लिम लीग और RSS ने देश को 'दंगों' की आग मे झोंक दिया जिसकी अंतिम परिणति 'देश-विभाजन' के रूप मे सामने आई।
1925 ई मे देश-भक्त कांग्रेसियों ने 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की जिसका मूल उद्देश्य देश के स्वाधीनता आंदोलन को गति प्रदान करना तथा साम्राज्यवादी विदेशी सरकार की विभाजनकारी नीतियों को विफल करना था। 'गेंदा लाल दीक्षित','स्वामी सहजानन्द सरस्वती' सरीखे कट्टर आर्यसमाजी 'क्रांतिकारी कम्युनिस्ट' बने। 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ कर ही सरदार भगत सिंह जिनके चाचा कट्टर आर्यसमाजी थे 'क्रांतिकारी कम्युनिस्ट' बने।
क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के प्रभाव को छीण करने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रह के साथ समझौते करने शुरू किए जिसका जनता पर यह प्रभाव पड़ा कि,जनता ने गांधी जी के पीछे खुद को लामबंद कर लिया और इस प्रकार देश की स्वाधीनता का श्रेय गांधीजी और उनकी कांग्रेस को दे दिया जबकि क्रांतिकारी कम्युनिस्टों तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की INA-आज़ाद हिन्द फौज,एयर फोर्स व नेवी के विद्रोहों का बड़ा योगदान 15 अगस्त 1947 की आज़ादी के पीछे है।
आज़ादी दिलाने का श्रेय मिलना ही कांग्रेस की 'पूंजी' बना और वह सत्ता प्राप्त कर सकी। शनैः शनैः कांग्रेस सरकार जनता से कटती गई और 'पूंजीपतियों' को समृद्ध करती गई। 1967 मे सम्पूर्ण उत्तर भारत से कांग्रेस की सत्ता का सफाया हो गया। सत्ता पर अपनी पकड़ को बनाए रखने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी जी (राहुल साहब की दादी )ने जनता को ठगने हेतु 'समाजवाद' का नारा लगा कर 1969 मे राष्ट्रपति चुनावों मे कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के विरुद्ध निर्दलीय उम्मीदवार खड़ा करके मूल कांग्रेस से बगावत कर दी और 'इन्दिरा कांग्रेस' की स्थापना की। यह उपाध्यक्ष राहुल साहब इसी बागी कांग्रेस-इन्दिरा कांग्रेस के नेता हैं जिसका उद्देश्य शोषक/उत्पीड़क 'पूँजीपतियों' व 'उद्योगपतियों' का हितसाधन है और इंनका देश के स्वाधीनता आंदोलन से किसी प्रकार का कोई सरोकार कभी भी नहीं रहा है न ही देश की जनता से । न ही इनको कोई अधिकार है कि वह स्वाधीनता आंदोलन की विरासत का खुद को वारिस बताएं। ऐसा करना सिर्फ गलत बयानी ही होगा।
1971 मे बांग्लादेश के स्वाधीनता आंदोलन को सफल समर्थन देकर इंदिराजी की लोकप्रियता बढ़ गई थी और उसी को भुनाते हुये मध्यावधी चुनाव करा दिये थे। प्रचंड बहुमत का दुरुपयोग करते हुये संविधान मे संशोधन करके लोकसभा का कार्यकाल 6 वर्ष कर दिया था और खुद इन्दिरा जी का राय बरेली का चुनाव हाई कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने पर देश मे 'आपात काल' थोप कर प्रभावशाली नेताओं को जेलों मे ठूंस दिया था जिनमे 'लोकनायक जय प्रकाश नारायण''भी शामिल थे। जनता के साथ-साथ सरकारी कर्मचारी/अधिकारी बहुत त्रस्त थे और खुफिया विभाग ने गुमराह करके 1977 मे उनसे मध्यवधी चुनाव करवा दिये जिसमे इन्दिरा जी खुद भी और जहां का प्रतिनिधितित्व राहुल कर रहे हैं वहाँ से संजय गांधी भी चुनाव हार गए थे।
1980 के मध्यवधी चुनावों मे राहुल की दादी साहिबा ने RSS से 'गुप्त समझौता ' करके सांप्रदायिक आधार पर बहुमत हासिल कर लिया था और पूर्व 'जनता सरकार' को परेशान करने हेतु अपने द्वारा खड़े किए गए और 'भस्मासुर' बने भिंडरा वाले का सैन्य कारवाई मे खात्मा करा दिया था। परिणाम स्वरूप अपने ही अंग रक्षकों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी जिसकी सहानुभूति प्राप्त कर उनके उत्तराधिकारी -राहुल के पिता राजीव गांधी ने तीन चौथाई बहुमत हासिल कर लिया था और पहले 'शाहबानों'को न्याय से वंचित करने हेतु 'मुस्लिम सांप्रदायिकता 'फिर राम मंदिर की आड़ मे 'हिन्दू सांप्रदायिकता' से समझौता करके विद्वेष भड़का कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पुरानी नीतियों को लागू कर दिया था । उनके कार्यकाल मे सरकार को कारपोरेट लाबी मे तब्दील कर दिया गया जो उनकी हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर मे प्रधानमंत्री बने पी वी नरसिंघा राव के वित्त मंत्री जो अब पी एम हैं के द्वारा और परिपुष्ट किया गया।
आज की राहुल कांग्रेस घोर जन-विरोधी एवं शोषक/उत्पीड़क शक्तियों का संरक्षक दल बन गई है।
वे कम्युनिस्ट जो प्रथम आम चुनावों के जरिये संसद मे 'मुख्य विपक्षी'दल थे और जिन्हों ने केरल मे विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार का गठन किया था जनता की नब्ज़ न पकड़ने के कारण पिछड़ गए हैं और अब राहुल जी उनको ही देश से उखाड़ फेंकने की दहाड़ लगा रहे हैं। मैं ढाई वर्षों से अपने ब्लाग के माध्यम ('क्रांतिस्वर'---http://krantiswar.blogspot.in)
से अपने विचारों मे जनता की नब्ज़ पर ध्यान रख कर चलने का निवेदन करता रहा हूँ जिसका संकीर्ण साम्यवादी लगातार विरोध करते रहे हैं। खुशी की बात है कि कभी साम्यवादी दल के प्रशिक्षक रहे डॉ मोहन श्रोत्रिय साहब ने भी आज ऐसे ही विचारों का समर्थन किया है।
Vijai RajBali Mathur shared Mohan Shrotriya's status.13 फरवरी,2013
किन्तु
'धर्म' की वास्तविक व्याख्या और 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' के विरुद्ध मेरे 'क्रांतिस्वर' मे अभियान को बामपंथी साथी पुराणपंथियो के स्वर मे स्वर मिला
कर विरोध करके उसी पाखंड को मजबूत कर रहे हैं,क्यों?
***इस ओर भी ध्यान दें***
"विकलांग श्रद्धा" के दौर से उबरे बिना बुनियादी समस्याओं पर लोक की लामबंदी एकदम नामुमकिन है. पौराणिक आख्यानों का लोक-चेतना पर कितना गहरा असर है यह बात इस तथ्य से ही स्पष्ट और सिद्ध हो जाती है कि रोज़मर्रा के जीने-मरने के सवालों पर संगठित होने को अनिच्छुक लोग, कितनी बड़ी संख्या में अपने खर्चे पर "परलोक सुधारने" के अनुष्ठानों से जा जुड़ते हैं. भीषण सर्दी और यात्रा की तमाम असुविधाओं को धता बताते हुए.
इस लोक-मनोविज्ञान का अध्ययन करने के साथ-इसे बदलने के समानांतर कार्यक्रमों को हाथ में लिए बगैर किसी अर्थवान सामाजिक बदलाव की बात बेमानी होगी. वामपंथियों को अपने एजेंडे पर इसे रखना होगा अन्यथा किसी भी सामाजिक बदलाव की लड़ाई के ये स्वाभाविक सहभागी अनंत काल तक ऐसी लड़ाइयों से अपनी दूरी बनाए रखेंगे. यह जूनून जो जान चली जाने की आंखों-देखी घटनाओं से भी कम नहीं होता, मनःस्थितियां बदल जाने पर एक बड़े सामाजिक प्रयोजन की पूर्ति में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है. चाहें तो इसे महज़ क़यास कहकर ख़ारिज भी कर सकते हैं, पर ध्यान रहे कि इह-लोक को सुधारने के किसी भी अभियान से इस विशाल जनशक्ति का बाहर रहना भी चिंताजनक तो है ही. करोड़ों लोगों के कुछ मायने तो होते ही हैं. नहीं?
-मोश्रो
"विकलांग श्रद्धा" के दौर से उबरे बिना बुनियादी समस्याओं पर लोक की लामबंदी एकदम नामुमकिन है. पौराणिक आख्यानों का लोक-चेतना पर कितना गहरा असर है यह बात इस तथ्य से ही स्पष्ट और सिद्ध हो जाती है कि रोज़मर्रा के जीने-मरने के सवालों पर संगठित होने को अनिच्छुक लोग, कितनी बड़ी संख्या में अपने खर्चे पर "परलोक सुधारने" के अनुष्ठानों से जा जुड़ते हैं. भीषण सर्दी और यात्रा की तमाम असुविधाओं को धता बताते हुए.
इस लोक-मनोविज्ञान का अध्ययन करने के साथ-इसे बदलने के समानांतर कार्यक्रमों को हाथ में लिए बगैर किसी अर्थवान सामाजिक बदलाव की बात बेमानी होगी. वामपंथियों को अपने एजेंडे पर इसे रखना होगा अन्यथा किसी भी सामाजिक बदलाव की लड़ाई के ये स्वाभाविक सहभागी अनंत काल तक ऐसी लड़ाइयों से अपनी दूरी बनाए रखेंगे. यह जूनून जो जान चली जाने की आंखों-देखी घटनाओं से भी कम नहीं होता, मनःस्थितियां बदल जाने पर एक बड़े सामाजिक प्रयोजन की पूर्ति में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है. चाहें तो इसे महज़ क़यास कहकर ख़ारिज भी कर सकते हैं, पर ध्यान रहे कि इह-लोक को सुधारने के किसी भी अभियान से इस विशाल जनशक्ति का बाहर रहना भी चिंताजनक तो है ही. करोड़ों लोगों के कुछ मायने तो होते ही हैं. नहीं?
-मोश्रो
- You, Manu Prakash Tyagi, Sanjog Walter and 2 others like this.
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
Tuesday, 7 February 2012
कम्युनिस्टों ने नही भुलाया गांवों को
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पर्यावरणविद अनिल प्रकाश जोशी साहब ने गवों की उपेक्षा की बात उठाई है। सी पी आई ने अपने घोषणा पत्र मे स्पष्ट रूप से 15 मुद्दों को केवल 'खेती और किसानों के लिए' ही रखा है। यदि बुद्धिजीवी गाँव वालों को समझा कर जाति- वाद से परे हट कर कम्युनिस्ट प्रत्याशियों को जितवाने मे मदद करें तो गाँव वालों को भी खुशी नसीब हो सकती है।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
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HINDUSTAN--07/02/2012 |
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
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