Thursday 31 July 2014

दो रास्ते वाली मुमताज़ की कोई दूसरी मिसाल नहीं है---संजोग वाल्टर

जन्मदिन पर विशेष -


साभार :
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मुमताज़ हिंदी फ़िल्में का वो नाम है जिसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं है मामूली रोल से शुरुआत और फिर अपनी मेंहनत और ईमानदारी की वजह से टाप पर पहुँचने की कोई दूसरी मिसाल नहीं है,मुमताज़ ( 31 जुलाई 1947, बॉम्बे ) का नाम ज़ेहन में आता है तो याद आती है वो फ़िल्में जिनमें उन्होंने extra का रोल किया था मुझे जीने दो (1963 ) में उनके हिस्से में सम्वाद था माँ भैया आये है,उनका गहरा दाग (1963 ) में राजेन्द्र कुमार की बहन का रोल,मेरे सनम (1965) में वैम्प का किरदार "यह है रेशमी जुल्फों का अँधेरा" यह गाना तो आज भी मशहूर है मुमताज़ ने जम कर दोस्ती भी निभाई,फिरोज खान जब 1970 में अपराध से निर्माता बने तो मुमताज़ ने हीरो प्रधान फिल्म में काम किया और फ़िरोज़ खान के कहने पर बिकनी भी पहनी,अपनी बेटी नताशा की शादी फिरोज खान के बेटे फरदीन खान से कर अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दिया,जीतेन्द्र की फिल्म हमजोली में एक आइटम सीन  किया टिक टिक मेरा दिल बोले देव साहब के कहने पर फिल्म हरे रामा हरे कृष्ण भी इस फिल्म में मुमताज़ सिर्फ नाम की हेरोइन थी,पूरी फिल्म जीनत अमान के इर्द गिर्द थी,तेरे मेरे सपने (1971), खिलौना (1970) मुमताज़ की वो चुनिन्दा फ़िल्में जिनमें उन्होने जान डाल थी खिलौना के लिए Filmfare Best Movie Award.के साथ Filmfare Best Actress Award,भी हासिल किया था,मुमताज़ के वालिद-वालिदा का नाम था अब्दुल सलीम अस्करी- शादी हबीब आगा.मुझे जीने दो (1963 ) में दिखी एक छोटे से किरदार,इस दौर में उनकी जोड़ी बनी दारा सिंह के साथ  इस जोड़ी की 16 फ़िल्में आई थी बौक्सर, सेमसन,टार्ज़न,किंग कोंग, फौलाद ,वीर भीमसेन , हर्क्यूलिस Tarzan Comes to Delhi, Sikandar E Azam, Rustom-E-Hind, Raaka, Boxer, Daku Mangal सिंह,तब दारा सिंह को मिलते ४.५ लाख रुय्पे एक फिल्म के मुमताज़ को २.५ लाख रूपये,मुमताज़ बी ग्रेड की फिल्मों में हेरोइन बन कर आ रही थी तो ऐ ग्रेड की फिल्मों में छोटे छोटे रोल कर रही थी पत्थर के सनम इसकी मिसाल है,राम और श्याम (1967). में उन्होंने दिलीप कुमार के साथ काम किया जो 1967 की टॉप हिट फिल्म थी शर्मीला टैगोर के साथ सावन की घटा (1966 ), यह रात फिर न आएगी (1966) मेरे हमदम मेरे दोस्त (1968) .राजेश खन्ना के साथ दो रास्ते (1969) और बंधन के बाद इस जोड़ी ने आठ फ़िल्में की. सच्चा झूठा (1970 ) में शशी कपूर ने उनके साथ काम करने से मना कर दिया था,(हीरो राजेश खन्ना) 1974 की सुपर हिट फिल्म "चोर मचाये सर शोर" शशी कपूर की यह कम बैक फिल्म थी,मुमताज़ ने यह जानते हुए भी इस फिल्म के हीरो शशी है काम करने से मना नहीं किया,मुमताज़ ने करीब 108 फिल्मों में काम किया था,धर्मेन्द्र,संजीव कुमार,जेतेंद्र सुनील दत्त,फिरोज खान,बिस्वजीत,देव आन्नद,अमिताभ बच्चन के साथ भी काम किया 1969-1975  के बीच उनकी और राजेश खन्ना की जोड़ी ने कई हिट फ़िल्में दी.राजेश खन्ना के साथ उनकी कमाल की जुगल बंदी थी.१९७४ में जब मुमताज़ अपने करियर की उंचाई पर थी तब millionaire मयूर माधवानी से शादी का फैसला कर लिया तब बाकी था काम आप की कसम ,रोटी और प्रेम कहानी का इन तीनों फिल्मों में उनके हीरो थे राजेश खन्ना इसके अलावा उन्होंने लफंगे (रंधीर कपूर) और नागिन का काम पूरा करने के बाद फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया और लन्दन जा बसी.1989 में वो फिल्म आंधिया में आई यह  फिल्म भारत में फलाप रही पर पकिस्तान में इस फिल्म ने सिल्वर जुबली की थी,In 1996 she received the Filmfare Lifetime Achievement Award.In June 2008, she was honored for her "Achievement in Indian Cinema" by the International Indian Film Academy (IIFA) in Bangkok. Mumtaz has featured recently in UniGlobe Entertainment's cancer docudrama 1 a Minute with a number of international stars.मुमताज़ की दो बेटियां है,मुमताज़ का नाम राजेश खन्ना के साथ भी जुड़ा,पर उनके और शम्मी कपूर के बीच रोमांस की खूब चर्चा है,बताया जाता है इस रिश्ते से "पापा कपूर" नहीं खुश थे वो नहीं चाहते थे उनके खानदान में एक और बहु फ़िल्मी दुनिया से हो (गीता बाली) शम्मी ने बाद में भाव नगर की नीला देवी से शादी कर ली थी "फिल्म ब्रह्मचारी के दौरान मुमताज़ शम्मी का रोमांस जोरो पर था " फिल्म का एक गाना इस रिश्ते पर मोहर भी लगाता है "आज कल तेर मेरे प्यार के चर्चे हर जुबान पर.मुमताज़ स्टायलिश हेरोइन थी,उनकी मुमताज़ साड़ी बहुत मशहूर उस ज़माने में खूब बिक्री होती थी "मुमताज़ साड़ी" की ( इस पर फिर कभी) बेहतरीन अदाकारा के साथ वो लाज़वाब डांसर भी थी.


Wednesday 30 July 2014

पत्रकारिता के क्षेत्र में धैर्य व संयम की ज़रूरत ---अनीता गौतम





https://www.facebook.com/anita.gautam.39/posts/668987146523594

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30 जूलाई 2014 


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इन दो प्रसिद्ध पत्रकारों के विचारों को पढ़ने के बाद 1965-67 में पढे आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी के विचार याद आ गए। आचार्य जी ने रेलवे की रु 50/-प्रतिमाह की नौकरी छोड़ कर रु 20/-प्रतिमाह पर अलाहाबाद से प्रकाशित 'सरस्वती' के संपादक का पद सम्हाला था। यह निर्णय उनके लिए पारिवारिक हितों के प्रतिकूल था तो भी उनको इसी में खुशी हुई क्योंकि उनका लक्ष्य व्यापक था-देश व समाज की सेवा करना । रेलवे की नौकरी से वह सिर्फ अपने परिवार का ही भला कर सकते थे जबकि सरस्वती के संपादक के रूप में उन्होने कई दूसरे लोगों को लेखन द्वारा देश-हित के लिए प्रेरित किया। उनका मत था कि,'साहित्य समाज का दर्पण' होता है। अर्थात समृद्ध साहित्य समृद्ध समाज का प्रतिविम्ब होगा। साहित्य सृजन में त्याग व बलिदान की भावना से ही समृद्धि आ सकती है। साहित्य की शक्ति के संबंध में आचार्य जी ने लिखा है कि," साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। "

आज़ादी से पहले 'पत्रकार' साहित्य सृजक हुआ करते थे और इसी लिए ब्रिटिश सरकार उनका उत्पीड़न किया करती थी जिसे वे स्वाधीनता आंदोलन में दी गई आहुती मान कर झेला करते थे। सांप्रदायिक सौहार्द व एकता के लिए 'गणेश शंकर विद्यार्थी' जी का बलिदान एक ज्वलंत उदाहरण है। 

आज़ादी के बाद भी धर्मवीर भारती ,मनहर श्याम जोशी आदि अनेकों पत्रकारों ने उसी परंपरा का निर्वहन किया। परंतु आज बाजारवाद ,उदारवाद,नव-उदारवाद के युग में पत्रकारिता देश व समाज को जागरूक करने का साधन न होकर पैसा कमाने का एक उपक्रम मात्र रह गई है। आज पत्रकार स्वतंत्र नहीं है बल्कि उसका नियंता उसका नियोक्ता पूंजीपति है जो अपने वर्ग-हित में अपने- अपने कर्मचारियों से लेखन करवाता है।

आज के संपादक व पत्रकार नए पत्रकारों को वाकई प्रोत्साहित नहीं करते हैं जैसा कि अनीता गौतम जी ने अपनी चिंता व्यक्त की है। निर्भीक व साहसी पत्रकारों का भी आज नितांत आभाव है जैसा कि वैदेही सचिन जी के आव्हान से स्पष्ट है। 

एक बड़े कारपोरेट घराने के एक अखबार के प्रधान संपादक महोदय अखबार मालिक व सरकारों के हिसाब से अपने विचारों को बदलते रहते व न्यायोचित ठहराते रहते हैं। आगरा में जब वह वाराणासी के एक अखबार के स्थानीय संपादक थे तब विहिप के समर्थक थे। फिर वहीं के सेकुलर माने जाने वाले दूसरे अखबार के संपादक बने तब सेकुलर विचारों के अगुआ हो गए । एक टी वी चेनल की वैतरणी पार करते हुये अब जिस कारपोरेट घराने के अखबार में पहुंचे हैं वह पहले कांग्रेस समर्थक था अब 2014 के चुनावों के बाद नई सरकार का समर्थक प्रतीत हो रहा है और यह संपादक महोदय वक्त के साथ करवट बदल चुके हैं।

इन परिस्थितियों में नए पत्रकारों को धैर्य व संयम की प्रेरणा रख कर निराश न होने की जो सीख अनीता गौतम जी ने दी है वह सराहनीय व अनुकरणीय है साथ ही 'निर्भीकता व साहस' कायम रखने का वैदेही सचिन जी सुझाव भी नए पत्रकारों की हौसला अफजाई के लिए ज़रूरी है। 

आज नए पत्रकारों के समक्ष फिर आज़ादी के आंदोलन सरीखी चुनौती उपस्थित है और इसका मुक़ाबला भी 'त्याग व बलिदान ' की भावना से ही किया जा सकेगा आर्थिक प्रलोभन से नहीं।
(विजय राजबली माथुर )
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Sunday 27 July 2014

मोदी बाबू के कमाल के ६० दिन: जनता से ठगई की गयीहै---जगदीश्वर चतुर्वेदी



एक तरफ़ हाफ़िज़ सईद से अपने दूत के ज़रिए गप्पें ! दूसरी ओर सईदभक्त आतंकियों की घुसपैठ और सीमा पर निरंतर गोलीबारी!
एक तरफ़ संसद में सर्वधर्म सद्भाव की नक़ली अपील ! दूसरी ओर मुरादाबाद में नए क़िस्म के मुज़फ़्फ़रनगर मार्का 'सद्भाव'की अथक कोशिश ! अहर्निश संविधान की मूलभावनाओं भाजपा और सहयोगी दलों के घटिया वैचारिक हमले !
एक तरफ़ देश को स्वच्छ प्रशासन का गुजरात के नाम पर भरोसा !दूसरी ओर गुजरात में नौ हज़ार करोड़ रुपयों के खर्चे का हिसाब किताब न देना !
सीएजी के अनुसार रिलायंस-अदानी आदि को सारे क़ानून तोड़कर लूट में हज़ारों करोड़ रुपयों की मदद करना !

एक तरफ़ संविधान के अनुसार काम करने का वायदा दूसरी ओर संवैधानिक नियमों और क़ायदों का सरेआम उल्लंघन !
एक तरफ़ देशभक्ति का नक़ली नाटक दूसरी ओर विगत ६० दिनों में पाक फ़ायरिंग में मारे गए शहीदों के घर मोदी बाबू का न जाना !
एक तरफ़ चुनाव के समय सोनिया- राहुल - वाड्रा के ख़िलाफ़ नक़ली मंचीय नाटक और इधर साठ दिनों में इनके 'अवैध 'धंधों पर हमले न करना !
महँगाई का बढ़ना , ख़ासकर टमाटर का १००रुपये के पार पहुँच जाना आदि बातें हैं जो मोदी को सबसे निकम्मा और ग़ैर-भरोसेमंद पीएम बना रही हैं।

दिल्ली में नार्थ -ईस्ट के लोगों पर हमलों में इज़ाफ़ा और बलात्कारों का न रुकना बताता है कि लोकतंत्र में प्रचार के नाम पर टीवी और मीडिया उन्माद के ज़रिए जनता से ठगई की गयीहै।
साभार : 
https://www.facebook.com/jagadishwar9/posts/879278588767516 

Tuesday 22 July 2014

हिन्दी सिनेमा के प्रमुख पार्श्व गायक:मुकेश-----संजोग वाल्टर




मुकेश चन्द्र माथुर (जुलाई 22,1923,लुधियाना - 27 अगस्त 1976 अमरीका ), लोकप्रिय तौर पर सिर्फ़ मुकेश के नाम से जाने जाने वाले, हिन्दी सिनेमा के प्रमुख पार्श्व गायक थे।मुकेश की आवाज़ की खूबी को उनके रिश्तेदार मोती लाल ने तब पहचाना जब उन्होने उसे अपने बहन की शादी में गाते हुए सुना । मोती लाल उन्हे बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया । यही नही उन्होने मुकेश के लिये रियाज़ का पूरा इन्तजाम किया । इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फ़िल्म निर्दोश (1941) में मुख्य कलाकार का काम मिला । पार्श्व गायक के तौर पर उन्हे अपना पहला काम 1941 में फ़िल्म पहली नज़र में मिला । मुकेश ने हिन्दी फ़िल्म में जो पहला गाना गाया वह था दिल जलता है तो जलने दे जिसमें अदाकारी मोती लाल ने की । इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक केएल सहगल के प्रभाव का असर साफ साफ नजर आता है। संगीतकार नौशाद ने फिल्म अंदाज़ के गानों के लिए मुकेश को मौका दिया और केएल सहगल की तरह गाने वाले मुकेश को अब नई पहचान मिल चुकी थी 1948 में उनकी मुलाकात हुई राज कपूर से फिल्म आग में मुकेश को काम मिला गायक और नायक का यही से मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गये मुकेश के पांच बच्चे थे जिनमें से एक लडकी नलिनी की मौत 1978 में हो गयी थी, रीता, नितिन, मोहनीश, नम्रता, नितिन मुकेश के बेटे नील मुकेश भी फिल्मों में काम कर रहे हैं 1976 में जब वे अमरीका के डिट्रोय्ट शहर में दौरे पर थे तब उन्हे दिल का दौरा पडा और उनकी म्रुत्यु हुई ।1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फ़िल्म में कई बार यूं भी देखा है गाना गाने के लिये राष्ट्रिय पुरस्कार मिला । कुल चार बार उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला सब कुछ सीखा हमने अनारी1959 ,सबसे बड़ा नादान पहचान1970,जय बोलो बेईमान की 1972, कभी कभी मेरे दिलमें कभी कभी 1976, सिर्फ कभी कभी को छोड़ कर बाकी जिन तीन फिल्मों के लिए उन्हें अवार्ड मिला उनके संगीत निर्देशक थे शंकर जय किशन
मुकेश के यादगार गीत :
पहली नज़र (1945)
मेला (1948 )
आग (1948 )
अन्दाज़ (1949)
आवारा (1951)
श्री ४२० (1955)
परवरिश (1958)
अनाडी (1959)
सन्गम (1964)
मेरा नाम जोकर (1970 )
धरम करम (1975)
"कभी कभी"(1976 )
तु कहे अगर
ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से
मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा )
ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी )
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ )
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दीनी )
दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम )
जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर )
मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द )
इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल (फ़िल्म धरम करम )
मैं पल दो पल का शायर हूँ
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी )
चन्चल शीतल निर्मल कोमल (फिल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् )

 साभार :

https://www.facebook.com/sanjog.walter/posts/935990633093887 

Sunday 20 July 2014

गीता दत्त :वक्त ने किया क्या हंसी सितम....संजोग वाल्टर









वक्त ने किया क्या हंसी सितम....
गीतादत्त को गुज़रे 42 साल हो गये हैं,महज़ 42 साल की उम्र में दुनिया को उस वक्त अलविदा कहा जब उनके बच्चे छोटे थे,शौहर था उनकी ज़िन्दगी में जिसे उन्होंने कभी टूट कर चाहा था,शौहर दूसरी औरत के लिए पागल हो गया था,शौहर की खुदकुशी के बाद जिस दौलत और कम्पनी की मालियत उन्हें और उनके बच्चों को मिलनी थी वो सब कुछ उन्हें नहीं मिला शौहर के भाई सब ले गये,गम गलत करने के लिए शराब का सहारा लिया जब होश आया तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी है उनके कन्धों पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी,1950 के मध्य से ही कुछ न कुछ वजहों से वो फ़िल्मी दुनिया से धीरे धीरे अलग हो रही थी.जिसने हरेक गाने को अपने अंदाज़ में गाया. नायिका, सहनायिका, खलनायिका, नर्तकी या रस्ते की बंजारिन, हर किसी के लिए अलग रंग और ढंग के गाने गाये. "नाचे घोड़ा नाचे घोड़ा, किम्मत इसकी बीस हज़ार मैं बेच रही हूँ बीच बाज़ार" आज से साठ साल पहले बना हैं और फिर भी तरोताजा हैं. "आज की काली घटा" सुनते हैं तो लगता है सचमुच बाहर बादल छा गए हैं. तब लोग कहते थे गीता गले से नहीं दिल से गाती थी! गीता दत्त का नाम ऐसी पा‌र्श्वगायिका के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपनी दिलकश आवाज की कशिश से लगभग तीन दशकों तक करोड़ों श्रोताओं को मदहोश किया। फिल्म जगत में गीता दत्त के नाम से मशहूर गीता घोष राय चौधरी महज 12 वर्ष की थी तब उनका पूरा परिवार फरीदपुर (अब बंगलादेश) से 1942 में बम्बई (अब मुंबई) आ गया। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष रॉय चौधरी ज़मींदार थे ,गीता के कुल दस भाई बहन थे जमींदार थे। बचपन के दिनों से ही गीता राय का रूझान संगीत की ओर था और वह पा‌र्श्वगायिका बनना चाहती थी। गीता राय ने अपनी संगीत की प्रारंभिक शिक्षा हनुमान प्रसाद से हासिल की। 23 नवंबर 1930 में फरीदपुर शहर में जन्मी गीता राय को सबसे पहले वर्ष 1946 में फिल्म भक्त प्रहलाद के लिए गाने का मौका मिला। गीता राय ने कश्मीर की कली, रसीली, सर्कस किंग (1946) जैसी कुछ फिल्मो के लिए भी गीत गाए लेकिन इनमें से कोई भी बॉक्स आफिस पर सफल नही हुई। इस बीच उनकी मुलाकात महान संगीतकार एस डी बर्मन से हुई। गीता रॉय मे एस डी बर्मन को फिल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने गीता राय से अपनी अगली फिल्म दो भाई के लिए गाने की पेशकश की। वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म दो भाई गीता राय के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई और इस फिल्म में उनका गाया यह गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया. लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। फिल्म दो भाई मे अपने गाये इस गीत की कामयाबी के बात बतौर पा‌र्श्वगायिका गीता राय अपनी पहचान बनाने में सफल हो गई। वर्ष 1951 गीता राय के सिने कैरियर के साथ ही व्यक्तिगत जीवन में भी एक नया मोड़ लेकर आया। फिल्म बाजी के निर्माण के दौरान उनकी मुलाकात निर्देशक गुरूदत्त से हुई। फिल्म के एक गाने तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले की रिर्काडिंग के दौरान गीता राय को देख गुरूदत्त फ़िदा हो गए। फिल्म बाजी की सफलता ने गीता राय की तकदीर बना दी और बतौर पा‌र्श्व गायिका वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गई। गीता राय भी गुरूदत्त से प्यार करने लगी। वर्ष 1953 में गीता राय ने गुरूदत्त से शादी कर ली। गीता राय से वो बन गयी थी गीता दत्त, साल 1956 गीता दत्त के सिने कैरियर में एक अहम पड़ाव लेकर आया। हावड़ा ब्रिज के संगीत निर्देशन के दौरान ओ पी नैयर ने ऐसी धुन तैयार की थी जो सधी हुयी गायिकाओं के लिए भी काफी कठिन थी। जब उन्होने गीता दत्त को "मेरा नाम चिन चिन चु" गाने को कहा तो उन्हे लगा कि वह इस तरह के पाश्चात्य संगीत के साथ तालमेल नहीं बिठा पायेंगी। लेकिन उन्होने इसे एक चुनौती की तरह लिया और इसे गाने के लिए उन्होंने पाश्चात्य गायिकाओ के गाये गीतों को भी बारीकी से सुनकर अपनी आवाज मे ढालने की कोशिश की और बाद में जब उन्होंने इस गीत को गाया तो उन्हें भी इस बात का सुखद अहसास हुआ कि वह इस तरह के गाने गा सकती है। गीता दत्त के पंसदीदा संगीतकार के तौर पर एस डी बर्मन का नाम सबसे पहले आता है 1गीता दत्त और एस डी बर्मन की जोड़ी वाली गीतो की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा सुंदर सपना बीत गया (दो भाई- 1947), तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे (बाजी-1951), चांद है वही सितारे है वही गगन (परिणीता-1953), जाने क्या तुने सुनी जाने क्या मैने सुनी, हम आपकी आंखों मे इस दिल को बसा लें तो (प्यासा-1957), वक्त ने किया क्या हसीं सितम (कागज के फूल-1959) जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है। गीता दत्त के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी संगीतकार ओ.पी.नैयर के साथ भी पसंद की गई। ओ पी नैयर के संगीतबद्ध जिन गीतों को गीता दत्त ने अमर बना दिया उनमें कुछ है, सुन सुन सुन जालिमा, बाबूजी धीरे चलना, ये लो मै हारी पिया, मोहब्बत कर लो जी भर लो, (आरपार-1954), ठंडी हवा काली घटा, जाने कहां मेरा जिगर गया जी, (मिस्टर एंड मिसेज 55-1955), आंखो हीं आंखो मे इशारा हो गया, जाता कहां है दीवाने (सीआईडी-1956), मेरा नाम चिन चिन चु (हावड़ा ब्रिज-1958), तुम जो हुये मेरे हमसफर (12ओ क्लाक-1958), जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है।जिस साल फिल्म "दो भाई" प्रर्दशित हुई उसी साल फिल्मिस्तान की और एक फिल्म आयी थी जिसका नाम था शहनाई. दिग्गज संगीतकार सी रामचन्द्र ने एक फडकता हुआ प्रेमगीत बनाया था "चढ़ती जवानी में झूलो झूलो मेरी रानी, तुम प्रेम का हिंडोला". इसे गाया था खुद सी रामचंद्र, गीता रॉय और बीनापानी मुख़र्जी ने. कहाँ "दो भाई" के दर्द भरे गीत और कहाँ यह प्रेम के हिंडोले! गीतकार राजेंदर किशन की कलम का जादू हैं इस प्रेमगीत में जिसे संगीतबद्ध किया हैं सचिन देव बर्मन ने. "एक हम और दूसरे तुम, तीसरा कोई नहीं, यूं कहो हम एक हैं और दूसरा कोई नहीं". इसे गाया हैं किशोर कुमार और गीता रॉय ने फिल्म "प्यार" के लिए जो सन १९५० में आई थी. गीत फिल्माया गया था राज कपूर और नर्गिस पर."हम तुमसे पूंछते हैं सच सच हमें बताना, क्या तुम को आ गया हैं दिल लेके मुस्कुराना?" वाह वाह क्या सवाल किया हैं. यह बोल हैं अंजुम जयपुरी के लिए जिन्हें संगीतबद्ध किया था चित्रगुप्त ने फिल्म हमारी शान के लिए जो १९५१ में प्रर्दशित हुई थी. बहुत कम संगीत प्रेमी जानते हैं की गीता दत्त ने सबसे ज्यादा गीत संगीतकार चित्रगुप्त के लिए गाये हैं. यह गीत गाया हैं मोहम्मद रफी और गीता ने. रफी और गीता दत्त के गानों में भी सबसे ज्यादा गाने चित्रगुप्त ने संगीतबद्ध किये हैं.भले गाना पूरा अकेले गाती हो या फिर कुछ थोड़े से शब्द, एक अपनी झलक जरूर छोड़ देती थी. "पिकनिक में टिक टिक करती झूमें मस्तों की टोली" ऐसा युगल गीत हैं जिसमें मन्ना डे साहब और साथी कलाकार ज्यादा तर गाते हैं , और गीता दत्त सिर्फ एक या दो पंक्तियाँ गाती हैं. इस गाने को सुनिए और उनकी आवाज़ की मिठास और हरकत देखिये. ऐसा ही गाना हैं रफी साहब के साथ "ए दिल हैं मुश्किल जीना यहाँ" जिसमे गीता दत्त सिर्फ आखिरी की कुछ पंक्तियाँ गाती हैं. "दादा गिरी नहीं चलने की यहाँ.." जिस अंदाज़ में गाया हैं वो अपने आप में गाने को चार चाँद लगा देता हैं. ऐसा ही एक उदाहरण हैं एक लोरी का जिसे गीता ने गया हैं पारुल घोष जी के साथ. बोल हैं " आ जा री निंदिया आ", गाने की सिर्फ पहली दो पंक्तियाँ गीता के मधुर आवाज़ मैं हैं और बाकी का पूरा गाना पारुल जी ने गाया हैं.बात हो चाहे अपने से ज्यादा अनुभवी गायकों के साथ गाने की (जैसे की मुकेश, शमशाद बेग़म और जोहराजान अम्बलावाली) या फिर नए गायकोंके साथ गाने की (आशा भोंसले, मुबारक बेग़म, सुमन कल्याणपुर, महेंद्र कपूर या अभिनेत्री नूतन)! न किसी पर हावी होने की कोशिश न किसीसे प्रभावित होकर अपनी छवि खोना. अभिनेता सुन्दर, भारत भूषण, प्राण, नूतन, दादामुनि अशोक कुमार जी और हरफन मौला किशोर कुमार के साथ भी गाने गाये!चालीस के दशक के विख्यात गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ तो इतने ख़ूबसूरत गाने गाये हैं मगर दुर्भाग्य से उनमें से बहुत कम गाने आजकल उपलब्ध हैं. ग़ज़ल सम्राट तलत महमूद के साथ प्रेमगीत और छेड़-छड़ भरे मधुर गीत गायें. इन दोनों के साथ संगीतकार बुलो सी रानी द्वारा संगीतबद्ध किया हुआ "यह प्यार की बातें यह आज की रातें दिलदार याद रखना" बड़ा ही मस्ती भरा गीत हैं, जो फिल्म बगदाद के लिए बनाया गया था. इसी तरह गीता ने तलत महमूद के साथ कई सुरीले गीत गायें जो आज लगभग अज्ञात हैं.जब वो गाती थी "आग लगाना क्या मुश्किल हैं" तो सचमुच लगता हैं कि गीता की आवाज़ उस नर्तकी के लिए ही बनी थी. गाँव की गोरी के लिए गाया हुआ गाना "जवाब नहीं गोरे मुखडे पे तिल काले का" (रफी साहब के साथ) बिलकुल उसी अंदाज़ में हैं. उन्ही चित्रगुप्त के संगीत दिग्दर्शन में उषा मंगेशकर के साथ गाया "लिख पढ़ पढ़ लिख के अच्छा सा राजा बेटा बन". और फिर उसी फिल्म में हेलन के लिए गाया "बीस बरस तक लाख संभाला, चला गया पर जानेवाला, दिल हो गया चोरी हाय..."! सन १९४९ में संगीतकार ज्ञान दत्त का संगीतबद्ध किया एक फडकता हुआ गीत "जिया का दिया पिया टीम टीम होवे" शमशाद बेग़म जी के साथ इस अंदाज़ में गाया हैं कि बस! उसी फिल्म में एक तिकोन गीत था "उमंगों के दिन बीते जाए" जो आज भी जवान हैं. वैसे तो गीता दत्त ने फिल्मों के लिए गीत गाना शुरू किया सन 1946 में, मगर एक ही साल में फिल्म दो भाई के गीतों से लोग उसे पहचानने लग गए. अगले पांच साल तक गीता दत्त, शमशाद बेग़म और लता मंगेशकर सर्वाधिक लोकप्रिय गायिकाएं रही. अपने जीवन में सौ से भी ज्यादा संगीतकारों के लिए गीता दत्त ने लगभग सत्रह सौ गाने गाये.अपनी आवाज़ के जादू से हमारी जिंदगियों में एक ताज़गी और आनंद का अनुभव कराने के लिए संगीत प्रेमी गीता दत्त को हमेशा याद रखेंगे.गीता रॉय (दत्त) ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत प्रेमगीत गाये हैं मगर जिनके बारे में या तो कम लोगों को जानकारी हैं या संगीत प्रेमियों को इस बात का शायद अहसास नहीं है. इसीलिए आज हम गीता के गाये हुए कुछ मधुर मीठे प्रणय गीतों की खोज करेंगे. गीता दत्त और किशोर कुमार ने फिल्म मिस माला (१९५४)के लिए, चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में. "नाचती झूमती मुस्कुराती आ गयी प्यार की रात" फिल्माया गया था खुद किशोरकुमार और अभिनेत्री वैजयंती माला पर. रात के समय इसे सुनिए और देखिये गीता की अदाकारी और आवाज़ की मीठास. कुछ संगीत प्रेमियों का यह मानना हैं कि यह गीत उनका किशोरकुमार के साथ सबसे अच्छा गीत हैं. गौर करने की बात यह हैं कि गीता दत्त ने अभिनेत्री वैजयंती माला के लिए बहुत कम गीत गाये हैं. सन १९५५ में फिल्म सरदार का यह गीत बिनाका गीतमाला पर काफी मशहूर था. संगीतकार जगमोहन "सूरसागर" का स्वरबद्ध किया यह गीत हैं "बरखा की रात में हे हो हां..रस बरसे नील गगन से". उद्धव कुमार के लिखे हुए बोल हैं. "भीगे हैं तन फिर भी जलाता हैं मन, जैसे के जल में लगी हो अगन, राम सबको बचाए इस उलझन से".कुछ साल और पीछे जाते हैं सन १९४८ में. संगीतकार हैं ज्ञान दत्त और गाने के बोल लिखे हैं जाने माने गीतकार दीना नाथ मधोक ने. जी हाँ, फिल्म का नाम हैं "चन्दा की चांदनी" और गीत हैं "उल्फत के दर्द का भी मज़ा लो". १८ साल की जवान गीता रॉय की सुमधुर आवाज़ में यह गाना सुनते ही बनता है. प्यार के दर्द के बारे में वह कहती हैं "यह दर्द सुहाना इस दर्द को पालो, दिल चाहे और हो जरा और हो". लाजवाब! प्रणय भाव के युगल गीतों की बात हो रही हो और फिल्म दिलरुबा का यह गीत हम कैसे भूल सकते हैं? अभिनेत्री रेहाना और देव आनंद पर फिल्माया गया यह गीत है "हमने खाई हैं मुहब्बत में जवानी की कसम, न कभी होंगे जुदा हम". चालीस के दशक के मशहूर गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ गीता रॉय ने यह गीत गाया था सन 1950 में. आज भी इस गीत में प्रेमभावना के तरल और मुलायम रंग हैं. दुर्रानी और गीता दत्त के मीठे और रसीले गीतों में इस गाने का स्थान बहुत ऊंचा हैं.गीतकार अज़ीज़ कश्मीरी और संगीतकार विनोद (एरिक रॉबर्ट्स) का "लारा लप्पा" गीत तो बहुत मशहूर हैं जो फिल्म "एक थी लड़की में" था. उसी फिल्म में विनोद ने गीता रॉय से एक प्रेमविभोर गीत गवाया. गाने के बोल हैं "उनसे कहना के वोह पलभर के लिए आ जाए". एक अद्भुत सी मीठास हैं इस गाने में. जब वाह गाती हैं "फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए, हाय, फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए" तब उस "हाय" पर दिल धड़क उठता हैं.सन १९४८ में पंजाब के जाने माने संगीतकार हंसराज बहल के लिए फिल्म "चुनरिया" के लिए गीता ने गाया था "ओह मोटोरवाले बाबू मिलने आजा रे, तेरी मोटर रहे सलामत बाबू मिलने आजा रे". एक गाँव की अल्हड गोरी की भावनाओं को सरलता और मधुरता से इस गाने में गीता ने अपनी आवाज़ से सजीव बना दिया है.सन 1950 में फिल्म "हमारी बेटी" के लिए जवान संगीतकार स्नेहल भाटकर (जिनका असली नाम था वासुदेव भाटकर) ने मुकेश और गीता रॉय से गवाया एक मीठा सा युगल गीत "किसने छेड़े तार मेरी दिल की सितार के किसने छेड़े तार". भावों की नाजुकता और प्रेम की परिभाषा का एक सुन्दर उदाहरण हैं यह युगल गीत जिसे लिखा था रणधीर ने.बावरे नैन फिल्म में संगीतकार रोशन को सबसे पहला सुप्रसिद्ध गीत (ख़यालों में किसी के) देने के बाद अगले साल गीता रॉय ने रोशन के लिए फिल्म बेदर्दी के लिए गाया "दो प्यार की बातें हो जाए, एक तुम कह दो, एक हम कह दे". बूटाराम शर्मा के लिखे इस सीधे से गीत में अपनी आवाज़ की जादू से एक अनोखी अदा बिखेरी हैं गीता रोय ने.पाश्चात्य धुन पर थिरकता हुआ एक स्वप्नील प्रेमगीत हैं फिल्म ज़माना (१९५७) से जिसके संगीत निर्देशक हैं सलील चौधरी और बोल हैं "दिल यह चाहे चाँद सितारों को छूले ..दिन बहार के हैं.." उसी साल प्रसिद्द फिल्म बंदी का मीठा सा गीत हैं "गोरा बदन मोरा उमरिया बाली मैं तो गेंद की डाली मोपे तिरछी नजरिया ना डालो मोरे बालमा". हेमंतकुमार का संगीतबद्ध यह गीत सुनने के बाद दिल में छा जाता है.संगीतकार ओमकार प्रसाद नय्यर (जो की ओ पी नय्यर के नाम से ज्यादा परिचित है) ने कई फिल्मों को फड़कता हुआ संगीत दिया. अभिनेत्री श्यामा की एक फिल्म आई थी श्रीमती ४२० (१९५६) में, जिसके लिए ओ पी ने एक प्रेमगीत गवाया था मोहम्मद रफी और गीता दत्त से. गीत के बोल है "यहाँ हम वहां तुम, मेरा दिल हुआ हैं गुम", जिसे लिखा था जान निसार अख्तर ने.आज के युवा संगीत प्रेमी शायद शंकरदास गुप्ता के नाम से अनजान है. फिल्म आहुती (1950) के लिए गीता राय ने शंकरदास गुप्ता के लिए युगल गीत गाया था "लहरों से खेले चन्दा, चन्दा से खेले तारे". उसी फिल्म के लिए और एक गीत इन दोनों ने गाया था "दिल के बस में हैं जहां ले जाएगा हम जायेंगे..वक़्त से कह दो के ठहरे बन स्वर के आयेंगे". एक अलग अंदाज़ में यह गीत स्वरबद्ध किया हैं, जैसे की दो प्रेमी बात-चीत कर रहे हैं. गीता अपनी मदभरी आवाज़ में कहती हैं -"चाँद बन कर आयेंगे और चांदनी फैलायेंगे"."दिल-ऐ-बेकरार कहे बार बार,हमसे थोडा थोडा प्यार भी ज़रूर करो जी". इस को गाया हैं गीता दत्त और गुलाम मुस्तफा दुर्रानी ने फिल्म बगदाद के लिए और संगीतबद्ध किया हैं बुलो सी रानी ने. जिस बुलो सी रानी ने सिर्फ दो साल पहले जोगन में एक से एक बेहतर भजन गीता दत्त से गवाए थे उन्हों ने इस फिल्म में उसी गीता से लाजवाब हलके फुलके गीत भी गवाएं. और जिस राजा मेहंदी अली खान साहब ने फिल्म दो भाई के लिखा था "मेरा सुन्दर सपना बीत गया" , देखिये कितनी मजेदार बाते लिखी हैं इस गाने में: दुर्रानी : मैं बाज़ आया मोहब्बत से, उठा लो पान दान अपना गीता दत्त : तुम्हारी मेरी उल्फत का हैं दुश्मन खानदान अपना दुर्रानी : तो ऐसे खानदान की नाक में अमचूर करो जी सचिन देव बर्मन ने जिस साल गीता रॉय को फिल्म दो भाई के दर्द भरे गीतों से लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाया उसी साल उन्ही की संगीत बद्ध की हुई फिल्म आई थी "दिल की रानी". जवान राज कपूर और मधुबाला ने इस फिल्म में अभिनय किया था. उसी फिल्म का यह मीठा सा प्रेमगीत हैं "आहा मोरे मोहन ने मुझको बुलाया हो". इसी फिल्म में और एक प्यार भरा गीत था "आयेंगे आयेंगे आयेंगे रे मेरे मन के बसैय्या आयेंगे रे". और अब आज की आखरी पेशकश है संगीतकार बुलो सी रानी का फिल्म दरोगाजी (१९४९) के लिया संगीतबद्ध किया हुआ प्रेमगीत "अपने साजन के मन में समाई रे". बुलो सी रानी ने इस फिल्म के पूरे के पूरे यानी 12 गाने सिर्फ गीता रॉय से ही गवाए हैं. अभिनेत्री नर्गिस पर फिल्माया गया यह मधुर गीत के बोल हैं मनोहर लाल खन्ना (संगीतकार उषा खन्ना के पिताजी) के. गीता की आवाज़ में लचक और नशा का एक अजीब मिश्रण है जो इस गीत को और भी मीठा कर देता हैं. वर्ष 1957 मे गीता दत्त और गुरूदत्त की विवाहित जिंदगी मे दरार आ गई। गुरूदत्त ने गीता दत्त के काम में दखल देना शुरू कर दिया। वह चाहते थे गीता दत्त केवल उनकी बनाई फिल्म के लिए ही गीत गाये। काम में प्रति समर्पित गीता दत्त तो पहले इस बात के लिये राजी नही हुयी लेकिन बाद में गीता दत्त ने किस्मत से समझौता करना ही बेहतर समझा। धीरे-धीरे अन्य निर्माता निर्देशको ने गीता दत्त से किनारा करना शुरू कर दिया। कुछ दिनो के बाद गीता दत्त अपने पति गुरूदत्त के बढ़ते दखल को बर्दाशत न कर सकी और उसने गुरूदत्त से अलग रहने का निर्णय कर लिया। इस बात की एक मुख्य वजह यह भी रही कि उस समय गुरूदत्त का नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था जिसे गीता दत्त सहन नही कर सकी। गीता दत्त से जुदाई के बाद गुरूदत्त टूट से गये और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे मे डूबो दिया। दस अक्तूबर 1964 को अत्यधिक मात्रा मे नींद की गोलियां लेने के कारण गुरूदत्त इस दुनियां को छोड़कर चले गए। गुरूदत्त की मौत के बाद गीता दत्त को गहरा सदमा पहुंचा और उसने भी अपने आप को नशे में डुबो दिया। गुरूदत्त की मौत के बाद उनकी निर्माण कंपनी उनके भाइयो के पास चली गयी। गीता दत्त को न तो बाहर के निर्माता की फिल्मों मे काम मिल रहा था और न ही गुरूदत्त की फिल्म कंपनी में। इसके बाद गीता दत्त की माली हालत धीरे धीरे खराब होने लगी। कुछ वर्ष के पश्चात गीता दत्त को अपने परिवार और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ तरुण ( 1954), अरुण (1956),और नीना ( 1962) का भविष्य उनके सामने था और वह पुन: फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खोयी हुयी जगह बनाने के लिये संघर्ष करने लगी। "मंगेशकर बैरियर" भी सामने था लिहाज़ा वो दुर्गापूजा में होने वाले स्टेज कार्यकर्मों के लिए गा कर गुज़र बसर करने लगी,ज़मींदार घराने की गीता दत्त के आख़िरी दिन मुफलिसी में गुज़रे ,1967 में रिलीज़ बंग्ला फिल्म बधू बरन में गीता दत्त को काम करने का मौका मिला जिसकी कामयाबी के बाद गीता दत्त कुछ हद तक अपनी खोयी हुयी पहचान बनाने में सफल हो गई। हिन्दी के अलावा गीता दत्त ने कई बांग्ला फिल्मों के लिए भी गाने गाए। इनमें तुमी जो आमार (हरनो सुर-1957), निशि रात बाका चांद (पृथ्वी आमार छाया-1957), दूरे तुमी आज (इंद्राणी-1958), एई सुंदर स्वर्णलिपि संध्या (हॉस्पिटल-1960), आमी सुनचि तुमारी गान (स्वरलिपि-1961) जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। सत्तर के दशक में गीता दत्त की तबीयत खराब रहने लगी और उन्होंने एक बार फिर से गीत गाना कम कर दिया। 1971 में रिलीज़ हुई अनुभव में गीता दत्त ने तीन गीत गाये थे,संगीतकार थे कनु राय " कोई चुपके से आके" "मेरा दिल जो मेरा होता ""मेरी जान मुझे जान न कहो" इस फिल्म में काम करने के बाद वो बीमार रहने लगी:आखिकार 20 जुलाई 1972 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया

 साभार :

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=674179275995338&set=a.493970777349523.1073741825.359121077501161&type=1&theater

Saturday 19 July 2014

जानवरों को समझाया नहीं जा सकता, सिर्फ डराया जा सक‍ता है-----कविता कृष्‍णपल्‍लवी


NFIW (Bhartiya Mahila Federation) protest at Lucknow GPO Park on 19th July 2014.Leaders UP Gen Secy Smt Asha Misra, Kanti Mishra, Babita Singh and others.
 


लखनऊ में बलात्‍कार और हत्‍या की जघन्‍य घटना पर सोचते हुए मृत्‍युदण्‍ड के बारे में कुछ विचार

July 19, 2014 at 5:04pm
--कविता कृष्‍णपल्‍लवी


मैं मानवाधिकारवादियों के इस निरपेक्ष मानवतावादी स्‍टैण्‍ड से खुद को सहमत नहीं पाती हूँ कि फाँसी की सजा पूरी तरह समाप्‍त कर दी जानी चाहिए। यह सही है कि हर मनुष्‍य का जीवन कीमती होता है और न्‍यायतंत्र को चाहिए कि हर व्‍यक्ति को सुधरने का मौका दे। यह भी सही है कि दण्‍ड-विधान का उद्देश्‍य प्रतिशोध नहीं हो सकता। लेकिन जो सामाजिक परिवेशगत कारणों से ही पूरी तरह विमानवीकृत हो चुके हों, मनुष्‍य रह ही न गये हों और पाशविक जघन्‍यता और ठण्‍डेपन के साथ बलात्‍कार और हत्‍या के दोषी हों, उन्‍हें फाँसी क्‍यों नहीं दी जानी चाहिए? ऐसे लोग सुधारे नहीं जा सकते। उन्‍हें सुधरने का मौका देना समाज के दूसरे निर्दोष लोगों को ख़तरे में डालना है। जहाँ तमाम लोग भूख, ग़रीबी और अत्‍याचार से यूँ ही मर रहे हों, वहाँ ऐसे नराधमों के जीवन की चिन्‍ता बकवास है। जानवरों को समझाया नहीं जा सकता, सिर्फ डराया जा सक‍ता है। पशु बन चुके 16 दिसम्‍बर के दिल्‍ली बलात्‍कार काण्‍ड, बदायूँ बलात्‍कार काण्‍ड और 17 जुलाई के लखनऊ बलात्‍कार की घटना के अपराधियों को यदि गोली मार दी जाये, तो ऐसी ही मानसिकता वाले दूसरे वहशियों में कम से कम भय का संचार तो होगा। बलात्‍कार या हत्‍या के ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें अपराधी को बर्बर पशु जैसा न माना जाये। ऐसे मामलों में फाँसी उचि‍त नहीं, लेकिन कुछ मामले तो ऐसे होते ही हैं, जिनमें अपराधी का जीने का हक़ छीन लेना ही समाज और मानवता के हक़ में होता है। 
मानती हूँ कि ऐसे पशु बन चुके लोग भी सामाजिक ढाँचे की ही उपज होते हैं, लेकिन इस तर्क के आधार पर दिल्‍ली बलात्‍कार काण्‍ड और लखनऊ बलात्‍कार काण्‍ड के अपराधियों को छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। और फिर यह भी तो एक तथ्‍य है कि इसी सामाजिक व्‍यवस्‍था में उनसे जेल भुगतकर सुधर जाने की भी आशा नहीं की जा सकती।
नोयडा में बच्चि‍यों के साथ बलात्‍कार और हत्‍या के बाद उनका मांस खाने वाले वहशियों को भी जिन्‍दा रखने का कोई औचित्‍य नहीं।
राजनीतिक प्रतिबद्धता के चलते की गयी हथियारबंद कार्रवाई में यदि कोई इंसान की जान लेता है या आतंकवादी कार्रवाई करता है तो उसे फाँसी की सजा देना तो राज्‍यसत्‍ता का प्रतिशोध है, लेकिन सुवि‍चारित तरीके से यदि कुछ लोग नस्‍ली जनसंहार करते हैं तो उन्‍हें तो गोली से उड़ाया ही जाना चाहिए। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ऐतिहासिक न्‍यूरेम्‍बर्ग मुकदमे में जिन शीर्ष नात्‍सी नेताओं को फाँसी दी गयी, वह सर्वथा उचि‍त थी।
हम कम्‍युनिस्‍ट, राज्‍यसत्‍ता के विरुद्ध किसी भी रूप में युद्ध चलाने वालों को राजनीतिक बंदी का दर्जा देने और उनके मामले में जेनेवा कन्‍वेंशन के प्रावधानों को लागू करने की माँग करते हैं और ऐसे किसी मामले में फाँसी की सजा का विरोध करते हैं। यह हमारी वर्गीय पक्षधरता है। लेकिन हर मामले में फाँसी की सजा का विरोध करना एक निरपेक्ष मानवतावादी स्‍टैण्‍ड है।

Wednesday 16 July 2014

पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत?---विजय राजबली माथुर

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माकपा के एक वरिष्ठ नेता का यह विलाप पढ़ कर खेद हुआ कि वक्त रहते जब उनकी पार्टी ने आर एस एस /भाजपा को रोकने का कोई प्रयत्न न किया न करने दिया तो फिर ये घड़ियाली आंसू क्यों? केरल भाजपा से केरल माकपा में आर एस एस कार्यकर्ताओं को प्रवेश खुशी-खुशी दिया गया। पश्चिम बंगाल में बजाए ममता बनर्जी से सम्झौता करने के उनको उखाड़ने हेतु भाजपा को अप्रत्यक्ष सहयोग दिया गया। भाजपा की सहयोगी पार्टी के अध्यक्ष को तीसरे मोर्चे का पी एम घोषित किया गया। एथीस्टवाद के नाम पर ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती रही और वास्तविक धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विरोध किया जाता रहा। इस कारण आर एस एस/भाजपा नव उदरवाद काल में जन्मे युवा वर्ग को गुमराह करके उनका वोट हासिल करने मे कामयाब हो गए।

चर्चा तो यह भी है कि व्हाईट हाउस में पिछले तीन वर्षों से चल रही एक योजना के अंतर्गत भारत की दलित कही जाने वाली जातियों का वोट भाजपा की ओर सांप्रदायिक आधार पर खिसकाया गया है। भारत से जो लोग व्हाईट हाउस की चर्चा में शामिल हुये थे उनमें से एक तो लखनऊ विश्वविद्यालय में कार्यरत दलित चिंतक बताए जाते हैं। लोजपा,जपा,अद आदि दलों का भाजपा के साथ गठबंधन इसी योजना का अंग बताया जाता है।

इसके अतिरिक्त जब स्पष्ट हो गया था कि मनमोहन जी को तीसरी बार पी एम नहीं बनाया जाएगा तो तीन वर्ष पूर्व ही हज़ारे/केजरीवाल के नेतृत्व में और मनमोहन जी के आशीर्वाद से कारपोरेट भ्रष्टाचार संरक्षण हेतु NGOs ने जो आंदोलन चलाया था उसका उद्देश्य भी भाजपा/आर एस एस के पक्ष में लामबंदी करना था। अपने ब्लाग के माध्यम से मैंने भी और और लोगों ने भी हज़ारे/केजरीवाल के विरुद्ध उनकी पोल खोलते हुये लेख लिखे थे। माकपा महासचिव तब केजरीवाल के गुण गान कर रहे थे। आर एस एस का गठन ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु हुआ था आज वह अमेरिकी साम्राज्यवाद को बल प्रदान कर रहा है। अभी तो इतिहास ही नष्ट किया है आगे तो देश को नष्ट करने की प्रक्रिया चालू कर दी गई है  जोजीला दर्रे के नीचे स्थित भूमिगत प्लेटिनम पर अमेरिका की आँख गड़ी हुई है जिसे हड़पने को उसके हित में अभी तक 370 का राग अलापा जाता था और अब !और इसके लिए माकपा व एथीस्टवादी भी अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं ---





Sunday 6 July 2014

मीडिया की चमक दमक के पीछे छिपी गंदगी---तनु शर्मा




मुझे कॉरपोरेट्स और पॉलिटीशियन्स के पास जाने के लिए कहा जाता थाः तनु शर्मा


 http://bhadas4media.com/tv/301-tanu-police-statement.html
तनु शर्मा ने पुलिस को पुलिस को दिए अपने बयान में जो कुछ कहा है वो मीडिया की चमक दमक के पीछे छिपी गंदगी को उजागर करता है। तनु पिछले बारह सालों से मीडिया में काम कर रही हैं। बकौल उनके जिस दिन से उन्होने इंडिया टीवी ज्वाइन किया उनके बुरे दिन शुरू हो गए। वे सीधे-सीधे इंडिया टीवी की एमडी और रजत शर्मा की पत्नी रितु धवन पर आरोप लगाते हुए कहती हैं कि अनीता शर्मा बिष्ट और एमएन प्रसाद ने जो कुछ भी किया उनके इशारों पर ही किया। अनीता और प्रसाद रितु के इशारों पर तनु से बार बार ग़लत काम करने के लिए कहते थे जिसके लिए वो मनाकर देती थी।
तनु के इंडिया टीवी ज्वाइन करने के साथ ही अनीता ने उसे अपने जाल में फंसाना शुरू कर दिया था। अनीता उसके चेहरे और शरीर की तारीफ करते हुए कहती थी 'you have got good assets, they are meant not to hide but to flaunt'। अनीता तनु से हमेशा लोगों से मिलने-जुलने का दवाब डालती रहती थी और कहती 'start socializing, there is no harm in meeting big people, I have to send you somewhere'। तनु के इंकार करने पर अनीता का व्यवहार उत्पीड़न और मानसिक यंत्रणा में बदल गया।

अनीता की इन बातों की जानकारी जब तनु ने प्रसाद को दी तो उसने कहा कि अनीता जो कह रही है उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, क्या बुराई है कॉरपोरेट्स और पॉलिटीशियन्स के पास जाने में। इतना ही नहीं प्रसाद ने एक बार बहुत ही अश्लील तरीके से तनु की जांघों की तरफ देखते हुए कहा कि इन दोने के बीच बहुत गैप है, स्क्रीन पर जांघें भरी हुई दिखनी चाहिए। तनु के लिए प्रसाद का ऐसा व्यवहार बहुत ही दुखद और अंदर तक तोड़ देने वाला था।

ऐसी ज़लालत और ज़िल्लत झेलेते-झेलते एक दिन वो भी आया जब इस्तीफे के मुद्दे पर तनु का सब्र जवाब दे गया और उसने आत्मघाती कदम उठा लिया। पढ़िए पुलिस को दिया तनु का पूरा बयानः














साभार :
https://www.facebook.com/sudha.singh.56884/posts/773397412681301


Friday 4 July 2014

ब्यूटी क्वीन नसीम बानू----- संजोग वाल्टर






जन्मदिवस 04 जूलाई पर स्मरण :

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=493128984046723&set=a.213322672027357.71686.100000488781382&type=1&theater


भारतीय सिने जगत में अपनी दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली अभिनेत्रियों की संख्या यू तो बेशुमार है लेकिन चालीस के दशक में एक अभिनेत्री ऐसी हुयी। जिसे ब्यूटी क्वीन कहा जाता था और आज के सिने प्रेमी शपायद ही उसे जानते हों, वह अभिनेत्री थीं नसीम बानू 4 जुलाई 1916 को को जन्मी नसीम बानू की परवरिश शाही ढग़ से हुयी थी। वह स्कूल पढऩे के लिए पालकी से जाती थीं। नसीम बानू की सुंदरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें किसी की नजर न लग जाए इसलिये उन्हें पर्दे में रखा जाता था।
 
 फिल्म जगत में नसीम बानू का प्रवेश संयोगवश हुआ। एक बार नसीम बानो अपनी स्कूल की छुटियों के दौरान अपनी मां के साथ फिल्म सिल्वर किंग की शूटिंग देखने गयीं। फिल्म की शूटिंग देखकर नसीम बानू मंत्रमुग्ध हो गयीं और उन्होंने निश्चय किया कि वह अभिनेत्री के रुप में अपना सिने करियर बनायेंगी। इधर स्टूडियों में नसीम बानू की सुंदरता को देख कई फिल्मकारों ने नसीम बानू के सामने फिल्म अभिनेत्री बनने का प्रस्ताव रखा लेकिन उनकी मां ने यह कहकर सभी प्रस्ताव ठुकरा दिये कि नसीम अभी बच्ची है। नसीम की मां उन्हें अभिनेत्री नहीं बल्कि डॉक्टर बनाना चाहती थीं।
 इसी दौरान फिल्म निर्माता सोहराब मोदी ने अपनी फिल्म ‘हेमलेट' के लिये बतौर अभिनेत्री नसीम बानू को काम करने के लिए प्रस्ताव दिया और इस बार भी नसीम बानू की मां ने इंकार कर दिया लेकिन इस बार नसीम अपनी जिद पर अड़ गयी कि उन्हें अभिनेत्री बनना ही है। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिये भूख हडताल भी कर दी । 70 के दशक में उनकी पहचान सायरा बानू की माँ के रूप में बनी,गोपी के बाद वो दिलीप कुमार की सास के रूप में जानी गयी, कभी दिलीप कुमार के साथ फिल्मों में हेरोइन बन कर आने वाली नसीम बानू 1970 में दिलीप कुमार की सास बनी,नसीम बानू ने अभिनय के बाद 1960 में रिलीज़ सायरा बानू की पहली फिल्म जंगली से ड्रेस डिजायनिंग का काम किया सिर्फ अपनी बेटी की ही फिल्मों में 18 जून 2002 को मुबई में 83 साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया था.
 
नसीम बानू ने सोहराब मोदी की कई फिल्मों में काम किया था खून का खून 1935,तलाक 1938,पुकार 1939 उजाला 1942,चल चल रे नौज़वान 1944 ,बेगम 1945 ,दूर चलें 1946 ,जीवन आशा 1946 ,अनोखी अदा 1948 ,चांदनी रात 1949 , शीश महल 1950 ,शबिस्तान 1951 ,अजीब लड़की 1952 ,बागी 1953 , नौशेर्वाने आदिल 1957 काला बाज़ार 1960 ,हौली डे इन बॉम्बे 1963 नबाव सिराज़ुद्दौल्ला 1967 ,पाकीज़ा 1972 कभी कभी 1976

Wednesday 2 July 2014

कौवे और बया द्वारा संकेत : सामान्य वर्षा......

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मौसम वैज्ञानिक ने पक्षियों द्वारा मौसम के संकेत देने को वैज्ञानिक आधार नहीं माना है।

वस्तुतः तथाकथित और प्रगतिशील लोग उसे विज्ञान मानते हैं जिसका प्रयोग किसी प्रयोगशाला में बीकर आदि के उपयोग द्वारा होता है। परंतु;-

'विज्ञान' किसी भी विषय के 'क्रमबद्ध' एवं 'नियमबद्ध' अध्ययन को कहा जाता है।

इसलिए जब कौवों या बया के घोंसलों का क्रमिक अध्ययन नियमतः वर्षों करने के बाद जो निष्कर्ष निकाला गया वह भी वैज्ञानिक अध्ययन ही हुआ ।

'एथीस्टवादी' 'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य को नहीं मानते हैं उनके लिए शोषकों,लुटेरों,उतपीडकों द्वारा फैलाया गया 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' आदि-आदि 'अधर्म' ही धर्म है।

'मनुष्य' प्रजाति की उत्पति तो मात्र 10 लाख वर्ष पूर्व ही हुई है परंतु उससे पूर्व पशु-पक्षी,जन्तु-कीट आदि और उनसे भी पूर्व 'वनस्पतियों' की उत्पति परमात्मा और प्रकृति द्वारा की जा चुकी थी। स्व्भाविक है कि मौसमी परिवर्तनों का आभास इन पशुओं व पक्षियों को मनुष्यों से पूर्व से ही होता आया है ;यदि उनके द्वारा अपने बचाव के प्रबंध किए जाते रहे हों तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? क्या मनुष्यों को अन्य प्राणियों से शिक्षा नहीं ग्रहण करनी चाहिए?

यह संसार खुद ही एक प्रयोगशाला है और नित्य ही यहाँ नूतन प्रयोग होते रहते हैं परंतु पुराने अनुभवों को ठुकराने की बजाए उनसे भी लाभ उठाते रहना और अपना बचाव करते रहना ही बुद्धिमानी होगी न कि उनकी अवहेलना करके  सम्पूर्ण मानव जाती ही नहीं सृष्टि के अन्य प्राणियों के अस्तित्व को भी संकट में डालना वैज्ञानिक बुद्धिमत्ता होगी? 
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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश