Wednesday 28 February 2018

संघ का नज़रिया जाति के पदानुक्रम को संरक्षण देता है ------ रोहित कौशिक

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 




इस साक्षात्कार से भी इस लेख की पुष्टि होती है : 



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 17 February 2018

ज़ोजिला का प्लेटिनम और अनुच्छेद 370 ------ विजय राजबली माथुर

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )



1981  में एक रात मुझे भी डल झील में 'शिकारा ' में गुजरना पड़ा , उस वक्त किराया रु 15/- था। शिकारा मालिक का व्यवहार वाकई काफी अच्छा था। 
कश्मीर वस्तुतः ' पर्यटन उद्योग ' पर निर्भर है इसलिए वहाँ के लोग मूलतः शान्तिप्रिय हैं। यू एस ए से प्रभावित जो अंतर्राष्ट्रीय शक्तियाँ वहाँ अशांति के लिए जिम्मेदार हैं उनका उद्देश्य कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र - द्रास में 'ज़ोजिला ' दर्रा में दबे हुये ' प्लेटिनम ' पर है। प्लेटिनम से यूरेनियम प्राप्त किया जाता है जो परमाणु ऊर्जा का स्त्रोत है। वैसे भी प्लेटिनम धातु स्वर्ण से भी अधिक मूल्यवान है। इसीलिए पाकिस्तान के माध्यम से कश्मीर को हड़पने की कोशिश की गई थी। यदि संविधान में अनुच्छेद 370 का प्राविधान न होता तो विदेशी शक्तियाँ उस क्षेत्र में भूमि क्रय कर इस प्लेटिनम को ले जातीं। श्रीनगर से लेह जाने वाले मार्ग में सुरंग - टनेल बनाने का प्रस्ताव प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के पास आया था । यदि यह सुरंग बन जाती तो एक ही दिन में सफर तय हो जाता। अभी रात्रि विश्राम कर्गिल में करना पड़ता है क्योंकि पर्यटकों को रात्रि में सेना सफर नहीं करने देती है। कनाडाई फार्म नाम - मात्र के शुल्क और जर्मन फार्म बिलकुल मुफ्त में टनेल बनाने को तैयार थीं। शर्त यह थी कि, ज़ोजिला की सुरंग खुदाई में निकलने वाला मलवा वे ले जाएँगे जिससे प्लेटिनम हासिल किया जा सके । किन्तु इन्दिरा गांधी मालवा देने को तैयार नहीं थीं बल्कि  पूरा खर्च देने को तैयार थीं। बिना मलवा हासिल किए वे फर्म्स काम करने को तैयार नहीं हुईं । 

जो लोग संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद 370 को हटाना चाहते हैं वे वस्तुतः विदेशी शक्तियों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं। देशहित को ध्यान में रखते हुये ही सरदार वल्लभ भाई पटेल और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 का प्रविधान करवाया था वरना महाराजा हरी सिंह तो यू एस ए / ब्रिटेन की चाल में फंस कर अलग रहने का ऐलान कर ही चुके थे। उनको हटा कर उनके पुत्र युवराज कर्ण सिंह को सदर - ए - रियासत बनाया गया था।
विदेशी शक्तियों की चालों को विफल करने हेतु भारत और पाकिस्तान में मित्रता व शांति परमावश्यक है जिससे कश्मीर में भी शांति बहाल होकर यहाँ के पर्यटन उद्योग को विस्तार व जनता को खुशहाली मिल सके। 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday 14 February 2018

न शिकवा है कोई - ‘भारतीय सिनेमा की वीनस’ मधुबाला को : जन्मदिवस 14 फरवरी

फोटो माध्यम : अभिषेक श्रीवास्तव 


Nupur Sharma showcases the mirth, pathos and sparkle that represented Hindi  : 


 
मधुबाला जब मात्र  नौ वर्ष  की ही थीं  तब उनके पिता  अताउल्लाह  साहब का सम्पूर्ण व्यवसाय  चौपट हो गया   एवं  एक दुर्घटना में में घर भी  फुंक गया था। दाने-दाने को मोहताज़ होने की कगार पर  उनका 13 सदस्यीय परिवार पहुंच गया था । अताउल्लाह साहब  की साख इतनी खराब हो गई कि कोई  उन्हें कोई काम तक देने को   तैयार नहीं था। मधुबाला 11 भाई-बहनों में पांचवें नंबर पर थीं जो  देखने में बेहद दिलकश, चंचल और खूबसूरत लगती थीं । किसी  हमदर्द की राय पर  अताउल्लाह  साहब  नौ  वर्षीय बालिका मधुबाला को स्टूडियो ले गये।  मधुबाला को फौरन काम मिल गया -  फिल्म  ‘बसंत’ (1942) में । उनको  मुमताज शांति की बेटी की भूमिका दी गई थी।   मुमताज जहां बेगम देहल्वी  बड़ी जल्दी बाल कलाकार के रूप में  बेबी मुमताज  नाम से मशहूर हो गईं।  1944 में ‘ज्वार भाटा’ की शूटिंग के दौरान प्रसिद्ध नायिका  देविका रानी ने उनको मुमताज से मधुबाला बना दिया। 

‘ज्वार भाटा’ के सेट पर ही  11 वर्षीय मधुबाला की  हीरो दिलीप कुमार से मुलाकात हुई थी।  दोनों की पुनः भेंट  1949 में ‘हर सिंगार’ के सेट पर हुई।1952 में ‘तराना’ को इनकी परफेक्ट लव कमेस्ट्री ने खासी कामयाबी दिलायी। फिर महबूब की ‘अमर’ (1954) की कामयाबी की वजह भी यही जोड़ी बनी। 

मधुबाला के पिता अतालुल्लाह खान  हर हाल  में मधु को दिलीप कुमार से दूर रखना चाहते थे।किन्तु  दिलीप  साहब के कहने पर के.आसिफ ने ‘मुगल-ए-आज़म’ की अनारकली के लिये मधु को साईन कर लिया। 
उनके  ही कहने पर बी.आर.चोपड़ा ने ‘नया दौर’ के लिये मधुबाला को साईन किया।किन्तु ग्वालियर शूटिंग के लिए न जाने से  मधुबाला को फिल्म से निकाल दिया और उनकी जगह वैजयंती माला को ले लिया ।

मधुबाला और दिलीप  साहब अपने-अपने कैरीयर में सफल  हो गये।इस दौरान ‘मुगल-ए-आज़म’ भी बनती रही। दोनों सेट पर मिलते। इस फिल्म में   एक ऐतिहासिक लव सीन भी फिल्माया गया जिसमें शहजादे दिलीप कुमार को एक परिंदे के पंख से अनारकली मधुबाला को प्यार करते हुए दिखाया गया है। बिना एक लफ़्ज बोले इतना पुरअसर लव सीन दोबारा क्रियेट नहीं किया जा सका है। इस फिल्म में मधुबाला ने अपनी खूबसूरती के अलावा अनारकली के किरदार में जान फूंकने के लिये अपना पूरा कौशल   लगा  दिया। ‘प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप के आहें भरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या...’ और ‘मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये...’ इन गानों में मधुबाला दिलीप कुमार को दिलीप कुमार से कहीं ज्यादा प्यार करती हुई दिखती है। सन 1960 में रिलीज़ हुई ‘मुगल-ए-आज़म’ सुपर-डुपर हिट हुई थी। 

 पहले 1954 में वासन की ‘बहुत दिन हुए’ की शूटिंग के दौरान मद्रास में मधु को खून की उल्टी हो चुकी थी। तब मधु को लंबे आराम और मुकम्मल चेक-अप की सलाह दी गयी थी। मगर मधु ने परवाह नहीं की थी। ‘मुगल-ए-आज़म’ की शूटिंग के दौरान भी मधु की तबीयत कई बार बिगड़ी थी। खासतौर पर उन सीन में जिसमें मधु को भारी-भारी लोहे की जंजीरों में जकड़ा हुआ दिखाया गया था। मगर सीन में जान फूंकने की गरज़ से मधु ने सब बर्दाश्त किया।

उन्होने इसके बाद  किशोर कुमार से शादी कर ली। किशोर के साथ मधु ने चलती का नाम गाड़ी, झुमरू, हाॅफ टिकट आदि कई हिट फिल्में की थीं।वस्तुतः यह किशोर साहब की दूसरी शादी थी। 
किशोर को भी मधु की बीमारी का जानकारी थी। मगर इसकी गंभीरता का ज्ञान उन्हें भी नहीं था। मर्ज़ बढ़ता देख किशोर मधु को चेक-अप के लिये लंदन ले गये। वहां  डाक्टरों ने बताया कि मधु के दिल में एक बड़ा सुराख है और बाकी जिंदगी दो-तीन साल है। 

मधु मायके आ गयी। किशोर इलाज का खर्च उठाते रहे। महीने दो महीने में एक-आध बार आकर मिल भी लेते। 
 23 फरवरी, 1969 को  इस जिंदगी से मधुबाला छुटकारा पा गईं । मधु की ख्वाहिश के मुताबिक उसके जिस्म के साथ-साथ उसकी उस पर्सनल डायरी को भी उसके साथ दफ़न कर दिया गया ।

मधुबाला ने लगभग  70 फिल्मों में काम किया जिनमें से  15  हिट रहीं ।  मुगले आज़म, हावड़ा ब्रिज, चलती का नाम गाड़ी, मिस्टर एंड मिसेज़ 55, जाली नोट, महल, तराना आदि फिल्में मधुबाला के प्रदर्शन का लोहा मनवाती हैं । उन्होने  दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, गुरूदत्त, प्रदीप कुमार, अशोक कुमार, किशोर कुमार, जयराज, भारत भूषण, सुनील दत्त, रहमान, शम्मीकपूर आदि के साथ फिल्मों में काम किया था । अमेरिका की मशहूर पत्रिका ‘थियेटर आर्टस’ द्वारा  अपने अगस्त, 1952 के अंक में मधुबाला को विशेष स्थान देने से  सम्पूर्ण  बालीवुड अवाक रह गया  था। इनके पूर्व  किसी भारतीय हीरोइन को विश्व प्रसिद्ध पत्रिका से ऐसा सम्मान नहीं मिला था। उनको ‘भारतीय सिनेमा की वीनस’ कहा जाता है लेकिन सन 2010 में उनकी कब्र को ध्वस्त कर दिया गया। 
 ------ ( अज्ञात लेखक ) 
*****************************************
फेसबुक कमेंट्स : 

Tuesday 13 February 2018

इंकलाब का शायर या मुहब्बत का ? ------ कौशल किशोर / तैमूर रहमान

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )






आज भारतीय उप - महाद्वीप के इंकलाबी शायर फैज़ अहमद फैज़ का जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए आज से करीब 33 साल पहले लिखा आलेख प्रस्तुत है। यह लेख फैज और बेदी की स्मृति में फरवरी 1985 में बाराबंकी में आयोजित समारोहमें विषय प्रवर्तन के रूप में पढ़ा गया था। उस समारोह में कैफी आजमी, वामिक जौनपुरी, शौकत आजमी, होश जौनपुरी जैसे शायर व कलाकार मौजूद थे।

इंकलाब का शायर या मुहब्बत का ?  : 

फ़ैज़ अहमद फै़ज़ (13 फरवरी 1911 - 20 नवम्बर 1984) के निधन से भारतीय उपमहाद्वीप ने एक ऐसे शायर को खो दिया जिसने शोषक शासक वर्ग की अंधकारमय संस्कृति के खिलाफ जन संस्कृति का झण्डा बुलन्द किया था। वे़ इस उपमहाद्वीप के ऐसे शायर रहे जो भाषा व देश की दीवारों को तोड़ते हुए अपनी शायरी से लोगों के दिलों में जगह बनाई। नई पीढ़ी का शायद ही कोई कवि-लेखक होगा जिसने फ़ैज़ से प्रेरणा न ग्रहण की हो। आज जहां भी जनता के संघर्ष चल रहे हैं, फ़ैज़ वहाँ मौजूद हैं - अपनी शायरी के द्वारा, नज़्मों व तरानें के द्वारा जनता की जबान पर। अपनी शायरी से उन्होंने हमारे अन्दर इंकलाब का अहसास पैदा किया तो वहीं मुहब्बत के चिराग भी रोशन किये। दुनिया फ़ैज़ को इंकलाब के शायर के रूप में जानती है लेकिन वे अपने को मुहब्बत का शायर कहते थे। इंकलाब और मुहब्बत का ऐसा मेल विरले ही कवियों में मिलता है। यही कारण है कि फ़ैज़ जैसा शायर मर कर भी नही मरता। वह हमारे दिलों में धड़कता है। वह उठे हुए हाथों और बढ़ते कदमों के साथ चलता है। वह हजार हजार चेहरों पर नई उम्मीद व नये विश्वास के साथ खिलता है और लोगों के खून में नये जोश की तरह जोर मारता है।

फ़ैज़ की सबसे बड़ी खूबी है - मानव-जीवन और जनता के संघर्षों से उनका गहरा लगाव। उनकी कविता इन्हीं संघर्षों से अपनी ऊर्जा, अपनी ताकत ग्रहण करती है। जाड़ों की सर्द रातों में सड़कों पर ठिठुरते हुए मजदूरों, भैसों की जगह ठेला खींचते हुए आदमियों, कूड़े की ढेर से निकाल कर अन्न खाते भूखों अर्थात शोषित-उत्पीडि़त जनता की आह, कराह, चीख व दर्द उनकी कविता में ऐसी आवाज बनकर आती है जो साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक दुनिया में असर डालती है। वह इतनी गहराई से आती है कि पत्थर पर खुदे शब्दों की तरह लोगों के दिलों पर अंकित हो जाती है। यह आवाज जहां शोषितों-उत्पीडि़तों को आंदोलित करती है, वहीं इस आवाज से शोषक-उत्पीड़क-तानाशाह थर्रा उठते हैं।

फ़ैज़ उर्दू कविता की उस परंपरा के कवि हैं जो मीर, गालिब, इकबाल, नज़ीर, चकबस्त, ज़ोश, फि़राक, मखदूम से होती हुई आगे बढ़ी है। यह परंपरा है, आवामी शायरी की परंपरा। उर्दू की वह शायरी जो माशूकों के लब व रुखसार ;चेहराद्ध, हिज्र व विसाल ;ज़ुदाई-मिलनद्ध, दरबार नवाजी, खुशामद और केवल कलात्मक कलाबाजियों तक सीमित रही है, इनसे अलग यह परंपरा आदमी और उसकी हालत, अवाम और उसकी जिन्दगी से रू ब रू होकर आगे बढ़ी है। फ़ैज़ इस परंपरा से यकायक नहीं जुड़ गये। उन्होंने अपनी शुरुआत रूमानी अन्दाज में की थी तथा ‘मुहब्बत के शायर’ के रूप में अपनी इमेज बनाई थी। उन दिनों वे लिखते हैं:
‘रात यूं दिल में तिरी खोई हुई याद आई
जैसे वीरानों में चुपके से बहार आ जाए
जैसे शहराओं में हौले से चले वादे-नसीम
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए

1930 के बाद वाले दशक के दौरान फैली भुखमरी, किसानों-मजदूरों के आंदोलन, गुलामी के विरुद्ध आजादी की तीव्र इच्छा आदि चीजों ने हिंदुस्तान को झकझोर रखा था। इनका नौजवान फ़ैज़ पर गहरा असर पड़ा। इन चीजों ने उनकी रुमानी सोच को नए नजरिये से लैस कर दिया। नजरिये में आया हुआ बदलाव शायरी में कुछ यूँ ढ़लता है:
‘पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 
लौट आती है इधर को भी नजर क्या कीजे 
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे 
और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवा 
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’

इस दौर में फ़ैज़ यह भी कहते हैं - ‘अब मैं दिल बेचता हूं और जान खरीदता हूं’। फ़ैज की शायरी में आया यह बदलाव ‘नक्शे फरियादी’ के दूसरे भाग में साफ दिखता है। हालत का बयान कुछ इस कदर होता है:

‘जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पर जंजीरें हैं 
फिक्र महबूस ;बन्दीद्ध है, गुफ्तार पे ता’जीरे ;प्रतिबंधद्ध हैं’

साथ ही यह विश्वास भी झलकता है - ये स्थितियां बदलेंगी, ये हालात बदलेंगे। शायर कहता है:
‘चन्द रोज और मिरी जान ! फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद ;पूर्वजद्ध की मीरास ;धरोहरद्ध है माजूर हैं हम 
...........लेकिन अब जुल्म की मी’याद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र, कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।’

फ़ैज़ का यह विश्वास समय के साथ और मजबूत होता गया। कविता का आयाम व्यापक होता गया। कविता आगे बढ़ती रही। यह जनजीवन और उसके संघर्ष के और करीब आती गई। इस दौरान न सिर्फ फ़ैज़ की कविता के कथ्य में बदलाव आया, बल्कि उनकी भाषा भी बदलती गयी। जहां पहले उनकी कविता पर अरबी और फारसी का प्रभाव नजर आता था, वहीं बाद में उनकी कविता जन मानस की भाषा, अपनी जमीन की भाषा के करीब पहंुचती गई है। ऐसे बहुत कम रचनाकार हुए हैं, जिनमें कथ्य और उसकी कलात्मकता के बीच ऐसा सुन्दर संतुलन दिखाई पड़ता है। फ़ैज़ की यह चीज तमाम कवियों-लेखकों के लिए अनुकरणीय है, क्योंकि इस चीज की कमी जहां एक तरफ नारेबाजी का कारण बनती है, वहीं कलावाद का खतरा भी उत्पन्न करती हैं।
फ़ैज़ की खासियत उनकी निर्भीकता, जागरुकता और राजनीतिक सजगता है। फ़ैज़ ने बताया कि एक कवि-लेखक को राजनीतिक रूप से सजग होना चाहिए तथा हरेक स्थिति का सामना करने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। अपनी निर्भीकता की वजह ही उन्हें पाकिस्तान के फौजी शासकों का निशाना बनना पड़ा। दो बार उन्हें गिरफ्तार किया गया। जेलों में रखा गया। रावलपिंडी षडयंत्र केस में फँसाया गया। 1950 के बाद चार बरस उन्होंने जेल में गुजारे। शासकों का यह उत्पीड़न उन्हें तोड़ नहीं सका, बल्कि इस उत्पीड़न ने उनकी चेतना, उनके अहसास तथा उनके अनुभव को और गहरा किया। फ़ैज़ ने महसूस किया कि जो व्यवस्था जनता को लूटती-खसोटती है, उस पर दमन-उत्पीड़न ढ़ाती है, वही व्यवस्था यथास्थिति को बरकरार रखने के लिए दमन-हत्या का सहारा लेती है, उन मूल्यों, विचारों तथा संस्कृति को प्रचारित-प्रसारित करती है जो उसकी सत्ता को बनाए रखने के लिए मददगार हो। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सत्ता संस्कृति के खिलाफ, कला व साहित्य के क्षेत्र में बदलाव के विचारों व संस्कृति को आगे बढ़ाया जाय। यह काम फैज की शायरी करती है। वह एक देश, एक समय, एक स्थान की सीमा का अतिक्रमण करती है और न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की जनता की आवाज बन जाती है बल्कि अपने भीतर तीसरी दुनिया के उत्पीडि़त देशों व शोषित जनता के संघर्षों को समो लेती है।
फ़ैज़ अपनी शायरी के द्वारा एक ऐसे समाज का सपना देखते हैं, जिसमें न कोई अमीर हो न गरीब, न शोषक हो न शोषित, बल्कि सभी बराबर हों, सबसे बढ़कर वे इन्सान हों। उनके बीच जाति, धर्म, संप्रदाय, देश का बंधन न हो। इन सबकी एक ही भाषा हो, वह भाषा हो प्रेम की, मोहब्बत की। इस तरह फ़ैज़ समाजवादी विचारधारा व सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के पक्षधर कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे कहते हैं:
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मागेंगे
इक खेत नही, इक देश नहीं, सारी दुनिया मागेंगे 

और भी:

जब सफ सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जयेंगे
तब हर देश के झण्डे पर, इक लाल सितारा मागेंगे

फ़ैज़ मानते हैं कि दुनिया में झगड़ों व फसाद की जड़ साम्राज्यवाद-पूंजीवाद है जो अपने निहित हितों के लिए सारी दुनिया और समाज को बांट रखा है। इसीलिए फ़ैज़ उन लोगों को ललकारते हैं जिन्हें साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था ने खाक कर दिया है:

ए खाकनशीनों उठ बैठो, वो वक्त करीब आ पहुंचा है
जब तख्त गिराए जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे।

वे आगे कहते हैं:

ए जुल्म के मातो लब खोलो, चुप रहने वालों चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जायेंगे। 

फ़ैज़ की कविताओं पर बात करते समय उनके उस पक्ष पर भी, जिसमें उदासी व धीमापन है, विचार करना प्रासंगिक होगा। यह उदासी व धीमापन फ़ैज़ की उन रचनाओं में उभरता है जो उन्होंने जेल की चहारदीवारी के अन्दर लिखी थीं। एक कवि जो घुटन भरे माहौल में जेल की सींकचों के भीतर कैद है, उदास हो सकता है। यह मानवीय गुण है। सवाल है कि क्या कवि उदास होकर निष्क्रिय हो जाता है ? क्या धीमा होकर समझौता परस्त हो जाता है ? लेकिन फ़ैज़ जैसा कवि हमेशा जन शक्ति के जागरण के विश्वास के साथ अपनी उदासी से आत्म संघर्ष करता है और यह आत्म संघर्ष फ़ैज़ की कविताओं में भी दिखाई देता है। फ़ैज़ उन चीजों से, जो मानव को कमजोर करती हैं, संघर्ष करते हुए जिस तरह सामने आते है, वह उनकी महानता का परिचायक है। वे कहते हैं -
‘हम परवरिशे-लौहो कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।’

या और भी:-
‘मता-ए-लौह-औ कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने
जबाँ पे मुहर लगी है तो क्या रख दी हैं
हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबाँ मैंने’

इन पंक्तियों में एक कवि के रचना कर्म की सोद्देश्यता झलकती है।
इस तरह फ़ैज़ की संपूर्ण रचना या़त्रा पर गौर करें तो पाते हैं कि उनकी यह यात्रा सोद्देश्य रचना कर्म का बेहतरीन उदाहरण है। मानव जीवन तथा जन संघर्षों से भावनात्मक लगाव तथा गहरा जुड़ाव साथ ही इन्हें अभिव्यक्त करने की जबरदस्त कलात्मक क्षमता - यही चीज फ़ैज़ को महान बनाती है। फ़ैज़ अपनी रचना-यात्रा के द्वारा इस बात को सामने लाते हैं कि कला, साहित्य व संस्कृति का मुख्य श्रोत जनता का जीवन और संघर्ष है। इस जीवन का वैविध्य, इसकी महान सम्पदा ही कला, साहित्य व संस्कृति का आधार है, उसका उद्गम स्थल।
फ़ैज़ का निधन एक ऐसे समय में हुआ है, जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। आज इस महाद्वीप में जनता का संघर्ष जैसे-जैसे तेज हो रहा है, वैसे-वैसे इन संघर्षों से अनुप्राणित एकताबद्ध जन सांस्कृतिक आंदोलन भी उठ खड़ा हो रहा है। फ़ैज़्ा इस आंदोलन की अग्रणी कतार में शामिल रहे हैं, इसलिए शासक वर्ग के हमले का निशाना भी बने। आज हिन्दुस्तान का शासक वर्ग उस जमीन को ही नष्ट-भ्रष्ट कर देने में लगा है जिस पर सांस्कृतिक व कौमी एकता की बुनियाद खड़ी है। वह भाषा विवाद, हिन्दी-उर्दू विवाद, सांम्प्रदायिक उन्माद को फैलाकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का अनुसरण कर रहा है। उन घातक मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित कर रहा है, जिनके खिलाफ फ़ैज़्ा ने सारी जिन्दगी संघर्ष किया। आज उर्दू विरोधी माहौल तैयार किया जा रहा है। उसे न सिर्फ एक संप्रदाय विशेष के साथ जोड़कर देखा जा रहा है बल्कि उसे देश विभाजन की भाषा बताया जा रहा है। सरकार की नीतियों का ही नतीजा है कि उर्दू आज जन सामान्य से दूर होती गई है। दूसरी तरफ हिन्दुत्व को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। हम ऐसे में फ़ैज़ की याद को तभी जीवित रख सकते हैं जब हिन्दुत्व की इस साजिश के खिलाफ अपने संघर्ष को केन्द्रित करें और एकता की उस जमीन को पुख्ता करें जिस पर हमारी कौमी जिन्दगी का सारा दारोमदार है। हमारा दायित्व है कि भेद पैदा करने वाले कारणों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए उन तत्वों को सामने लाया जाय जिनसे एकता की जमीन मजबूत होती है क्योंकि इस जमीन के पुख्ता होने पर ही इन्सानी हक और जनता की रोजी, रोटी व जनवाद की लड़ाई आगे बढ़ सकती है। फ़ैज़ ताउम्र इसी एकता, इंसानी हक और बेहतर व सुन्दर समाज के लिए संघर्ष करते रहे।

मैने शुरू में कहा कि फ़ैज़ ने ‘मुहब्बत के शायर’ के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। इस नजरिये से हम उनकी पूरी कविता यात्रा पर गौर करें तो पायेंगे कि फ़ैज़ का यह रूप अर्थात मुहब्बत के एक शायर का रूप समय के साथ निखरता गया है तथा उनके इस रूप में और व्यापकता व गहराई आती गई है। शुरुआती दौर में जहां उनका अन्दाज रूमानी था, बाद में समय के साथ उनका नजरिया वैज्ञानिक होता गया है। जहाँ पहले शायर हुस्न-ओ-इश्क की मदहोशियों में डूबता है, वहीं बाद में सामाजिक राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा से भरी उस दरिया में डूबता है, जिस दरिया के झूम उठने से बदलाव का सैलाब फूट पड़ता है। जहाँ पहले माशूक के लिए चाहत है, समय के साथ यह चाहत शोषित पीडि़त इन्सान के असीम प्यार में बदल जाती है। इसी अथाह प्यार का कारण है कि दुनिया में जहां कहीं दमन-उत्पीड़न की घटनाएं घटती हैं, फ़ैज़ इनसे अप्रभावित नहीं रह पाते हैं। वे अपनी कविता से वहाँ तुरन्त पहुँचते हैं। जब ईरान में छात्रों को मौत के अंधेरे कुएँ में धकेला गया, जब साम्राज्यवादियों द्वारा फिलस्तीनियों की आजादी पर प्रहार किया गया, जब बेरूत में भयानक नर संहार हुआ - फै़ज़ ने इनका डटकर विरोध किया तथा इन्हें केन्द्रित कर कविताएँ लिखीं। इनकी कविताओं में उनके प्रेम का उमड़ता हुआ जज़्बा तथा उनकी घृणा का विस्फोट देखते ही बनता है। जनता के इसी अथाह प्यार के कारण ही फ़ैज़ अपने को ‘मोहब्बत का शायर’ कहते थे, जब कि सारी दुनिया उन्हें इंकलाब के शायर के रूप में जानती है। दरअसल, फ़ैज़ के मोहब्बत के दायरे में सारी दुनिया समा जाती है। उनका इंकलाब मुहब्बत से अलग नहीं, बल्कि उसी की जमीन पर खड़ा है। उनकी कविता में मुहब्बत नये अर्थ, नये संदर्भ में सामने आती है जिसमें व्यापकता व गहराई है।
(फरवरी 1985)

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1674245489307399&set=a.135683056496991.27535.100001658931800&type=3&permPage=1


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday 12 February 2018

नारी उत्पीड़न : नारियों की जुबानी

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 



    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 10 February 2018

पूरा चिकित्सा तंत्र धनिकों के वास्ते है ------ नवीन जोशी

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 






360 Of The Week: Inside A Government Hospital In Delhi

The Wire

8.8K views
18 hours ago ( 09-02-2018 ) 

We take you inside a premier hospital in New Delhi, LNJP Hospital, where each day, thousands of people stream in from across

नवीन जोशी  जी के निष्कर्षों की पुष्टि द वायर के इस साक्षात्कार से भी होती है जो ' लोकनायक जयप्रकाश हास्पिटल ' में इलाज करा रहे मरीजों से लिया गया है  :






   संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday 9 February 2018

दुनिया के राजनयिक इतिहास में शिमला समझौते का एक महत्व है ------ शेष नारायण सिंह

इस समझौते का मुख्य उद्देश्य इलाके में शान्ति स्थापित करना था लेकिन १९७१ की लड़ाई से उपजे मामलों को हल करने के अलावा इस से कुछ ख़ास हासिल नहीं किया जा सका . भुट्टो को भी फौज़ ने सत्ता से हटा दिया और इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा कर देश की जनता के सामने अपना सब कुछ गंवा दिया और १९७७ का चुनाव हार गयीं. 
बाद में बहुत दिनों तक भारत की ओर से यह शिकायत की जाती रही कि पाकिस्तान शिमला समझौते को नहीं मान रहा है लेकिन पाकिस्तान ने कभी परवाह नहीं की. शीतयुद्ध का ज़माना था और पाकिस्तान अमरीका का ख़ास कृपा पात्र था . . लेकिन दुनिया के राजनयिक इतिहास में शिमला समझौते का एक महत्व है . कांग्रेस के खिलाफ संसद में भाषण करते सत्ता पक्ष को ध्यान रखना पडेगा कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने देश को बहुत ही ऊंचे मुकाम तक पंहुचाया था .


Shesh Narain Singh
3 hrsNoida 09-02-2018 


शिमला समझौता इंदिरा गांधी की जीत और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की हार का दस्तावेज़ है

शेष नारायण सिंह

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाये गए धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिमला समझौते का भी ज़िक्र किया . उनके मुंह से शायद निकल गया कि समझौता इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो के बीच हुआ था . यह स्लिप आफ टंग का नतीजा है .वास्तव में समझौता इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुआ था. लेकिन यह शिमला समझौते के बारे में जानकारी ताज़ा कर लेने का अवसर है .बंगलादेश के संस्थापक ,शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के मूल निवासी लियाक़त अली देश के प्रधान मंत्री थे .उनको पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,और उन्हें मौत के घाट उतार दिया. उसके बाद से ही वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया. बांग्लादेश के जन्म के समय पाकिस्तान के शासक जनरल याह्या खां थे .ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याह्या खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझ रखा था . मानसिक रूप से कुंद ,याह्या खां किसी न किसी की सलाह पर ही काम करते थे . कभी प्रसिद्ध गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की बात मानते थे . सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याह्या खां से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया जाना ऐसा ही फैसला था .पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी

बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज अत्याचार कर रही थी ..उसी अत्याचार ने बंगलादेश के गठन की प्रक्रिया को तेज़ किया था . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का बहुत बड़ा योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता.बंगलादेश की स्थापना में भारत के सहयोग के बाद भारत और पाकिस्तान में रिश्ते बहुत बिगड़ गए थे .पाकिस्तान पराजित मुल्क था . पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के खिलाफ पाकिस्तान में माहौल बन गया था . अपने देश में मुंह छुपाने के और अपमान से बचने के लिए उनको भारत से कुछ मदद चाहिए थी . उसी पृष्ठभूमि में शिमला समझौता हुआ था .

शिमला समझौता भारतीय कूटनीति की बहुत बड़ी सफलता है . बंगलादेश की धरती पर बलूचिस्तान के बूचर , टिक्का खां की रहनुमाई में बलात्कार लूट और क़त्ल कर रही पाकिस्तानी सेना को भारतीय सेना के सहयोग से मुक्ति बाहिनी ने पराजित किया था. पाकिस्तानी राष्ट्रपति ,याह्या खां को हटाकर उनके विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अपने देश की सत्ता हथिया चुके थे. अपने देश वासियों को उन्होंने मुगालते में रखा था कि उनकी सेना भारत और बंगलादेश की साझी ताक़त पर भारी पड़ेगी और बार बार डींग मारते रहते थे कि वे भारत से एक हज़ार साल तक युद्ध कर सकते थे लेकिन पाकिस्तानी फौज के करीब १ लाख सैनिकों ने भारत के पूर्वी कमान के सामने आत्म समर्पण कर दिया था. आल इण्डिया रेडियो पर रोज़ पकडे गए पाकिस्तानी सैनिकों की आवाज़ में " हम खैरियत से हैं " कार्यक्रम के तहत प्रसारण किया जाता था . किसी भी सेना के लिए इस से बड़ा अपमान क्या हो सकता था कि उसके सिपाही युद्धबंदी हों और रोज़ पूरे पाकिस्तान में लोग जानें कि उनके देश के करीब १ लाख सैनिक भारत के कब्जे में हैं . शिमला समझौता इसी दौर में हुआ था. पाकिस्तान सरकार के प्रतिनिधि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो थे , उनके साथ उनकी बेटी , बेनजीर भुट्टो भी आई थीं और अखबारों में उन पर खासी चर्चा होती थी. उन दिनों वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय थीं. उनकी उम्र उस वक़्त यही बीस एक साल रही होगी .उस समझौते के मुख्य बिन्दुओं को याद कर लेना ज़रूरी है जिस से कि आने वाली पीढियां बाखबर रहें .

समझौते के बिंदु
१. भारत और पाकिस्तान की सरकारें इस बात पर सहमत हैं कि दोनों देश संघर्ष और झगड़े को समाप्त कर दें जिसकी वजह से अब तक दोनों देशों के बीच में रिश्ते खराब रहे हैं . दोनों देश आगे से ऐसा काम करेगें जिस से दोस्ताना और भाईचारे के रिश्ते कायम हो सकें और उप महाद्वीप में स्थायी शान्ति की स्थापना की जा सके.इसके बाद दोनों देश अपनी ऊर्जा और अपने संसाधनों का इस्तेमाल अपनी जनता के कल्याण के लिए कर सकेगें . इस मकसद को हासिल करने के लिए भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच एक समझौता हुआ जिसकी शर्तें निम्न लिखित हैं . 
क . यह कि दोनों देशों के बीच को संबंधों को संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के हिसाब से चलाया जाएगा.

ख ..यह कि दोनों देशों ने तय किया है कि अपने मतभेदों को शान्ति पूर्ण तरीकों से आपसी बातचीत के ज़रिये ही हल करेगें या ऐसे तरीकों से हल करेगें जिन पर दोनों देश सहमत हों.दोनों देशों के बीच में जो ऐसी समस्याएं हैं जिनका अभे एहल नहीं निकला है , उनके अंतिम समाधान के पहले दोनों देश ऐसा कुछ नहीं करेगें जिस से कि आपसी रिश्तों में और खराबी आये और शान्ति पूर्ण माहौल बनाए रखने में दिक्क़त हो.

ग़ . यह कि दोनों देशों के बीच सुलह,अच्छे पड़ोसी कीतरह आचरण और टिकाऊ शान्ति के लिए ज़रूरी है कि दोनों देश शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता और संप्रभुता का सम्मान और एक दूसरे के आतंरिक मामलों में दखलंदाजी न की जाए और रिश्तों की बुनियाद बराबरी और आपसी लाभ की समझ पर आधारित हो .

घ यह कि पिछले २५ वर्षों से दोनों देशों के बीच जिन कारणों से रिश्ते खराब रहे हैं , उनके बुनियादी सिद्धातों और कारणों को शान्तिपूर्ण तरीकों से हल किया जाए.

च यह कि दोनों एक दूसरे की राष्ट्रीय एकता,क्षेत्रीय अखंडता ,राजनीतिक स्वतंत्रता संप्रभुता का बराबरी के आधार पर सम्मान करेगें.

छ यह कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के आधार पर दोनों एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ न तो बल का प्रयोग करेगें और न ही धमकी देगें

२. दोनों देशों की सरकारे अपनी शक्ति का प्रयोग करके एक दूसरे के खिलाफ कुप्रचार पर रोक लगाएगी .दोनों देश ऐसी सूचना के प्रचार प्रसार को बढ़ावा देगें जिस से दोनों देशों के बीच दोस्ती के रिश्ते बनने में मदद मिले

३.दोनों देशों के बीच क़दम बा क़दम रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए निम्न लिखित बातों पर सहमति हुई.

क. ऐसे कदम उठाये जायेगें जिस से संचार , डाक,तार समुद्र ज़मीन के रास्ते संपर्क बहाल हो सके. इसमें एक दूसरे की सीमा के ऊपर से विमानों की आवाजाही भी शामिल है . 
ख. एक दूसरे के नागरिकों की यात्रा सुविधा को बढाने के लिए क़दम उठाये जायेगें. 
ग़.जहां तक संभव हो उन क्षेत्रों में व्यापार शुरू किया जायेगा जिसके बारे में सहमति हो चुकी है . 
घ..विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आदान प्रादान को प्रोत्साहित किया जाएगा. . इस सन्दर्भ में दोनों देशों के प्रतिनिधि मंडल समय समय पर मिला करेगें और ज़रूरी तफसील पर काम होगा.

४.टिकाऊ शान्ति स्थापित करने की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए दोनों सरकारें निम्नलिखित बातों पर सहमत हुईं.

क..भारतीय और पाकिस्तानी सेनायें अंतर राष्ट्रीय सीमा में अपनी तरफ तक वापस चली जायेगीं. 
ख..जम्मू और कश्मीर में जहां १७ दिसंबर १९७१ के दिन सीज फायर हुआ था , दोनों देश उसी को लाइन ऑफ़ कंट्रोल के रूप में स्वीकार करेगें . लेकिन इस से कोई भी देश अपने अधिकार को तर्क नहीं कर रहा है . कोई भी देश इस सीमा को आपसी मतभेद या कानूनी व्याख्या के मद्दे-नज़र बदलने की कोशिश नहीं करेगा. . लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर किसी तरह की ताक़त का न तो इस्तेमाल होगा और न ही धमकी दी जायेगी.
ग़ ..सेनाओं की वापसी का काम इस समझौते के लागू होने पर शुरू होगा और ३० दिन में पूरा कर लिया जाएगा.

५.यह समझौता दोनों देशों के संविधान के अनुसार उनके देशों में लागू संविधान के अनुसार मंज़ूर किया जाएगा . उसके बाद ही इसे लागू माना जाएगा.

६. दोनों सरकारें इस बात पर सहमत हैं दोनों ही सरकारों के मुखिया फिर मिलेगें . इस बीच दोनों सरकारों के प्रतिनिधि मिलकर यह सुनिश्चित करेगें कि टिकाऊ शान्ति स्थापित करने और रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए क्या तरीके अपनाए जाएँ . इसमें युद्ध बंदियों सम्बन्धी मुद्ददे, जम्मू-कश्मीर के स्थायी समझौते की बात और फिर से कूट नीतिक समबन्धों की बहाली शामिल है .

इस समझौते का मुख्य उद्देश्य इलाके में शान्ति स्थापित करना था लेकिन १९७१ की लड़ाई से उपजे मामलों को हल करने के अलावा इस से कुछ ख़ास हासिल नहीं किया जा सका . भुट्टो को भी फौज़ ने सत्ता से हटा दिया और इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा कर देश की जनता के सामने अपना सब कुछ गंवा दिया और १९७७ का चुनाव हार गयीं. 
बाद में बहुत दिनों तक भारत की ओर से यह शिकायत की जाती रही कि पाकिस्तान शिमला समझौते को नहीं मान रहा है लेकिन पाकिस्तान ने कभी परवाह नहीं की. शीतयुद्ध का ज़माना था और पाकिस्तान अमरीका का ख़ास कृपा पात्र था . . लेकिन दुनिया के राजनयिक इतिहास में शिमला समझौते का एक महत्व है . कांग्रेस के खिलाफ संसद में भाषण करते सत्ता पक्ष को ध्यान रखना पडेगा कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने देश को बहुत ही ऊंचे मुकाम तक पंहुचाया था .

Thursday 8 February 2018

सरकारी हस्तक्षेप की अति और चिकत्सा क्षेत्र में निजीकरन को बढ़ावा

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )









   संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday 6 February 2018

गंगा- जल गंधक के समिश्रण से स्वास्थ्यवर्द्धक था ------ विजय राजबली माथुर

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )  



वैज्ञानिक खूब रिसर्च करें यह अच्छी बात है लेकिन यह भी ध्यान रखें तो और भी अच्छी बात होगी कि, औषद्धीय पौधों या जड़ी - बूटियों का समिश्रण नहीं है गंगा जल में। वस्तुतः आज जिस स्थान पर बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण किया गया है वह स्थान 'गंधक' -SULFUR के पहाड़ों का है और गंगा की एक धारा जब उस से प्रवाहित होती हुई आती है तब उसका जल बहुत गरम होता है जो कि, दूसरी धारा से मिल कर सम हो जाता है। 

गंगा - जल में इस गंधक- सल्फर के मिले होने के कारण कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और उसमें लार्वा पनप नहीं सकते। इसी कारण गंगा - जल शुद्ध रहता था। किन्तु अब हरिद्वार के बाद गंगा में कारखानों का अम्ल व नालों का मल  मिलने के कारण गंगा की पवित्रता केवल नाम में रह गई है उसका जल सिर्फ हरिद्वार तक ही शुद्ध रह गया है। 
जब औद्योगीकरण नहीं हुआ था तब तक गंगा - जल में उपलब्ध गंधक इतना क्षमतावान होता था कि, इंसान को उसमें स्नान करने से स्वस्थ रख सके उससे रोग उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं था। अब आजकल कानपुर से आगे गंगा - जल इतना अधिक प्रदूषित है कि, रोगी भी बना सकता  है। 
सरकारी स्वच्छता अभियान से इलाहाबाद से आगे कोलकाता तक बड़े जहाज चल सकेंगे और व्यापारियों का माल सस्ते परिवहन से आ - जा सकेगा किन्तु मानव - स्वस्थ्य हेतु वह गंगा - जल हितकर नहीं होगा बल्कि और अधिक प्रदूषित हो जाएगा । 

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday 4 February 2018

कासगंज के झरोखों से

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )  







( सेवा नियमावली के कारण भले ही वर्तमान अधिकारी अपने - अपने फेसबुक पोस्ट्स डिलीट करके माफी मांग लें किन्तु रिटायर्ड  IG साहब ने तो सच्चाई बयान कर  ही दी है ) : 

 



  संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 3 February 2018

अपने प्रोडक्ट का प्रचार आप खुद करें , इससे निकृष्ट बाजरवाद और क्या होगा / --- संजय कुन्दन

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )




*********************************************************************
Facebook Comments : 



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday 1 February 2018

कयास कासगंज की चिंगारी से ------ विजय राजबली माथुर

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )



49 वर्ष पूर्व जब मेरठ कालेज, मेरठ में बी ए का छात्र था तब अर्थशास्त्र के हमारे एक प्रोफेसर आनंद स्वरूप गर्ग साहब  ( जिनकी लिखी पुस्तकें कोर्स में भी पढ़ाई जाती थीं और जो खुद स्टील चादर से कीलें बनाने के व्यवसाय से भी जुड़े हुये थे )इकानमिक्स की पढ़ाई को स्थानीय उदाहरणों से समझाया करते थे। उनका साफ - साफ कहना था कि , जितने भी सांप्रदायिक दंगे होते हैं उनमें धार्मिक कट्टरता को ढूंढा जाता है जबकि वे कराये जाते हैं विशुद्ध आर्थिक आधार पर । उनके अनुसार भारत  - पाक का विभाजन भी धार्मिक आधार पर नहीं हुआ था बल्कि ब्रिटेन और यू एस ए के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए हुआ था जिसके शिकार भारत और पाकिस्तान के नागरिक बनाए गए थे। 

वह मेरठ में हुये पुराने दंगों का उल्लेख कर बताते थे कि, किस प्रकार हिन्दू व्यापारियों ने मुस्लिम व्यापारियों को उजाड़ कर उनके व्यवसाय पर कब्जा जमा लिया था। प्रोफेसर गर्ग बताया करते थे कि , पाकिस्तान का इस्तेमाल यूरोप और यू एस ए के व्यापार का संरक्षण करने के लिए हो रहा है और अशिक्षा, अज्ञानता के कारण वहाँ की जनता शासकों के मंसूबों को नहीं भाँप पाती है और सत्ता द्वारा कुचली जाती है। भारत में बहुसंख्यक व्यापारी वर्ग अल्पसंख्यक वर्ग के व्यापारियों का व्यवसाय छीनने के लिए ही सांप्रदायिकता का सहारा लेता है । 

आज जब कासगंज हिंसा पर द वायर द्वारा जारी ग्राउंड रिपोर्ट का यह वीडियो सुना और इन युवा पत्रकारों की वाणी द्वारा उन बातों का उल्लेख पाया जिनको प्रोफेसर आनंद स्वरूप गर्ग साहब के मुख से अपनी पढ़ाई के दौरान सुना करता था तब  यह उनके आंकलन का पुष्टिकरण ही लगा। 

 


संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश