Sunday 31 August 2014

शैलेंद्र :ज़िंदगी की जीत ---राजीव कुमार यादव

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#KhabarMantra #article तू जि़न्दा है तो जि़न्दगी की जीत में यकीन कर By Rajeev Yadav - शैलेन्द्र एक प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार थे। जिनकी रचनाएं उनके राजनीतिक विचारों की वाहक थीं और इसीलिए वे कम्युनिस्ट राजनीति के नारों के रुप में आज भी सड़कों पर आम-आवाम की आवाज बनकर संघर्ष कर रही हैं। ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है ! (1949) आज किसी भी मजदूर आंदोलन के दौरान एक ‘राष्ट्रगीत’ के रुप में गाया जाता है। शैलेन्द्र ट्रेड यूनियन से लंबे समय तक जुड़े थे, वे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और खांके के प्रति बहुत सजग थे। आम बोल-चाल की भाषा में गीत लिखना उनकी एक राजनीति थी। क्योंकि क्लिष्ट भाषा को जनता नहीं समझ पाती, भाषा का ‘जनभाषा’ के स्वरुप में जनता के बीच प्रसारित होना एक राजनीतिक रचनकार की जिम्मेवारी होती है, जिसे उन्होंने पूरा किया। आज वर्तमान दौर में जब सरकारें बार-बार मंदी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं, ऐसा उस दौर में भी था। तभी तो शैलेन्द्र लिखते हैं ‘मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है।’ बार-बार पूंजीवाद के हित में जनता पर दमन और जनता द्वारा हर वार का जवाब देने पर वे कहते हैं ‘समझौता ? कैसा समझौता ?हमला तो तुमने बोला है, मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें।’ पर शैलेन्द्र के जाने के बाद आज हमारे फिल्मी गीतकारों का यह
पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि वक्त जरुर पूछेगा कि जब पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ
में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे।
साभार : 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 30 August 2014

राजेन्द्र यादव : एक स्मरण ---डॉ जितेंद्र रघुवंशी

राजेन्द्र यादव : एक परिचय
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था। उनके पिता
चिकित्सक थे। वे आंरभिक वर्षों में पिता के साथ मेरठ में कई जगहों पर रहे।
मिडिल की परीक्षा उन्होंने सुरीड़ नामक जगह से पास की। फिर उसके बाद
पढ़ने के लिए मवाना (मेरठ) अपने चाचा के पास गए। वहीं हॉकी खेलते हुए
पैरों में चोट लग गई जिसके कारण उनके पैर की एक हड्‌डी को निकालना पड़ा।
उसी दौरान उन्होंने उर्दू की कहानियों-उपन्यासों आदि को पढ़ा। चाचा का
तबादला झांसी होने के कारण वे झांसी चले गए और वहीं से उन्होंने मैट्रिक
(1944) किया।उन्होंने आगरा कॉलेज से बी.ए.(1949) किया। आगरा
विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एम.ए.(1951) भी किया। उसके बाद सन्‌ 1954
में वे कलकत्ता चले गए तथा 1964 तक वहीं रहे। उन्होंने वहीं ‘ज्ञानोदय’
दो बार छोटी-छोटी अवधि के लिए नौकरी भी की। सन्‌ 1964 में दिल्ली आने पर
‘अक्षर प्रकाशन’ की स्थापना की और कई महत्वपूर्ण लेखकों की प्रथम रचना को
छापा। सन्‌ 1986 से वे साहित्यिक मासिक ‘हंस’ का संपादन कर रहे
थे ।
नवीन सामाजिक चेतना के कथाकार राजेन्द्र यादव की पहली कहानी
‘प्रतिहिंसा’(1947) कर्म योगी मासिक में प्रकाशित हुई थी। उनके पहले
उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं’ जो बाद में ‘सारा आकाश’ (1959) नाम से
प्रकाशित हुई उन्हें अपने समय के अगुआ उपन्यासकारों में स्थापित कर दिया।
राजेन्द्र यादव नई कहानी आंदोलन के कुछ महत्वपूर्ण कथाकारो में गिने जाते
हैं।
अपनी कहानी में उन्होंने मानवीय जीवन के तनावों और संघर्षों को पूरी
संवेदनशीलता से जगह दी है। नगरीय जीवन के आतंक और विडंबना को बड़ी कुशलता
से वे सामने लाये। उनकी ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’
‘अभिमन्यु की आत्महत्या”छोटे-छोटे ताजमहल’ ‘किनारे से किनारे तक’ जैसी
कहानियां हिन्दी की ही नहीं विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में
गिनी जाती हैं। ‘देवताओं की मूर्तियां’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ (1957)
‘छोटे-छोटे ताजमहल’(1961)’टूटना और अन्य कहानियां’(1987) उनके अन्य कहानी
संग्रह हैं। उनकी अब तक की तमाम कहानियां ‘पड़ाव-1′ ‘पड़ाव-2′ और
‘यहांतक’ शीर्षक से तीन जिल्दों में संकलित हैं।
राजेन्द्र यादव औपन्यासिक चेतना के कथाकार माने जाते हैं। उनका पहला
उपन्यास ‘सारा आकाश’ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक
है। ‘सारा आकाश’ की लगभग आठ लाख प्रतियांं बिक चुकी हैं। ‘सारा आकाश’ की
कहानी एक रूढ़िवादी निम्नमध्य वर्गीय परिवार की कहानी है जिसका नायक एक
अव्यवहारिक आदर्शवादी है।
आजाद भारत की युवा पीढ़ी के वर्तमान की त्रासदी और भविष्य का नक्शा।
आश्वासन तो यह है कि सम्पूर्ण दुनिया का सारा आकाश तुम्हारे सामने खुला
है-सिर्फ तुम्हारे भीतर इसे जीतने और नापने का संकल्प हो- हाथ पैरों में
शक्ति हो... मगर असलियत यह है कि हर पाँव की बेड़ियाँ हैं और हर दरवाजा
बंद है। युवा बेचैनी को दिखाई नहीं देता है किधर जाए और क्या करे। इसी
में टूटती है उसका तन, मन और भविष्य का सपना। फिर वह क्या करे-पलायन,
आत्महत्या या आत्मसमर्पण ?
आज़ादी के पचास वर्षों में सारा आकाश ऐतिहासिक उपन्यास भी है और समकालीन
भी। बेहद पठनीय और हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक सारा
आकाश चालीस संस्करणों में आठ लाख प्रतियों से ऊपर छप चुका है, लगभग सारी
भारतीय और प्रमुख विदेशी भाषाओं में अनूदित है। बासु चटर्जी द्वारा बनी
फिल्में सारा आकाश हिन्दी की सार्थक कला फिल्मों की प्रारम्भकर्ता फ़िल्म
है।
आज की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार एक आदर्शवादी
मनुष्य को समझौतावादी बना देती है- यह उनके उपन्यास ‘उखड़े हुए लोग’
(1956) की मुख्य कथा वस्तु है। ‘शह और मात’(1959) डायरी शैली में लिखा
गया उपन्यास है।उपन्यास ‘कुलटा’ समाज के उच्चवर्गीय महिलाओं की खिन्नता
को उजागर करती है। अपनी लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के साथ लिखा गया
उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ खंडित व्यक्तित्व वाले आधुनिक व्यक्तियों की
प्रेम कहानी है। ‘अनदेखे अनजाने पुल’ ‘मंत्र विद्ध’(1967)
उनके अन्य उपन्यास हैं जो जीवन और उसके विरोधाभासों को और भी स्पष्टता
में दिखाते हैं। ‘आवाज तेरी है ‘(1960) नाम से उनकी कविताओं का एक संग्रह
भी प्रकाशित है।
उन्होंने समीक्षा निबंध की कई पुस्तकें भी लिखी हैं। ‘कहानी :स्वरूप और
संवेदना’ (1968) ‘कहानी :अनुभव और अभिव्यक्ति ‘(1996) और ‘उपन्यास
:स्वरूप और संवेदना’(1997) आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। दस खंडों
में प्रकाशित ‘कांटे की बात’ श्रृंखला में उनके ‘हंस’ मेंं छपे संपादकीय
को मुख्यत:लिया गया है। ‘औरों के बहाने’ 1981 में प्रकाशित हुई थी। नए
साहित्यकार पुस्तकमाला की श्रृंखला में मोहन राकेश कमलेश्वर फणीश्वनाथ
रेणु मन्नू भंडारी तथा स्वयं अपनी लिखी हुई चुनिंदा कहानियों का उन्होंने
संपादन किया।
‘कथा दशक’(1981-90) ‘हिन्दी कहानियां :आत्मदर्पण’(1994) ‘काली
सुर्खियां’(1994 अफ्रीकी कहानियां) और ‘एक दुनियां समानांतर का’ भी
उन्होंने संपादन किया।उनके द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण अनुवादों में
‘हमारे युग का एक नायक’ (लमेल्तोव) ‘प्रथम प्रेम’ ‘वसंत प्लावन’
(तुर्गनेव) ‘टक्कर’(चेखव) ‘संत सर्गीयस’ (टालस्टॉय) ‘एक महुआ :एक मोती’
(स्टाइन बैक) और ‘अजनबी’ (अलबेयर कामू) हैं। ‘मुड़-मुड़ के देखता हूं’
(2001) ‘वे देवता नहीं हैं ‘(2000) और ‘आदमी की निगाह में औरत’ (2001)
उनके संस्मरणों के संग्रह हैं।
हंस पत्रिका
उपन्यास सम्राट पे्रमचंद द्वारा स्थापित और संपादित हंस अपने समय की
अत्यन्त महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। महात्मा गांधी और कन्हैयालाल माणिक
लाल मुंशी दो वर्ष तक हंस के सम्पादक मंडल में रहे। मुंशी प्रेमचंद की
मृत्यु के बाद हंस का संपादन उनके पुत्र प्रसिद्ध कथाकार अमृतराय ने
किया। इधर अनेक वर्षों से हंस का प्रकाशन बंद था। मुंशी प्रेमचंद के
जन्मदिन यानी ३१ जुलाई १९८६ से अक्षर प्रकाशन ने प्रसिद्ध कथाकार
राजेन्द्र यादव के सम्पादन में हंस को एक कथा मासिक के रूप में फिर से
प्रकाशित किया।
आज से 28 साल पहले जब अगस्त 1986 में राजेंद्र यादव ने हंस पत्रिका का
पुनर्प्रकाशन शुरू किया था, तब किसी को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि यह
पत्रिका निरंतरता बरक़रार रखते हुए ढाई दशक तक निर्बाध रूप से निकलती
रहेगी, शायद संपादक को भी नहीं. उस व़क्त हिंदी में एक स्थिति बनाई या
प्रचारित की जा रही थी कि यहां साहित्यिक पत्रिकाएं चल नहीं सकतीं.
सारिका बंद हो गई, धर्मयुग बंद हो गया, जिससे यह साबित होता है कि हिंदी
में गंभीर साहित्यिक पत्रिका चल ही नहीं सकती. लेकिन तमाम आशंकाओं को धता
बताते हुए हंस ने यह सिद्ध कर
दिया कि हिंदी में गंभीर साहित्य के पाठक हैं..

“यह कहते हुए कोई संकोच या किसी तरह की कोई हिचक नहीं है कि पिछले ढाई
दशक की हिंदी की महत्वपूर्ण कहानियां हंस में ही छपीं. एक बार बातचीत में
यादव जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था कि अगर झूठी शालीनता न
बरतूं तो कह सकता हूं कि हिंदी में अस्सी प्रतिशत श्रेष्ठ कहानियां हंस
में ही प्रकाशित हुई हैं और ऐसे एक दर्जन से ज़्यादा कवि हैं, जिनकी पहली
कविता हंस में ही छपी और आज उनमें से कई हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार
हैं.” अनंत विजय (पत्रकार )
हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ,
शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय की तलछट का कोरस, रमाकांत
की कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्र किशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे
और आनंद हर्षुल की उस बूढ़े आदमी के कमरे में छाप कर हिंदी कथा साहित्य
को एक नया जीवनदान दिया ।
“हंस का यह शायद सबसे बड़ा योगदान है कि जिस समय बड़ी प्रकाशन
संस्थाओं से निकलने वाली धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ढेर हो रही थी, उस
दौर में एक लेखक के व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली इस पत्रिका ने
साहित्य से लोगों को जोड़े रखने का कामकिया. टेलीविजन के रंगीन तिलिस्म
के सामने उसने मजबूती से साहित्य के जादू को बरकरार रखने का काम किया. जब
पत्रिकाएंपढ़ने वाला परिवार टेलिविजन धारावाहिकों के जादू में खोने लगा
था हंस ने साहित्य में लोगों का विश्वास बनाये रखने का कामकिया. सबसे
बड़ी बात है कि मनोरंजन प्रधान उस दौर में भी उसने साहित्यिक सरोकारों की
लौ को बनाये रखा. पत्रिकाओं के नामपर हिंदी में सन्नाटा छाता जा रहा था,
बस एक हंस थी. न जाने कितने कथाकार हैं जिन्होंने हंस के पन्नों से
गांवसमाजों तक अपनीव्याप्ति बनाई. हमारी पीढ़ी ने जिन कथाकारों कि ओर सर
ऊँचा करके देखा और लिखने की प्रेरणा पाई संयोग से उन सबको हंस ने हीइतना
ऊंचा बनाया.” जानकिपुल (हिन्दी का प्रमुख साहित्यिक ब्लॉग )
2003 लिटरेट वर्ल्ड द्वारा कराये गए 81 साहित्यकार के माध्यम से कराये गए
सर्वे के मुताबिक “हंस हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका
कथा मासिक ‘हंस’ है।“ हिन्दी के एक साहित्यकार के मुताबिक उन्होंने प्रयास यही किया
कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व स्त्री
विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए जाएँ। उन्होंने स्त्री और दलित को
आज हिन्दी साहित्य में राजेंद्र यादव एक एसा नाम हैं जिन्होंने लेखन
अपने उसूलो पर किया और बिना किसी की परवाह किये सामाजिक मुद्दो पर लेखन के
माध्यम से अपने विचार सामने रखे ।
28 अक्टूबर 2013 को उनका दिल्ली में निधन हुआ. वह प्रगतिशील-जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के महत्वपूर्ण स्तम्भ थे. आज साहित्य और सामाजिक विमर्श में रुचि रखने वाले
हर पाठक को राजेंद्र यादव के साहित्य को जरूर पढ़ना चाहिए ।


साभार: 
https://www.facebook.com/groups/yaadgaareagra/permalink/337280386447443/ 

डॉ जितेंद्र रघुवंशी
 

Friday 29 August 2014

लीना चंदावरकर---संजोग वाल्टर



साभार :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=515908748435413&set=a.213322672027357.71686.100000488781382&type=1&theater






लीना चंदावरकर ने हिंदी फिल्मों में अपनी पारी की शुरुआत सुनील दत्त की फिल्म *मन का मीत 1968 से की थी इस फिल्म के हीरो थे सुनील दत्त के भाई सोम दत्त 1970 में सास भी कभी बहु थी,ज़वाब,हमजोली,1971 में जाने अनजाने,मैं सुन्दर हूँ,महबूब की मेहँदी 1972 में प्रीतम,रखवाला,दिल का राजा,1973 मनचली,हनीमून,एक कुंवारा एक कुंवारी,1974 में अनहोनी,ईमान,चोर चोर, 1975 बिदाई,अपने रंग हज़ार,एक महल हो सपनो का,1976 में बैराग, कैद,जग्गू 1977 में नामी चोर,यारों का यार,आखिरी गोली आफत, 1978 में नालायक,1980 में ज़ालिम 1985 में सरफ़रोश में अभिनय किया, लीना चंदावरकर की किस्मत में हर साल एक हिट लिखी थी उस दौर के हर बड़े हीरो के साथ उन्होंने काम किया,दिलीप कुमार शम्मी कपूर,धर्मेन्द्र,राजेश खन्ना,संजीव कुमार,विश्वजीत,विनोद खन्ना,शत्रुघन सिन्हा.लीना चंदावरकर का जन्म कर्णाटक के धारवाड़ में 29 अगस्त 1950 को फौजी परिवार में हुआ था.Fresh Face फिल्म फेयर कम्टीशन के ज़रिये वो लाइम लाईट में आयी 2007 में सोनी पर दिखाई दी थी,लीना चंदावरकर का नाम रखवाला की शूटिंग के दौरान धमेद्र के साथ जुडा,जिसे फ़िल्मी जुबां में गासिप कहा गया .लीना चंदावरकर ने अपने फ़िल्मी करियर के चड़ते ग्राफ के बीच दिसम्बर 08 1975 को बम्बई में सिद्धार्थ बांदोडकर के साथ शादी करे सबको चौंका दिया सिद्धार्थ गोवा के पहले मुख्य मंत्री भाऊ साहेब बांदोडकर के बेटे थे,इस शादी को उस दौर में फैरी टेल कहा गया था. शाशिकलाताई काकोडकर, सिद्धार्थ की बड़ी बहन थी और वे भी गोवा की मुख्य मंत्री रही.18 दिसम्बर 1975 को सिद्धार्थ एक हादसे का शिकार हो गये उनके अपने ही रिवाल्वर से उन्हें गोली लग गयी इस हादसे से गोवा से लेकर दिल्ली तक तक हडकंप मच गया क्योंकी घायल होने वाला सिद्धार्थ तब की मुख्य मंत्री का भाई था,पहले गोवा फिर बम्बई में सिद्धार्थ का इलाज़ हुआ,कई महीने अस्पताल में रहने के बाद वो घर लौट आये,1976 के बीच में सिद्धार्थ के जखम जो ठीक होने के बाद फिर से उभरे लिहाजा बम्बई के जसलोक अस्पातल में उन्हें फिर से भर्ती किया गया जहाँ वो 7 नवंबर 1976 को महज़ 26 साल की उम्र में जिंदगी से जंग हर गये.इस मौत से गोवा थम गया थासिद्धार्थ के अंतिम संस्कार वाले दिन पूरा गोवा बंद था,लोग शामिल थे सिद्धार्थ की अंतिम यात्रा में, मुख्यमंत्री शाशिकलाताई काकोडकर ने गोवा में सिद्धार्थ की याद में memorial stands बनवाया जो उनकी माँ सुनंदाबाई के memorial stands के पास है. Shashikalatai has dedicated the Siddharth Bhavan in memory of her beloved brother.लीना महज़ 26 साल की उम्र में विधवा हो चुकी थी,हिंदी फिल्मों से दूर थी.1980 में लीना ने अपनी उम्र से 20 साल बड़े किशोर कुमार से शादी कर और वो उनकी चौथी और आखिरी बीबी थी,किशोर और लीना के बेटे का नाम सुमित है 13 अक्टोबर 1987 को 39 साल की उम्र में लीना फिर विधवा हो गयी,आज कल वे सुमित और अपने सौतेले बेटे अमित कुमार और अमित की पत्नी और अमित की माँ के साथ रह रही है.लीना को "चाइनीज़ डौल" भी कहा जाता था .

Sunday 24 August 2014

■गुरुत्वाकर्षण के असली खोजकर्ता कौन■---आनंद झा

कामरेड आनद झा सुपुत्र कामरेड हेमचन्द्र झा (भाकपा ज़िला मंत्री-मधुबनी )
■गुरुत्वाकर्षण के असली खोजकर्ता कौन■
●भास्कराचार्य या न्यूटन●
आइये जाने भारत के असली वैज्ञानिक को.......
गुरुत्वाकर्षण की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। माना जाता है की सन 1666 में गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन ने की | तो क्या गरूत्वाकर्षण जैसी मामूली चीज़ की खोज मात्र 350 साल पहले ही हुई है? ...नहीं।
हम सभी विद्यालयों में पढ़ते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की थी परन्तु मह्रिषी भाष्कराचार्य ने न्यूटन से लगभग 500 वर्ष पूर्व ही पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था |
भास्कराचार्य प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। इनका जन्म 1114 ई0 में हुआ था। भास्कराचार्य उज्जैन में स्थित वेधशाला के प्रमुख थे। यह वेधशाला प्राचीन भारत में गणित और खगोल शास्त्र का अग्रणी केंद्र था।
जब इन्होंने "सिद्धान्त शिरोमणि" नामक ग्रन्थ लिखा तब वें मात्र 36 वर्ष के थे। "सिद्धान्त शिरोमणि" एक विशाल ग्रन्थ है।
जिसके चार भाग हैं
(1) लीलावती
(2) बीजगणित
(3) गोलाध्याय और
(4) ग्रह गणिताध्याय।
लीलावती भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने पुस्तक का नाम लीलावती रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है। लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।"
सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं,
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।"
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण भी उपलब्ध हैं !
तथा इसके अतिरिक एक और बात मैं जोड़ना चाहूँगा की निश्चित रूप से गुरुत्वाकर्षण की खोज हजारों वर्षों पूर्व ही की जा चुकी थी जैसा की महर्षि भारद्वाज रचित 'विमान शास्त्र ' के बारे में बताया था ।
विमान शास्त्र की रचना करने वाले वैज्ञानिक को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में पता न हो ये हो ही नही सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को उड़ाने के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विरोध करना अनिवार्य है। जब तक कोई व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण को पूरी तरह नही जान ले उसके लिए विमान शास्त्र जैसे ग्रन्थ का निर्माण करना संभव ही नही |
अतएव गुरुत्वाकर्षण की खोज कई हजारों वर्षो पूर्व ही की जा चुकी थी।
हमे गर्व है भारत के गौरवशाली ज्ञान और विज्ञान पर। अब आवश्यकता है इसको विश्व मंच पर स्थापित करने की।

Sunday 17 August 2014

'संवेदना शून्य' है निजी क्षेत्र ---शशि शेखर

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 काफी लंबे अरसे बाद शशि शेखर जी ने सच्ची बात इस सम्पादकीय लेख मे कही है। बिलकुल सही है कि निजी क्षेत्र केवल मुनाफा कमाने पर ध्यान देता है उसे ग्राहक की चिंता या ख्याल ज़रा सा भी नहीं होता है। 1980 में पहली बार शुद्ध RSS के समर्थन से सरकार बनाने के बाद इन्दिरा जी ने आर्थिक नीतियाँ बदलना शुरू कर दिया था और उसी काल से श्रम न्यायालयों द्वारा श्रमिकों के विरुद्ध मालिकों के पक्ष में निर्णय देना प्रारम्भ हो गया था। उनके बाद राजीव जी ने पहली बार केंद्र सरकार को 'कारपोरेट कंपनी' के तौर पर चलाया था। 1991 में नरसिंघा राव जी के वित्त मंत्री की हैसियत से मनमोहन सिंह जी ने  निजी क्षेत्र को निर्लज्ज समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया था और ट्रेड  यूनियन आंदोलन को तोड़ने के लिए 'वर्ल्ड बैंक' के इशारे पर NGOs की बहार ला दी थी। फिर बाजपेयी साहब की सरकार ने तो बाकायदा 'विनिवेश मंत्रालय 'का गठन करके सरकारी क्षेत्र की मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को औने-पौने दामों पर बेच डाला व निजी क्षेत्र को अनावश्यक लाभ पहुंचाया था। 'उदरवाद' व नव-उदारवाद' चला कर पूर्व पी एम मनमोहन सिंह जी ने सरकारी क्षेत्र को जर्जर करके जनता की रीढ़ तोड़ दी थी एवं 2011 से हज़ारे/केजरी को आगे करके NGOs द्वारा कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का आंदोलन चलवाया था जिसको RSS का प्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था और आज की मोदी सरकार उसी का प्रतिफल है। अब तो रेलवे और रक्षा संस्थानों को भी सिर्फ निजी क्षेत्र ही नहीं विदेशी कार्पोरेट्स के लिए भी खोला जा रहा है। 

शशि शेखर जी की पीड़ा तब सामने आई है जब निजी क्षेत्र की बुराइयों से कारपोरेट हिमायती  उन जैसों का भी साबका पड़ना शुरू हो गया है। फिर ज़रा कल्पना कीजिये कि साधारण जनता का क्या हाल होगा?



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday 13 August 2014

सरकार और व्यवहार :अरविंद विद्रोही व पंकज चतुर्वेदी जी की नज़रों से

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साभार : दैनिक हरिभूमि के सम्पादकीय पृष्ठ ४ पर प्रकाशित 'अरविंद विद्रोही' जी का  लेख सरकार और जन आकांक्षा दिनांक १२ अगस्त ,१४https://www.facebook.com/photo.php?fbid=728525607183692&set=p.728525607183692&type=1&theater


 Pankaj Chaturvedi
12 hrs · Edited ·
अखिेलेश यादव जी आप एक असफल, नाकाम अैर बेबस से मुख्‍यमंत्री हैं, अब समय आ गया है कि नेताजी खुद उप्र की कमान संभालें, उप्र की हकीकत और विकास के वादे कितने खोखले हैं देखना हो ते जरा किसी भी दिन शाम को छह बजे के आसपास दिल्‍ली में दिलशाद गार्डन से जीटी रोड होते हुए गाजियाबाद की तरुफ आने की योजना बनाएं, जहां दिल्‍ली की सीमा  खतम होती है वहीं से विक्रम आठ सीटर आटो की रेलमपेल, उनसे वसूली करते लंपट किस्‍म के लोग व दूर खडे मजा लेते पुलिस वाले 100 मीटर आगे बढने के लिए पंद्रह मिनट तक समय लगने पर निर्विकार मिलेगे आगे का रासत छह लेन रोड है लेकिन वहां ट्राफिक केवल एक ही लेन पर चलता है, बाकी पर ट्रकों की पार्किंग होती है जो हर दिन के हिसाब से थाने को पैसा देते हैं, धूल, गर्द, गलत दिशा  से आते वाहन व 16 टन लदे ट्रक, मोहन नगर तक का चार किलोमीटर का रास्‍ता एक घंटे में पार कर लो ताे गनीमत है यह बानगी है, दिल्‍ली के दरवाजे पर हताश उप्र की व्‍यवस्‍थाओं की,कभी अपने किसी भरोसेमंद को शाम को इस सडक पर चला कर देख लें फिर पता चलेगा कि यह उत्‍तर प्रदेश नहीं मुंलायम सिंह जी का ''पुत्‍तर प्रदेश'' बन कर रह गया है , यह तो बानगी है इससे जैसे आगे बढेंगे सडक की अराजकता और बढती जाएगी। 

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सातवें भाव (जो सहयोगियों,राजनीतिक साथियों एवं पार्टी नेतृत्व का है )का स्वामी मंगल चतुर्थ भाव (जो लोकप्रियता व मान-सम्मान का है )मे सूर्य की राशि मे स्थित है । यह स्थिति शत्रु बढ़ाने वाली है इसी के साथ-साथ सातवें भाव मे मंगल की राशि मे 'राहू' स्थित है जो कलह के योग उत्पन्न कर रहा है।ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के मध्य काल तक पार्टी मे अंदरूनी कलह-क्लेश और टकराव बढ़ जाएँगे। ये परिस्थितियाँ पार्टी को दो-फाड़ करने और सरकार गिराने तक भी जा सकती हैं। निश्चय ही विरोधी दल तो ऐसा ही चाहेंगे भी।*****
 http://krantiswar.blogspot.in/2012/03/blog-post_16.html

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday 9 August 2014

काकोरी काण्ड 9 अगस्त 1925---संजोग वाल्टर



मेरा रँग दे बसन्ती चोला...मेरा रँग दे बसन्ती चोला...
"काकोरी काण्ड 9 अगस्त 1925" जिस लखनऊ जेल में पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने मेरा रँग दे बसन्ती चोला.... जैसी यादगार नज्म लिखी वो लखनऊ जेल मायावती सरकार में तोड़ दी गयी,अंग्रेजों के "नाच घर" यानी आज के "जीपीओ"में क्रान्तिकारियों पर मुकद्दमा चला,उसे धरोहर घोषित करने की मांग की जाती रही है,जो अब तक पूरी नहीं हुई.पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील ने क्रान्तिकारियों पर चले मुकद्दमे की पैरवी की उनके नाम पर अंग्रेजी हुकूमत ने लखनऊ में एक सड़क को नाम दिया "जगतनारायण रोड" जो आज भी कायम है,काकोरी स्मारक बदहाली का शिकार हो चुका है,आइये अब क्रान्तिकारियों को श्रधान्जली दें.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई।इस योजना को अंजाम देते हुए राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन को चेन खींच कर रोक लिया और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड के नाम पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने,सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई। इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया। हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के दोनों नेता- शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह इश्तहार अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच०आर०ए० के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो वह आवश्यकता और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं तो परन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका। इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ। आखिरकार उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर की फोटो ऐसे चार माउजर इस ऐक्शन में प्रयोग किये गये थे। 8 अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और अगले ही दिन 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग, जिनमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारीलाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवम् औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे, 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी आटोमेटिक रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की ए०के०-47 रायफल की तरह चर्चित हुआ करते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सी०आई०डी० इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया। खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और तहकीकात करके बरतानिया सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया। पुलिस को उससे यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पूरी पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद 'बिस्मिल', जो हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ (एच०आर०ए०) का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। आगरा से चन्द्रधर जौहरी,चन्द्रभाल जौहरी,इलाहाबाद से शीतला सहाय,ज्योतिशंकर दीक्षित,भूपेंद्रनाथ सान्याल,उरई से वीरभद्र तिवारी,बनारस से मन्मथनाथ गुप्त,दामोदरस्वरूप सेठ,रामनाथ पाण्डे,देवदत्त भट्टाचार्य,इन्द्रविक्रम सिंह,मुकुन्दी लाल,बंगाल से शचीन्द्रनाथ सान्याल,योगेशचन्द्र चटर्जी,राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,शरतचन्द्र गुहा,कालिदास बोस,एटा से,बाबूराम वर्मा,हरदोई से,भैरों सिंह, जबलपुर से प्रणवेश कुमार चटर्जी,कानपुर से रामदुलारे त्रिवेदी,गोपी मोहन,राजकुमार सिन्हा,सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य,लाहौर से मोहनलाल गौतम,लखीमपुर से हरनाम सुन्दरलाल, लखनऊ से गोविंदचरण कार,शचीन्द्रनाथ विश्वासमथुरा से,शिवचरण लाल शर्मा मेरठ से, विष्णुशरण दुब्लिश,पूना से रामकृष्ण खत्री,रायबरेली से, शाहजहाँपुर से, रामप्रसाद बिस्मिल, बनारसी लाल,लाला हरगोविन्द,प्रेमकृष्ण खन्ना,इन्दुभूषण मित्रा, ठाकुर रोशन सिंह, रामदत्त शुक्ला,मदनलाल,रामरत्न शुक्ला दिल्ली से, अशफाक उल्ला खाँ,प्रतापगढ़ से शचीन्द्रनाथ बख्शी,40 व्यक्तियों में से तीन लोग शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में, योगेशचन्द्र चटर्जी हावडा में तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बम विस्फोट मामले में कलकत्ता से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दो लोग अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को बाद में तब गिरफ्तार किया गया जब मुख्य काकोरी षड्यन्त्र केस का फैसला हो चुका था। इन दोनों पर अलग से पूरक मुकदमा दायर किया गया। काकोरी-काण्ड में केवल 10 लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे, पुलिस की ओर से उन सभी को भी इस केस में नामजद किया गया। इन 10 लोगों में से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के नाम से ऐतिहासिक मुकदमा चला और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच० आर० ए० का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से 16 को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्टेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी और केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिये थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई अपील भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये। लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।" अगले दिन कविता तैयार थी मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला। मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं: इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम्" बोला, यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने;दूर फिरंगी को करने को, को करने को;लहू में अपने घोला। मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....माय! रँग दे बसन्ती चोला....हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....मेरा रँग दे बसन्ती चोला....राम प्रसाद 'बिस्मिल' की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी । सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है ! वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ ! हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है ! खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है ! ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है ! अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ! पाँच फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्र नाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे का फैसला सुनाया जा चुका था। स्पेशल जज जे० आर० डब्लू० बैनेट की अदालत में काकोरी-काण्ड का पूरक मुकदमा दर्ज हुआ और 13 जुलाई 1927 को इन दोनों पर भी सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त,जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया। बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा - राम प्रसाद ! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ? इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था-"एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री ।" काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह"मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरें अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल! बिस्मिल द्वारा की गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गयी। मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। अतएव अदालत ने बिस्मिल की18 जुलाई 1927 को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने 76 पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी अदालत और सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती। 22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई०पी०सी० की दफा 121(ए) व 120 (बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा 302 व 396 के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में 5,5 कुल 10 वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को 5,5 वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें 10-10 वर्ष से बढाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत् (7-7 वर्ष) रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को 5 वर्ष से घटाकर 4 वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (3 वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया, की सजा बढाकर 14 वर्ष कर दी गयी,अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पं० मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन० सी० केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।इसके बाद मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया। अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस० एल० पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद 'बिस्मिल' बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में बरतानिया सरकार को हिन्दुस्तान में हुकूमत करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।
 
साभार : 

Friday 8 August 2014

दुनिया को बेहतर बनाना चाहते हैं तो "घर-परिवार" को बेहतर बनाना होगा ---संजय सिन्हा

मेरे गांव के पांडे जी के घर की कहानी सुन लीजिए।
पांडे जी का बेटा मेरा दोस्त था। हम दोनों बचपन में साथ खेला करते थे। मैंने देखा था कि पांडे जी की पत्नी अपनी सास से बहुत चिढ़ती थीं। वो जब भी खाना पकातीं तो अपनी सास को एक रोटी देकर चुपचाप खिसक लेतीं। दूसरी रोटी के लिए उन्हें पूछती भी नहीं। और जब सास दूसरी रोटी का इंतजार करते-करते थक जातीं, तो चुपचाप थाली छोड़ कर उठ जातीं। ऐसे चलता रहा सास बहू का द्वंद्व।
कई साल बीत गए। सास बूढ़ी होकर मर गईं। तब तक पांडे जी की पत्नी भी बूढ़ी हो चली थीं, और उनके बेटे की शादी भी हो गई थी। मैं एक बार फिर गांव गया तब तक पांडे जी का निधन हो चुका था, तो मैंने देखा कि पांडे जी की पत्नी छत पर बने उसी कमरे में अकेली लेटी थीं, जिसमें कभी उन्होंने अपनी सास को रखा था। वही बिस्तर, वही खटिया, सबकुछ वही। मुझे पल भर को लगा कि मैं पांडे चाची से नहीं, उनकी सास से मिल रहा हूं। थोड़ी देर में उनकी बहू थाली में एक रोटी लेकर आई और उसने उनके आगे रख दिया।
बहू नीचे चली गई तो पांडे चाची ने मुझसे कहा कि बहू बहुत खराब मिल गई है। मुझे उपर ला कर अकेला छोड़ दिया है। एक रोटी दे जाती है, दूसरी मांगने का मौका भी नहीं देती।
मैं हैरान नहीं था। मैं सोच रहा था कि कह दूं कि यही आपका नर्क है। आपने जो किया था अपनी सास के साथ वो आपको जस का तस मिल रहा है। लेकिन मैं नहीं कह पाया।
मैं नीचे आया। मैं बहू यानी अपने दोस्त की पत्नी से बातें करने लगा। बहू ने बातचीत में बताया कि सास बहुत तकलीफ देती थी, इसीलिए उसे उपर शिप्ट कर दिया गया है।
मैं चाह रहा था कि उससे कह दूं कि तुम इस क्रम को तोड़ दो। तुम उस चक्र से मुक्त हो जाओ जिससे तु्‌म्हारी सास, उनकी सास, उनकी सास की सास बंधी रहीं। भूल जाओ उनके नर्क की बात, अपना स्वर्ग सुधार लो। पर पता नहीं क्यों नहीं कह पाया।
बहुत दिनों बाद मेरे दोस्त के बेटे की भी शादी हो गई। उसका बेटा पुणे के पास कहीं रहता है। सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। खूब कमाता है। अपनी पसंद की लड़की से शादी की है, और मां के पास नहीं जाता। अभी कुछ दिन पहले फिर गांव गया तो अपने दोस्त की पत्नी से मिला। वो मुझे बहुत बीमार लग रही थी। बीमार से ज्यादा लाचार। मैंने उसकी आंखों में झांका, और देखा कि बेटे की जुदाई का गम उसे सता रहा है। उसका अकेलापन उसे खा रहा है। मैंने हिम्मत की, उससे पूछा कि कैसी हो तुम?
उसने भर्राए गले से कहा, एक ही बेटा था। अपनी खुशियों को छोड़ कर उसे पढ़ाया, इंजीनियर बनाया। अब वो ससुराल का हो गया है। सास को मां बुलाता है, ससुर को पापा। हम तो छूट ही गए। लानत है ऐसी औलाद पर।
मन में आया कि आज कह ही दूं कि ये आपका नर्क है। कुछ साल पहले ही तो आया था तुम्हारे घर, तुम्हारी बुढ़िया सास इस खाट पर लेटी थी, तुमने फेंक कर उसे रोटी दी थी। पर क्या कहता? मैं तो जानता था कि उस बुढ़िया को भी अपना नर्क भुगतना ही था।
और फिर उसी नर्क की अगली कड़ी में मेरे दोस्त की पत्नी को भी ये सब भुगतना ही था। उसका बेटा हर शनिवार गौशाला में जाकर गाय को रोटी खिलाता है, अपने हाथोें से गायों को बाल्टी भर भर कर पानी पिलाता है। किसी ने कह दिया है कि केतु नाराज है, तो सड़क के कुत्तों को दूध भी पिलाता है। लेकिन मां? नहीं मां को तो उसका नर्क मिल कर ही रहेगा।
फिर भी सोच रहा हूं कि जो अपने दोस्त की पत्नी से नहीं कह पाया उसे उसके बेटे की पत्नी से कह दूं। कह दूं कि तोड़ तो उस चक्र को। जो भी हो, अपना स्वर्ग ठीक कर लो।
मैं बहुत से लोगों को जानता हूं जो मेरे आसपास अपने अपने हिस्से का नर्क भुगत रहे हैं, भुगतने वाले हैं। उनकी औलादें गाय को रोटी खिला कर अपना पुण्य कमा लेंगी, लेकिन मां को नहीं खिलाएंगी। फिर भी मेरी गुजारिश है आप सबसे कि जिसने जो किया हो आपके साथ, आप उसे माफ कर दें। उसे इस बात के लिए माफ मत करें कि उसने आपके साथ क्या किया? उसे इस बात के लिए माफ कर दें कि आपके जीवन से उस पाप का चक्र छूट जाए।


साभार : 
https://www.facebook.com/manmohan998/posts/780975261954222

द्वारा :
https://www.facebook.com/sanjayzee/posts/10203799370601406

Friday 1 August 2014

"ट्रेजेडी क्वीन":मीना कुमारी ---संजोग वाल्टर

1अगस्त जन्मदिन पर :



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फिल्म साहिब बीबी और गुलाम में छोटी बहु (मीना कुमारी ) अकेलेपन से तंग आकर शराब का सहारा लेती है ऐसा ही हुआ असलियत में उनकी ज़िन्दगी जब उन्हें सहारे की ज़रूरत थी तब उनको सहारा नहीं मिला,मीना कुमारी (1अगस्त,1932-31 मार्च,1972) बेमिसाल अदाकारा,जिन्हें "ट्रेजेडी क्वीन" का खिताब मिला,मीना कुमारी का असली नाम महज़बी बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके वालिद अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के मझे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी वालिदा प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था। महज़बी ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा से पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस , निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं। 1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा। मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी। मीना कुमारी उम्र भर एक पहेली बनी रही महज चालीस साल की उम्र में वो मौत के मुह में चली गयी इसके लिए मीना के इर्दगिर्द कुछ रिश्तेदार,कुछ चाहने वाले और कुछ उनकी दौलत पर नजर गढ़ाए वे लोग हैं, जिन्हें ट्रेजेडी क्वीन की अकाल मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मीना कुमारी को एक अभिनेत्री के रूप में, एक पत्नी के रूप में,एक प्यासी प्रेमिका के रूप में और एक भटकती-गुमराह होती हर कदम पर धोखा खाती स्त्री के रूप में देखना उनकी जिंदगी का सही पैमाना होगा। मीना कुमारी की नानी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी, जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही प्यारेलाल नामक युवक के साथ भाग गई थीं। विधवा हो जाने पर उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। दो बेटे और एक बेटी को लेकर बम्बई आ गईं। नाचने-गाने की कला में माहिर थीं इसलिए बेटी प्रभावती के साथ पारसी थिएटर में भरती हो गईं। प्रभावती की मुलाकात थियेटर के हारमोनियम वादक मास्टर अली बख्श से हुई। उन्होंने प्रभावती से निकाह कर उसे इकबाल बानो बना दिया। अली बख्श से इकबाल को तीन संतान हुईं। खुर्शीद, महज़बी (मीना कुमारी) और तीसरी महलका (माधुरी)। अली बख्श रंगीन मिजाज के व्यक्ति थे। घर की नौकरानी से नजरें चार हुईं और खुले आम रोमांस चलने लगा। परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। महजबीं को मात्र चार साल की उम्र में फिल्मकार विजय भट्ट के सामने खड़ा कर दिया गया। इस तरह बीस फिल्में महजबीं (मीना) ने बाल कलाकार के रूप में न चाहते हुए भी की। महज़बीं को अपने पिता से नफरत सी हो गई और पुरुष का स्वार्थी चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया। फिल्म बैजू बावरा (1952) से मीना कुमारी के नाम से मशहूर महजबीं ने अपने वालिद की इमेज को दरकिनार करते हुए उनसे हमदर्दी जताने वाले कमाल अमरोही की शख्सियत में अपना बेहतर आने वाला कल दिखाई दिया,वे उनके नजदीक होती चली गईं। नतीजा यह रहा कि दोनों ने निकाह कर लिया। लेकिन यहाँ उसे कमाल साहब की दूसरी बीवी का दर्जा मिला। उनके निकाह के इकलौते गवाह थे जीनत अमान के अब्बा अमान साहब। कमाल अमरोही और मीना कुमारी की शादीशुदा जिंदगी करीब दस साल तक एक सपने की तरह चली। मगर औलाद न होने की वजह से उनके ताल्लुतक में दरार आने लगी। लिहाज़ा दोनों अलग हो गये कहते है उस रात मीना कुमारी ने जब कमाल अमरोही का घर छोड़ा था, किसी ने भी उनकी मदद नहीं की भारत भूषण,प्रदीप कुमार,राज कुमार किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया,पैदा होते ही वालिद अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर इन्हे एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ दिया था, मीना कुमारी की माँ के काफी रोने -धोने पर वे इन्हे वापस ले आए। परिवार हो या शादीशुदा जिंदगी मीना कुमारी के हिस्से में सिर्फ तन्हाईयाँ हीं आई,फिल्म फूल और पत्थर (1966) के हीरो ही-मैन धर्मेन्द्र से मीना की नजदीकियाँ, बढ़ने लगीं। इस दौर तक मीना कामयाब,मशहूर व बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट हीरोइन के रूप में जानी जाने लगी थी,धर्मेन्द्र का करियर डाँवाडोल चल रहा था। उन्हें मीना का मजबूत पल्लू थामने में अपनी सफलता महसूस होने लगी। गरम धरम ने मीना को सूनी-सपाट अंधेरी जिंदगी को एक ही-मैन की रोशन से भर दिया। कई तरह के गॉसिप और गरमा-गरम खबरों से फिल्मी पत्रिकाओं के पन्ने रंगे जाने लगे। इसका असर मीना-कमाल के रिश्ते पर भी हुआ। मीना कुमारी का नाम कई लोगों से जोड़ा गया। बॉलीवुड के जानकारों के अनुसार मीना-धर्मेन्द्र के रोमांस की खबरें हवा में बम्बई से दिल्ली तक के आकाश में उड़ने लगी थीं। जब दिल्ली में वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन से एक कार्यक्रम में मिलीं तो राष्ट्रपति ने पहला सवाल पूछ लिया कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड धर्मेन्द्र कैसा है? फिल्म बैजू बावरा के दौरान भारत भूषण भी अपने प्यार का इजहार मीना कुमारी से कर चुके थे। जॉनी (राजकुमार) को मीना कुमार से इतना इश्क हो गया कि वे मीना के साथ सेट पर काम करते अपने डायलोग भूल जाते थे। इसी तरह फिल्मकार मेहबूब खान ने महाराष्ट्र के गर्वनर से कमाल अमरोही का परिचय यह कहकर दिया कि ये प्रसिद्ध स्टार मीना कुमारी के पति हैं। कमाल अमरोही यह सुन नीचे से ऊपर तक आग बबूला हो गए थे। धर्मेन्द्र और मीना के चर्चे भी उन तक पहुँच गए थे। उन्होंने पहला बदला धर्मेन्द्र से यह लिया कि उन्हें पाकीजा से आउट कर दिया। उनकी जगह राजकुमार की एंट्री हो गई। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अपनी फिल्म रजिया सुल्तान में उन्होंने धर्मेन्द्र को रजिया के हब्शी गुलाम प्रेमी का रोल देकर मुँह काला कर दिया था। पाकीजा फिल्म निर्माण में सत्रह साल का समय लगा। इस देरी की वजह मीना-कमाल का अलगाव रहा। लेकिन मीना जानती थी कि फिल्म पाकीजा कमाल साहब का कीमती सपना है। उन्होंने फिल्म बीमारी की हालत में की। मगर तब तक उनकी लाइफ स्टाइल बदल चुकी थी। गुरुदत्त की फिल्म साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू परदे से उतरकर मीना की असली जिंदगी में समा गई थी। मीना कुमारी पहली हेरोइन थी,जिन्होंने बॉलीवुड में पराए मर्दों के बीच बैठकर शराब के प्याले पर प्याले खाली किए। धर्मेन्द्र की बेवफाई ने मीना को अकेले में भी पीने पर मजबूर किया। वे छोटी-छोटी बोतलों में शराब भरकर पर्स में रखने लगीं। जब मौका मिला एक शीशी गटक ली। कहते है की धर्मेन्द्र ने भी मीना कुमारी का इस्तेमाल किया उन दिनों मीना कुमारी की तूती बोलती थी और धर्मेन्द्र नए कलाकार मीना कुमारी ने धर्मेन्द्र की हर तरह से मदद की फूल और पत्थर की कामयाबी के धर्मेन्द्र उनसे धीरे धीरे अलग होने लगे थे,1964 में धर्मेन्द्र की वज़ह से ही कमाल अमरोही ने मीना को तलाक दे दिया एक बार फिर से धोका मिला मीना कुमारी को,पति का भी साथ छुड गया और प्रेमी भी साथ छोड़ गया है धर्मेन्द्र ने  कभी उनसे सच्चा प्यार नहीं किया धर्मेन्द्र के लिए मीना तो बस एक जरिया भर थी यह बेबफाई मीना सह ना सकी सह्राब की आदि हो चुकी मीना की मौत लीवर सिरोसिस की वज़ह से हो गयी दादा मुनि अशोक कुमार, मीना कुमारी के साथ अनेक फिल्में कर चुके थे। एक कलाकार का इस तरह से सरे आम मौत को गले लगाना उन्हें रास नहीं आया। वे होमियोपैथी की छोटी गोलियाँ लेकर इलाज के लिए आगे आए। लेकिन जब मीना का यह जवाब सुना 'दवा खाकर भी मैं जीऊँगी नहीं, यह जानती हूँ मैं। इसलिए कुछ तम्बाकू खा लेने दो। शराब के कुछ घूँट गले के नीचे उतर जाने दो' तो वे भीतर तक काँप गए। आखिर 1956 में मुहूर्त से शुरू हुई पाकीजा 4 फरवरी 1972 को रिलीज हुई और 31 मार्च,1972 को मीना चल बसी। शुरूआत में पाकीज़ा को ख़ास कामयाबी नहीं मिली मिली थी पर मीना कुमारी की मौत ने फिल्म को हिट कर दिया तमाम बंधनों को पीछे छोड़ तनहा चल दी बादलों के पार अपने सच्चे प्रेमी की तलाश में। पाकीजा सुपरहिट रही। अमर हो गईं ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी। मगर अस्पताल का अंतिम बिल चुकाने लायक भी पैसे नहीं थे उस तनहा मीना कुमारी के पास। अस्पताल का बिल अदा किया वहाँ के एक डॉक्टर ने,जो मीना का जबरदस्त प्रशंसक था। "बैजू बावरा","परिणीता","एक ही रास्ता", शारदा"."मिस मेरी","चार दिल चार राहें","दिल अपना और प्रीत पराई","आरती","भाभी की चूडियाँ","मैं चुप रहूंगी","साहब बीबी और गुलाम","दिल एक मंदिर","चित्रलेखा","काजल","फूल और पत्थर","मँझली दीदी",'मेरे अपने",पाकीजा के किरदारों में उन्होंने जान डाल दी  थी,मीना कुमारी ने 'हिन्दी सिनेमा' में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी मिसाल बना हुआ है । वो लाज़वाब अदाकारा के साथ शायरा भी थी,अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयाँ चुभो रहा हो. गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है. गम का ये दामन शायद 'अल्लाह ताला' की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -कहाँ अब मैं इस गम से घबरा के जाऊँ
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
चाँद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहाँ -कहाँ तन्हां

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां

जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा

टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आँचल था, उतनी हीं सौगात मिली

जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फ़िर तुझको मात मिली

होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली
गुलज़ार साहब ने उनको एक नज़्म दिया था. लिखा था :

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
जिस वक्त मीना कुमारी की हमउम्र हेरोइन पेड़ के चक्कर लगाकर प्रेम गीत गा रही थी तब मीना कुमारी ने "मेरे अपने""गोमती के किनारे"में अपने बालों में सफ़ेदी लगाकर बुज़ुर्ग किरदार किये थे,"दुश्मन" में वो भाभी के किरदार में थी,जवाब में जीतेन्द्र की बड़ी बहन का किरदार बखूबी निभाया उस दौर की सभी हीरोइनों ने यह रोल करने से मना कर दिया अपनी इमेज खराब होने का वास्ता देकर
1971 पाकीज़ा,दुश्मन,मेरे अपने
1970 जवाब,विद्या
1967 मझली दीदी,नूरजहाँ,चन्दन का पालना,बहू बेगम
1966 फूल और पत्थर
1965 काजल,भीगी रात
1964 गज़ल,बेनज़ीर,चित्रलेखा
1963 दिल एक मन्दिर,अकेली मत जाइयो,किनारे किनारे
1962 साहिब बीबी और ग़ुलाम,मैं चुप रहूँगी,आरती
1961 प्यार का सागर,भाभी की चूड़ियाँ
1960 कोहिनूर,दिल अपना और प्रीत पराई
1959 अर्द्धांगिनी ,चार दिल चार राहें
1958 सहारा,फ़रिश्ता,यहूदी,सवेरा
1957 मिस मैरी,शारदा
1956 मेम साहिब,एक ही रास्ता,शतरंज
1955 आज़ाद,बंदिश
1954 बादबाँ
1953 परिनीता
1952 बैजू बावरा,तमाशा,
1951 सनम
1946 दुनिया एक सराय
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार
1966 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - काजल
1963 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - साहिब बीबी और ग़ुलाम
1955 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - परिनीता
1954 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - बैजू बावरा