Monday 9 January 2012

अन्ना-आंदोलन क्या था? -दूसरों की नजर से

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अन्ना जो कर रहे, वह पॉलिटिकल रेप हैः ठाकरे

8 Jan 2012, 2257 hrs IST,भाषा  
अपने इंटरव्यू में उन्होंने शांति भूषणका भी मामला उठाया। 
मुंबई।। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने टीम अन्ना परहमला करते हुए उसके सदस्यों को अयोग्य लोगों का हुजूमकरार दिया है। इस बार ठाकरे ने किरण बेदी अरविंदकेजरीवाल और मनीष सिसोदिया को अपने निशाने परलिया है। उन्होंने यह भी कहा कि अन्ना जो कुछ कर रहे हैंवह पॉलिटिकल रेप है। 

पार्टी मुखपत्र सामना में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है , 'टीम अन्ना के बीच मतभेद हैं। केजरीवाल बेदी औरसिसोदिया बेकार लोग हैं। शिवसेना प्रमुख ने टीम अन्नाद्वारा आयोजित अनशन को फाइव स्टार कॉर्पोरेट अनशनबताया है। 

ठाकरे ने कहा , ' वे लोग मामूली चीजों के लिए अनशन कररहे हैं। यह और कुछ नहीं बल्कि पॉलिटिकल रेप है। उन्होंनेसवाल किया कि क्या सचमुच में देश को लोकपाल बिल कीजरूरत है। ठाकरे ने कहा कि टीम अन्ना सरकार के साथधोखाधड़ी कर रही है। 




क्या आंदोलन को डुबो देगी टीम अन्ना?

प्रणव प्रियदर्शी   Friday January 06, 2012
आखिर अन्ना का आंदोलन घूम-फिरकर वहीं पहुंच गया जहां से शुरू हुआ था। इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही टीम ने जनता से ही पूछा है कि वह बताए अब क्या किया जाए। इस टीम का तर्क है कि चूंकि यह जनता का आंदोलन है, इसलिए जनता से यह सवाल पूछना सर्वथा जायज है कि अब इस चौराहे से किधर को चला जाए।

टीम अन्ना के कर्णधार भले ही इसे लोकतांत्रिक भावनाओं के चरम बिंदु के तौर पर रेखांकित कर रहे हों, वास्तव में यह राजनीतिक फूहड़पन की इंतिहा है। यह उसी एनजीओवादी सोच का एक और उदाहरण है, जिससे यह आंदोलन शुरू से ग्रस्त रहा है और जिसकी वजह से तमाम संभावनाओं के बावजूद यह मौजूदा दुर्गति को प्राप्त हो गया है।

चुनावी राजनीति में किसी एक या दूसरे दल की पूंछ पकड़कर उनकी राजनीति को आगे बढ़ाना एक बात है और जनता की रोजाना की जिंदगी से जुड़े ठोस मुद्दों को उठाते हुए चुनावी राजनीति को जनपक्षधरता की ओर मोड़ने की कोशिश अलग बात। दूसरी श्रेणी में पड़ने वाले आंदोलन बेशक, पहली श्रेणी के आंदोलनों से अलग हैं लेकिन इन्हें गैर राजनीतिक कतई नहीं कहा जा सकता। राजनीति को सुधारना गैरराजनीतिक काम भला कैसे हो सकता है?
मगर, टीम अन्ना ने अपने आंदोलन को शुरू से गैर राजनीतिक कहा। हालांकि इस मामले में नीयत पर शक करना जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना फिर भी कहा जा सकता है कि राजनीति को गंदी चीज मानकर उससे दूर रहने वाले मध्यमवर्ग को रिझाने के मकसद से ऐसा दुराव-छिपाव करना एनजीओवादी नजरिए की एक विशेषता रही है।

दरअसल, यह एनजीओवादी नजरिया कभी जनता की ताकत में भरोसा करता नहीं है। इसका पूरा भरोसा तंत्र और तंत्र से जुड़े ताकतवर लोगों में होता है। उसकी कोशिश बस उन ताकतवर लोगों को जनता की ताकत का भय दिखाकर उनसे मनचाहा फैसला करा लेना भर होता है।

आप ध्यान दें तो पाएंगे कि इस आंदोलन के दौरान शुरू से जनता की ताकत की बातें तो बहुत की गईं, लेकिन करप्शन जैसे मसले पर भी टीम अन्ना (अन्ना को कम से कम फिलहाल संदेह का लाभ देना पड़ेगा) की कोशिश जनता की ताकत जगाने के बदले मौजूदा तंत्र (सरकार) से एक खास कानून हासिल कर लेने तक सीमित रही। बहस को कभी लोकपाल बिल से आगे बढ़ने ही नहीं दिया गया।

इसी नजरिए का नतीजा था कि जैसे ही बिल लोकसभा से पारित होता दिखा, यह कहा जाने लगा कि अब तो बिल पास हो गया, अब बात को आगे बढ़ाने से फायदा ही क्या? यानी? आपकी तमाम कोशिश के बाद भी और जनता के तमाम आग्रह के बाद भी अगर सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही, वह वैसा ही बेकार बिल लाई जैसे पहले ला रही थी, तो जनता के आंदोलन को और तेज करने की जरूरत थी या उसे बिना शर्त वापस ले लेने की? मगर, एनजीओवादी नजरिया दूर तक नहीं सोचता। न ही जनता की ताकत के भरोसे सरकार से सचमुच टकराने की हिम्मत करता है। वह बस गीदड़ भभकियों से काम निकाल लेना चाहता है। अगर न निकले तो आखिरी मौके पर विरोधी के सामने घुटने टेक देने का विकल्प हमेशा खुला रखता है।


आप जरा याद कीजिए जेपी आंदोलन के दौरान क्या कभी यह सवाल आंदोलन के सामने आया था कि अब तो आपात काल की घोषणा हो गई, अब आंदोलन करके क्या फायदा? नहीं आया था और इसका कारण यह था कि वह आंदोलन सचमुच जनता की ताकत के भरोसे शुरू किया गया था, जनता की ताकत का डर दिखाकर सरकार से थोड़ा सा कुछ हासिल कर लेने के लिए नहीं।

बहरहाल, ताजा सवाल जो जनता की ओर टीम अन्ना ने उछाला है, उस पर भी एक नजर डाल ली जाए। यह भी एनजीओवादी नजरिए का ही कमाल है कि वह जनता को देवाधिदेव का दर्जा देकर भी अंदर ही अंदर खुद को उससे अलग कोई चीज माने रहता है। इसीलिए वह जनता का जिक्र ऐसे करता है जैसे वह उससे एकदम अलग सी कोई चीज हो। तथ्य यह है कि कोई भी आंदोलन जनता ही करती है। बेशक, देश की पूरी जनता नहीं करती। लेकिन, जो भी लोग आंदोलन में शामिल होते हैं, वह जनता का ही हिस्सा होते हैं। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता है, जनता का अधिक से अधिक हिस्सा उसमें शामिल होता जाता है। ऐसे में यह कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी आंदोलन का नेतृत्व उसमें शामिल पूरी जनता का कम से कम उस आंदोलन के संदर्भ में सबसे ज्यादा समझदार, अनुभवी हिस्सा होता है। इसीलिए वह आंदोलन को नेतृत्व दे रहा होता है।

अब अगर संकट के समय यह हिस्सा अपना दायित्व छोड़ अचानक बाकी लोगों से पूछने लगे कि आप बताएं हमें क्या करना है तो इसका साफ मतलब यह है कि नेतृत्व का वह हिस्सा या तो आंदोलन को डुबोने या खत्म कर देने का फैसला कर चुका है या फिर वह उसे कोई ऐसा मोड़ देने की साजिश में उलझा है जिसकी जिम्मेदारी वह खुद अपने सिर नहीं लेना चाहता।






 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

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