Friday 26 July 2019

जनतान्त्रिक संस्थाओं के ह्रास का दुख अधिसंख्य जनता को नहीं ------ कनुप्रिया

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कनुप्रिया
8 hrs
संघर्ष से प्राप्त RTI का संशोधन बिल राज्यसभा में भी पास हो गया.

दरअसल बरसो की ग़ुलामी से आप छुटकारा भी पा लें तब भी ग़ुलाम मानसिकता ख़त्म नही होती. भारत मे लोकतंत्र राज्यशाही से लड़कर लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई करके नही आया, बल्कि अंग्रेज़ो की सत्ता से लड़ाई के बाद ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की नक़ल की तरह आया, हमे संविधान सभा का शुक्र गुज़ार होना चाहिये कि भारत के लिये जरूरी लोकतांत्रिक मूल्यों को उसने संविधान में समाहित कर लिया और देश की ग़ुलाम जनता जो चाहे अंग्रेज़ो की ग़ुलाम थी, चाहे हिन्दू मुग़ल राजाओं की, उसे लोकतांत्रिक अधिकारो का अहसास कराया.

मगर क्या जनता वाक़ई बिना संघर्ष के पाए इन लोकतांत्रिक अधिकारो के लिये तैयार थी?

मोदी की बढ़त बताती है कि हम आज भी एक राजा, एक शासक ढूँढते हैं जिसके भीतर सारी शासकीय शक्तियाँ केंद्रित हों, वो राजा अच्छा है या बुरा जिरह इस बात की है, तर्क इस बात पर हैं कि मोदी कैसे हैं, देश मे किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास होकर जनता प्रजा होती जा रही है इस बारे में नही. मोदीभक्त एक मित्र ने कहा था आज हमें एक अच्छे तानाशाह की ज़रूरत है, उसके बाद सारी बहस इस बात की रह गयी कि मोदी नही तो कौन. देश को एक बेहतर लोकतांत्रिक राज्य होना चाहिये ये बात ही नही रह गई.

तब सवाल उठता है कि क्या बिना ज़रूरी संघर्ष के पाए इन लोकतांत्रिक अधिकारों को वाक़ई भारतीय जनता समझ नही पाई, जैसा चर्चिल ने अपने अपमानजनक बयान में भारतीयों के लिये कहा था? अलग अलग राजशाहियों से निकले हम लोग क्या हम वाक़ई एक डेमोक्रेटिक स्टेट के लिए तैयार नही थे?

चर्चिल की भविष्यवाणी आज कुछ हद तक ठीक होते देख रही हूँ, लोकतांत्रिक संस्थाओ के केंद्र सरकार के अधीन होते जाने से जिस प्रकार की राजशाही जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है उसका दुःख अधिसंख्य जनता में कमोबेश कहीं नजर नही आता तो मन मे यही बात आती है कि जनता में लोकतांत्रिक अधिकार सत्ताहस्तांतरण के स्वाधीनता संघर्ष के साथ मिले हुए संविधान सभा का तोहफ़ा भर थे, जिसे शुरू के लीडरों ने अपने तईं सम्भालने की भरसक कोशिश की, मगर बतौर जनता बिना उन अधिकारो के प्रति जागरूकता, समझ और संघर्ष के हम उन्हें सहेज नही पाए, राजशाही और सामंतवाद की ग़ुलामी अब भी रोगाणुओं की तरह हमारे भीतर पड़ी है जो कभी भी बड़ी बीमारी बनने की क्षमता रखती है.

महज वोट देना लोकतंत्र है तो हम वाक़ई सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, इससे अधिक कुछ नही.

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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