Thursday 29 December 2016

कृषि में बैंक कर्ज और नोटबंदी ------ मुकेश त्यागी


Mukesh Tyagi
28-12-2016
कृषि में बैंक कर्ज और नोटबंदी :
'सवा सेर गेहूँ' कहानी हम लोगों ने पढ़ी है और 'दो बीघा जमीन' जैसी फ़िल्में भी देखीं हैं जो गाँवों में सूदखोरों के भयंकर शोषण को दिखाती थीं। इससे ही जुडी कुछ बातें नए ज़माने के पूँजीवादी सूदखोरी की। 
1947 में राजनीतिक सत्ता में आया पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से इतना ताकतवर नहीं था कि बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण कर सके। इसलिए पूँजी की ताकत जुटाने के लिए उसने सरकारी पूँजी निवेश द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से सीमित, क्रमिक औद्योगिकीकरण का रास्ता चुना। कृषि में उसकी नीति सीमित जमींदारी-उन्मूलन, चकबंदी, कृषि-आधारित व्यवसायों, आदि के द्वारा एक जहाँ एक नया धनी किसान वर्ग खड़ा करना था जो गाँव में पूँजीवादी शासन का आधार बने, वहीँ यह भी निश्चित करना था कि बड़े पैमाने पर कृषि से शहरों की और पलायन न हो, क्योंकि इतनी बड़ी बेरोजगारों की फ़ौज उसे खतरा नजर आती थी। इस लिए थोड़ी बहुत जमीन, पशुओं, तालाब, आदि के सहारे इन सबको किसी तरह जिन्दा रहने लायक खेती-व्यवसाय आदि में लगाए रखने के लिए सरकारी-सहकारी बैंकों, सहकारी समितियों आदि द्वारा किसानों को कर्ज देने की योजनाएं लाईं गईं और 1951 के 70% के मुकाबले 1981 में सूदखोरों का देहाती कर्ज में हिस्सा 17% ही रह गया। 
लेकिन 1980 के दशक तक बड़ी इजारेदार पूँजी का मालिक बन चुका पूँजीपति वर्ग दिशा बदल रहा था और दुनिया भर के साम्राज्यवादी पूँजी के साथ मिलकर भारत को उनके लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनाने की कोशिश में जुट गया था। अब सार्वजनिक क्षेत्र उसके लिए अपनी भूमिका काफी हद तक खो चुका था और वह औद्योगीकरण को अपने हाथ में लेने में लगा था - आर्थिक सुधार! अब उसे अपने उद्योगों के लिए भारी संख्या में सस्ते मजदूरों की फ़ौज चाहिए थी जिसका एक ही स्रोत मुमकिन था बड़े पैमाने पर छोटे-सीमांत किसानों की कंगाली से उन्हें शहर में मजदूरी के लिए पलायन पर विवश करना। इसके विभिन्न तरीकों में एक कृषि में बैंक कर्ज की सप्लाई को सीमित करना भी है। इसके चलते फिर से ग्रामीण कर्ज में सूदखोरों को हिस्सा बढकर 2002 में 27% और 2013 में 44% हो गया। 
अब नोटबंदी में सहकारी बैंकों/समितियों पर खास तौर पर रोक लगाकर इस प्रक्रिया को और तेजी दी गई है। फसल की बिक्री का पैसा ना मिलने, अगली फसल बोने तथा रोजमर्रा के जीवन के लिए पैसे की जरुरत वाले छोटे-मध्यम किसानों को फिर से धनी किसानों और आढ़तियों से 3 से 5% महीना (36 से 60% सालाना!) के खून निचोड़ू सूद पर कर्ज लेने को मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार तो कुछ जगहों पर 10% तक के सूद की खबरें आईं हैं। 
नतीजा होगा, बड़े पैमाने पर इन कर्जदार छोटे किसानों-कृषि सम्बंधित व्यवसायियों की कंगाली और इनके जमीन-मकानों, आदि पर सूदखोरों द्वारा कब्ज़ा और इनकी परिवारों सहित शहरों में असंगठित क्षेत्र के उद्योगों में मजदूरों की फ़ौज में भर्ती और झोंपड़पट्टियों में निवास।
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28-12-2016 

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