Friday 4 December 2015

समाजवादियों की गंगा में भी अधिकतर ब्राह्मणवादियों का ही कब्जा है ------ जगदीश चंदर

***पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री शैलजा के एक बयान पर कंवल भारती जी के दृष्टिकोण पर मैंने यह टिप्पणी दी थी जिसके जवाब में निम्नांकित दो टिप्पणिया प्रकाश में आईं हैं :---
इस सच -झूठ का चक्कर छोड़ भी दें तो पहले उड़ीसा मे एक मंदिर में बाबू जगजीवन राम जी को रोक कर इन्दिरा जी को जाने को कहा गया था जिस पर इन्दिरा जी ने खुद भी बहिष्कार कर दिया था। बेहतर तो यह है कि इन लूट के अड्डों का बहिष्कार करने को आम जनता से कहा जाये।
Kanwal Bharti यह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है. निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. यह राजनीति है.

Jagdish Chander......................................................................................................... इस देश में तथाकथित जातिवाद पूर्ण रूप से ज़िंदा है,न तो यह बृद्ध हुआ है, और न ही बीमार है ? अगर बीमार होता तो सायद उसे मारने के लिए तथाकथित दलित ही अधिक प्रयास करते, किन्तु दुर्भाग्य से दलित भी , तथाकथित कटटरवादी आस्थावादी धार्मिकता और सामंती मानसिकता में पली विचारधारा में ही पैदा हुए और बड़े हुए है, सो वे भी अपने नाम के पश्चात तथाकथित जातिगत नामों का अलंकरण कर तथाकथित जातिवाद को ज़िंदा रखे हुए बढ़ावा दे रहे हैं ! मेरे अनेक रिस्तेदार हैं, और उनमे अनेक के साथ घनिष्टता भी है, मेरे अपने परिवार के अपने चाचा , ताऊ , को छोड़कर बाकी अन्य रिस्तेदार , देश के विभिन्न सहरों में स्थायी निवास कर चुके हैं, शर्म के मारे , हीन भावना से ग्रसित , सभी के समक्ष वे बेचारे हीन भावना से ग्रसित नहीं होना चाहते , इस लिए अपने नामों के पश्चात तथाकथित सवर्ण जाती के नामों का अलंकरण / धारण किये हुए हैं, क्यों है ऐसी स्थिति मंथन करें यह समाजवादी , समरसतावादी बुद्धि जीवियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए ?? , सोचिये कारण आज भी वह चाहे काशी विश्वनाथ का मंदिर हो, या पूरी का, द्वारका का हो या बद्रीनाथ, केदारनाथ को तो बेचारे भूल गए, या गली हो या मोहल्ला सहर का होटल , बस का सफर हो या रेल का सफर , पार्क हो या सड़क, कहीं पर साक्षात्कार हो या नौकरी लगने के पश्चात कार्यालय, बच्चों का स्कूल, हो या कॉलेज, अक्सर आपसे कोई भी अनजान ब्यक्ति जो आपको नहीं जानता पहली बार, बातों बातों में आपका नाम पूछता है, और यदि वह तथाकथित सवर्ण जाती का ब्यक्ति, नवजवान,युवती, स्त्री , पुरुष कोई भी हो, वह अपने नए मुलाकाती स्त्री , पुरुष मित्र है, और अपने नाम के पश्चात तथाकथित सवर्ण जाती के उपनाम के "अलंकार " को अलंकृति करता है, और आप साधारण नामधारी यानी आप नाम के साथ तथाकथित जातीय "अलंकार" का इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो एक बार आपसे ऐसे स्त्री , पुरुष, ब्यक्तित्व की कहीं पर भी उक्त स्थानों में आपकी मुलाक़ात होती हैं, तो पूछ बैठेगा/ बैठेगी की आपके सर- में - नाम क्या है यानी आपका सरनेम क्या है (दुर्भाग्य से उस ब्यक्तित्व का दोष नही है यह दोष तो तथाकथित , सामंती, पूंजीवादी, और तथाकथित कट्टर धार्मिक आस्थावादी संश्कृति , और इससे जुडी, अहंकारी चतुर धूर्त ब्राह्मणवादी जातिब्यवस्था का ही है, उसने इस सवर्णवादी/ ब्राह्मणवादी जातीय अहंकार की मानसिकता का जहर समाज के मष्तिष्क में घोल दिया है उसे ये मूर्ख नहीं निकाल पा रहे हैं , यह कैसे निकलेगा ? एक ही मार्ग है, कि हम तथाकथित जातीय नामों का "अलंकरण" बंद कर दें , बच्चों के विद्यालयों में प्रवेश के समय या तो कानून बनाएं कि बच्चों के साधारण नाम ही प्रवेश के समय लिखे जाएंगे या इसका अंत समाजवाद, कम्युनिज्म, (साम्यवाद ) के द्वारा ही होना है, उसको लाने का प्रयास जोरों से करें ??? . ............... 2 / - .........

वैसे समाजवादियों की गंगा में भी अधिकतर ब्राह्मणवादियों का ही कब्जा है, यानी, कुछ ऐसे ब्यक्तित्व थोड़ा सा ब्राह्मणवादी मानसिकता पाले हुए हैं, फिर भी हमे गंगा की इस तेज धार में तैरना सीखना होगा, यह सत्य के मार्ग का युद्ध है, इसमें सत्य की ही विजय होनी है, और सत्य पीड़ा, उत्पीड़न , दमन, और शोषण के गर्भ में छिपा है, जिस प्रकार सोना, चांदी , हीरा कहाँ छिपा है ) ,अरे मूर्ख तू सरनेम लेकर क्या करेगा ? अगर आपका कुछ भी जबाव नहीं होगा तो समझ जाएगा, और अगर आप सवर्ण हैं तो आप बेझिजक कहेंगे, कि पांडे , सांडे, मिश्रा, फिशरा, ठाकुर वाकुर, आदि, अहंकारी मानसिकता बड़ी तेजी और खुलेपन से जबाव देती है, किन्तु हीन दलित, पीड़ित और शोषित मानसिकता सच्चाई, और दबाव से डर कर सही उत्तर देती है , सायद मेरे तथाकथित जातीय मित्रों , रिश्तेदारों ने अपने जीवन में इस पीड़ा का अहसास नहीं किया है, वे शर्म के मारे सहरों में अपनी तथाकथित दलित जाति के नाम के " अलंकार " को नहीं लगाते और झूटी तथाकथित सवर्ण जातीय नाम के " अलंकार " का प्रयोग करते हैं, ऐसे लोग झूठ पर आधारित जिंदगी जीते हैं, ?
मैं यह मानता हूँ, कि वह शिक्षित और साक्षर ब्यक्ति जो अपनी शिक्षा का सदुपयोग करता है , और एक निररक्षक ब्यक्ति जिसे अक्षर ज्ञान भी न हो किन्तु सभ्य समाज में रह कर ज्ञान हाशिल कर चुका है, जैसे कबीर आदि, और समाज में ज्ञानी ब्यक्ति कहलाता है, चाहे वह साक्षर भी न हो वह हमारे विचारों से ब्रह्म ज्ञानी यानी तथाकथित सूद्र, दलित होते हुए भी ब्राह्मण है ??
और कोई ब्यक्ति शिक्षित है, शिक्षित होते हुए शिक्षा का दुरुपयोग कर रहा है, और अहंकारी है, जहरीली मानसिकता है, समाज में रहते हुए भी समाजवादी नहीं है, यानी सामंती, और लुटेरी प्रवृति का ब्यक्ति है , वह चाहे तथाकथित सवर्ण ब्राह्मण, ब्राह्मणवादी, राजपूत कुछ भी हो या दूसरा कोई अन्यन , वह सूद्र और नीच ही कहलायेगा ? और दुसरे कोई तथाकथित सवर्ण, ब्राह्मण, राजपूत, ठाकुर आदि, और अन्यन , साक्षर नहीं है, किन्तु समाज की संगत में कुछ ज्ञान हाशिल कर चुका है, और समाज की संगत से प्राप्त , उस ज्ञान का सदुपयोग नहीं करता , दुर्भाग्य से समाज में बहुमत में ज्ञान की परिभाषा को न जानने वाले लोग जाने - अनजाने , " अदरक की गाँठ को प्राप्त करने वाले बन्दर का , पन्सारी बनना के सामान " उस ब्यक्ति को जाने - अनजाने में ज्ञानी मान बैठते हैं, जैसे आजकल के बाबाओं का ढोंगी और पाखंडी प्रवचन --- एक निर्मल बाबा भी है, जो हजारों लाखों को मूर्ख बना रहा है " ?? ऐसा ब्यक्ति ज्ञानी होते हुए भी ज्ञान का दुरुपयोग कर रहा है, वह सूद्र यानी नीच बनकर लूट रहा है ? इस प्रकार के अवगुणी /निर्गुणी तत्व दुर्भाग्य से इस देश की तथाकथित जाती ब्यवस्था में पाये जाते हैं ?? और इस प्रकार के कुकर्मों का इस्तेमाल हर वर्ग का ब्यक्ति और तथाकथित जाती का ब्यक्ति कर रहा है, इसमें बहुमत तो तथाकथित नीच ब्राह्मणवादियों का यानी शोषकों, लालचियों,लुटेरों, धूर्तों, चालकों ,और चतुर अन्यनो का ही है ??

*********************************************************************************जगदीश चंदर जी ने जिस बात की ओर इंगित किया है वह महत्वपूर्ण है किन्तु उससे निबटने का जो मार्ग उन्होने प्रस्तुत किया है वह एक तो यह कि, सब लोग जाति सूचक शब्दों का प्रयोग स्वतः न करें एवं दूसरा यह कि कानूनन इस प्रयोग को रोका जाये। स्वेच्छा से सभी यों ही मानेंगे नहीं और कानून बनाने के लिए आपके पास बहुमत तो पहले जुटे तब न आप कानून बनाएँगे।
दोनों बातें तभी संभव हैं जब आप लोगों को अपनी बात सही तरीके से समझा सकें। 'एकला चलो रे' की तर्ज पर अपने ब्लाग 'क्रांतिस्वर' के माध्यम से मैंने ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध अनेक लेख दिये हैं किन्तु किसी का भी समर्थन नहीं मिलता है। जो पोंगा-पंथी/पुराण-पंथी/ब्राह्मण वादी हैं वे तो मान ही नहीं सकते, किन्तु 'एथीस्ट ' भी उस पर प्रहार करने में सबसे आगे हैं। वस्तुतः पोंगापंथ और एथीज़्म में कोई अंतर है ही नहीं दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
" आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-

1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।

यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।"
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/blog-post_16.html

यह उद्धृण एक पुराने लेख से है। परंतु समस्या यह है कि 'मूल निवासी आंदोलन' भी 'मूल सिद्धान्त' को नहीं मानता और आयातित विचारों को ही महत्व देता है।  वस्तुतः पाँच हज़ार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद 'धर्म' ='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का लोप हो गया और उसके स्थान पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-शोषण-उत्पीड़न' को धर्म कहा जाने लगा। 'वेदों' का जो मूल मंत्र -'कृणवंतों  विश्वमार्यम  ...' था अर्थात समस्त विश्व को 'आर्य'=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना था उसे ब्राह्मणों द्वारा शासकों की मिली-भगत से ठुकरा दिया गया। 'अहं','स्वार्थ','उत्पीड़न'को महत्व दिया जाने लगा। 'यज्ञ'=हवन में जीव हिंसा की जाने लगी। इन सब पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुलंद आवाज़ उठाई और लोग उनसे प्रभावित होकर पुनः कल्याण -मार्ग पर चलने लगे तब शोषकों के समर्थक शासकों एवं ब्राह्मणों ने षड्यंत्र पूर्वक महात्मा बुद्ध को 'दशावतार' घोषित करके उनकी ही पूजा शुरू करा दी। 'बौद्ध मठ' और 'विहार' उजाड़ डाले गए बौद्ध साहित्य जला डाला गया। परिणामतः गुमराह हुई जनता पुनः 'वेद' और 'धर्म' से विलग ही रही और लुटेरों तथा ढोंगियों की 'पौ बारह' ही रही।

यह अधर्म को धर्म बताने -मानने का ही परिणाम था कि देश ग्यारह-बारह सौ वर्षों तक गुलाम रहा। गुलाम देश में शासकों की शह पर ब्राह्मणों ने  'कुरान' की तर्ज पर 'पुराण' को महत्व देकर जनता के दमन -उत्पीड़न व शोषण का मार्ग मजबूत किया था जो आज भी बदस्तूर जारी है। पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी  योगीराज श्री कृष्ण की मामी  ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने  वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं।

एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा  कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत  यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?

यदि हम समाज की दुर्व्यवस्था से वास्तव में ही चिंतित हैं और उसे दूर करना चाहते हैं तो अधर्म को धर्म कहना बंद करके वास्तविक धर्म के मर्म को जनता को स्पष्ट समझाना होगा तभी सफल हो सकते हैं वर्ना तो जो चल रहा है और बिगड़ता ही जाएगा।

सत्य क्या है?:

'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य'।

अध्यात्म=अध्ययन +आत्मा =अपनी 'आत्मा' का अध्ययन।

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।

खुदा=चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।

गाड=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना ही इन तत्वों का कार्य है इसलिए ये ही GOD भी हैं।

व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट कारोबारियों के हितों में गठित रिलीजन्स व संप्रदाय जनता को लूटने व उसका शोषण करने हेतु जो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि परोसते हैं वह सब 'अधर्म' है 'धर्म' नहीं। अतः अधर्म का विरोध और धर्म का समर्थन जब तक साम्यवादी व वामपंथी नहीं करेंगे तब तक जन-समर्थन हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि शोषकों को ही मजबूत करते रहेंगे जैसा कि 2014 के चुनाव परिणामों से सिद्ध भी हो चुका है। "
http://krantiswar.blogspot.in/2014/06/blog-post_17.html

 जातिवाद के संबंध में जगदीश चंदर जी कहते हैं -"इसका अंत समाजवाद, कम्युनिज्म, (साम्यवाद ) के द्वारा ही होना है, उसको लाने का प्रयास जोरों से करें ???"
1917 से 1991 तक साम्यवाद रूस में रहा और वहाँ विफल ही इसलिए हुआ कि वहाँ 'धर्म='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'।" का कोई स्थान नहीं था वह एथीज़्म पर आधारित था जबकि मजहब या रिलीजन धर्म नहीं होते हैं और मार्क्स ने रिलीजन/मजहब का विरोध किया था उसे 'धर्म ( 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य') का विरोध बता कर एथीस्ट संप्रदाय स्वतः ही ढ़ोंगी संप्रदाय को मजबूत करता रहा और ;साम्यवाद' ढह गया। सरकारी संस्थानों को वहाँ खरीदने वाले वहीं के भ्रष्ट कर्मचारी और नेता थे जिनके पास जनता के शोषण से अकूत संपदा संग्रहीत थी। यदि धर्म का विरोध नहीं होता तो साम्यवाद आज भी बदस्तूर जारी होता। रूस के पतन से सबक सीख कर भारत में साम्यवाद को सही तरीके से लाने के प्रयास किए जाएँ तभी सफलता हासिल हो सकती है अन्यथा नहीं।
(विजय राजबली माथुर )

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