Saturday 28 December 2019

ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा ? ------ नवीन जोशी

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लोकतांत्रिक मर्यादा भी प्रशासन का दायित्व है
नवीन जोशी
भारतीय समाज कठिन दौर से गुजर रहा है। कठिन इस मामले में कि राजनैतिक-सामाजिक विचारों का जो द्वंद्व हमेशा सतह के नीचे रहता था, वह उग्र रूप में सतह के ऊपर निकल आया है। वैचारिक आलोड़न-विलोड़न में क्या दिक्कत थी यदि वह समाज के हिंसक विभाजन तक न पहुंचा होता। विचारों की विभिन्नता व्यक्तिगत-राजनैतिक द्वेष से भी आगे निकली जा रही है। वोटों की रोटी चूंकि इसी आग में सेंकी जा रही है, इसलिए वह शांत होने की बजाय उग्रतर हो रही है।

नागरिकता संशोधन कानून और नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति हिंसक और जवाबी दमन में होने लगना बहुत चिंताजनक है। शासन का दायित्व है कि वह हिंसा रोके और हिंसा करने-भड़काने वालों से कानूनन सख्ती से निपटे। इसी में उसका यह गुरुतर दायित्व भी निहित है कि कोई भी निर्दोष उत्पीड़ित न हो।  शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को होने देना भी उसकी जिम्मेदारी है। 

हाल के विरोध–प्रदर्शनों, जिनमें दुर्भाग्य से बड़ी हिंसा भी हुई, के बाद शांति एवं सद्भाव के लिए सक्रिय लोगों के खिलाफ भी प्रशासनिक और पुलिसिया कार्रवाई किए जाने की खबरें मिल रही हैं। ऐसे आरोप भी बहुत लग रहे हैं कि पुलिस बदले की भावना से काम कर रही है। लखनऊ का ही उदाहरण लें तो कुछ मामले चिंता में डालने वाले हैं और पुलिस की भूमिका पर गम्भीर सवाल उठाते हैं।

पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर को उपद्रव भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा जाना अफसोसनाक है। और भी होंगे लेकिन कम से कम ये दो नाम ऐसे हैं जिन्हें समाज में शांति, सद्भाव और रचनात्मक जागरूकता का काम करने के लिए जाना जाता है। कोई नहीं मानेगा कि वे हिंसा भड़का रहे थे। बल्कि, हर अशांति के समय ये अमन कायम करने के लिए आगे आते रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों से इनकी रिहाई की लगातार अपीलें भी इसीलिए हो रही हैं।

चूंकि प्रदर्शनकारियों का सबसे पहला सामना पुलिस से होता है, इसलिए वही सत्ता के प्रतीक रूप मे सामने आती है। इसी कारण कई बार वह गुस्से और हिंसा की चपेट में आती है। उपद्रवी जानबूझकर पुलिस पर हमला करके शांति भंग करते हैं। उनकी पहचान और पकड़ जरूरी है। लेकिन इसके जवाब में  पुलिस बदले की भावना से काम करेगी तो निर्दोष ही मारे जाएंगे, जैसा कि अक्सर होता है। सुरक्षा बलों को धैर्य और संयम की परीक्षा देनी ही होती है। उनका बर्बर हो जाना खतरनाक है। 

ध्यान रहे कि कल का विपक्ष आज सत्ता में है तो कल फिर वह विपक्ष में होगा। तब क्या उसे लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन के अधिकार की आवश्यकता नहीं होगी/ यही पुलिसिया दमन तब उसके हिस्से आएगा, तो/ राजनैतिक दमन के लिए पुलिस और कानून का इस्तेमाल कितना खतरनाक होता है, हम पहले देख चुके हैं।

हिंसा फैलाने वालों से सख्ती से निपटने के निर्देशों का अर्थ यह हरगिज नहीं होना चाहिए कि पुलिस को मनमानी करने या शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त करने वालों के दमन की छूट दे दी गई है। हिंसा न हो, यह देखना उसका दायित्व अवश्य है। इसके लिए उसके पास पर्याप्त अधिकार और कानूनी आधार हैं। इसकी आड़ में शांतिपूर्ण विरोध भी व्यक्त करने न देना, महिलाओं-बच्चों तक को पीट देना, गिरफ्तार कर लेना, धमकाना और तरह-तरह से आतंकित करना जारी रहेगा तो इसके विरोध में आवाजें उठनी चाहिए। ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा, जबकि इसके लिए संविधान उसे संरक्षण और स्वतंत्रता देता है।


समाज को यह आश्वस्ति सरकार से मिलनी ही चाहिए कि उसके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षित एवं सम्मानित हैं। 

http://epaper.navbharattimes.com/details/83371-81582-2.html


संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday 24 December 2019

मोहम्मद रफी साहब ( 24 December 1924 ) : उनकी पुत्रवधू की नज़र से

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Born: 24 December 1924, Kotla Sultan Singh
Died: 31 July 1980, Mumbai







 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 7 December 2019

स्त्री की योग्यता, उसका काम ही उसके चरित्र का पैमाना बने और समाज में उसे भी इंसान की हैसियत से आँका जाए ------ सारिका श्रीवास्तव

राजनेताओं के भद्दे बयान। सोशल मीडिया पर महिलाओं की हंसी उड़ाते चुटकुले-वीडियो-कार्टून। टीवी सीरियल्स और फिल्मों में महिलाओं की खराब छवि वाले चरित्रों की प्रधानता। प्रशासनिक अधिकारियों समेत पुलिस, वकील, डॉक्टर, शिक्षक इत्यादि का महिलाओं के प्रति संकीर्ण नजरिया। इन सबके साथ जहां दुनियाभर में महिला अंगों को इंगित करके दी जाने वाली गालियों की भरमार हो; ऐसे समाज में महिलाओं के और महिलाओं के लिए बेहतर हालात की कैसे उम्मीद की जा सकती है? और उस पर सामाजिक बुनावट पुरुष प्रधान हो तो मतलब— करेला और नीम चढ़ा।

जिस समाज में स्त्रियों का चरित्र उनकी योग्यता या काम के आधार पर न आँका जाता हो, बल्कि उनके चरित्र का पैमाना उनकी यौनिकता हो। उनका पहनावा, समय की पाबन्दी और धूम्रपान एवं नशीले पदार्थों का सेवन स्त्रियों के चरित्र के पैमाने हों उस समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति बेहतर होगी, यह उम्मीद कैसे की जा सकती है?

जिस देश की करीब 60 फीसदी महिलाएँ केवल गृहिणी हों लेकिन लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में बराबरी का अधिकार रखने के बावजूद उनके द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा अपने घरों में उनके द्वारा किए जा रहे काम को देश की आर्थिक व्यवस्था/नीति से बाहर रखा जाता हो, जिससे जीडीपी प्रभावित न हो और विश्व परिदृश्य के बाजार में घूम रहे पूंजीपति देशों को लुभाने के लिए देश की आर्थिक स्थिति का सूचकांक ऊपर दिखे और जब वे देश में इन्वेस्ट करें तो सत्तासीन सरकारें उस इन्वेस्ट का फायदा उठाकर अरबों रुपए डकार सकें। जहाँ प्रत्येक सत्तासीन सरकार का चरित्र भी संदिग्ध हो उस देश की आधी आबादी कही जाने वाली प्रजाति आखिर कैसे बेहतर स्थिति हासिल कर सकती है?

जिस समाज में आशाराम, गुरमीत रामरहीम, चिन्मयानंद, कुलदीप सेंगर, जस्टिस गोगोई जैसे लोग बेख़ौफ़ घूम रहे हों या संरक्षण प्राप्त कर रहे हों उस देश में महिलाओं की स्थिति कमतर या दोयम दर्जे की ही नहीं, बल्कि मापी ही नहीं जाएगी।

जिस देश की सरकार खुद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा रही हो उस देश में आम जनता कैसे न्यायपालिका और उसकी कार्यप्रणाली पर यकीन कर सकती है?

जिस देश की सरकार सारी प्रशासनिक, सरकारी और स्वायत्त संस्थाओं तक पर काबिज हो, उन्हें अपने नियंत्रण में रख शिकंजा कसना चाहती हो, या उन्हें निजी संस्थाओं को सौंप देने पर आमादा हो, सरकारी संस्थाओं की शाख जानते-बूझते षड्यंत्र कर गिराई जा रही हो, उन्हें जानबूझकर निजी संस्थानों के समक्ष कमजोर किया जा रहा हो उस देश की संस्थाओं पर उस देश की ही जनता कैसे यकीन कर सकती है?

इन हालात में सरकार या सरकारी तंत्र जानबूझकर लोगों को उकसाता है। इस तरह के बयान, खबरों, वीडियो, पोस्ट को बढ़ावा दिया जाता, उन्हें विभिन्न तरीकों से वायरल कर जन-जन तक पहुंचाया जाता है जिससे जनता की भावनाओं को भड़काया जा सके। और जब भड़क जाए तो उसे दूसरी तरफ से हवा देकर हवा का रुख अपने मुताबिक कर आग के हवाले कर दिया जाता।

अभी तक केवल मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएँ इसका उदाहरण थीं। लेकिन अब प्रशासनिक गुंडे इन कामों को अंजाम देंगे। तेलंगाना के हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों का एनकाउंटर इसका पहला उदाहरण है।

आगे इस तरह की खबरें सुनने की आदत अब डाल लेना चाहिए। जब किसी भी घटना के आरोपी का एनकाउंटर आम बात होगी। असंतोष न भड़के और अवाम को बरगलाया जा सके, इसके लिए ऐसे एनकाउंटर होते रहेंगे। जब-जब खुद के स्वार्थ के लिए अवाम का उपयोग करना होगा इसी तरह के एनकाउंटर करके लोगों का ध्यान भटकाया जाएगा। और सबसे बड़ी और जरूरी बात जो भी इस सरकारी या सरकारी तंत्र का विरोध करेगा, या उसके खिलाफ जाएगा, जिससे इस सरकार को खतरा महसूस होगा उसका भी एनकाउंटर करने की घटनाओं का सामने आना भी कोई आश्चर्य न होगा।

बेहतर होता कि बलात्कार के इन चारों आरोपियों को फ़ास्ट ट्रेक के जरिए कानूनन सजायाफ्ता कर एक नज़ीर पेश की जाती। लेकिन ऐसा न हुआ। या यूँ कहा जाए कि जानते-बुझते ऐसा नहीं किया गया जिससे न्यायपालिका जैसी सर्वोच्च संस्था पर से लोगों का यकीन हट जाए। संविधान में दर्ज बात झूठी साबित हो और लोगों का संविधान पर से विश्वास उठ जाए। और ये संविधान को अपने अनुसार तोड़-मरोड़ सकें। जिससे यह फासीवादी सरकार संवैधानिक रूप से गुंडागर्दी करने की हकदार हो जाए।
यह बहुत ही खतरनाक शुरुआत है। इसका आगे अंजाम क्या होगा? यह आगे किस तरह का स्वरूप धारण करेगा? पुलिस इस हथियार का उपयोग किस हद तक करेगी? आम जनता वैसे भी पुलिस से डरती-सहमती थी अब यह ख़ौफ़ और बढ़ जाएगा।

उससे भी ज्यादा खतरनाक है लोगों का इस निंदनीय घटना के पक्ष में उत्साह के साथ आना। इस बहाव में अनेक वे भी बह गए जो बुद्धिजीवी होने के साथ ही साथ प्रगतिशील सोच भी रखते हैं। लेकिन बहुत सारे ऐसे युवा भी हैं जो अपनी दुनिया में रमे होने के बावजूद इस घटना की आग की गर्माहट से अपने को बचा नहीं पाए, आश्चर्यजनक तरीक़े से वे इस एनकाउंटर को गलत मान रहे हैं।

बहरहाल, इस सबसे स्त्रियों की बिगड़ी दशा और स्त्रियों के प्रति समाज की घिनौनी सोच को नहीं बदला जा सकता। हमें मिलकर यह सोचना होगा कि हम समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा किस तरह दिला सकते हैं।

किस तरह हम स्त्री को बाजार का खिलौना बनने या बाजार का माल बनने से बचा सकते हैं।

देश में महिलाओं के श्रम को मानव श्रम में किस तरह परिवर्तित कर सकते हैं जिससे उनका श्रम देश के आर्थिक आंकड़ों में दर्ज हो सके।

किस तरह स्त्री की योग्यता, उसका काम ही उसके चरित्र का पैमाना बने और समाज में उसे भी इंसान की हैसियत से आँका जाए।

जिस दिन हम इतना कर लेंगे बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसी घिनोनी घटनाएँ स्वतः ही कम होने लगेंगी और हम उम्मीद कर पाएंगे कि जल्द ही खत्म भी हो जाएंगी।

सारिका श्रीवास्तव
राज्य सचिव
भारतीय महिला फेडरेशन, मध्य प्रदेश

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