Sunday 28 February 2016

भारत का विभाजन क्यों हुआ ? ------ डॉ. गिरीश मिश्र

**प्रश्न उठता है कि भारत का विभाजन क्यों हुआ जब मुस्लिम लीग मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर दर्जा देने की बात कर रही थी। यह स्थिति 1946 की गर्मियों में बदल गई। ब्रिटिश उपनिवेशवाद नहीं चाहता था कि भारत अखंड रहे और एक सुदृढ़ देश बन कर उभरे। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों चाहते थे कि उनकी निजी पूंजी को चरने का पूरा मौका मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रस्तावों तथा प्रस्तावित औद्योगिक नीति को देखते हुए उन्हें संदेह था कि भारत में शायद उनकी निजी पूंजी को बेधड़क चरने का अवसर न मिले इसीलिए वे भारत के विभाजन के पक्षधर बने। उनकी रणनीति थी कि पाकिस्तान बनाकर उसे भारत से भिड़ा दिया जाए और उनको बेरोकटोक काम करने का मौका मिले।**

***आयशा जलाल के अनुसार इतिहास की जगह एक कुपरिभाषित इस्लामी विचारधारा को थोपने के कारण एक आलोचनात्मक ऐतिहासिक परंपरा न विकसित हो पाई है और न ही तर्कसंगत सार्वजनिक बहस संभव है। पाकिस्तान के स्कूलों  में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह कृत्रिम राष्ट्रीय मिथकों को बढ़ावा देता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंतर पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार पाकिस्तान के अस्तित्व को उचित ठहराया जाता है।***


12, FEB, 2016, FRIDAY 11:05:55 PM
इन दिनों पाकिस्तान को लेकर काफी चर्चा हो रही है किन्तु ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि पूरी चर्चा सतही है क्योंकि किसी ने भी पाकिस्तान के अंदररूनी हालात और शक्ति-संतुलन पर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई है।
यहां हम अनेक पुस्तकों में से सिर्फ दो का जिक्र करेंगे। पहली पुस्तक है: ''ए केस ऑफ  एक्सप्लोडिंग मैंगो•ाÓÓ जिसके लेखक हैं- मोहम्मद हनीफ। दूसरी पुस्तक है: ''द स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान: ए मुस्लिम होमलैंड एंड ग्लोबल पॉलिटिक्सÓÓ जिसकी लेखिका हैं- आयशा जलाल। दोनों पाकिस्तानी मूल के हैं और काफी प्रतिष्ठित हैं।
आइए हम पहली पुस्तक से अपनी चर्चा शुरु करें। यह पुस्तक उपन्यास बतौर लिखी गई है और लेखक ने तथ्यों को रोचक बनाकर पेश किया है यद्यपि इसके सारे चरित्र वास्तविक हैं। जून 1988 का पाकिस्तान। जनरल जिया को पक्का विश्वास है कि उनकी हत्या की साजिश रची जा रही है इसलिए उन्होंने अपने सरकारी आवास आर्मी हाउस के चारों ओर बाड़ा लगवाने के साथ ही कड़ी सुरक्षा कर ली है। ऐसे अनेक लोग हैं जो उन्हें मृत देखना चाहते हैं उनमें राजनेताओं के अतिरिक्त फौजी जनरल भी हैं जो अपनी पदोन्नति के लिए बेताब हैं। फौजी जनरल चाहते हैं कि यदि जनरल मिया को खत्म कर दिया जाय तो उनके ऊपर बढऩे का मार्ग प्रशस्त हो जाय। इतना ही नहीं, उनके सीआईए, आईएसआई और रॉ से भी खतरा दिख रहा है। मिलिटरी अकादमी के एक जूनियर अफसर की हत्या फौज ने कर दी है क्योंकि अली शिगरी से जिया भयभीत थे।
जिया को लगता है कि उनकी मृत्यु से कई लोगों को फायदा होगा। कुछ को प्रभाव बढ़ाने की ललक है तो कुछ लोग अपनी पहचान बनाने के लिए आतुर हैं।
महज दो महीने बाद जनरल जिया राष्ट्रपति के लिए निर्दिष्ट विमान पाक वन में बैठकर यात्रा पर निकलते हैं मगर विमान में उड़ान के समय विस्फोट हो जाता है जिसमें जिया और उनके साथ जा रहे सबकी मौत हो जाती है।
पाकिस्तानी टेलीविजन पर विमान हादसे के बाद दो बुलेटिनों के बाद उसके प्रसारण पर रोक लगा दी जाती है क्योंकि कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना का हौसला पस्त हो सकता है।
उपर्युक्त विमान बहावलपुर रेगिस्तान से उड़ा था जो अरब सागर से करीब 600 मील की दूरी पर है। थोड़ी देर के लिए जनरल जिया न•ार आते हैं और लगता है कि वे कुछ परेशान हैं। उनकी दाईं ओर पाकिस्तान स्थित अमरीकी राजदूत न•ार आ रहे हैं। बाईं ओर पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था (इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) के प्रमुख जनरल अख्तर हैं। उनको देखने से लगता है कि संभावित हादसे को देखते हुए उन्हें विमान में नहीं सवार होना चाहिए। जो भी हो उन सहित दस व्यक्ति विमान में सवार होते हैं। विमान हादसे का शिकार हो जाता है और जनरल जिया, पाकिस्तानी राजदूत तथा जनरल जिया के सहयोगी समेत दस के दस लोग मर जाते हैं।
विमान बनाने वालों अमेरिकी कंपनी लॉकहीड के विशेषज्ञ विमान के उडऩे के मात्र चार मिनट बाद वह हादसे का शिकार होने के कारणों का विश्लेषण करते हैं।  इस कंपनी के सी-190 विमान में प्रत्यक्षतया कोई खामी न•ार नहीं आती है फिर भी वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। फलित ज्योतिष में विश्वास रखने वाले मानते हैं कि काफी अरसे पहले ही भविष्यवाणी सामने आई थी कि पाकिस्तानी फौज के शीर्ष पर बैठे लोग और अमेरिकी राजदूत विमान हादसे के शिकार हो जाएंगे। उपन्यासकार मोहम्मद हनीफ के अनुसार वामपंथी बुद्धिजीवी मानते हैं कि एक क्रूर तानाशाही का खात्मा होना ही था और इसे वे ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं। उधर अफगानिस्तान से सोवियत फौज के सिपाही घर वापसी की तैयारी में जुटे हैं। खाने-पीने और बहावलपुर में खरीदारी कर झूमते-झामते विमान में सवार होकर जा रहे हैं। उनका मनोभाव काफी बदल गया है। वे यही सोचकर आए थे कि उनकी घर वापसी शायद ही हो पाएगी।
अब बहावलपुर से उडऩे वाले पाकिस्तानी विमान की ओर देखें। महज कुछ पलों में वह हादसे का शिकार हो जाता है। उसमें सारे के सारे लोग मर जाते हैं। जनरल जिया समेत सभी जनरलों के परिवारों को पूरा मुआवजा मिलता है। उनके परिवारों को यह सख्त हिदायत है कि वे मृत व्यक्तियों के ताबूतों को न खोलें। विमान चालकों के परिवार वालों को अलग बंद रखा जाता है और कुछ दिनों के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता है। अमेरिकी राजदूत के शव को अर्लिंग्टन कब्रिस्तान में दफनाकर उसके इर्द-गिर्द कतिपय सुशिष्ट शब्द लिख दिए जाते हैं। किसी भी मृत व्यक्ति की शव परीक्षा नहीं होती है। इस प्रकार मृत्यु के कारणों पर पर्दा डाल दिया जाता है। अमेरिकी पत्रिका ''वैनिटी फेयरÓÓ और ''न्यूयार्क टाइम्सÓÓ ने जरूर संपादकीय लिखकर उनकी मृत्यु से जुड़े कुछ सवाल उठाए। इसके बाद मृतकों के घरवालों ने कोर्ट में मुकदमे दर्ज करवाए किन्तु उन्हें उच्च पद देकर उनका मुंह बंद करवा दिया गया। मोहम्मद हनीफ का मानना है कि विमानन के इतिहास में पूरी घटना पर पर्दा डालने का प्रयास शायद ही कभी हुआ है। विमान हादसे के बाद न मृतकों का शव मिला और न ही कोई फोटो खींचकर प्रदर्शित किया जा सका। विमान के मलबे में हड्डियों के टुकड़े जरूर यत्र-तत्र  मिले किन्तु उसमें सवार लोगों की ठीक से पहचान असंभव थी। किसी प्रकार से सबको दफना दिया गया।
उपन्यास के अनुसार अली शिगरी पूरी घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। बतलाया गया कि एक अनजानी वस्तु ने विमान को टक्कर मारी जिससे वह क्षतिग्रस्त होकर गिर गया। एक छोटे अफसर अली शिगरी के बयान के अनुसार, 31 मई 1988 की सुबह वह ड्यूटी पर ठीक साढ़े छ: बजे आया और उसने अपना काम शुरु किया। तभी उसने महसूस किया कि उसका तलवार को बांधने वाला बेल्ट ढीला हो गया है। जब उसने कसने की कोशिश की तो वह टूट गया। वह अपने बैरक की ओर उसके बदले नए बेल्ट के लिए गया मगर उसने अतिक नामक व्यक्ति को अपना काम सौंप कर बैरक में चला गया।
उधर 15 जून 1988 को जनरल जिया कुरान शरीफ पढ़ते समय आयत 21:87 पर आ गए और उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। वे अपने आधिकारिक आवास आर्मी हाउस में ही बने रहे और उसे छोड़कर राष्ट्रपति निवास में जाने को तैयार नहीं थे। दो महीने और दो दिन बाद पहली बार आर्मी हाउस से निकलकर हवाई जहाज में बैठे और उसके हादसे में उनकी मृत्यु हो गई। यद्यपि राष्ट्र भर में खुशी हुई किन्तु कुरान शरीफ की उपर्युक्त आयत को दुबारा पढऩे पर उनके मन में भ्रम पैदा हो गया क्योंकि उसमें कहा गया था कि वे उन लोगों में हैं जिन्होंने अपनी आत्मा को उत्पीडि़त किया है। सुबह के समय जनरल जिया कुरान शरीफ का अंग्रेजी अनुवाद पढऩे लगे थे जिससे नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनके द्वारा उसे स्वीकारने के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण को तैयार करने में मदद मिलती। वे कुरान शरीफ से कोई उपयुक्त पैराग्राफ को उद्धृत करना चाहते थे जिससे उनका भाषण दमदार बन सके। जनरल जिया अपना भाषण उर्दू में देना चाहते थे मगर बीच-बीच में अरबी उद्धरण देकर अपने सऊदी मित्रों को प्रभावित करना चाहते थे। किन्तु उन्हें असली चिंता रोनाल्ड रीगन की थी जो शायद उनके उर्दू-अरबी मिश्रित भाषण को नहीं समझ पाएं। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में ही भाषण देने का निर्णय लिया। जनरल जिया ने सैनिक इतिहास संबंधी सारी पुस्तकों और अपने पूर्ववर्ती जनरलों की तस्वीरों को अतिथिगृह में लगवा कर वर्तमान कमरे को प्रार्थनागृह बना दिया था। साथ ही वही मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक का दफ्तर भी बन गया था। वे जहां रहते थे वह एक औपनिवेशिक युग का बंगला था जिसमें 14 शयन कक्ष, अठारह एकड़ का लॉन और एक छोटी मस्जिद थी।
नया राष्ट्रपति निवास तो तैयार था मगर वे वहां नहीं जाना चाहते थे। वहां विदेशी अतिथियों और स्थानीय मुल्ला लोगों का आदर-सत्कार किया जाता था। उन्हें डर था कि कहीं आर्मी हाउस से निकल कर वहां जाने पर उनकी सुरक्षा खतरे में न पड़ जाए। जनरल जिया सदैव कुरान शरीफ में अपना पथ प्रदर्शन ढूंढते थे। ग्यारह वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से अपदस्थ करने के पहले उन्होंने कुरान शरीफ का मनन कर पथ प्रदर्शन लिया था। उनको सत्ता से हटाकर मुकदमा चलाया था। फांसी की सजा को निरस्त करने की अपील को ठुकराकर फांसी पर लटकाने का फैसला लेने के बाद उन्होंने कुरान शरीफ से ही पथ प्रदर्शन लेने की कोशिश की थी। जनरल जिया इतिहास के चौराहे पर खड़े थे। पिछले ग्यारह वर्षों से वे प्रतिदिन कुरान शरीफ से पथ प्रदर्शन पाने की कोशिश में लगे थे। वे आर्मी हाउस की मस्जिद के इमाम से पथ प्रदर्शन चाहते थे मगर उनसे मिलने के पूर्व वे अपने शयन कक्ष से गुजरे जहां उनकी पत्नी सोई हुई थीं। उनकी पत्नी उन पर दबाव डाल रही थीं कि वे राष्ट्रपति निवास में चलें मगर वे अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे।
वे अपने निवास के साथ जुड़ी मस्जिद में नमाज के लिए पहुंचे। इमाम ने प्रार्थना शुरु की और उनके पीछे जनरल जिया बैठे थे और उन्हें साथ ही इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस के प्रधान जनरल अख्तर थे।
जनरल जिया को आर्मी चीफ बने मात्र 16 महीने हुए थे। उनको भुट्टो ने ही इस पद पर बैठाया था। उन्होंने भुट्टो को अपस्थ कर चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेशन के रूप में अपने को पदस्थापित कर दिया था। भुट्टो को जेल में डाल दिया गया। सारे देश में आंतक का माहौल था। अब एक ही रास्ता था: षडय़ंत्र के जरिए जनरल जिया को उखाड़ फेंका जाय। कहना न होगा कि साजिश के जरिए ही जनरल जिया को समाप्त किया जा सकता है।
मिलिटरी अकादमी के अली शिगरी को आगे किया गया। उसके पिता जो सेना के अधिकारी थे उनकी हत्या कर दी गई थी। अली शिगरी जनरल जिया से बदला लेना चाहता था। अली के कारण भले ही कई लोगों का भला होगा मगर वह तो सिर्फ बदला लेना चाहता है।
उपर्युक्त उपन्यास ''ए केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोजÓÓ काफी रोचक है यद्यपि उसने पाकिस्तान की तत्कालीन स्थिति को अपना आधार बनाया है। दूसरी पुस्तक की चर्चा हम अगली बार करेंगे।

http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/5714/10/330
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद फौजी शासन की अहमियत बहुत कुछ समाप्त हो चुकी है। अब वह जमाना जा चुका है जब लियाकत अली खां से लेकर बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी। इसी दौरान डॉ. खां साहब को मौत के घाट उतार दिया गया और जुल्फिकार अली भुट्टो को भी फांसी पर लटका दिया गया। वर्ष 1988 में जनरल जिया की जीवन-लीला समाप्त हो गई। कालक्रम में बेनजीर भुट्टो काफी संघर्ष के बाद सत्ता में आईं मगर उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया गया। उनकी मौत की जांच करने वाले आयोग का मानना था कि उन्हें मारने वालों के पीछे बड़ी ताकतें सक्रिय थीं।
भारत के साथ निरंतर तनाव और अफगानिस्तान के लड़ाई ने पाकिस्तान को काफी नुकसान पहुंचाया। वर्ष 2003 और 2013 के बीच 40 हजार से अधिक लोग आतंकवाद के शिकार हुए हैं। साथ ही पाकिस्तान की सुरक्षा पर खर्च बढ़ा है यद्यपि इसका भार बहुत कुछ अमेरिका ने उठाया है। जो भी हो एक आम पाकिस्तानी का देश के बाहर संदेह की निगाह से देखा जाता है। देश के अंदर ऊर्जा का भारी संकट है, चोरी और राज्य ही नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों द्वारा सरकारी संस्थानों के बिलों का भुगतान न करना भारी समस्या है। देश के अंदर रोजगार के अवसर घट रहे हैं इसलिए शिक्षित मध्य वर्ग ही नहीं बल्कि अन्य लोग भी देश के बाहर नौकरियों की तलाश का रहे हैं। अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई से पाकिस्तानियों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। तालिवानीकरण के बढ़ते खतरे से लोग च्ंिातित हैं। आम लोगों के सामने एक बड़ा सवाल है कि वे एक दकियानूसी और कट्टर धार्मिक राज्य चाहते हैं या एक आधुनिक, प्रबुद्ध राज्य। इस प्रश्न पर विचार विमर्श एक लम्बे समय तक सैनिक सत्तावाद के कारण बाधित रहा है। वह जुझारू इस्लाम को बढ़ावा देता रहा है। कहना न होगा कि विश्व भर में लोग उसे शक की न•ार से देखते हैं।
लोग चिंतित हैं कि पड़ोसी देश भारत में आ•ाादी के बाद से ही जनतंत्र पनपा है और उसकी जड़ें मजबूत हुई हैं वहीं पाकिस्तान में एक लम्बे समय तक सैनिक शासन रहा है। अब भी सेना का दबदबा बना हुआ है और उसकी गुप्तचर संस्था देश पर हावी है। सेना देश के आंतरिक और बाहरी विरोधियों को दबाने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल कर रहा है। आम पाकिस्तानी को न जीवन और न ही संपत्ति की सुरक्षा है। उसे सामाजिक एवं आर्थिक अवसर राज्य की ओर से नहीं मिलते हैं। हिंसा और अनिश्चितता का खतरा लगतार बना हुआ है। पिछले 67 वर्षों के दौरान अब तक पाकिस्तानी यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि वे देश की इस्लामी पहचान बनाए रखना चाहते हैं या उसे एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में देखना चाहते हैं। बंगलादेश के अलग होने के बाद पाकिस्तान में भारत की तुलना में काफी कम मुस्लिम आबादी रह गई है। भारत में तो देशी रियासतें कब की खत्म हो चुकी हैं मगर पाकिस्तान में उनका अस्तित्व बना हुआ है। वहां अब भी दस रियासतें मौजूद हैं। पाकिस्तान का धार्मिक आधार 1971 में तब धराशायी हो गया जब बंगलादेश अलग हो गया।
आज पािकस्तान की हालत काफी दयनीय है। वहां शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। जहां तक मीडिया का प्रश्न है वह सरकारी नियंत्रण और बढ़ते वाणिज्यिकरण के बीच झूल रहा है। सैनिक एवं अर्ध सैनिक नियंत्रण के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। अभी हाल तक प्रेस को दबाकर और घूस के जरिए नियंत्रण में रखा जाता रहा है। देश के सामने आनेवाली समस्याओं पर शायद ही स्वतंत्र विचार विमर्श की गुंजाइश है। पाकिस्तान के अंदर शायद ही कभी अकादमिक या राजनीतिक बहस-मुबाहसें की गुंजाइश बनी है।
आयशा जलाल के अनुसार इतिहास की जगह एक कुपरिभाषित इस्लामी विचारधारा को थोपने के कारण एक आलोचनात्मक ऐतिहासिक परंपरा न विकसित हो पाई है और न ही तर्कसंगत सार्वजनिक बहस संभव है। पाकिस्तान के स्कूलों  में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह कृत्रिम राष्ट्रीय मिथकों को बढ़ावा देता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंतर पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार पाकिस्तान के अस्तित्व को उचित ठहराया जाता है।

आज पाकिस्तान की स्थिति काफी दयनीय बन गई है। उसे आतंकवादी विचारधारा और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त हिंसा का उद्गम बताया जा रहा है। इसी से जुड़ा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान का इतिहास वर्ष 1947 से आरंभ होता है अथवा इस्लाम के जन्म के समय से राज्य की इस्लामी पहचान का तालमेल आधुनिक राष्ट्र-राज्य के साथ कैसे बैठाया जाय? मुस्लिम राष्ट्रवाद के सामने यह एक बड़ा सवाल है। यहां एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि भारत के अल्पसंख्यक मुसलमान कैसे एक राष्ट्र के रूप में तब्दील हो गए और फिर दो राज्यों के बीच विभाजित होगा।
मोहम्मद अली जिन्ना का उदय एक उपनिषदवाद-विरोधी राष्ट्रवादी के रूप में हुआ। वर्ष 1916 में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के जन्म का स्वागत करते हुए कहा था कि ''एक संयुक्त भारत जन्म के पीछे यह एक बड़ा कारक होगा।ÓÓ यहां तक कि वर्ष 1937 तक उनकी दिलचस्पी अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस के साथ गंठजोड़ करने की थी। उनका नजरिया अधिकतर मुस्लिम राजनेताओं से अलग था। मुसलामानों की दिलचस्पी उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में स्वायत्त राज्यों तक ही सीमित थी। शेष जगहों में वे चाहते थे कि अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा की जाय। उस समय तक मुद्दा स्वायत्त राज्यों तक सीमित था जिससे एक राज्य दूसरे पर धौंस नहीं दिखायें।
इसमें बदलाव 1940 के लाहौर अधिवेशन में दिखा जब मुस्लिम लीग ने मांग की कि उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी भारत में मुसलमानों का दबदबा स्वीकार किया जाय। लीग ने सारे भारतीय मुसलमानों की ओर से बोलने का दावा किया। तब तक उनकी ओर से पाकिस्तान की मांग नहीं उठी थी बल्कि उनका जोर मुस्लिम हितों की रक्षा तक ही सीमित था। लाहौर प्रस्ताव में जिन्ना ने देश-विभाजन और पाकिस्तान का कोई जिक्र नहीं किया था। उनका कहना था कि तथाकथित हिन्दू प्रेस ने यह शब्द उनके ऊपर थोपा था। 'पाकिस्तानÓ शब्द वर्ष 1933 में कैम्ब्रिज के एक विद्यार्थी चौधरी रहमत अली की देन है। रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान में पंजाब, अफगानिस्तान (उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत सहित) कश्मीर, सिंध और बलोचिस्तान शामिल थे। ध्यान रहे कि इसमें बंगाल का कोई हिस्सा शामिल न था। यहां पर मुहम्मद इकबाल का जिक्र जरूरी है। उन्होंने देश के विभाजन की कोई बात नहीं की थी। उनका मानना था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। उनका ख्याल था कि मुसलमान अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए वहां रहें। हिन्दुओं के साथ उनका कोई टकराव न हो। इकबाल हर तरह की मुस्लिम दकियानूसी के खिलाफ थे। भारत में स्थापित मुस्लिम राज्य इस्लाम को नई ऊंचाईयों पर ले जाएगा जिसमें ''अरबी साम्राज्यवादÓÓ कोई खलल पैदा नहीं कर पाएगा।
याद रहे कि रहमत अली की कल्पना के पाकिस्तान को खतरनाक और अव्यवहारिक धारणा बतलाकर दरकिनार कर दिया गया। फिर भी शहरी पंजाबी मुसलमानों के एक तबके ने उसे लोक लिया और उसे इकबाल की मुस्लिम राज्य की अवधारणा से जोड़कर देखना आंरभ किया। याद रहे कि इस अवधारणा को बढ़ावा देने में पंजाब और यूपी के हिन्दू स्वामित्व कै अंतर्गत संचालित समाचार पत्रों ने कम भूमिका नहीं निभाई। जहां तक मोहम्मद अली जिन्ना का सवाल है वे काफी हद तक पश्चिमी रंग में रंगे हुए वकील थे और धार्मिक रूढि़वाद से उनका कोई वास्ता नहीं था। किन्तु उन्हें अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस्लाम का सहारा लेना पड़ा। यदि वे ग्रामीण मुस्लिम जनता को उभारने की कोशिश करते तो उनका टकराव हिन्दू और मुसलमान दोनों भूमिपतियों से होता। वे इस स्थिति से बचना चाहते थे। उन्होंने यहां पाकिस्तान का सहारा लिया जिससे मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा किया जा सके।
आ•ाादी के कुछ समय पहले क्रिप्स मिशन भारत आया जिसका उद्देश्य किसी न किसी तरह वायसराय की कार्यकारी समिति में कांग्रेस को लाना था। साथ ही उसने प्रांतों को भारत से अलग होने का अधिकार देने की बात की जिससे वे पाकिस्तान की अपनी मांग पर बल दे सकें। क्रिप्स मिशन का प्रयास विफल हो गया। वर्ष 1944 में दक्षिण के नेता राज गोपालाचारी ने पाकिस्तान का प्रस्ताव फिर से आगे रखा जिसमें पंजाब और बंगाल के मुस्लिम बहुमत वाले जिलों को काफी कुछ केन्द्र में स्वायत्तता देने  की बात की गई। कहा गया कि वे भारत में रहें और केन्द्र सरकार को रक्षा, संचार और वाणिज्य को छोड़कर अन्य मामलों में उनकी स्वायत्तता बनी रहे। मगर जिन्ना को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया। जिन्ना ने मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा किया और पाकिस्तान की मांग को जोरदार ढंग से दुहराया। उन्होंने पंजाब, बंगाल, सिंघ, और उत्तर- पश्चिम सीमा प्रांत के मुसलमानों को परस्पर जोडऩे की कोशिश की और इस प्रकार पाकिस्तान की अवधारणा को मृर्तरूप देकर आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में अल्प संख्यकों के हितों की रक्षा उसी प्रकार की जाएगी जैसे भारत में होती है।

प्रश्न उठता है कि भारत का विभाजन क्यों हुआ जब मुस्लिम लीग मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर दर्जा देने की बात कर रही थी। यह स्थिति 1946 की गर्मियों में बदल गई। ब्रिटिश उपनिवेशवाद नहीं चाहता था कि भारत अखंड रहे और एक सुदृढ़ देश बन कर उभरे। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों चाहते थे कि उनकी निजी पूंजी को चरने का पूरा मौका मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रस्तावों तथा प्रस्तावित औद्योगिक नीति को देखते हुए उन्हें संदेह था कि भारत में शायद उनकी निजी पूंजी को बेधड़क चरने का अवसर न मिले इसीलिए वे भारत के विभाजन के पक्षधर बने। उनकी रणनीति थी कि पाकिस्तान बनाकर उसे भारत से भिड़ा दिया जाए और उनको बेरोकटोक काम करने का मौका मिले।

Wednesday 24 February 2016

हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति ------ विदेशी अखबार

भाजपा समर्थकों ने पुलिस के सामने पत्रकारों और छात्रों को पीटा, अखबार ने इसके लिए मोदी को ही जवाबदेह बताया है.

अमेरिका और फ्रांस के मशहूर अखबारों ने जेएनयू विवाद को लेकर मोदी सरकार की जमकर आलोचना की है. अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में आरोप लगाया है कि कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी में छात्र संगठन एबीवीपी और मोदी सरकार द्वारा नियुक्त जेएनयू का नया प्रशासन शामिल था. अखबार ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान की भी निंदा की है जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अगर कोई भी भारत विरोधी नारे लगाता है और राष्ट्र की एकता और अखंडता पर सवाल उठाता है तो उन्हें बख़्शा नहीं जाएगा.’ अखबार लिखता है कि शायद राजनाथ सिंह यह नहीं जानते हैं कि लोकतंत्र में असहमति जाहिर करना एक अधिकार है, अपराध नहीं. न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर लोगों और सरकार के बीच टकराव में सरकार समर्थक हिंदू दक्षिणपंथी भी उसकी मदद कर रहे हैं. उसके अनुसार कन्हैया कुमार को गिरफ्तारी के बाद जब कोर्ट ले जाया गया तो वहां भाजपा समर्थकों ने पुलिस के सामने पत्रकारों और छात्रों को पीटा, अखबार ने इसके लिए मोदी को ही जवाबदेह बताया है. साथ ही उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सलाह दी है कि उन्हें अपने मंत्रियों और अपनी पार्टी पर लगाम लगाते हुए इस संकट को शांत करने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि ऐसी घटनाएं देश की प्रगति में बाधक बनेंगी साथ ही इनसे भारतीय लोकतंत्र को भी खतरा पैदा हो सकता है.
उधर, फ़्रांस के प्रतिष्ठित अखबार ल मॉन्ड  ने ‘भारत में मोदी का चिंताजनक राष्ट्रवाद’ नामक शीर्षक देते हुए अपने संपादकीय में लिखा है कि भारत की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार ने देशद्रोह के आरोप में जेएनयू के एक छात्र और दिल्ली के एक पूर्व प्रोफेसर को उस कानून के तहत गिरफ्तार किया है जिसके तहत अंग्रेजों ने कभी महात्मा गांधी को गिरफ्तार किया था. अखबार ने इस निर्णय को चौंकाने वाला और हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति की नई मिसाल बताया है. ल मॉन्ड ने भारत में चल रहे इस संकट पर चिंता जताते हुए फ्रांसीसी सरकार से इस मामले में दखल देने को कहा है.
साभार :

Monday 22 February 2016

विवेक-ज्ञान को कुचलते सरकारी कदम




मनन करने के कारण  प्राणी मनुष्य  कहलाता है। मनन करने हेतु ज्ञान, बुद्धि,विवेक का होना व उनका जाग्रत रहना ज़रूरी है। किन्तु शोषण समर्थक कभी ज्ञान के शब्दों के कान में   पड़ने पर 'सीसा' डाला करते थे। अब वह सीसा 'देशद्रोह' में रूपांतरित हो गया है। हैदराबाद में रोहित वेमुला को अपने प्राणों को गंवाना पड़ा है। दिल्ली में  JNUSU अध्यक्ष को 'देशद्रोह' का झूठा आरोप लगा कर जेल भेजा गया है। मूल उद्देश्य है ज्ञान,बुद्धि व विवेक को समाप्त करके शोषण करवाने को लालायित  जन-समाज का निर्माण करना। 




 स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) :






 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday 17 February 2016

जोजीला दर्रे के नीचे छिपे 'प्लेटिनम' हड़पने हेतु जे एन यू को कश्मीर से जोड़ा गया है

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 












 http://delhincr.amarujala.com/photo-gallery/lawyers-again-beats-journalists-and-fought-with-each-other-in-patiala-house-court-on-jnu-issue/




आज न्यायालय में  जे एन यू  छात्रसंघ  के अध्यक्ष  पर  पुलिस की मौजूदगी  में जो हमला किया गया  और हिंदुस्तान के इस  सम्पादकीय के अंतिम अनुच्छेद  में  सरकारी हस्तक्षेप को पूरे प्रकरण के लिए जिम्मेदार माना गया है  उसकी पुष्टि  अमर उजाला में प्रकाशित व आन लाईन समाचारों से भी एवं वीडियो से भी होती है। 

फासिस्टों का उद्देश्य अफरा-तफरी मचा कर देश तोड़ना और जोजीला दर्रे के नीचे छिपे 'प्लेटिनम' जो 'यूरेनियम' निर्माण में सहायक होता है को यू एस ए को सौंपना है। अन्यथा गृह मंत्री के स्तर से गैर कानूनी काम न कराया जाता । 
यह सरकार संविधान के अनुच्छेद 370 हटाने की मांग करने वालों की है। यह अनुच्छेद कश्मीर से बाहर के लोगों पर वहाँ ज़मीन खरीदने पर प्रतिबंध लगाता है। यदि इसे हटा दिया जाये तो व्यापारी/उद्योगपति /देशी-विदेशी कारपोरेट घराने वहाँ की ज़मीन हथिया सकेंगे। तब श्रीनगर- कारगिल मार्ग पर 'द्रास' क्षेत्र में 'जोजीला दर्रा ' के नीचे पाया जाने वाला 'प्लेटिनम' खनन करके यू एस ए पहुंचाना सुगम हो जाएगा। प्लेटिनम धातु 'यूरेनियम' के निर्माण में सहायक है जो परमाणु ऊर्जा व बम में प्रयोग किया जा सकता है। यू एस ए इसे हस्तगत करके विश्व दमन का मजबूत हथियार अपने पास रखना चाहता है इसीलिए आज़ादी के तुरंत बाद 'कश्मीर' पर हमला करवाया गया था और इसीलिए 'जनसंघ' ने अपने घोषणा -पत्र में अनुच्छेद हटाने की मांग शामिल की थी। जैसे-तैसे यू एस ए भक्त पूर्व पी एम साहब की मेहरबानी से वर्तमान सरकार सत्तासीन हुई है तब बिना किसी सबूत के कश्मीरी अलगाव वादियों से  कामरेड कन्हैया को जोड़ कर सम्पूर्ण वामपंथ को देश-द्रोही घोषित करके कुचल डालना इस सरकार का ध्येय है। वरना पुलिस तथा खुफिया  एजेंसीज के सबूत न होने की घोषणा के बाद कामरेड कन्हैया को रिहा कर दिया जाता। ऐसा न करके उनको 14 दिनों के लिए जेल भेजा जा रहा है जिससे पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हों और उन प्रदर्शनों को झारखंड की भांति हमले करके वामपंथ की शक्ति को क्षीण किया जा सके। लेकिन वामपंथ में बैठे ब्राह्मण व ब्राह्मण वादी भी पूंजीवादी फासिस्टों के नाजायज इरादों को कामयाब करा रहे हैं। अन्यथा निर्दोष कामरेड कन्हैया व कामरेड अमीक पर कोर्ट परिसर में प्राण घातक हमले न होते। 






Monday 15 February 2016

यह तो ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी ------ श्रीराम तिवारी



Shriram Tiwari यदि जे एनयू में पाकिस्तानी एजेंट घुसे आयें हों तो यह तो ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी !

केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों में संभवतः सबसे ज्यादा अनुभवी - कुशल प्रशासक एक मात्र 'सहिष्णु' - धर्मनिरपेक्षतावादी एवं राजनीति के जमीनी नेता श्री राजनाथसिंह जी की बौद्धिक क्षमता का उनके विरोधी भी सम्मान करते हैं। किन्तु इतने प्रखर विद्वान व वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री को अपनी कही हुई किसी बात में वजन लाने के लिए या कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए पाकिस्तान में छिपे बैठे किसी भारत विरोधी आतंकी हाफिज सईद की गवाही की दरकार क्यों आन पडी ? हमारे लिए तो देश के गृहमंत्री का वयान ही काफी है। यदि जेएनयू की घटना में कोई दोषी है तो कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए ! राजनाथ जी को किसी भारत विरोधी आतंकी की आग लगाऊ वयानबाजी का सहारा नहीं लेना चाहिए। बल्कि उन्हें इस समस्या के निदान बाबत सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिये !

ग्रह मंत्री जी को हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि जब पाकिस्तानी आतंकी भारत के सबसे सुरक्षित पठानकोट एयरबेस में घुस सकते हैं , जब वे मुंबई के ताज होटल में घुस सकते हैं, जब वे संसद में घुस सकते हैं ,तो जेएनयू में क्यों नहीं घुस सकते ? जेएनयू के कुछ उत्साही छात्रों ने कोई प्रोग्राम रखा और यदि जे एनयू में पाकिस्तानी एजेंट घुसे आयें हों तो यह तो ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी ! यह भी समभव है कि किसी दक्षिणपंथी छात्र संगठन के बदमास शोहदे उस कार्यक्रम में पाकिस्तानी झंडा लहराने घुसे हों ! सिर्फ मीडिया के हो हल्ले या और 'माऊथ पब्लिशिटी 'के आधार पर उस कार्यक्रम के आयोजकों कोगिरफ्तार करना उचित नहीं है । हम सभी भारतीय जानते हैं कि जम्मू- कश्मीर में अभी-अभी तक भाजपा समर्थित पीडीएफ की मुफ्ती सरकार रही है । इस दौर में अनेक बार श्रीनगर-लाल चौक और कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। पाकिस्तान -जिन्दावाद के नारे भी लगाये गए। तो उन घटनाओं को देशद्रोही क्यों नहीं माना गया। और यदि माना गया है तो अब तक किस -किस पर कार्यवाही की गयी ? यदि कोई कार्यवाही नहीं की गयी तो क्यों न पूरी भाजपा सरकार और संघ परिवार को ही देशद्रोही मान लिया जाए ?

मुफ्ती सरकार को समर्थन देने वाले और उसमें शामिल भाजपाई मंत्रियों की इन देशद्रोही घटनाओं में क्या जिम्मेदारी थी ? उनसे त्यागपत्र क्यों नहीं लिया गया ? केंद्र की मोदी सरकार ने उस राज्य सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया ? यदि बर्खास्त करने की ताकत नहीं थी तो कम -से -कम वहाँ राष्ट्रपति शासन ही लगाकर दिखाते ! जेएनयू के उस कार्यक्रम का जो वीडीओ सामने आया है उसमें तो एबी वी पी के विद्यार्थी चिन्हित किये गए हैं। और 'सनातन सभा ' वाले तो आरएसएस का खुलकर नाम ले रहे हैं। अब राजनाथ सिंह जी और भाजपा के प्रवक्ताओं ने अपनों को बचने के लिए और गढ़े हुए झूंठ को सच सावित करने के लिए हाफिज सईद के उस वयान का सहारा लिया है जिसमें वह 'गन्दा आदमी'जेएनयू के छात्रों के समर्थन की बात कर रहा है। क्या 'संघ परिवार' के इतने बुरे दिन आ गए कि अपनी ही न्याय पालिका का भरोसा नहीं रहा और पाकिस्तानी आतंकियों के वयानों से अपनी राजनैतिक खेती करने में जुटे हैं। इतनी गंदी राजनीति तो कांग्रेस ने भी नहीं की होगी। केंद्र सरकार और संघ परिवार ने 'राष्ट्रवाद 'का जो उन्माद फैला रखा है उसका आधार क्या यही असत्याचरण ही है ?

श्रीराम तिवारी

केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों में संभवतः सबसे ज्यादा अनुभवी - कुशल प्रशासक एक मात्र 'सहिष्णु' - धर्मनिरपेक्षतावादी एवं राजनीति के जमीनी नेता श्री राजनाथसिंह जी की बौद्धिक क्षमता का उनके विरोधी भी सम्मान करते हैं। किन्तु इतने प्रखर विद्वान व वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री को अपनी कही हुई किसी बात में वजन लाने के लिए या कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए पाकिस्तान में छिपे बैठे किसी भारत विरोधी आतंकी हाफिज सईद की गवाही की दरकार क्यों आन पडी ? हमारे लिए तो देश के गृहमंत्री का वयान ही काफी है। यदि जेएनयू की घटना में कोई दोषी है तो कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए ! राजनाथ जी को किसी भारत विरोधी आतंकी की आग लगाऊ वयानबाजी का सहारा नहीं लेना चाहिए। बल्कि उन्हें इस समस्या के निदान बाबत सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिये !
ग्रह मंत्री जी को हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि जब पाकिस्तानी आतंकी भारत के सबसे सुरक्षित पठानकोट एयरबेस में घुस सकते हैं , जब वे मुंबई के ताज होटल में घुस सकते हैं, जब वे संसद में घुस सकते हैं ,तो जेएनयू में क्यों नहीं घुस सकते ? जेएनयू के कुछ उत्साही छात्रों ने कोई प्रोग्राम रखा और यदि जे एनयू में पाकिस्तानी एजेंट घुसे आयें हों तो यह तो ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी ! यह भी समभव है कि किसी दक्षिणपंथी छात्र संगठन के बदमास शोहदे उस कार्यक्रम में पाकिस्तानी झंडा लहराने घुसे हों ! सिर्फ मीडिया के हो हल्ले या और 'माऊथ पब्लिशिटी 'के आधार पर उस कार्यक्रम के आयोजकों कोगिरफ्तार करना उचित नहीं है । हम सभी भारतीय जानते हैं कि जम्मू- कश्मीर में अभी-अभी तक भाजपा समर्थित पीडीएफ की मुफ्ती सरकार रही है । इस दौर में अनेक बार श्रीनगर-लाल चौक और कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। पाकिस्तान -जिन्दावाद के नारे भी लगाये गए। तो उन घटनाओं को देशद्रोही क्यों नहीं माना गया। और यदि माना गया है तो अब तक किस -किस पर कार्यवाही की गयी ? यदि कोई कार्यवाही नहीं की गयी तो क्यों न पूरी भाजपा सरकार और संघ परिवार को ही देशद्रोही मान लिया जाए ? 
मुफ्ती सरकार को समर्थन देने वाले और उसमें शामिल भाजपाई मंत्रियों की इन देशद्रोही घटनाओं में क्या जिम्मेदारी थी ? उनसे त्यागपत्र क्यों नहीं लिया गया ? केंद्र की मोदी सरकार ने उस राज्य सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया ? यदि बर्खास्त करने की ताकत नहीं थी तो कम -से -कम वहाँ राष्ट्रपति शासन ही लगाकर दिखाते ! जेएनयू के उस कार्यक्रम का जो वीडीओ सामने आया है उसमें तो एबी वी पी के विद्यार्थी चिन्हित किये गए हैं। और 'सनातन सभा ' वाले तो आरएसएस का खुलकर नाम ले रहे हैं। अब राजनाथ सिंह जी और भाजपा के प्रवक्ताओं ने अपनों को बचने के लिए और गढ़े हुए झूंठ को सच सावित करने के लिए हाफिज सईद के उस वयान का सहारा लिया है जिसमें वह 'गन्दा आदमी'जेएनयू के छात्रों के समर्थन की बात कर रहा है। क्या 'संघ परिवार' के इतने बुरे दिन आ गए कि अपनी ही न्याय पालिका का भरोसा नहीं रहा और पाकिस्तानी आतंकियों के वयानों से अपनी राजनैतिक खेती करने में जुटे हैं। इतनी गंदी राजनीति तो कांग्रेस ने भी नहीं की होगी। केंद्र सरकार और संघ परिवार ने 'राष्ट्रवाद 'का जो उन्माद फैला रखा है उसका आधार क्या यही असत्याचरण ही है ?
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Saturday 13 February 2016

जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत है बाकी ..... हम लड़ेंगे साथी ... !!





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लखनऊ,13 फरवरी, 2016 आज अपरान्ह 2 बजे , अंबेडकर प्रतिमा, हजरतगंज पर CPI, CPM, CPI(ML), रिहाईमञ्च, फारवर्ड ब्लाक, वर्कर्स काउंसिल, PUCL, IPTA, जसम, जलेस आदि विभिन्न संगठनों  व प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों ने JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार की षड्यंत्र पूर्वक की गई गिरफ्तारी एवं SFI, लखनऊ कार्यालय में की गई तोड़-फोड़ के विरुद्ध धरना - प्रदर्शन किया। सभी वक्ताओं ने एक स्वर से इन गुडागर्दी की हरकतों की निंदा की व इनके विरुद्ध एकजुटता की प्रतिबद्धता जताई। सभा की अध्यक्षता भाकपा, लखनऊ के जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने की व संचालन CPM के जिलामंत्री कामरेड प्रदीप शर्मा ने किया। प्रमुख वक्ताओं में ताहिरा हसन, आशा मिश्रा, वंदना मिश्रा, मधु गर्ग, एस आर दारापुरी, दिनकर कपूर, रमेश दीक्षित, मोहम्मद शोएब, राकेश जी आदि थे। 

राकेश जी ने कामरेड कन्हैया द्वारा दिये गए नारे " जय भीम - लाल सलाम " की सराहना की व इसे अपनाए जाने पर बल दिया। मोहम्मद शोएब का ज़ोर था कि, हम एक झंडे और एक बैनर पर संघर्ष करने को आगे आयें। दिनकर कपूर ने सतत धरना - प्रदर्शन करते रहने की आवश्यकता जताई। छात्र नेताओं ने ABVP की गुंडागर्दी का सड़कों पर मुक़ाबला करने की चुनौती को स्वीकार किया और कहा कि हम उनका डट कर मुक़ाबला करेंगे। सभी वक्ता इस बात पर एकमत थे कि कामरेड कन्हैया की गिरफ्तारी का मुख्य कारण रोहित वेमुला की हत्या से ध्यान हटाना ही था। 

इस प्रदर्शन के दौरान ABVP के 20-25 लड़कों ने व्यवधान डालने व संघर्ष करने का प्रयास किया किन्तु पुलिस की सूझ-बूझ से वे अपने कुत्सित इरादों में कामयाब न हो सके। 

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने सभी संगठनों व भाग लेने वाले साथियों का इस बात के लिए आभार व्यक्त किया कि सभी लोग अत्यल्प सूचना पर आए और अपनी एकजुटता  प्रदर्शित की। आगे और बड़े संघर्ष के लिए भी तैयार रहने का उन्होने आव्हान किया। 

धरना प्रदर्शन में अन्य लोगों के अलावा  ऋषी श्रीवास्तव,ओ पी अवस्थी, राम इकबाल उपाध्याय, मधुकर मौर्या, मोहम्मद अकरम, शफीक,मास्टर सत्यनारायान, डॉ संजीव सक्सेना, कौशल किशोर,  डॉ चंदरेश्वर पांडे, नलिन रंजन सिंह, रामनाथ यादव, फूलचंद यादव , कौशलेंन्द्र किशोर चतुर्वेदी, विजय माथुर भी शामिल थे। 

Friday 12 February 2016

How an individual can live in isolation by means of electronics devises ? ------ Anis Jahan

Anis Jahan



I had spent an hour in the bank with my Uncle, as he had to transfer some money. I couldn't resist myself & asked...
''Uncle, why don't we activate your internet banking?''
''Why would I do that?'' 
He asked...
''Well, then you wont have to spend an hour here for things like transfer.
You can even do your shopping online. Everything will be so easy!''
I was so excited about initiating him into the world of Net banking.
He asked ''If I do that, I wont have to step out of the house?
''Yes, yes''! I said. I told him how even grocery can be delivered at door now and how amazon delivers everything!
His answer left me tongue-tied.
He said ''Since I entered this bank today, I have met four of my friends, I have chatted a while with the staff who know me very well by now.
You know I m alone...
this is the company that I need. I like to get ready and come to the bank. I have enough time, it is the physical touch that I crave.
Two years back I got sick, The store owner from whom I buy fruits, came to see me and sat by my bedside and cried.
My wife fell down few days back while on her morning walk. My local grocer saw her and immediately got his car to rush her home as he knows where I live.
Would I have that 'human' touch if everything became online?
Why would I want everything delivered to me and force me to interact with just my computer?
I like to know the person that I'm dealing with and not just the 'seller' . It creates bonds. Relationships.
Does Amazon deliver all this as well?''

Monday 8 February 2016

Sunday 7 February 2016

विजय नरेशजी की स्मृति को नमन ------ Kaushal Kishor

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )  
आज विजय नरेश जी के जन्म िदन के अवसर पर दो डाक्यू फिल्मों का पर्दशन हुआ। गुलाबी गैंग और द अदर सांग। विमल जी के साथ हमने विजय नरेशजी की स्मृति को नमन किया। इस कार्यक्रम की रिपॉट आज ७ के जनसंदेश टाइम्स के पेज 5 पर . लिंक है



www.jansandeshtimes.net
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

बेगुनाहों के लिए सड़क पर भी लड़ना होगा- ---- मुहम्मद शुऐब

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आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए बेगुनाहों के लिए अदालतों के साथ-
साथ सड़क पर भी लड़ना होगा- मुहम्मद शुऐब
संजरपुर आजमगढ़ में हुआ रिहाई मंच के अध्यक्ष मु0 शुऐब का नागरिक अभिनन्दन
सपा की वादा खिलाफी के खिलाफ रिहाई मंच का प्रदेश व्यापी आंदोलन शुरू

आजमगढ़ 6 फरवरी 2016, आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को फंसाए जाने का सिलसिला तब तक नहीं रूकेगा जब तक इस सवाल पर व्यापक जनआंदोलन नहीं खड़ा होगा। इन मसलों को सिर्फ अदालती लड़ाई से नहीं जीता जा सकता। इसलिए जरूरी है कि अदालत के साथ-साथ सड़क पर भी अवाम उतरे। यह बातें रिहाई मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुऐब ने संजरपुर आजमगढ़ में स्थानीय निवासीयों द्वारा उनके नागरिक अभिनन्दन के दौरान कहीं। इस अवसर उन्हें माला पहनाकर मोमेंटो दिया गया और शाॅल ओढ़ाया गया।

बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ में मारे गए बेगुनाह नौजवानों के गांव वासियों को सम्बोधित करते हुए मुहम्मद शुऐब ने कहा कि समाजवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि वह सत्ता में आने के बाद बेगुनाहों पर से मुकदमें हटा लेगी लेकिन चार साल बाद भी सपा ने यह वादा पूरा नहीं किया। उल्टे अहमद हसन जैसे मुस्लिम मंत्रियों से यह अफवाह भी फैला रही है कि प्रदेश में एक भी मुस्लिम बेगुनाह जेल में बंद नहीं है। जो मुसलमानों को चिढ़ाने जैसा है। उन्होंने कहा कि इसी तरह आतंकवाद से बरी हुए मुस्लिम नौजवानों के पुर्नवास और मुआवजे के वादे से भी सरकार मुकर गई है। मुहम्मद शुऐब ने कहा कि रिहाई मंच और वे खुद भी जिन बेगुनाहों को अदालत से बरी कराने में कामयाब रहे हैं उसे वह उन बेगुनाहों पर किया गया एहसान नहीं मानते बल्कि एक इंसाफ पसंद संगठन और संविधान में यकीन रखने के नाते किया जाने वाला अपना फर्ज मानते हैं। लेकिन कुछ सरकार पोषित धार्मिक संगठन इन मुकदमों में मिली जीत का श्रेय लोगों को गुमराह करके लेने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनके नाम पर वह लोगों से चंदा इकठ्ठा कर सकें। जो एक तरह का धर्म के नाम पर किया जाने वाला भ्रष्टाचार है। उन्होंने कहा कि ऐसे कथित धार्मिक संगठनों का इतिहास हर कदम पर मौजूदा सरकारों के साथ खड़े रहने का रहा है। इसलिए लोगों को न सिर्फ ऐसे संगठनों से सचेत रहने की जरूरत है बल्कि उनसे मुकदमे लड़ने के नाम पर मिलने वाले चंदे का हिसाब भी मांगना चाहिए।

इस अवसर पर खालिद मुजाहिद जिनकी हत्या एटीएस और खुफिया विभाग के इशारे पर कर दिया गया और जिसमें पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और पूर्व एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल भी हत्यारोपी हैं के चचा जहीर आलम फलाही ने भी सम्बोधिति किया। उन्होंने कहा कि बेगुनाहों की रिहाई के सवाल पर जबतक पूरा समाज एक साथ सरकारों के खिलाफ खड़ा नहीं होगा आतंकी घटनाएं भी नहीं रूकेंगी। उन्होंने कहा कि जिस तरह एडवोकेट मुहम्मद शुऐब ने हमलों को झेलते हुए भी इन मुकदमों को लड़ा और बेगुनाहों को छुड़ा रहे हैं वह एक मिसाल है।

वहीं रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा कि रिहाई मंच सपा सरकार की वादा खिलाफी के खिलाफ प्रदेश व्यापी आंदोलन के पहले चरण के तहत आज आजमगढ़ में लोगों के बीच आया है। ताकि लोगों को सपा सरकार की वादा खिलाफी से अवगत कराकर लोगों से ऐसी सरकार को हमेशा के लिए बिदा कर देने का आह्वान कर सके। रिहाई मंच नेता शकील कुरैशी ने कहा कि रिहाई मंच इंसाफ पसंद अवाम के बीच जाकर आतंकवाद के नाम पर फंसाए जाने वाले बेगुनाहों के पक्ष में खड़े होने का आह्वान कर रहा है। क्योंकि सपा और भाजपा गुप्त गठबंधन के तहत प्रदेश से आईएस के नाम पर बेगुनाहों को फंसा रही हैं ताकि साम्प्रदायिक आधार पर समाज का विभाजन किया जा सके।
इंसाफ अभियान के महासचिव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता दिनेश चैधरी ने कहा कि आज दलितों और मुसलमानों पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं लिहाजा इन समाजों को आज एकजुट होकर चुनौतियों का सामना करना होगा। रिहाई मंच और इंसाफ अभियान इसी अभियान के तहत आज आजमगढ़ आया है।

इस मौके पर तारिक कासमी की फर्जी गिरफतारी के खिलाफ चले आंदोलन के नायक रहे तारिक शमीम ने कहा कि इस देश में आतंकवादी घटनाएं खुफिया एजेंसियों द्वारा भारत के मुसलमानों के खिलाफ छेड़ा गया अघोषित युद्ध है। बेगुनाहों की रिहाई साबित कर रही है कि इस युद्ध के वास्तविक अपराधियों को एजेंसियां बचा रही हैं। बम विस्फोटों में निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं परंतु असली मुजरिमों को आजतक कानून के कटघरे में खड़ा नहीं किया गया और खाना पूर्ती के लिए बेगुनाहों को जेल भेज दिया गया जो इस देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है।

इस मौके पर अध्यक्षता करते हुए हरिमंदिर पांडेय ने कहा कि आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुसलमानों को फंसाने के पीछे समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटना है। जिससे कि जनता के वास्तविक सवाल राजनीति से गायब हो जाए। नागरिक अभिनन्दन और सम्मान समारोह का संचालन रिहाई मंच के आजमगढ़ प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने की।

इस अवसर पर सालिम दाउदी, मोहम्मद आसिम, गुलाम अम्बिया, शादाब उर्फ मिस्टर भाई, सुनील कुमार, अब्दुल्लाह एडवोकेट, हाजी बदरूद्दीन, फहीम, शाकिर, आमिर, तारिक शफीक, मौलवी असलम, जितेंद्र हरि पांडेय, असलम खान, अबू शाद संजरी, शाहिद इकबाल समेत सैकड़ों लोग मौजूद थे।

मसीहुद्दीन संजरी
मो0- 9455571488
संजरपुर आजमगढ़

Thursday 4 February 2016

प्रदर्शन कर रही छात्राओं पर मोदी की पुलिस

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Published on Feb 1, 2016
When students associated with JNU Union and AISA (All India Students Association) reach RSS headquarter for a peaceful protest over justice in Rohith Vemula case on 30th Jan as it was his birthday and Mahatma Gandhi was assassinated the same day, Delhi police brutally assaults and beats students publicly.
रोहित वेमुला की मौत पर प्रदर्शन कर रही छात्राओं पर मोदी की पुलिस ने किया ये हाल!





http://www.januday.com/NewsDetail.aspx?Article=6191

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday 1 February 2016

कला के माध्यम का दुष्प्रचार के लिए प्रयोग : विरोध के स्वर क्यों नहीं? ------ विजय राजबली माथुर

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मुझे रंजीत कात्याल ने नहीं बचाया था--विजू चेरियन, असिस्टेंट एडिटर, 

हिन्दुस्तान टाइम्स
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साल 1990 में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था, तो वहां से मुझे भारत सरकार ने एयरलिफ्ट किया था, और दो महीने के उस घटनाक्रम की जो यादें मेरे जेहन में हैं, वे अक्षय कुमार की फिल्म एयरलिफ्ट से बिल्कुल मेल नहीं खातीं। यह फिल्म अभी-अभी बॉक्स ऑफिस पर आई है।
फिल्म में भारत सरकार को संवेदनहीन व अक्षम दिखाया गया है। मगर इस फिल्म को लेकर मेरा अनुभव यही है कि यह सच के कहीं आस-पास भी नहीं है। वास्तव में वह अतिसंवेदनशील बच्चा आज भी दिल से भारत का आभारी है, जिसे उस संकटग्रस्त जगह से निकाला गया था। यह जरूर है कि देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत यह फिल्म गणतंत्र दिवस पर हमारे अंदर राष्ट्रभक्ति का जज्बा बढ़ाती है। मगर मुझे दिक्कत है, तो मुख्य नायक कारोबारी रंजीत कात्याल की भूमिका से, जिन्हें फिल्म में सारा श्रेय दे दिया गया है।
एयरलिफ्ट फिल्म मैं इसलिए देखने गया था, ताकि अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और रोमांचक घटना को फिर से जी सकूं। जब तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया, तब मैं कुवैत में एक स्कूली छात्र था। हमले के बाद मैं और मेरा परिवार कई हफ्तों तक उस मुल्क में रहे, जहां कोई कामकाजी सरकार नहीं थी और सेना की वर्दी में इराकी नौजवान मशीनगनों के साथ सड़कों पर घूमा करते थे। हमें बस में लाद दिया गया, जो रेगिस्तानी इलाके में सर्पीली सड़कों से गुजरती हुई एक रिफ्यूजी कैंप पर रुकी। यह कैंप नो-मैंस लैंड में बनाया गया था, जो इराक और जॉर्डन के बीच का रेगिस्तानी हिस्सा है। मुझे उम्मीद थी कि एयरलिफ्ट फिल्म में इस तरह के दृश्य होंगे और मैं कह सकूंगा कि हां, मुझे वह घटना याद है या यह वाकई वैसी ही जगह है, जहां मैं रुका था। मगर अफसोस, फिल्म देखने के बाद मुझे उस डिस्क्लैमर का महत्व समझ में आया, जिसमें यह कहा गया है- इस फिल्म के सभी पात्र व घटनाएं काल्पनिक हैं। अगर किसी भी मृत अथवा जीवित व्यक्ति या स्थान के साथ इनका कोई संबंध पाया जाता है, तो यह महज संयोग है।
फिल्म में अक्षय कुमार रंजीत कात्याल की भूमिका में हैं। कुवैत पर इराकी हमले के बाद उन्हें कथित तौर पर लगभग 1.70 लाख भारतीयों (साथ में एक कुवैती और उनकी बेटी) को इराक और जॉर्डन से होते हुए कुवैत से मुंबई (तब बंबई) लाते दिखाया गया है। जैसा कि फिल्म के निर्माता भी मानते हैं कि अक्षय कुमार की भूमिका दो कारोबारी सनी मैथ्यू और एचएस वेदी के जीवन से प्रेरित है, जिन्होंने वहां से भारतीयों को निकालने में बड़ी भूमिका निभाई थी। मगर निर्देशक राजा कृष्ण मेनन ने कात्याल का ऐसा चित्रण किया है, मानो वह कोई पैगंबर हों, जो रेगिस्तान से भारतीयों को 10 बसों और 15 कारों से निकालते हैं। यह फिल्म में तथ्यों से खिलवाड़ का एक उदाहरण-भर है। 1.70 लाख भारतीयों को महज 10 बसों व 15 कारों से एक ही बार में निकालना क्या संभव है? वह बचाव अभियान कई हफ्तों तक चला था, और जैसा कि मुझे याद है, मेरे कुवैत से निकलने से पहले और बाद में भी लोग वहां से निकाले जाते रहे।
इसी तरह, 1.70 लाख भारतीयों का जो आंकड़ा दिखाया गया है, वह भी अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है। रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा करीब 1.20 लाख ही था।
इराक ने दो अगस्त, 1990 को कुवैत पर हमला बोला था। वह जुमेरात का दिन था, और स्कूल में छुट्टी थी। स्कूली सत्र का अंतिम दिन था वह। हम खाली जगहों और बाजारों में देर तक साइकिल नहीं चला सकते थे। यहां तक कि अपने घर के नजदीक मैदान में फुटबॉल भी नहीं खेल सकते थे। हमें समुद्र के किनारे भी जाने से रोका गया था, क्योंकि ऐसी खबरें आई थीं कि सद्दाम के लड़ाकों ने उसे खोद डाला है। मगर परिवार के बड़े लोगों और बुजुर्गों का जीवन सामान्य ही था। वे गाड़ी चलाते थे और अपने ऑफिस जाते थे। मैं यहां इराक-भारत संबंधों की सराहना जरूर करूंगा कि जो गाडि़यां भारतीय चलाया करते थे, उन्हें रोका नहीं जाता था। बेशक तब खाने-पीने की चीजों का संकट हो गया था, मगर इसमें भी भारतीयों को अपनी पसंद की जगह से खाना खरीदने की अनुमति थी।
हमने 19 या 20 सितंबर को कुवैत छोड़ा। पहले हम बस से इराक के बसरा गए, जहां हमने रात के कुछ घंटे बिताए। वहां से हमें बगदाद पहुंचाया गया, जहां हमने अपनी बसें बदलीं। अगली रात हमने रेगिस्तान के बीच में बने एक कैंप में गुजारी। वहां रात में रेत की आंधी चली, जिससे सब कुछ रेत से ढक गया था; यहां तक कि टेंट और बसें भी। अगली सुबह हम नो-मैंस लैंड पहुंचे, जहां अगले दस दिनों तक के लिए टेंट नंबर ए-87 हमारा घर था। वहां संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हमें चादर और कंबल मुहैया कराए गए, क्योंकि रेगिस्तान की रातें काफी ठंडी हो सकती थीं। ट्रकों से खाना भी बंटता था, जिसकी व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र ने ही करवाई थी। वहां रेड क्रॉस की तरफ से चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई गई थी। वहां से हम अम्मान के लिए रवाना हुए और वहां करीब पूरे दिन लाइन में लगने के बाद हमें मुंबई का टिकट मिला।
मुझे इस बात से ज्यादा ऐतराज नहीं है कि एयरलिफ्ट फिल्म में कुवैत से हुए बचाव अभियान की कहानी जिस तरह परोसी गई है, वह मेरी यादों से मेल नहीं खाती। मुझे दिक्कत इससे ज्यादा है कि इसमें तथ्यों से खिलवाड़ किया गया है। इसमें अपनी सुविधा के अनुसार घटनाओं को नए सिरे से गढ़ा गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इस फिल्म के निर्माता नया इतिहास गढ़ रहे हैं। नाटकीयता की छौंक लगाने के चक्कर में इस पटकथा की कुछ घटनाओं को बढ़ाया गया है और नई दिल्ली की भूमिका को भी बुरी तरह से अपमानित किया गया है। आम लोगों के मन में भारतीय नेताओं और नौकरशाहों के प्रति जो आज नाराजगी है, यह फिल्म उसे बड़ी चालाकी से भुनाती है। कुवैत से भारतीयों की सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने में नई दिल्ली के प्रयास को यह खारिज करती है। मगर तथ्य यही है कि तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल खुद इस बचाव अभियान के लिए सद्दाम हुसैन से मिले थे। इस ऑपरेशन के लिए तकलीफ और जोखिम उठाने के बावजूद उनकी चौतरफा आलोचना भी हुई, क्योंकि एक फोटो में वे दोनों एक-दूसरे के साथ गर्मजोशी से गले मिल रहे थे। बहरहाल, एयरलिफ्ट जैसी फिल्म एक उदाहरण है कि जब कोई सरकार अपनी उपलब्धियों को आम लोगों तक पहुंचाने में विफल हो जाती है और फिल्म-निर्माताओं को एक ऐतिहासिक घटना पर जनमत बनाने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है, तो फिर क्या होता है? हालांकि एक ऐसे देश में, जहां अपनी आस्तीन पर देशभक्ति चढ़ाना जरूरी बनता जा रहा है, वहां देशभक्ति से भरपूर दृश्यों वाली एयरलिफ्ट फिल्म आपकी उत्तेजना बढ़ाने की सही खुराक है।
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विजू चेरियन (असिस्टेंट एडिटर, हिन्दुस्तान टाइम्स ) साहब का कहना है कि, वह कुवैत के भुक्त-भोगी रहे हैं और उन सब को भारत सरकार के प्रयास से वहाँ से निकाला गया था जबकि, हाल ही में प्रदर्शित 'एयरलिफ्ट ' फिल्म के माध्यम से तत्कालीन सरकार को अक्षम साबित किया गया है। वह लिखते हैं :
"साल 1990 में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था, तो वहां से मुझे भारत सरकार ने एयरलिफ्ट किया था, और दो महीने के उस घटनाक्रम की जो यादें मेरे जेहन में हैं, वे अक्षय कुमार की फिल्म एयरलिफ्ट से बिल्कुल मेल नहीं खातीं। यह फिल्म अभी-अभी बॉक्स ऑफिस पर आई है।
फिल्म में भारत सरकार को संवेदनहीन व अक्षम दिखाया गया है। मगर इस फिल्म को लेकर मेरा अनुभव यही है कि यह सच के कहीं आस-पास भी नहीं है। वास्तव में वह अतिसंवेदनशील बच्चा आज भी दिल से भारत का आभारी है, जिसे उस संकटग्रस्त जगह से निकाला गया था। यह जरूर है कि देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत यह फिल्म गणतंत्र दिवस पर हमारे अंदर राष्ट्रभक्ति का जज्बा बढ़ाती है। मगर मुझे दिक्कत है, तो मुख्य नायक कारोबारी रंजीत कात्याल की भूमिका से, जिन्हें फिल्म में सारा श्रेय दे दिया गया है।.......................इसमें तथ्यों से खिलवाड़ किया गया है। इसमें अपनी सुविधा के अनुसार घटनाओं को नए सिरे से गढ़ा गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इस फिल्म के निर्माता नया इतिहास गढ़ रहे हैं। नाटकीयता की छौंक लगाने के चक्कर में इस पटकथा की कुछ घटनाओं को बढ़ाया गया है और नई दिल्ली की भूमिका को भी बुरी तरह से अपमानित किया गया है। आम लोगों के मन में भारतीय नेताओं और नौकरशाहों के प्रति जो आज नाराजगी है, यह फिल्म उसे बड़ी चालाकी से भुनाती है। कुवैत से भारतीयों की सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने में नई दिल्ली के प्रयास को यह खारिज करती है।"
केंद्र की फासिस्ट सरकार अब कला को भी अपने दुष्प्रचार का हथियार बना रही है परंतु उस समय की सरकार में शामिल दल- सोनिया जी की कांग्रेस, अजित सिंह जी के रालोद आदि मौन क्यों हैं उनकी ओर से गलत तथ्यों का खंडन या विरोध न होने का कारण क्या है? यदि  चेरियन  साहब के तथ्य सही हैं तब सभी प्रतिपक्षी दलों को संयुक्त रूप से इस देश-विरोधी कुत्सित अभियान का व्यापक विरोध करना चाहिए। 
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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मोदी साहब के साथ अक्षय कुमार के इन घनिष्ठ सम्बन्धों से 'एयरलिफ्ट' द्वारा तत्कालीन सरकार की निंदा के उद्देश्य को समझना आसान होगा। ------