Friday 30 March 2018

अच्छे दिन के भ्रम में यह देश बुरे दिनों में आ गया...! ------ Santosh Bharti

* निर्णायक पदों पर दंभी, मूढ़, कट्टर, पूर्वाग्रही बैठ गये हैं और अपने निर्णयों से पूरे देश को दुख दे रहे हैं, जीवन दुभर कर रहे हैं।
** यह देश बहुत बड़ी तबाही की तरफ जा रहा है...आने वाले दिन बहुत बुरे होने वाले हैं..
*** इस देश का बुद्धिजीवी, सृजनशील, कलाकार, सोचने-समझने वाला, चिंतन-मनन करने वाला वर्ग इस सारे भुलावे में नहीं आया...न अन्ना के, न मोदी के...पर मोदी को उनकी जरूरत थी भी नहीं...आज तक भी भारत का बुद्धिजीवी वर्ग मोदी से दूर है...!
**** मोदी एक अभिशाप बनकर ही आया है...अब तक तो कुछ भी ऐसा नहीं किया कि लगे कि सवा अरब लोगों के जीवन में कोई सकारात्मक असर दिखाई देगा...हर तरफ से निराशाजनक खबरें आ रही हैं...विदेशी नीति हो, देश की सुरक्षा हो, आर्थिक स्थिति हो, सामाजिक सौहाद्र हो...कौन-सा ऐसा क्षेत्र है जिसमें कोई आशा नजर आ रही है?
***** पता नहीं अब इस देश का होगा क्या? समस्याएं तो तेज गति से बढ़ रही हैं...पीने का पानी भी कहां से आयेगा? सुना है अगले तीन-चार मानसून अच्छे नहीं होंगे...प्यास के कारण तड़फ-तड़फ के करोड़ों लोगों की मौत हो सकती है...और मोदी झकाझक कपड़े पहनकर रोड शो करता फिर रहा है, रैलियां कर रहा है...कोई गंभीरता या समझदारी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती.. कभी सोचा न था कि भारत के बुरे दिन यूं आयेंगे???

Santosh Bharti
जिस पद पर शक्ति हो, ताकत हो, जहां बैठ कर कोई व्यक्ति अपने निर्णयों से बहुजन के जीवन को प्रभावित कर सकता हो तो उस पद पर निश्चित रूप से समझदार, संवेदनशील, बुद्धिमान, इंसानियत से भरे हृदय वाले को ही बैठना चाहिए...!

मैं इस देश का दुर्भाग्य ही मानूंगा कि ऐसे निर्णायक पदों पर दंभी, मूढ़, कट्टर, पूर्वाग्रही बैठ गये हैं और अपने निर्णयों से पूरे देश को दुख दे रहे हैं, जीवन दुभर कर रहे हैं।

मेरी नजर में, आज दुनिया में भारत सर्वाधिक बुरे दौर से गुजर रहा है...जिस तरह से हर शक्ति के पद पर कट्टरपंथी बैठ गये हैं...वह भयानक भविष्य के लिए आशंकित करता है...इतिहास गवाह है जब भी किसी देश में किसी जवाबदार पद पर इस तरह की मानसिकता का व्यक्ति जा बैठा...उस देश ने भयंकर तबाही देखी...हिटलर हो कि मुसोलिनी हो कि सद्दाम हो कि जोंग हो...अच्छे दिन के भ्रम में यह देश बुरे दिनों में आ गया...!


मैं लगातार लिखता रहा हूं...यह देश बहुत बड़ी तबाही की तरफ जा रहा है...आने वाले दिन बहुत बुरे होने वाले हैं...आर्थिक संकट, रोजगार, मंहगाई, सामाजिक सौहाद्र, दंगे, अपराध...आंधी आती दिख रही है...इससे बड़ी पेय की जल की समस्या...एक या दो सालों में प्यास से इस देश में करोड़ों लोग मर जायेंगे...बहुत सुना है कि आने वाले दिनों में पानी के लिए युद्ध होंगे...ऐसा कोई युद्ध पाकिस्तान से हो जाये तो हैरानी नहीं होगी...समस्याएं अनेक हैं, दिन-पर-दिन देश भयंकर समस्याओं में उलझ रहा है और शक्ति के पदों पर बैठे लोग अपनी अय्यासी में मशगूल हैं...!
https://www.facebook.com/santosh.bharti.5095/posts/10155622028134037

Santosh Bharti
कुछ साल पहले अचानक अन्ना का नाम खबरों में आया। मैंने अपने जीवनकाल कभी यह नाम नहीं सुना था। और अचानक नाम आया ही नहीं...बकायदा मसीहा, गांधी के समकक्ष खड़ा कर दिया गया...उस समय की सरकार के भ्रष्टाचार को लेकर ऐसा हल्ला मचाया कि यूं लगा कि बस इस सरकार ने तो सब कुछ तबाह ही कर दिया...मैं उस समय से लगातार लिखता रहा कि यह कोई बहुत बड़ी चाल है...पर्दे के पीछे कोई अपार धन लगा रहा था...एक तटस्थ व्यक्ति की छबि खड़ी कर सरकार को घेरना आम जनता पर काफी असर डालता है और डाला भी...

मैं जब भी अन्ना को सुनता तो वह एक साधारण ट्रक ड्रायवर को सुनने जैसा ही होता...कांग्रेस सरकार इस तरह के हमले से निपट नहीं पाई...तील का ताड़ बनाकर कांग्रेस को खूब बदनाम किया गया...ठीक चुनाव के पहले फिर से अचानक एक दुर्जन को पेश किया गया--मोदी, मोदी, मोदी...सारा मीडिया यूं झूमने लगा मानो बस जिस मसीहा की तलाश थी, इंतजार था अवतरण हो ही गया...यह भी एक चाल थी...पर्दे के पीछे से धन लग रहा था...!

फिर चुनाव में अच्छे दिन आने वाले हैं...भारत का आम आदमी जो कि मूलतः आलस्यी है, गैर-जिम्मेदार है, कर्मठ नहीं है...इस सम्मोहन में आ गया कि बस इस आदमी को चुन भर लो, वोट दे दो और दूसरे दिन घर के बाहर मर्सडिज खड़ी होगी, हाथ में आई फोन होगा औैर कुरुप पत्नी उर्वशी बन जायेगी....31 प्रतिशत औसत समझ के लोग ले आये मोदी को...पर्दे के पीछे से जो धन लगा, जो बिजनेस में इन्वेस्ट किया...उनका काम बन गया...चार ही सालों में उन्होंने सूद समेत धन वसूर लिया...!

अब ये दुर्जन कोई मसीहा-वसीहा तो थे नहीं...कुछ कारपोरेट के हाथों की कठपुतली थी...आनन-फानन में ऐसे निर्णय लिये गये ताकि कारपोरेट की तिजोरियां उफन पड़े और ऐसा हुआ भी...नोटबंदी को करार वार इसीलिए था...आम आदमी मर गया, गांव-गांव, नगर-नगर, शहर-शहर करोड़ों लोगों का जीवन उथल-पुथल हो गया...जब देखा कि यह उथल-पुथल गुस्सा बनकर फूट सकता है तो मोदी फिर आ गया--भाइयों-बहनों सिर्फ पचास दिन मुझे दे दो...यदि पचास दिन में सपनों का भारत ने दे दूं तो जिस चौराहे पर कहोगे आ जाउंगा सजा के लिए।’ पचास की जगह पांच सौ दिन बीत गये, जीवन दूभर हो गया...लेकिन गुस्से के उबाल को तरकीब से ठंड़ा कर दिया...फिर चली खरीद-फरोख्त, धन की ताकत...कुटील चालें, खींच-तान...देखते ही देखते देशभर में शासन फैलता चला गया...

एक बात समझने जैसी है कि इस देश का बुद्धिजीवी, सृजनशील, कलाकार, सोचने-समझने वाला, चिंतन-मनन करने वाला वर्ग इस सारे भुलावे में नहीं आया...न अन्ना के, न मोदी के...पर मोदी को उनकी जरूरत थी भी नहीं...आज तक भी भारत का बुद्धिजीवी वर्ग मोदी से दूर है...!

अब अन्ना फिर दिल्ली आये हैं...एक आदमी नहीं फटका...पर्दे के पीछे कोई नहीं है...अन्ना खुद में तो कोई दम न कभी था, न अब है...???

आधुनिक भारत के लोकतंत्र में धन का ऐसा खेल पहले कभी नहीं देखा...दो-तीन कारपोरेट ने एक सत्ता का उलट दी, एक आम मूर्ख को मसीहा बनाकर देश की छाती पर रख दिया...कोबरा पोस्ट का इंस्टिग आया है...छद्मश्री भजप शर्मा और गोबरस्वामी की पाले खोली है...पर देखा कोई असर नहीं हुआ...जरा कल्पना करो कि ऐसी कोई पोल कांग्रेस के खिलाफ कोई खोलता????


मैं देश को लेकर पूरी तरह से निराश हूं....हम बहुत बुरे दौर में आ गये हैं....???
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Santosh Bharti
एक संवेदनशील, समझदार, इंसानियत रखने वाला व्यक्ति कोई भी कदम उठाने के पहले हजार बार विचार करता है कि उसके किसी कदम से किसी को दुख न पहुंच जाये। लेकिन इससे ठीक उल्टा, मूर्ख, दंभी, संवेदनहीन व्यक्ति कुछ भी कर सकता है...अपने खुद को महान बनाने के लिए या सच साबित करने के लिए किसी को भी दुख दे सकता है...पूरे देश, समाज या दुनिया को खतरे में डाल सकता है।

मोदी दूसरी तरह का व्यक्ति है। मैं आज तक भी समझ नहीं पाया कि नोटबंदी जैसा भयावह निर्णय इस व्यक्ति ने कैसे ले लिया? इतना क्रूर निर्णय लेते मोदी ने कुछ सोचा भी? करोड़ों-करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी को मूल रूप से तहस-नहस कर देने वाला निर्णय कैसे लिया गया? आज तक पता नहीं चला कि मोदी ने किसके कहने पर यह निर्णय लिया...किस की सलाह से? और क्यों? खुद मोदी ने जो कारण गिनाये थे उनमें से कोई भी कारण पूरा होता नहीं दिखा--आज तक! अलबत्ता अरबों-अरबों रुपये की चपत लग गई वो अलग और भारत में काम-धंधा कब वापस पटरी पर आयेगा पता नहीं...बेरोजगारी, गरीबी और अभाव के होते अपराध बढ़ रहे हैं, देश दुखी है...फिर इस साल प्रसन्नता की सूची में ग्यारह पायदान लुढ़का....!

मेरे लिए मोदी एक अभिशाप बनकर ही आया है...अब तक तो कुछ भी ऐसा नहीं किया कि लगे कि सवा अरब लोगों के जीवन में कोई सकारात्मक असर दिखाई देगा...हर तरफ से निराशाजनक खबरें आ रही हैं...विदेशी नीति हो, देश की सुरक्षा हो, आर्थिक स्थिति हो, सामाजिक सौहाद्र हो...कौन-सा ऐसा क्षेत्र है जिसमें कोई आशा नजर आ रही है?

उत्तर प्रदेश की खबरें तो बुरी तरह से विचलित करने वाली आ रही हैं....पता नहीं अब इस देश का होगा क्या? समस्याएं तो तेज गति से बढ़ रही हैं...पीने का पानी भी कहां से आयेगा? सुना है अगले तीन-चार मानसून अच्छे नहीं होंगे...प्यास के कारण तड़फ-तड़फ के करोड़ों लोगों की मौत हो सकती है...और मोदी झकाझक कपड़े पहनकर रोड शो करता फिर रहा है, रैलियां कर रहा है...कोई गंभीरता या समझदारी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती.. कभी सोचा न था कि भारत के बुरे दिन यूं आयेंगे???
https://www.facebook.com/santosh.bharti.5095/posts/10155611043749037
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08 नवंबर 2016 को यू एस ए में राष्ट्रपति पद का मतदान था और उसी दिन भारत में नोटबंदी की घोषणा हुई। 
वस्तुतः बराक ओबामा साहब हटते - हटते अपने देश की उन कंपनियों को लाभ पहुंचाना चाहते थे जो दूने के कगार पर थीं। उनके भरोसेमंद मित्र ने अपने देश में नोटबंदी करके उन कंपनियों को भरपूर लाभ पहुंचा दिया, ऐसा जर्मन चांसलर ने एक प्रेस कान्फरेंस के दौरान रहस्योद्घाटन किया था। 
------ विजय राजबली माथुर 

Thursday 29 March 2018

शहर लखनऊ शूटिंग के लिहाज से फ्रेंडली है : तिगमांशु का साक्षात्कार ज़ेबा हसन को

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday 28 March 2018

मर्द को भी दर्द होता है

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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday 27 March 2018

आस और विश्वास ही जीवन का आधार है ------ रनिया नईम

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 24 March 2018

तीन सौ सीटों पर सोशल मीडिया वोटर्स ओपिनियन बदल चुनावी सफलता दिला सकती है

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday 11 March 2018

नेहरू - तिब्बत -चीन : कारण और भ्रम निवारण ------ एस डी ओझा

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Er S D Ojha
10 मार्च 1959 को तिब्बत में क्या हुआ था ? : 

चीन ने अक्टूबर 1950 से तिब्बत को अपने कब्जे में लेना शुरु कर दिया था । शुरूआत में तिब्बत सरकार झुक गयी । चीन के साथ संधि हुई । उसमें तय हुआ कि बाहरी मामले चीन के और अंदरुनी मामले दलाई लामा के अधीन रहेंगे । लेकिन 1958 में चीन के सम्बंध तिब्बत से बहुत हीं खराब हो गये । यहां तक कि चीन ने यह धमकी दे दी कि तिब्बत की राजधानी ल्हासा को वह बम से उड़ा देगा । तिब्बत में यह अफवाह फैल गई कि दलाई लामा को अगवा कर बीजींग ले जाया जाएगा । 10 मार्च 
1959 को दलाई लामा के आवास के चारों ओर 30 हजार तिब्बतियों ने एक मानव दीवार बना दी । यह दीवार अभेद्द थी । छः दिन तक यह दीवार बनी रही । लोग भूखे प्यासे डटे रहे ।

सातवें दिन यानी की 17 मार्च को चीन ने दलाई लामा के घर के सामने तोप व मशीन गन लगा दिए । उस तीस हजारी जनता पर इसका कोई फर्कन हीं पड़ा । 18 मार्च 1959 को चीनी सेना ने दलाई लामा के अंग रक्षकों को मौत के घाट उतार दिया । उन निहत्थे औरतों और बच्चों को मारना शुरु कर दिया । मारने से जनता तितर बितर हो गयी । चीनी सेना दलाई लामा के घर में दाखिल हुई । वहां दलाई लामा नहीं थे । 23 वर्षीय दलाई लामा वहां से भाग गये थे । दलाई लामा को वहां की स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था । इसलिए वे भागने में कामयाब हो गये ।

बाद के दिनों में जब चीन को पता चला कि भारत ने दलाई लामा को अपने यहां शरण दे रखी है, वह आग बबूला हो गया । उसने भारत से सीमा विवाद का बहाना बनाया । चीन के साथ भारत की दोस्ती हमेशा कागजों में रही । अब यह कागजी दोस्ती भी दुश्मनी में बदल गयी । चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया । 1962 की लड़ाई में भारत की बुरी तरह हार हुई । चीन ने हमारे एक बड़े भू भाग पर कब्जा कर लिया । चीन की साम्राज्यवाद नीतियों ने भारत को कभी भी अपना दोस्त नहीं माना । आज भी चीन भारत का दुश्मन है । आज भी वह सीमा 
विवाद सुलझाने में कोई रुचि नहीं ले रहा है ।


दलाई लामा हमारे शरणागत हैं । उन्होंने भारत के धर्मशाला धमें तिब्बत की राजधानी बना रखी है । दलाई लामा कहां जाते हैं ? क्या करते हैं ? सब पर चीन की नजर होती है । यदि दलाई लामा अरुणांचल प्रदेश भी जाते हैं तो चीन अपना विरोध जताना नहीं भूलता । आज यही चीन साम्यवाद को छोड़ अपना कायाकल्प कर चुका है । यह दुनिया के बाजार में अपना सिक्का जमा चुका है । वैश्वीकरण में चीन अब पहले पायदान पर आ गया है । चीन का आधिपत्य तिब्बत पर आज भी है , चीन का भारत के एक बड़े भू भाग पर कब्जा आज भी है ।


https://www.facebook.com/photo.php?fbid=2003189870006889&set=a.1680408095618403.1073741830.100009476861661&type=3

    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 10 March 2018

Madhubala’s tragic turn ------ Aisha Khan



*A thoughtful and incisive article in The New York Times by Aisha Khan on the iconic Indian film actress Madhubala (Mumtaz Jahaan Dehlvi) and her legacy. It includes comments by Nupur Sharma and Inam Abidi Amrohvi. Welcome feedback.
**Aisha Khan is an assistant editor at The Times. The first Indian movie she ever saw was “Mother India.” Her capsule review: “Heartbreaking.”

 ***Starting in the late 1940s — in a newly independent India finding its place in the world — Madhubala often portrayed modern young women testing the limits of traditions. Her roles “embodied the optimism of a new generation which was rather consciously moving away from its colonial past,” write Nupur Sharma and Inam Abidi Amrohvi, independent journalists researching Hindi cinema.



 It was probably the first ghost story in Indian cinema. A bewildered young man in a mansion chasing glimpses of an ethereal, veiled beauty. The movie, “Mahal,” was a huge success, making the lead actress, Madhubala, who was barely 16, a superstar overnight.

Nearly seven decades later, strains of the film’s signature song, “Aayega aane wala” (He will come), are instantly recognizable to most Indians, evoking the suspenseful tale of lost love and reincarnation.

Madhubala’s tragic turn in the film as an enigmatic young woman in search of love seemed to foreshadow her own glittering but short life. She died 20 years later as an icon of beauty and tragedy — her dazzling career, unhappy love life and fatal illness more dramatic than any movie she starred in.

Asked once to describe herself, Madhubala said she was so young when she entered the “maze” of the film industry — she made her debut at 9 — that she had lost herself.

“When you have forgotten yourself, what can you tell people about yourself?” she once said.

Besotted poets called her “a living Taj Mahal,” but Madhubala’s radiant beauty was not cold or forbidding. Her dreamy eyes, vivacious smile and mischievous laughter gave her a girl-next-door appeal.

She has been compared to Marilyn Monroe: the smoldering looks, the short career, the tragic end. “There was a remarkable similarity in the soft vulnerability of their faces,” writes Khatija Akbar in her biography of Madhubala. “The same abandon to their laughter, head thrown back, that same incandescent glow.”

Starting in the late 1940s — in a newly independent India finding its place in the world — Madhubala often portrayed modern young women testing the limits of traditions. Her roles “embodied the optimism of a new generation which was rather consciously moving away from its colonial past,” write Nupur Sharma and Inam Abidi Amrohvi, independent journalists researching Hindi cinema.

Unlike other actresses of her time, she wasn’t typecast. Her natural, understated acting style brought her equal success in serious social dramas like “Amar” (Eternal) and in lighthearted comedies and period pieces.

She could play with equal ease a spoiled heiress in “Mr. and Mrs. 55” (1955), a reporter investigating a murder in “Kala Pani” (Exile, 1958), and a rebellious woman whose car breaks down in the comedy “Chalti Ka Naam Gaadi” (If It Ain’t Broke, 1958).

Younger Indians may not have seen all her films, but in Bollywood, an industry that churns out musicals, Madhubala is associated with dozens of iconic songs: a flirty number in “Howrah Bridge” (1958), a folk song in “Phagun” and an ode to love in “Barsaat Ki Raat” (A Rainy Night, 1960). Though like most Indian actors, she was only lip-syncing.

Madhubala’s movies were also hits abroad, even in faraway places like Greece. Theater Arts, a New York magazine published from 1916 to 1964, called her “the biggest star in the world.” Life sent a photographer to profile her.

Frank Capra Jr., visiting Bombay for a film festival in 1952, was said to have offered her a job in Hollywood. But Madhubala’s father, who controlled her career, forbade it.

Despite her success and the breadth of her work, Madhubala’s acting skills were still underappreciated. She never won any awards, even for her biggest hits.

“Everyone went on about how beautiful she was, but she really held her own against some acclaimed actors,” said Tejaswini Ganti, an associate professor of anthropology at New York University who studies Bollywood.

Madhubala (Muh-DHOO-baa-laa) was born Mumtaz Begum on Feb. 14, 1933, in Delhi to a poor Pashtun family. Her father moved the family to Bombay, where they lived in a shantytown that happened to be near the Bombay Talkies film studio. Mumtaz caught the eye of the studio’s co-founder, Devika Rani, who later gave her the name Madhubala, or honeybelle.

Madhubala was soon known for her fastidious work ethic — on set at 6 a.m., no matter what. She took on as many films as possible, to support her family. She had already appeared in 17 films by the time she starred in “Mahal” (Mansion), one of nine movies she made in 1949.

Madhubala was uninhibited for an Indian actress of that time. She was playful and flirtatious, and made news for her dalliances. “Tarana” (Anthem, 1951) paired her with the star Dilip Kumar, who played a doctor who fell for Madhubala’s feisty village girl. She was immediately smitten with Kumar, 10 years her senior, and reportedly sent him a rose, the beginning of a long romance.

The two were the talk of film magazines, and fans loved their pairing. “She lived a far more liberal lifestyle than most Indian women, with romance itself an act of subversion in a conservative society,” Sharma said.

Kumar recommended Madhubala as his co-star for “Mughal-e-Azam” (“The Great Mughal”), based on the legend of a romance between the Mughal prince Salim and a dancer, Anarkali.

The director was K. Asif, whose painstaking vision made it the most expensive Indian movie of its time, and for years, the most successful.

One of its most memorable sequences, the only one originally filmed in color, is a dance in a hall of mirrors, faithfully recreated from a Mughal palace. A defiant Anarkali declares her love before the disapproving Emperor Akbar with a daring refrain: “I have only fallen in love, I have nothing to fear.”

In keeping with the era, the two lovers barely embrace, let alone kiss. Yet, a scene when Salim caresses Anarkali’s face with a feather is considered one of the most erotic in Indian cinema. But by the time the scene was filmed (the movie took about a decade to make), the two were long estranged, according to Kumar.

They had been eager to marry, but Madhubala’s father had set conditions, including that they star in movies he would produce. Kumar demanded that she choose between him and her father. She chose her family. An ugly lawsuit over another movie hastened their breakup.

“The romance that wasn’t realized was the big story of her life, which added to her legend,” Ganti said.

Once, asked her thoughts on love, Madhubala said: “No peace or happiness is possible in life without true love.”

In 1960, the year “Mughal-e-Azam” was finally released, she married her frequent co-star Kishore Kumar, a talented singer. While their pairing in a string of comedies was cinema gold, offscreen the two were quickly estranged.

Madhubala made a few more hit movies, but her health deteriorated rapidly, and she spent her last years at home, out of the public eye. In her final days, according to her sister, Madhubala would say: “I want to live. Please God, let me live.” She died on Feb. 23, 1969, nine days after her 36th birthday.

https://www.nytimes.com/interactive/2018/obituaries/overlooked-madhubala.html

Thursday 8 March 2018

यह महिला जनवाद एक छलावा है ------ सीमा आज़ाद

*  1947 में भारतीय सरकार बनने और 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के तुरन्त बाद संसद में महिलाओं को विवाह और सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार दिलाने वाले, अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दू कोड बिल’ पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद सहित पूरी विधायिका यानि संसद (जवाहर लाल नेहरू को छोड़कर) इसके खिलाफ खड़ी हो गयी और इसे ‘सामाजिक संरचना के लिए खतरा’ बताने लगी। बाद में यह टुकड़ों-टुकड़ों में तब कानून का हिस्सा बनने लगा, जब महिलाओं ने इसके लिए समय-समय पर आन्दोलन किया।
**   8 मार्च, अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर ये अखबार महिलाओं को मुबारकबाद तो देंगे, लेकिन औरतों की संघर्षशील छवि को रौंदकर एक निश्चित मानक में फिट सुन्दरी को खड़ा कर देंगे, या बाजारवादी आधुनिकता के साथ परम्परा का तालमेल करने वाली स्त्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर देंगे। यह स्त्री विरोध का छिपा हुआ तरीका है। 

Seema Azad
दस्तक मार्च-अप्रैल का सम्पादकीय
हादिया के बहाने एक नजर, महिलाओं के जनवाद पर :
24 साल की हादिया अपने घर से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बार-बार कह रही है कि उसने अपनी मर्जी से शादी की है और अपनी मर्जी से ही धर्म परिवर्तन किया है, लेकिन सत्ता की इकाईयां उसकी बात मानने को तैयार नही है। घर से लेकर राज्य तक सभी कह रहे हैं कि 24 साल की ‘अखिला अशोकन’ को ‘शफीन जहां’ नाम के व्यक्ति ने बरगलाकर ‘हादिया’ बनाकर उससे शादी कर ली है। इतना ही नहीं सरकार ने उसकी ‘मर्जी’ को नकारते हुए इस शादी की जांच का काम एनआईए को सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट में अपनी पेशी के दौरान हादिया ने कोर्ट के सवालों का जिस तरीके से जवाब दिया है, उससे उसके दिमागी रूप से सन्तुलित होने का भी प्रमाण मिल गया, फिर भी यही माना जा रहा है कि उसे बरगलाया गया है। इतना ही नहीं अदालत के सामने जब उसने अपनी मेडिकल की पढ़ाई जारी रखने, और पिता के साथ न रह कर पति के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की, तो कोर्ट ने उसकी बात अस्वीकार कर उसका अभिभावकत्व पढ़ाई के दौरान उसके कॉलेज के प्रिंसीपल को सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस ‘हादिया’ को लेकर बहस जारी है, अगली तारीख 8 मार्च है। 
कल्पना कीजिये, यदि अखिला उर्फ हादिया लड़की न होकर 24 साल का लड़का होती, तो क्या होता? निश्चित ही तब उसकी शादी और धर्म परिवर्तन दोनों को एक बालिग व्यक्ति का निर्णय माना जाता, और उसका अभिभावक उसके कॉलेज के प्रिंसीपल को बनाने की बात तो सोची भी नहीं जाती। हादिया के खिलाफ जिस तरह से इस देश की पूरी मशीनरी खड़ी हो गयी है, उससे यह समझा जा सकता है कि इस देश की संरचना में कितना जनवाद है। उसमें भी जब बात महिलाओं के जनवाद की हो, तो यह लोकतन्त्र दिखावटी लगने लगता है। लोकतंत्र को थामे रखने वाले कथित चारो स्तंभों पर एक नजर डाल लें तो यह बात खुलकर सामने आ जाती है कि हमारे देश में मुकम्मल समाजवादी जनवाद तो दूर, पूंजीवादी जनवाद भी नहीं है।
बात विधायिका से शुरू करें, तो 1947 में भारतीय सरकार बनने और 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के तुरन्त बाद संसद में महिलाओं को विवाह और सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार दिलाने वाले, अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दू कोड बिल’ पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद सहित पूरी विधायिका यानि संसद (जवाहर लाल नेहरू को छोड़कर) इसके खिलाफ खड़ी हो गयी और इसे ‘सामाजिक संरचना के लिए खतरा’ बताने लगी। बाद में यह टुकड़ों-टुकड़ों में तब कानून का हिस्सा बनने लगा, जब महिलाओं ने इसके लिए समय-समय पर आन्दोलन किया। 1986 में आया शाहबानों का मामला याद कीजिये, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम लॉ के खिलाफ जाकर सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तलाकशुदा पत्नी को भी गुजाराभत्ता का हकदार बना दिया, तो इसके खिलाफ संसद तुरन्त नया कानून लेकर आयी। इस कानून ने मुस्लिम तलाकशुदा महिला को मुस्लिम लॉ के अनुसार पत्नी मानने से इंकार कर गुजाराभत्ता पाने के अधिकार से वंचित ही रखा। मौजूदा तीन तलाक का मामला भी कितना ही प्रगतिशील होने का ढिंढोरा क्यों न पीटे, लेकिन इस कानून की कई कमियों के अलावा यह बड़ी कमी है कि इसमें यह भी कहा गया है कि ‘त्वरित तीन तलाक’ चूंकि मुस्लिम धर्म का हिस्सा नहीं है, इसलिए इसको समाप्त किया जाता है। यानि यह धर्म में होता, तो इसे समाप्त नहीं किया जाता।
लोकतंत्र के दूसरे स्तंभ न्यायपालिका पर बात करें, तो यह महिलाओं के मामले में बेशक न्याय करती हुई दिखती है, लेकिन बीच-बीच में यहां से भी ऐसे फैसले और बयान आ जाते हैं, जो इस जनवादी राज्य व्यवस्था की पोल खोल देते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने बीएचयू के महिला छात्रावास में रात्रि प्रवेश के समय को बढ़ाने सम्बन्धी याचिका को खारिज करते हुए अपनी व्यक्तिगत सोच को देश भर की लड़कियों पर थोप दिया। उन्होंने महिला छात्रावास में समय बढ़ाने की याचिका खारिज करते हुए कहा कि ‘रात में मेरी बेटी भी घर से बाहर होती है तो मुझे या मेरी पत्नी को उसके साथ सुरक्षा के लिए होना होता है।’ देश की लड़कियां उनसे पूछना चाहती हैं कि रात मंे घर ही सुरक्षित हैं तो ‘सुरक्षित घरों’ के अन्दर लड़कियों के साथ हिंसा या बलात्कार कैसे हो जाते हैं? या क्या इस डर से लड़कियां ‘बाहर’ निकलना बन्द कर दें, या सत्ता प्रशासन को इस डर का माहौल खत्म करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए? इसके पहले 1975 में मथुरा रेप मामले में मथुरा नाम की आदिवासी महिला से थाने के अन्दर बलात्कार करने वाले पुलिस कर्मियों को अदालत ने यह कहकर बरी कर दिया था कि ‘मथुरा सेक्स की आदी है।’ इस फैसले के खिलाफ देश भर की महिलायें सड़कों पर उतर आयी थीं। 90 के दशक में राजस्थान की भंवरी बाई के बलात्कारियों को निचली अदालत ने इस आधार पर दोषमुक्त कर दिया था, कि ‘भंवरी ‘नीची जाति’ की है और ‘ऊंची जाति’ के आरोपी उसे छू भी नहीं सकते।’
कार्यपालिका की बात करें, तो बीएचयू जैसे संस्थान इसका साक्षात नमूना है, जहां पढ़ने वाली लड़कियों के साथ विषय चयन से लेकर छात्रावासों के भोजन तक में भेदभाव किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद ज्यादातर संस्थानों में महिला सेल या जीएसकैश नहीं बनाये गये हैं, बल्कि यहां मनु के विधान को लागू किया जा रहा है। ये संस्थान पूरी तरह से पितृसत्तात्मक विचारों से लैस है। ऑफिस में काम करने वाली महिला का बॉस यदि पुरूष है, तो शोषण द्विस्तरीय है। इन संस्थानों की समस्या यह है कि यहां यदि किसी महिला के साथ महिला होने के नाते शोषण हुआ है, तो उसकी सुनवाई के लिए या तो कोई जगह नहीं है, या समाज में बात फैलने का हवाला देकर उसे उसे टाला जाता है, या महिला से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि वह एक और शोषण से बचने के लिए अपनी शिकायत ही वापस ले ले। इस अलोकतान्त्रिक माहौल के कारण ऐसे ज्यादातर मामले थानों तक पहुंचते ही नही हैं। लड़कियां इनके साथ जीने की आदी हो चुकी हैं। 
चौथे स्तंभ-पत्रकारिता की बात करें, तो यह महिलाओं पर हिंसा से जुड़े समाचार जिस तरीके से प्रकाशित करता है, वह अपने आप में महिला विरोधी होता है। महिला आन्दोलनों ने और अखबारों में महिला पत्रकारों की बढ़ती तादाद ने इनकी भाषा को कुछ हद तक ठीक किया है, वरना इनकी भाषा पूरी तरह महिला विरोधी और पितृसत्तात्मक ही होती है। महिला सम्बन्धी अपने स्तंभों में हिन्दी के अखबार लड़कियों को पारम्परिक सुशील सुन्दर बहू या बेटी बनने की ही सीख देते हैं, न कि परिवर्तनकामी इंसान बनने की। 8 मार्च, अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर ये अखबार महिलाओं को मुबारकबाद तो देंगे, लेकिन औरतों की संघर्षशील छवि को रौंदकर एक निश्चित मानक में फिट सुन्दरी को खड़ा कर देंगे, या बाजारवादी आधुनिकता के साथ परम्परा का तालमेल करने वाली स्त्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर देंगे। यह स्त्री विरोध का छिपा हुआ तरीका है। 

यह जनवाद एक छलावा है, जो हादिया जैसे कुछ मामलों में स्पष्ट रूप में सामने आ जाता है। वास्तविक जनवाद हमें लाना है, जो केवल महिलाओं की ही नहीं, दलितों, अल्पसंख्यकों की बराबरी की भी वकालत करता है। हर अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेहनतकश महिला आबादी इसी जनवाद को स्थापित करने करने का संकल्प लेती है, फिर से लेगी और संघर्ष के रास्ते पर बढ़ेगी, जब तक कि यह हमें मिल नहीं जाता।
साभार :

https://www.facebook.com/seema.azad.33/posts/2473781556180713

Wednesday 7 March 2018

नर्गिस राबदी उर्फ शम्मी जी : 1931 - 06-03-2018

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87  वर्षीय अभिनेत्री आंटी, नानी, परिवार की बुजुर्ग महिला जैसे कई किरदार निभाकर घर-घर में मशहूर हुईं. शम्मी आंटी ने ज्यादातर हास्य भूमिकाएं की. दिवंगत अभिनेत्री ने 'कुली नंबर-1', 'मर्दो वाली बात', 'शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी' जैसी कई फिल्मों में काम किया. उन्होंने 'देख भाई देख', 'जबान संभाल के', 'श्रीमान श्रीमती', 'कभी ये कभी वो' और 'फिल्मी चक्कर' जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों में भी काम किया. 
शम्मी पारसी थीं और बॉलीवुड के दिग्गज फिल्मकार दिवंगत सुल्तान अहमद की पूर्व पत्नी थीं.









संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश