Sunday 29 June 2014

ऋषित्व से उच्च पद का अधिकारी है :प्रोफेसर करुणाभ अनुला --- डॉ० डंडा लखनवी





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करुनाभ अनुला के ऋषित्व को कोटिश: नमन
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कुछ बल्लेबाज क्रिकेट की पिच पर धीरे-धीरे खेलते हुए लम्बे समय तक क्रीज़ पर जमे रहते हैं परन्तु जब उनके खाते की जाँच-पड़ताल होती है तो निराशा हाथ लगती है। वहीं कुछ ऐसे जीवट और दमदार बल्लेबाज होते हैं जो गंभीरता से रन बनाने के लिए ही क्रीज़ पर उतरते हैं। ऐसे खिलाड़ियों के खेलने का ढंग ही निराला होता है। उनके बल्ले से बेहतरीन स्टोक निकलते हैं और रनों की बरसात होने लगती है। दर्शक-गण उनका खेल देख अवाक रह जाते हैं। उंनकी छोटी पाली सी पाली दर्शकों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाती है| उनका असमय पेवेलियन में लौटना दर्शकों को वेदना से भर देता है| प्रो. करुणाभ अनुला की इकत्तीस वर्षीय जीवन-पाली दूसरे प्रकार के क्रिकेट खिलाड़ियों जैसी थी। छोटी सी आयु में उसने जो कीर्तिमान हासिल किये वे गर्व करने योग्य है। कहा जाता है- ’होनाहर बिरवान के होत चीकने पात’! यह कहावत करुनाभ अनुला पर सटीक बैठती है| वह बचपन से ही कुशाघ्र-बुद्धि थी। कठिन से कठिन कामों को हंसते-हंसते हुए अंजाम देना उसे बाखूबी आता था। चुनौतियाँ उसके साहस के सामने बौनी हो जाती थीं। अनेक शैक्षिक एवं सामाजिक सभाओं में उसकी मर्मस्पर्शी संबोधन कला का मैं गवाह रहा हूँ। उसके विचार नपे-तुले और मानवीयता से ओत-प्रोत होते थे। उसने एशिया लाइट शिक्षा संस्थान, शेखूपुरा, लखनऊ से प्रारंभिक शिक्षा के पडाव को पार कर आई.टी.कालेज, लखनऊ विश्वविद्यालय, जे.एन.यू. और उसके बाद विज्ञान-भवन में ब्याख्यान-माला तक की यात्रा उसने बड़ी सहजता से पूर्ण की थी| यह यात्रा फूलों भरी हरगिज़ न थी। कदम कदम पर काँटे और मुसकिलों के पहाड़ उसकी राह में खड़े थे किन्तु तथागत भगवान बुद्ध धम्म-बोध और भारतरत्न डा. भीमराव अंबेडकर की चेतना के सहारे सारी बाधाओं को अपनी कर्मनिष्ठा के बल पर एक-एक करके पार करती चली गई। नवयुग डिग्री कालेज, लखनऊ में अध्यापन-काल के दौरान छात्रों-अध्यापिकाओं वह समान रूप से लोकप्रिय थी| मैं उससे जब मिला भारतीय परंपरा के अनुसार उसने दोनों हाथों को जोड़कर जयभीम! नमो बुद्धाय! द्वारा अभिवादन किया| उसकी शौम्य छवि मेरी मन:चेतना में आज भी अंकित है। उसका व्यक्तित्व ’यथा नामे तथा गुण:’ था। करुणा की आभा उसके कार्य और व्यवहार दोनों में झलकती थी। उनके असमय निधन से बौद्धिक समाज को बड़ी क्षति पहुँची है जिसकी पूर्ति असंभव है। करुणाभ अनुला यद्यपि अब हमारे बीच में नहीं हैं तदपि उनके नेत्रदान और देहदान से उत्पन्न करुणा का स्रोत संसार में सदैव प्रवाहमान रहेगा। परोपकार की ऐसी वृत्ति आज के छीना-झपटी वाले युग में अति दुर्लभ है। प्राचीन गाथाओं में ऋषि दधीच का नाम देह-दानियों में बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने अस्त्र-शस्त्र बनाने हेतु अपनी अस्थियाँ देवताओं को दान की थीं। किन्तु करूणाभ के नेत्रदान और देहदान देवता और अदेवता के भेदों से परे है। परोपकार की यह वृत्ति जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि की सीमाओं से परे है। करुणाभ अनुला के नेत्रों से दो दृष्टिहीनों को नया जीवन मिलेगा। वे संसार की रौनक को अपनी आँखों से निहार सकेंगे। त्याग की यह भावना प्रोफेसर करुणाभ अनुला को ऋषित्व से उच्च पद का अधिकारी बनाती है| मेडिकल कालेज में अध्ययनरत चिकित्सकों को अपना हुनर सवांरने में उनका शरीर मूल्यवान सिद्ध होगा। प्रो. करुणाम अनुला का पुरषार्थ आने वाली पीड़ियों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हो और मानवीयता के प्रति उनके समर्पण से हम सब प्रेरणा लेते रहें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। करुनाभ अनुला के ऋषित्व को कोटिश: नमन|

Friday 27 June 2014

रेल हादसों की ज़िम्मेदारी माओवादियों की या निजीकरण के पक्षपातियों की?---विजय राजबली माथुर

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प्रस्तुत लेख में छपरा के निकट हुये रेल हादसे के मद्देनजर तटस्थ भाव दिखाने का प्रयत्न किया गया है। लेखक ने माना है कि परिस्थितियों के अनुसार इसमें माओवादियों का हाथ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। लेखक महोदय ने एक महत्वपूर्ण बात को उठाया है कि जहां माओवादियों का अस्तित्व भी नहीं है वहाँ भी रेल हादसे होते हैं। लेखक ने रेलवे के सिस्टम को इसके लिए जिम्मेदार बताते हुये यह भी निष्कर्ष दिया है कि बड़े रेल सिस्टम को सरकार खुद मेनेज करने मे सक्षम नहीं है। लेखक ने सुझाव दिया है कि पी पी पी योजना के अंतर्गत संरक्षा को लाना चाहिए। 

आज़ादी के बाद ब्रिटेन,अमेरिका समेत सभी साम्राज्यवादी देशों ने भारत को 'तकनीक' देने से इंकार कर दिया था तब सोवियत रूस ने आधारभूत ढांचे की स्थापना मे भारत को सहयोग दिया था। नेहरू सरकार ने रूस के सहयोग से भिलाई,रांची,बोकारो,दुर्गापुर में सरकारी क्षेत्र में आधारभूत उद्योगों की स्थापना की थी। उससे पहले रेलवे,एयर लाईन्स,टेलीफोन  आदि का राष्ट्रीयकरण करके सरकारी नियंत्रण में ले लिया था। इस प्रकार देश में तीव्र औद्योगिक विकास संभव हो सका था। 

लेकिन औद्योगिक विकास ने निजी क्षेत्र को भी फलने-फूलने का  अवसर प्रदान किया है।टाटा,रिलायंस,बिरला आदि औद्योगिक घराने इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि इस बार उनकी पसन्द का व्यक्ति प्रधानमंत्री भी बन चुका है। पिछली भाजपा सरकार में 'विनिवेश मंत्रालय' बना कर सरकारी कारखानों को निजी क्षेत्रों को सौंपा गया था।टेलीफोन विभाग को तोड़ कर अंडरटेकिंग में बदला गया जिसे अंततः रिलायंस को सौंपे जाने की तैयारी है। राज्यों में भी बिजली विभाग को तोड़ कर अंडरटेकिंग में तब्दील किया गया है। धीरे-धीरे निजी बिजली कंपनियों को इसे सौंपने की चालें चली जा रही हैं। 

रेलवे को भी निजी औद्योगिक घरानों को सौंपने की दिशा में पहले  पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप  की योजनाएँ चलाई जानी हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण न होने से पिछड़े व दलित वर्ग के लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी सीमित हो जाएँगे तथा कर्मचारियों के शोषण के अवसर बढ़ जाएँगे। सरकार और सरकारी कर्मचारियों को नाकारा साबित करने का अभियान निजी क्षेत्र के हितों के मद्देनजर ही चलाया जा रहा है। अतः बहुत संभव है कि निजी क्षेत्र के हिमायती ही इन रेल हादसों को अंजाम दे रहे हों। इसका संकेत प्रस्तुत लेख के निष्कर्ष से भी मिल जाता है। 


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday 22 June 2014

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ,माकपा और भाजपा एक ही मंच पर आकर मिल गए हैं---जगदीश्वर चतुर्वेदी

मोदी सरकार की पहली पराजय

June 22, 2014 at 8:47am
          विश्वविद्यालय स्वायत्तता अपहरण का एक खेल दिल्ली में चल रहा है। इस खेल में संयोग से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ,माकपा और भाजपा एक ही मंच पर आकर मिल गए हैं। इस खेल की खूबी है कि ये तीनों खिलाडी संविधान,अकादमिक स्वायत्तता और बौद्धिक स्वतंत्रता इन तीनों का मखौल उडाने में लगे हैं।
    विगत सप्ताह मोदी सरकार आने के बाद यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को सर्कुलर भेजकर चार साला बीए कोर्स बंद करने का निर्देश दिया ,वह पूरी तरह असंवैधानिक है। यूजीसी इस तरह का आदेश किसी भी विश्वविद्यालय को नहीं दे सकता। सवाल यह है कि यूजीसी ने जब यह कोर्स लागू किया गया उस समय यह राय क्यों नहीं दी ?
     यूजीसी सुझाव दे सकती है.आदेश नहीं। यूजीसी के आदेशों की हकीकत यह है कि गुजरात में अभी तक कॉलेज-विश्वविद्यालयों में छठे वेतन आयोग के आधार पर बने वेतनमान लागू नहीं हुए हैं। पश्चिम बंगाल में शिक्षकों का छठे वेतनमान के आधार पर वेतन मिला लेकिन बकाया धन अभी तक नहीं मिल पाया है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो दिए जा सकते हैं। मूल बात यह है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं है। यहां तक कि संसद को भी हक नहीं है।विजिटर को भी हक नहीं नहीं है। विजिटर या शिक्षामंत्री किसी भी फैसले के एक महिने के अंदर विरोध करता है तो वह विरोध विचार योग्य होता है। यदि एक महिने के बाद राय आतीहै तो विचारयोग्य भी नहीं होता।
      विश्वविद्यालय के फैसले अकादमिक परिषद लेती है,कार्यकारी परिषद लेती है। शिक्षामंत्री या यूजीसी नहीं । यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को चारसाला कोर्स को खारिज करने का आदेश देकर अपने संवैधानिक कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण किया है। यूजीसी को जबाव देना होगा कि विगत समय में उसने और उसके अधिकारियों ने यही फैसला क्यों नहीं लिया ? क्यों दिविवि को कोर्स लागू करने को कहा ? क्या उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई ? हमारे शासकों को नौकरशाही को उपकरण बनाकर काम करने से बाज आना चाहिए।  
   चारसाला कोर्स की गुणवत्ता और गुणहीनता, संवैधानिकता और असंवैधानिकता,प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता पर बहस का समय खत्म हो चुका है क्योंकि कोर्स लागू हो चुका है। हजारों विद्यार्थी एक साल से पढ़ रहे हैं, नए दाखिले होने जा रहे हैं। रिव्यू ही करना है तो पहले बैच के निकलने पर रिव्यू करो। लेकिन यह काम अकादमिक परिषद करेगी न कि यूजीसी।  चारसाला कोर्स प्रासंगिक है या नहीं यह तय करने का काम विश्वविद्यालय का है। यह कोर्स तय करते समय बहुमत से तय पाया गया कि कोर्स आरंभ किया जाय।सभी इस फैसले को मानने को बाध्य हैं। इस मामले में माकपा-भाजपा की हठधर्मिता विलक्षण है।
      शिक्षक संघ इसके विरोध में था अनेक छात्रसंगठन भी विरोध में थे,कई राजनीतिक पार्टियां भी विरोध में थीं। लेकिन विश्वविद्यालय के फैसले अकादमिक परिषद में होते हैं और दिविवि की अकादमिक परिषद ने पक्ष-विपक्ष पर विचार करने के बाद यह कोर्स आरंभ किया। शिक्षा के फैसले सड़कों पर जुलूसों और धरना स्थलों या फेसबुक पर नहीं होते।  
        यह मसला कईबार यूजीसी में भी गया,अनेक ज्ञानीलोगों ने यूजीसी से लेकर शिक्षामंत्री,प्रधानमंत्री,संसद और राष्ट्रपति तक अपनी राय भेजी लेकिन कहीं से भी यह नहीं कहा गया कि दिविवि यह कोर्स बंद कर दे। सबने  कहा यह विश्वविद्यालय का आंतरिक मामला है बाहरी राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
    लेकिन भाजपा को जनादेश मिलतेही पहला हमला दिविवि की स्वायत्तता पर हुआ जो निंदनीय है। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में चारसाला बीए कोर्स को खत्म करने का वायदा किया गया है। मोदी के सत्तारुढ़ होते ही निहित स्वार्थी लोग असंवैधानिक हथकंडों का इस्तेमाल करके यह कोर्स बंद कराना चाहते हैं जबकि इस मामले में नियमानुसार दिविवि प्रशासन एकदम सही मार्ग का अनुसरण कर रहा है। कल के अकादमिक परिषद के फैसले के बाद यह साफ हो चुका है कि भाजपा और माकपा के शिक्षक संगठनों के पास अकादमिक परिषद में समर्थन का अभाव है। मात्र 10 शिक्षक उनके पक्ष में थे बाकी सभी ने विवि के पक्ष का समर्थन किया। यह यूजीसी और प्रकारान्तर से भाजपा की पहली बड़ी पराजय है।यह मोदी सरकार के स्वायत्तता अपहरण अभियान की पहली बड़ी हार है।
   इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि दिविवि को चारसाला कोर्स लागू करने पर पिछली सरकार का पूर्ण समर्थन था,संसद से लेकर पीएम तक,यूजीसी से लेकर शिक्षामंत्री तक सबने पिछले साल हस्तक्षेप करने से मना किया और दिविवि प्रशासन का साथ दिया। मोदी सरकार को पुरानी सरकार के इस फैसले का आदर करना चाहिए।
https://www.facebook.com/notes/jagadishwar-chaturvedi/मोदी-सरकार-की-पहली-पराजय/689106901124724?

Wednesday 11 June 2014

जिसके मन में अन्य के लिए जगह नहीं है वह सभ्य नहीं हो सकता---जगदीश्वर चतुर्वेदी

सभ्यता से डरे हम लोग

June 11, 2014 at 8:46am
       हमारे देश में लोग बदमाश से नहीं डरते ।बल्कि बदमाशों के साथ रहते हैं। दंगाई से नफरत नहीं करते बल्कि उसको वोट देते हैं और पूजा करते हैं। हमारे देश में पत्थर की मूर्तियों से दूर नहीं रहते बल्कि उनकी रोज पूजा करते हैं। उनको घर में रखते हैं।सम्मान करते हैं। हमारे देश में लोग जिस चीज से डरते हैं वह है सभ्यता।
   सभ्यता और सभ्य आदमी से लोग डरते हैं। सभ्य को मित्र नहीं बनाते असभ्य को मित्र बनाते हैं। ईमानदार से दूर रहते हैं,धूर्त-चालाक और बेईमान के साथ गलबहियां देकर रहते हैं। औरत के साथ विवाह करते हैं,बेटी की तरह पैदा करते हैं,माँ की तरह मानते हैं, लेकिन औरतों के साथ सबसे ज्यादा हिंसाचार करते हैं। हिंसा और असभ्यता के माहौल को हमारे देखकर यही महसूस होता है कि हमारे देश में सभ्य होना गाली है !  
     सवाल यह है  सभ्य से हम क्यों दामन छुडाना चाहते हैं ? सभ्य होना क्या बुरी बात है ? सभ्य क्या सक्षम नहीं होते ? फेसबुक और सामाजिक जीवन में असभ्यता का जो वैभव दिखाई देता है वह बार बार यही संदेश देता है कि सभ्य होना सही नहीं है! असभ्य रहो,मजे में रहो!
     सभ्यता की मांग है कि विवेकवाद अर्जित करें। हमारे यहां उल्टी हवा चल रही है। इरेशनल या विवेकहीन बातों को तवज्जह दी जाती है। नॉनशेंस की पूजा की जाती है। इरेशनल से बड़ा असभ्यता का कोई रुप नहीं है। हम भारतवासी जितनी ऊर्जा नॉनसेंस चीजों पर खर्च करते हैं उसका आधा वक्त भी विवेकवादी और सभ्य चीजों पर खर्च करें तो भारत सोने की चिडिया हो जाय।
     फिलहाल स्थिति यह है किभारत में चिडियाएं भी रहना पसंद नहीं करतीं, वे भी कम हो रही हैं। मौसम बिगडा हुआ है। हम हैं कि विवेक से काम लेने की बजायभगवान की कृपा का इंतजार कर रहे हैं। प्रकृति और पर्यावरण के साथ विवेकपूर्ण संबंध बनाएं तो चीजें सुधर सकती हैं। हमने प्रकृति और पर्यावरण के साथ विवेकपूर्ण संबंध नहीं बनाया है बल्कि केजुअल संबंध बनाया है। उपभोग का संबंध बनाया है।
     हम कितने सभ्य हैं और कितने असभ्य हैं ? इसका कोई सटीक मानक बनाना तो संभव नहीं है लेकिन यह तय है कि सभ्यता वंशानुगत नहीं होती,उसे अर्जित करना पड़ताहै। हमारी मानसिकता यह है कि हम अर्जित करने के लिए श्रम नहीं करना चाहते। हम चाहते हैं कि कोई ऐसा फार्मूला हो जो हमें घर बैठे सभ्य बना दे। हमें यह भी सिखाया गया है कि फलां-फलां वस्तुएं घर में हों तो सभ्यता घर में दाखिल हो जाती है। वस्तुएं के जरिए सभ्य कहलाने की आशा मृगतृष्णा है।
    वस्तुएं सभ्य नहीं बनातीं। सभ्य बनने के लिए पहली शर्त है कि हम यह मानें कि निज को बदलेंगे और सचेत रुप से बदलेंगे। सभ्य वह है जो निज को और अन्य को प्यार करना जानता है।जिसके मन में अन्य के लिए जगह नहीं है वह सभ्य नहीं हो सकता। जब तक आप निजी जंजालों में फंसे रहेंगे सभ्य नहीं बन सकते। निजी जंजालों के बाहर निकलकर सामाजिक होने, अन्य के प्रति निजी सरोकारों को व्यक्त करने से सभ्यता का विकास होता है।अपने लिए न पढ़कर,देश के लिए पढ़ना, अपने लिए न लिखकर अन्य के मसलों और जीवन की समस्याओं पर लिखना, हर क्षण अन्य की चिन्ताओं को अपनी चिन्ताएं बनाने से सभ्यता का विकास होता है।
      सभ्य बनने के लिए अपने से बाहर निकलकर झांकने की कला विकसित करनी चाहिए। निहित-स्वार्थों में डूबे रहना और अनालोचनात्मक ढ़ंग से चीजों, वस्तुओं,व्यक्तियों और विचारों को देखने से सभ्यता का विकास बाधित होता है।
     सभ्यता के विकास के लिए जरुरी है कि हम चीजों को व्यापक फलक पर रखकर देखने का  नजरिया विकसित करें। सभ्य वह है जिसके पास व्यापक फलक में रखकर देखने का नजरिया है। आप जितना व्यापक फलक रखकर देखेंगे वस्तुएं,घटनाएं आदि उतनी ही साफ नजर आएंगी। हम बौने क्यों हो गए क्योंकि हमने दुनिया को देखने का फलक छोटा कर लिया। हम अनुदार क्यों हुए क्यों कि हमारी समझ निजी दृष्टि से आगे बढ़ नहीं पायी। हमें निजी दृष्टिकोण की नहीं विश्वदृष्टिकोण की जरुरत है।सभ्यता हमें विश्व दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करती है। विश्व दृष्टिकोण के आधार पर देखने के कारण हम अनेक किस्म की सीमाओं और कट्टरताओं से सहज ही मुक्त हो सकते हैं।   

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Sunday 8 June 2014

बहुसंख्यकवाद का नारा भय पैदा करो और एकजुट करो---जगदीश्वर चतुर्वेदी

गुजरात में बहुसंख्यकवाद का सफल प्रयोग करने के बाद यूपी में  मुजफ्फरनगर को केन्द्र में रखकर बहुसंख्यकवाद की जिस राजनीति की फसल को राजनेताओं ने काटा है वह सत्ता के शिखर तक पहुँचाने का मार्ग बनी है।   
    बहुसंख्यकवाद हमारे देश में साम्प्रदायिकता का नया नाम है। इसके बारे में हम सबको गंभीरता से सोचने की जरुरत है।यूपी-  बिहार में बहुसंख्यकवाद की विजय दुंदुभि को हम सब देख नहीं पाए। यूपी में पुण्यात्माओं की विजयलहर अखिलेश सरकार की असफलता या यूपी में कानून व्यवस्था की बिगडी स्थिति से पैदा हुई जीत नहीं थी । यूपी के विजयी पूना में नया प्रयोग कर रहे हैं।
      हम सब अपने स्तर पर बिना किसी दल विशेष को गाली दिए सीधे बहुसंख्यकवाद की राजनीति का विरोध करें और इसकी आड़ में चल रहे प्रपंचों को पहचानें। बहुसंख्यकवाद की आंधी हमेशा किसी न किसी बहाने से आरंभ होती है। मुजफ्फरनगर में लड़कियों के साथ छेडखानी का मामला था,पूना में फेक आईडी के जरिए शिवाजी और बालठाकरे के बारे में गंदी बातें लिखने का मामला सामने आया है।उसके बाद बहाना बनाकर संबंधित मुस्लिम युवक की हत्या कर दी गयी और बाद में पूना में समुदाय विशेष के लोगों पर हमले हुए हैं।
     नभाटा के अनुसार पूना में तनाव है।कई जगहों पर हमले और तोड़फोड़ की कार्रवाई हुई है। बहुसंख्यकवाद के लिए फेसबुक पोस्ट तो बहाना है। असल में वे फेसबुक पोस्ट से नाराज होते तो उसे हटाने के लिए शिकायत कर सकते थे,हत्या करने की क्या जरुरत थी।
      मोहसिन की हत्या के बाद साफ संदेश है कि बहुसंख्यकवाद के नारे के इर्दगिर्द एकजुट हो। महाराष्ट्र सरकार को इस मामले में सख्ती से काम लेना चाहिए। कांग्रेस को जल्दी से अपने को वैचारिक निकम्मेपन से  मुक्त करने की जरुरत है।
      पूना में सामने जो खिलाडी हैं वे तो नकली खिलाडी हैं,असली खिलाडी तो कोई और हैं। उनको राजनीतिक तौर पर चिह्नित करने की जरुरत है। बहुसंख्यकवाद का नारा है भय पैदा करो और बहुसंख्यकों एकजुट करो।
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