Monday 29 September 2014

राजदीप सरदेसाई के साथ लखनऊ के पत्रकारों की एकजुटता का प्रदर्शन ---विजय राजबली माथुर

 लखनऊ, 29 सितंबर 2014 ।  आज  साँय चार बजे  गांधी प्रतिमा,जी पी ओ पार्क,  हजरतगंज चौराहे पर एक  धरना राजदीप सरदेसाई पर अमेरिका में हुए हमले एवं  देश भर में पत्रकारों पर हो रहे हमलों के विरोध में  मान्यता प्राप्त श्रमजीवी पत्रकार समिति के सिद्धार्थ कलहंस के आह्वान पर दिया गया। विभिन्न पत्रकार संगठनों के प्रतिनिधियों ने  फासीवाद के विरोध में  अपनी आवाज बुलंद कर पत्रकार एकजुटता का प्रदर्शन किया।  

उत्कर्ष सिन्हा ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि जबसे सिद्धार्थ कलहंस ने फेसबुक पर आज के धरने की सूचना दी है उसके बाद से फासीवादी संगठनों की ओर से फर्जी वीडियो डाल कर राजदीप सरदेसाई को दोषी ठहराने की मुहिम चलाई जा रही है उन्होने इस दुर्भावनापूर्ण कारवाई को उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की संज्ञा दी। 

मानवाधिकार संगठन (पीयूसीएल) के रामकिशोर जी ने निर्भीकतापूर्वक कहा कि आपातकाल के बाद अब यह दूसरा मौका है कि पत्रकारों का योजनाबद्ध ढंग से उत्पीड़न किया जा रहा है। उन्होने कहा कि पत्रकार जनता की आवाज़ उठाता है और पत्रकारों पर ये फासीवादी हमले जनता की आवाज़ को कुचलने के लिए किए जा रहे हैं। उन्होने अपने संगठन की ओर से पत्रकारों के संघर्ष में पूर्ण समर्थन देने का आश्वासन दिया। 

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में सिद्धार्थ कलहंस ने धरने  पर आए हुये पत्रकार साथियों तथा अन्य  लोगों का कृतज्ञता ज्ञापन किया। उन्होने कहा कि मुख्यमंत्री से समय मांगा है और उनको विस्तृत ज्ञापन देकर पत्रकारों की सुरक्षा तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अक्षुण रखने की प्रबल  मांग उठाई जाएगी। उन्होने सख्त कानून बना कर पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता भी बताई। 


Sunday 28 September 2014

‘कौम के नाम सन्देश’-संक्षिप्त रूप: पंकज चतुर्वेदी

 27-09-2014 
कौम के नाम भगत सिंह का सन्देश
‘कौम के नाम सन्देश’ के रूप में प्रसिद्द और ‘नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र ‘ शीर्षक के साथ मिले इस दस्तावेज के कई प्रारूप और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं, यह एक संक्षिप्त रूप है। लाहौर के पीपुल्ज़ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के अभ्युदय में 8 मई, 1931 के अंक में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह दस्तावेज अंग्रेज सरकार की एक गुप्त पुस्तक ‘बंगाल में संयुक्त मोर्चा आंदोलन की प्रगति पर नोट’ से प्राप्त हुआ, जिसका लेखक सी आई डी अधिकारी सी ई एस फेयरवेदर था और जो उसने 1936 में लिखी थी, । उसके अनुसार यह लेख भगतसिंह ने लिखा था और 3 अक्तूबर, 1931को श्रीमती विमला प्रभादेवी के घर से तलाशी में हासिल हुआ था। सम्भवत: 2 फरवरी, 1931 को यह दस्तावेज लिखा गया।
नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र

प्रिय साथियो
इस समय हमारा आन्दोलन अत्यन्त महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुज़र रहा है। एक साल के कठोर संग्राम के बाद गोलमेज़ कान्फ्रेन्स ने हमारे सामने शासन-विधान में परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित बातें पेश की हैं और कांग्रेस के नेताओं को निमन्त्रण दिया है कि वे आकर शासन-विधान तैयार करने के कामों में मदद दें। कांग्रेस के नेता इस हालत में आन्दोलन को स्थगित कर देने के लिए तैयार दिखायी देते हैं। वे लोग आन्दोलन स्थगित करने के हक़ में फैसला करेंगे या खि़लाफ़, यह बात हमारे लिये बहुत महत्व नहीं रखती। यह बात निश्चित है कि वर्तमान आन्दोलन का अन्त किसी न किसी प्रकार के समझौते के रूप में होना लाज़िमी है। यह दूसरी बात है कि समझौता ज़ल्दी हो जाये या देरी हो।
वस्तुतः समझौता कोई हेय और निन्दा-योग्य वस्तु नहीं, जैसा कि साधारणतः हम लोग समझते हैं, बल्कि समझौता राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। कोई भी कौम, जो किसी अत्याचारी शासन के विरुद्ध खड़ी होती है, ज़रूरी है कि वह प्रारम्भ में असफल हो और अपनी लम्बी ज़द्दोज़हद के मध्यकाल में इस प्रकार के समझौते के ज़रिये कुछ राजनैतिक सुधार हासिल करती जाये, परन्तु वह अपनी लड़ाई की आख़िरी मंज़िल तक पहुँचते-पहुँचते अपनी ताक़तों को इतना दृढ़ और संगठित कर लेती है और उसका दुश्मन पर आख़िरी हमला ऐसा ज़ोरदार होता है कि शासक लोगों की ताक़तें उस वक्त तक भी यह चाहती हैं कि उसे दुश्मन के साथ कोई समझौता कर लेना पड़े। यह बात रूस के उदाहरण से भली-भाँति स्पष्ट की जा सकती है।
1905 में रूस में क्रान्ति की लहर उठी। क्रान्तिकारी नेताओं को बड़ी भारी आशाएँ थीं, लेनिन उसी समय विदेश से लौट कर आये थे, जहाँ वह पहले चले गये थे। वे सारे आन्दोलन को चला रहे थे। लोगों ने कोई दर्ज़न भर भूस्वामियों को मार डाला और कुछ मकानों को जला डाला, परन्तु वह क्रान्ति सफल न हुई। उसका इतना परिणाम अवश्य हुआ कि सरकार कुछ सुधार करने के लिये बाध्य हुई और द्यूमा (पार्लियामेन्ट) की रचना की गयी। उस समय लेनिन ने द्यूमा में जाने का समर्थन किया, मगर 1906 में उसी का उन्होंने विरोध शुरू कर दिया और 1907 में उन्होंने दूसरी द्यूमा में जाने का समर्थन किया, जिसके अधिकार बहुत कम कर दिये गये थे। इसका कारण था कि वह द्यूमा को अपने आन्दोलन का एक मंच (प्लेटफ़ार्म) बनाना चाहते थे।
इसी प्रकार 1917 के बाद जब जर्मनी के साथ रूस की सन्धि का प्रश्न चला, तो लेनिन के सिवाय बाकी सभी लोग उस सन्धि के ख़िलाफ़ थे। परन्तु लेनिन ने कहा, ‘'शान्ति, शान्ति और फिर शान्ति – किसी भी कीमत पर हो, शान्ति। यहाँ तक कि यदि हमें रूस के कुछ प्रान्त भी जर्मनी के ‘वारलार्ड’ को सौंप देने पड़ें, तो भी शान्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए।'’ जब कुछ बोल्शेविक नेताओं ने भी उनकी इस नीति का विरोध किया, तो उन्होंने साफ़ कहा कि ‘'इस समय बोल्शेविक सरकार को मज़बूत करना है।'’
जिस बात को मैं बताना चाहता हूँ वह यह है कि समझौता भी एक ऐसा हथियार है, जिसे राजनैतिक ज़द्दोज़हद के बीच में पग-पग पर इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है, जिससे एक कठिन लड़ाई से थकी हुई कौम को थोड़ी देर के लिये आराम मिल सके और वह आगे युद्ध के लिये अधिक ताक़त के साथ तैयार हो सके। परन्तु इन सारे समझौतों के बावज़ूद जिस चीज़ को हमें भूलना नहीं चाहिए, वह हमारा आदर्श है जो हमेशा हमारे सामने रहना चाहिए। जिस लक्ष्य के लिये हम लड़ रहे हैं, उसके सम्बन्ध में हमारे विचार बिलकुल स्पष्ट और दृढ़ होने चाहिए। यदि आप सोलह आने के लिये लड़ रहे हैं और एक आना मिल जाता है, तो वह एक आना ज़ेब में डाल कर बाकी पन्द्रह आने के लिये फिर जंग छेड़ दीजिए। हिन्दुस्तान के माडरेटों की जिस बात से हमें नफ़रत है वह यही है कि उनका आदर्श कुछ नहीं है। वे एक आने के लिये ही लड़ते हैं और उन्हें मिलता कुछ भी नहीं।
भारत की वर्तमान लड़ाई ज़्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते पर लड़ी जा रही है, जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। कांग्रेस दूकानदारों और पूँजीपतियों के ज़रिये इंग्लैण्ड पर आर्थिक दबाव डाल कर कुछ अधिकार ले लेना चाहती है। परन्तु जहाँ तक देश की करोड़ों मज़दूर और किसान जनता का ताल्लुक है, उनका उद्धार इतने से नहीं हो सकता। यदि देश की लड़ाई लड़नी हो, तो मज़दूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा, उन्हें लड़ाई के लिये संगठित करना होगा। नेता उन्हें आगे लाने के लिये अभी तक कुछ नहीं करते, न कर ही सकते हैं। इन किसानों को विदेशी हुकूमत के साथ-साथ भूमिपतियों और पूँजीपतियों के जुए से भी उद्धार पाना है, परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है।
इसलिये मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के लोग सम्पूर्ण क्रान्ति नहीं चाहते। सरकार पर आर्थिक दबाव डाल कर वे कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। भारत के धनी वर्ग के लिये कुछ रियायतें और चाहते हैं और इसलिये मैं यह भी कहता हूँ कि कांग्रेस का आन्दोलन किसी न किसी समझौते या असफलता में ख़त्म हो जायेगा। इस हालत में नौजवानों को समझ लेना चाहिए कि उनके लिये वक्त और भी सख़्त आ रहा है। उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए कि कहीं उनकी बुद्धि चकरा न जाये या वे हताश न हो बैठें। महात्मा गाँधी की दो लड़ाइयों का अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद वर्तमान परिस्थितियों और अपने भविष्य के प्रोग्राम के सम्बन्ध में साफ़-साफ़ नीति निर्धारित करना हमारे लिये अब ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
इतना विचार कर चुकने के बाद मैं अपनी बात अत्यन्त सादे शब्दों में कहना चाहता हूँ। आप लोग इंकलाब-ज़िन्दाबाद (long live revolution) का नारा लगाते हैं। यह नारा हमारे लिये बहुत पवित्र है और इसका इस्तेमाल हमें बहुत ही सोच-समझ कर करना चाहिए। जब आप नारे लगाते हैं, तो मैं समझता हूँ कि आप लोग वस्तुतः जो पुकारते हैं वही करना भी चाहते हैं। असेम्बली बम केस के समय हमने क्रान्ति शब्द की यह व्याख्या की थी – क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्देश्य के लिये हम पहले सरकार की ताक़त को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन अमीरों के हाथ में है। सामान्य जनता के हितों की रक्षा के लिये तथा अपने आदर्शों को क्रियात्मक रूप देने के लिये – अर्थात् समाज का नये सिरे से संगठन कार्ल माक्र्स के सिद्धान्तों के अनुसार करने के लिये – हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इस उद्देश्य के लिये लड़ रहे हैं। परन्तु इसके लिये साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए।
जिन लोगों के सामने इस महान क्रान्ति का लक्ष्य है, उनके लिये नये शासन-सुधारों की कसौटी क्या होनी चाहिए? हमारे लिये निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान रखना किसी भी शासन-विधान की परख के लिये ज़रूरी है -
शासन की ज़िम्मेदारी कहाँ तक भारतीयों को सौंपी जाती है?
शासन-विधान को चलाने के लिये किस प्रकार की सरकार बनायी जाती है और उसमें हिस्सा लेने का आम जनता को कहाँ तक मौका मिलता है?
भविष्य में उससे क्या आशाएँ की जा सकती हैं? उस पर कहाँ तक प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं? सर्व-साधारण को वोट देने का हक़ दिया जाता है या नहीं?

भारत की पार्लियामेन्ट का क्या स्वरूप हो, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार की कौंसिल आफ़ स्टेट सिर्फ अमीरों का जमघट है और लोगों को फाँसने का एक पिंजरा है, इसलिये उसे हटा कर एक ही सभा, जिसमें जनता के प्रतिनिधि हों, रखनी चाहिए। प्रान्तीय स्वराज्य का जो निश्चय गोलमेज़ कान्फ्रेन्स में हुआ, उसके सम्बन्ध में मेरी राय है कि जिस प्रकार के लोगों को सारी ताकतें दी जा रही हैं, उससे तो यह ‘प्रान्तीय स्वराज्य’ न होकर ‘प्रान्तीय जु़ल्म’ हो जायेगा।
इन सब अवस्थाओं पर विचार करके हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सबसे पहले हमें सारी अवस्थाओं का चित्र साफ़ तौर पर अपने सामने अंकित कर लेना चाहिए। यद्यपि हम यह मानते हैं कि समझौते का अर्थ कभी भी आत्मसमर्पण या पराजय स्वीकार करना नहीं, किन्तु एक कदम आगे और फिर कुछ आराम है, परन्तु हमें साथ ही यह भी समझ लेना कि समझौता इससे अधिक भी और कुछ नहीं। वह अन्तिम लक्ष्य और हमारे लिये अन्तिम विश्राम का स्थान नहीं।
हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं – यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेज़ों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जायेगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा।
पूर्ण स्वाधीनता से भी इस दल का यही अभिप्राय है। जब लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया, तो हम लोग पूरे दिल से इसे चाहते थे, परन्तु कांग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि ‘'समझौते का दरवाज़ा अभी खुला है।'’ इसका अर्थ यह था कि वह पहले ही जानते थे कि उनकी लड़ाई का अन्त इसी प्रकार के किसी समझौते में होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा न कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते हैं।
इस उद्देश्य के लिये नौजवानों को कार्यकर्ता बन कर मैदान में निकलना चाहिए, नेता बनने वाले तो पहले ही बहुत हैं। हमारे दल को नेताओं की आवश्यकता नहीं। अगर आप दुनियादार हैं, बाल-बच्चों और गृहस्थी में फँसे हैं, तो हमारे मार्ग पर मत आइए। आप हमारे उद्देश्य से सहानुभूति रखते हैं, तो और तरीकों से हमें सहायता दीजिए। सख़्त नियन्त्रण में रह सकने वाले कार्यकर्ता ही इस आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि दल इस उद्देश्य के लिये छिप कर ही काम करे। हमें युवकों के लिये स्वाध्याय-मण्डल (study circle) खोलने चाहिए। पैम्फ़लेटों और लीफ़लेटों, छोटी पुस्तकों, छोटे-छोटे पुस्तकालयों और लेक्चरों, बातचीत आदि से हमें अपने विचारों का सर्वत्र प्रचार करना चाहिए।
हमारे दल का सैनिक विभाग भी संगठित होना चाहिए। कभी-कभी उसकी बड़ी ज़रूरत पड़ जाती है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी स्थिति बिलकुल साफ़ कर देना चाहता हूँ। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसमें गलतफ़हमी की सम्भावना है, पर आप लोग मेरे शब्दों और वाक्यों का कोई गूढ़ अभिप्राय न गढ़ें।
यह बात प्रसिद्ध ही है कि मैं आतंकवादी (terrorist) रहा हूँ, परन्तु मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके कुछ निश्चित विचार और निश्चित आदर्श हैं और जिसके सामने एक लम्बा कार्यक्रम है। मुझे यह दोष दिया जायेगा, जैसा कि लोग राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को भी देते थे कि फाँसी की काल-कोठरी में पड़े रहने से मेरे विचारों में भी कोई परिवर्तन आ गया है। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरे विचार अब भी वही हैं। मेरे हृदय में अब भी उतना ही और वैसा ही उत्साह है और वही लक्ष्य है जो जेल के बाहर था। पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास से बहुत आसानी से मालूम हो जाती है। केवल बम फेंकना न सिर्फ़ व्यर्थ है, अपितु बहुत बार हानिकारक भी है। उसकी आवश्यकता किन्हीं ख़ास अवस्थाओं में ही पड़ा करती है। हमारा मुख्य लक्ष्य मज़दूरों और किसानों का संगठन होना चाहिए। सैनिक विभाग युद्ध-सामग्री को किसी ख़ास मौके के लिये केवल संग्रह करता रहे।
यदि हमारे नौजवान इसी प्रकार प्रयत्न करते जायेंगे, तब जाकर एक साल में स्वराज्य तो नहीं, किन्तु भारी कुर्बानी और त्याग की कठिन परीक्षा में से गुज़रने के बाद वे अवश्य ही विजयी होंगे।
इंकलाब-ज़िन्दाबाद!
(2 फरवरी,1931)
pankajbooks.blogspot.in

Saturday 27 September 2014

'आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी':महेंद्र कपूर ---ध्रुव गुप्त


श्रधांजलि / महेंद्र कपूर:
Mahendra Kapoor (January 9, 1934, Amritsar,British India – September 27, 2008, Mumbai, ) was a playback singer.
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=526799474063322&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=1 
 चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों !
1958 में फिल्म 'नवरंग' के लिए गाए अपने पहले गीत 'आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी' से अपना फिल्म कैरियर शुरू करने वाले बेहतरीन गायक महेंद्र कपूर ने चार दशकों में हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में पचीस हज़ार से ज्यादा गीत गाए थे। मोहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार के दौर में भी अपना एक अलग मुक़ाम बनाने वाले इस गायक ने हिंदी सिनेमा को कुछ कालजयी गीत भी दिए जिनके ज़िक्र के बगैर हिंदी फिल्म संगीत का इतिहास नहीं लिखा जा सकेगा। उनके गाए कुछ ऐसे ही गीत हैं - आधा है चन्द्रमा रात आधी, तुम्हारा चाहने वाला खुदा की दुनिया में मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे, तुम अगर साथ देने का वादा करो, नीले गगन के तले धरती का प्यार पले, किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है, न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो, चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों, आप आए तो ख्याले दिले नाशाद आया, और नहीं बस और नहीं ग़म के प्याले और नहीं, भारत का रहने वाला हूं भारत के गीत सुनाता हूं, मेरे देश की धरती सोना उगले, ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, मेरा प्यार वो है जो मरके भी तुझको जुदा अपनी बाहों से होने न देगा, अगर मुझे न मिले तुम तो मैं ये समझूंगा, ऐ जाने चमन तेरा गोरा बदन जैसे खिलता हुआ गुलाब, लाखों हैं यहां दिलवाले पर प्यार नहीं मिलता, तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं, ये किसका लहू है कौन मरा, जिसके सपने हमें रोज़ आते रहे, हम जब सिमट के आपकी बांहों में आ गए, ये कली जब तलक फूल बनकर खिले, भूल सकता है भला कौन तुम्हारी आंखें, हाथ आया है जबसे तेरा हाथ में, मेरी सांसों को जो महका रही है, बदल जाए अगर माली चमन होता नहीं खाली, रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलजुग आएगा, चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है। महेंद्र कपूर की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रधांजलि, उनके गाए भोजपुरी फिल्म 'बिदेसिया' के एक गीत के साथ !
हंसि हंसि पनवा खिअवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेश
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाईं गईले
मारी के करेजवा में ठेस

चढत फगुनवा सगुनवा मनावे गोरी
चैता करे रे उपवास
गरमी बेशरमी ना बेनिया डोलावे माई
डारे सईया गरवा में फांस

कजरी नजरिया से खेले रे बदरिया
कि बरसे रकतवा के नीर
दरदी के मारे छाई जरदी चनरमा पे
गरदी मिली रे तकदीर !

Tuesday 23 September 2014

धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो-----संजीव वर्मा 'सलिल '

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Sanjiv Verma 'salil' posted in 2 groups.
विमर्श: श्रम और बुद्धि
ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?
जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान करना चाहिए???
व्यास स्मृति, अध्याय १
वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२

अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए।
उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए।
ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ।
इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है।

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 20 September 2014

बुजुर्गों की आर्थिक मुश्किलें -हिंदुस्तान से

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Friday 19 September 2014

नए लेखकों के लिए स्थिति घातक है ---मुद्रा राक्षस

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Friday 12 September 2014

जीवित माता -पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा ही 'श्राद्ध और तर्पण' है

Wednesday 10 September 2014

एकल परिवार भी बिखरने की कगार पर---अरविंद विद्रोही

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09 -09-2014 :


 https://www.facebook.com/arvind.vidrohi/posts/742166825819570
अरविंद विद्रोही जी एक जागरूक पत्रकार हैं और उनकी चिंता स्व्भाविक तथा वास्तविक है। प्रस्तुत दोनों घटनाओं में युवा महिलाओं को सिर्फ इसीलिए अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ा कि वे आर्थिक स्वतन्त्रता हेतु जीविकोपार्जन के लिए घर से बाहर निकली थीं। कितनी आर्थिक स्वतन्त्रता मिली और परिवार में कितनी समृद्धि आ पाई ? बल्कि असमय ही उनके सपने और परिवार बिखर गए। :



ये दो तो सिर्फ उदाहरण हैं न जाने कितनी ही इस प्रकार की घटनाएँ रोज़ घटित हो रही हैं और अनेकों परिवार अनायास संकटों का सामना कर रहे हैं।  रोजगार रत महिलाओं पर घर और बाहर दोनों की ज़िम्मेदारी रहती है और कुछ को छोड़ कर अधिकांश के स्वस्थ्य व मनोदशा पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है जिसका खामियाजा पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। 

जब तक जिस परिवार में पुरुष भी घर की ज़िम्मेदारी निबाहने को तैयार न हों उस परिवार की महिलाओं को रोजगार करने से इंकार कर देना चाहिए ,वे क्यों घर-बाहर दोनों जगहों की ज़िम्मेदारी लेकर अपने निजी स्वस्थ्य व समस्त परिवार को जोखिम में डालें?

सनातन धर्म गर्ल्स  इंटर कालेज,आगरा छावनी में गणित के एक अध्यापक आलोक श्रीवास्तव साहब तो घर का काम बाकायदा अपनी श्रीमती जी को मदद करने के उद्देश्य से करते थे जबकि वह रोजगार में भी नहीं थीं। आलोक जी का कहना था कि यदि वह सुबह नाश्ता बना कर खा कर और अपनी श्रीमती जी को खिला कर कालेज चले जाते हैं तो सुबह-सुबह उनकी श्रीमती जी को छोटे बच्चे को अकेला छोड़ कर जल्दी-जल्दी उनके लिए नाश्ता नहीं तैयार करना पड़ता जबकि दिन में तसल्ली से इतमीनान से वह सब कार्य सुचारू रूप से कर लेती थीं। 

इसके विपरीत सेंट पैटरिक जूनियर गर्ल्स हाईस्कूल,आगरा में गणित के अध्यापक नरेंद्र चौहान साहब अपनी श्रीमती जी को घर के किसी भी काम में मदद नहीं करते थे यहाँ तक कि पौधों में पानी भी नहीं डालते थे। एक बार उनको कहीं  अचानक जाने की जल्दी थी और खाना तैयार नहीं था उन्होने बाज़ार से कुछ नाश्ता मंगाया जिसकी सब्जी में बैंगन की डंडी भी पड़ी थी जो मास्टर साहब के गले में जाकर अटक गई और उनको मुंह खोले -खोले ही डॉ के पास जाकर चिमटी से निकलवानी पड़ी। कार्यक्रम का मज़ा तो किरकिरा हुआ ही गले का घाव कई दिन तक परेशान किए रहा। यदि वह सब्जी बना देते या छील -काट कर ही तैयार कर देते तो  डॉ के पास दौड़ लगाने और तकलीफ उठाने की नौबत क्यों आती?

गणित मास्टर चौहान साहब के मुक़ाबले गणित मास्टर आलोक श्रीवास्तव साहब की घरेलू गणित ज़्यादा सटीक व कारगर साबित होती है। अतः समाजवाद को घर में भी लागू किया जाना चाहिए तभी परिवारों में खुशहाली लौट सकेगी। 

(विजय राजबली माथुर )

Tuesday 9 September 2014

प्राकृतिक प्रकोप क्यों?---विजय राजबली माथुर

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इसी लाल चौक के एक होटल में हम लोगों (होटल मुगल शेरटन,आगरा के स्टाफ ) को 1981 में ठहराया गया था;वहाँ के मशहूर 'हाईलैंड फैशन्स' के मालिक गुलाम रसूल जान साहब के 'होटल हाईलैंड्स',कारगिल के लिए रवाना होने के क्रम में। तब डल झील और लाल चौक मनोरम था और स्थानीय लोगों का हम लोगों के साथ व्यवहार सौहाद्र्पूर्ण। बाद में USA प्रेरित अलगाववाद ने सारी रौनक फीकी कर दी थी। अब USA द्वारा प्रेरित कार्पोरेट्स से प्रायोजित सरकार बनने के बाद से 'प्राकृतिक' रूप से एक के बाद एक सारे देश की जनता दंडित हो रही है।


Monday 1 September 2014

इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का कारण?---विजय राजबली माथुर

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प्रस्तुत आलेख के माध्यम से 62 हज़ार भारतीय सैनिकों की मौत व 67 हज़ार सैनिकों के प्रथम विश्व युद्ध में घायल होने की ज़िम्मेदारी महात्मा गांधी जी पर डाली गई है। नाम इतिहास का लिया जा रहा है। इतिहास तो यह भी है कि संभवतः गांधी जी को ही इस 'हिंदुस्तान' का सर्व प्रथम संपादक घनश्याम दास बिड़ला जी द्वारा बनवाया गया था जिसके प्रधान संपादक महोदय आज गांधी जी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। केवल व्यापारी नहीं थे घनश्याम दास जी बल्कि साहित्य जगत में भी उनका उसी प्रकार मान-सम्मान था जिस प्रकार सेठ गोविंद दास जी का था। कृष्ण कुमार बिड़ला साहब भी साहित्यिक हस्तियों व राजनेताओं का सम्मान करते थे। कभी विहिप द्वारा सब्सिडाइज़ 'आज',आगरा के स्थानीय संपादक रहे पंडित जी जब हिंदुस्तान के प्रधान संपादक बन गए तो गांधी जी से भी महान हो गए जो उनको अपने संस्थापक संपादक पर हमला बोलते तनिक भी संकोच नहीं हुआ।



इतिहासकार तो 'सत्य ' का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें  भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर 'तथ्य ' के मोतियों को सामने लाती हैं। 
किन्तु प्रस्तुत संपादकीय गांधी जी के प्रति तथ्यात्मक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है। इसका प्रमुख कारण यह  है कि आज इस अखबार का वह उद्देश्य नहीं रह गया है जिस उद्देश्य के लिए घनश्याम दास बिड़ला जी ने गांधी जी को इससे सम्बद्ध करवाया था। आज यह कारपोरेट घराने के मुनाफा कमाने वाला एक प्रोडक्ट  है।ग्रामीण कुटीर उद्योगों के चहेते गांधी जी को भला कारपोरेट घराना क्यों महत्व देने लगा?

गांधी जी के ही प्रांत-राज्य के वह मोदी साहब अब सरकार के मुखिया हैं जो गांधी जी के हत्यारे से सहानुभूति रखने वाले संगठन और पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। लिहाजा संपादकीय द्वारा गांधी जी को भारतीय सैनिकों की क्षति के लिए उत्तरदाई ठहराना राजनीतिक कलाबाजी है न कि ऐतिहासिक सच्चाई। 

वस्तुतः 28 जून 1914 को आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या की गई थी जिसके बाद युद्ध की चिंगारी सुलग उठी थी ।जर्मन सम्राट विलियम कौसर द्वितीय का प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रिंस बिस्मार्क ने जर्मनी  को ब्रिटेन के मुक़ाबले श्रेष्ठ साबित करने और जर्मन साम्राज्य स्थापित करने में बाधक 'प्रशिया' प्रांत को जर्मनी से निकाल दिया था जबकि प्रशियन जर्मनी में बने रहना चाहते थे और इस हेतु संघर्ष छेड़ दिया था। जर्मनी साम्राज्य स्थापना करके ब्रिटेन के लिए चुनौती न प्रस्तुत करे इसलिए ब्रिटेन ने  04 अगस्त 1914 को जर्मनी के विरुद्ध   युद्ध की घोषणा कर दी थी ।

उस समय के प्रभावशाली कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक   मांडले जेल मे कैद थे और मोहनदास करमचंद गांधी  अफ्रीका से भारत आ गए थे और  गोपाल कृष्ण गोखले के स्वर मे स्वर मिलाने लगे थे । लाला हरदयाल(माथुर ) साहब  ने विदेश में जाकर  गदर पार्टी की स्थापना देश को आज़ाद कराने हेतु की थी जिसको  सिंगापुर मे सफलता भी मिली थी।गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार को इस आश्वासन के बाद युद्ध में सहयोग किया था कि युद्ध समाप्त होते ही भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा। 1857 की क्रांति की विफलता और गदर पार्टी को जनता का व्यापक समर्थन न देख कर गांधी जी ने 'सत्य ' और 'अहिंसा ' के नए शस्त्रों से आज़ादी के संघर्ष को चलाने की पहल की थी और उन्होने शासकों पर भरोसा किया था। जब द्वितीय महायुद्ध  के दौरान गांधी जी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का आह्वान किया था तब भी अनेकों भारतीय ब्रिटिश फौज में भर्ती हुये थे। बेरोजगारी ने उनको मजबूर किया था विदेशी फौज में रोजगार पाने के लिए। यदि गांधी जी 1914 में भी फौज में भर्ती का विरोध करते तो क्या भूख से बेहाल गरीब फौज की सेवा में न जाकर रोजगार से वंचित होता? काबिल संपादक महोदय इस तथ्य को क्यों नज़रअंदाज़ कर गए? ज़ाहिर है उनके समक्ष राजनीतिक चापलूसी करके अपने कारपोरेट घराने के लिए आर्थिक लाभ कमाना उद्देश्य था -गांधी जी पर प्रहार करना।
 1917 में जब नील की खेती में गोरों ने भारतीय किसानों पर अत्याचार ढाना शुरू किया था तब गांधी जी 'चंपारण ' गए थे। आदिवासी किसानों के बीच की घोर गरीबी उनको तब दिखाई दी थी जब एक परिवार की माँ और पुत्री के बीच एक ही साड़ी होने तथा बारी-बारी से उसका प्रयोग करने की बात उनको पता चली थी। उस दिन से उन्होने खुद भी आधी धोती पहनने का व्रत लिया जिसका आजन्म निर्वहन किया। क्या गांधी जी को आरोपित करने वाले अपने देश की जनता के लिए कुछ भी त्याग कर सकते हैं?
 बहुत खतरनाक स्थिति है  यह जब साहित्य व समाचारों के माध्यम से सत्ता राजनीति के साथ कदमताल मिलाई जा रही हो। निर्भीक और जागरूक लोगों का कर्तव्य है कि वे 'सत्य ' को कुचले जाने की प्रक्रिया का तीव्र विरोध करें।