Tuesday 29 April 2014

जन-जन के दिल में बसे 'शेरशाह सूरी' जैसा प्रतिनिधि चुनें

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Monday 28 April 2014

सौहार्द की नगरी लखनऊ में 'सांप्रदायिकता' के लिए कोई स्थान नहीं है---विजय राजबली माथुर

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 https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/679909582071021
 27-04-2014
 आज के अखबार में इन खबरों को देख-पढ़ कर बाबू जगजीवन राम जी के प्रतिनिधि के रूप में आए स्व.हेमवती नन्दन बहुगुणा के 13 मार्च 1977 को रामलीला मैदान,आगरा में चुनावसभा में दिये गए भाषण के ये अंश याद आ रहे हैं-
जब वह (बहुगुणा जी )मुख्यमंत्री थे तब उनके अधीन मंत्री रहे एन डी तिवारी जी विभाग के वरिष्ठतम अधिकारी की उपेक्षा करके एक कनिष्ठ अधिकारी को उस विभाग का सचिव बनाने की सिफ़ारिश लाये थे। मंत्री तिवारी जी की सिफ़ारिश मानते हुये भी उनके द्वारा 'सांप्रदायिक' आधार पर उपेक्षित वरिष्ठ अधिकारी को बहुगुणा जी ने OSD (आफ़ीसर आन स्पेशल ड्यूटी) के पद पर नियुक्त कर दिया था। बहुगुणा जी ने साफ-साफ कहा था कि तिवारी जी घोर सांप्रदायिक पृवृति के प्राणी हैं। राजनाथ-तिवारी का यह फोटो 37  वर्ष पूर्व की गई बहुगुणा जी की घोषणा की पुष्टि करता है। इससे मायावती जी के इस आरोप की भी पुष्टि हो जाती है कि भाजपा हिन्दू कार्ड खेल रही है।
लखनऊ के मतदाताओं को 30 अप्रैल को यह दिखा देना है कि सौहार्द की नगरी लखनऊ में 'सांप्रदायिकता' के लिए कोई स्थान नहीं है।

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यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब यही तिवारी जी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे तब उनकी सरकार ने दवा कारोबारी रामदेव को कामरेड वृंदा करात द्वारा लगाए गए ठोस आरोपों से क्लीन चिट दे दी थी। यही तिवारी जी आजकल सत्तारूढ़ सपा सरकार के मेहमान की हैसियत से लखनऊ प्रवास कर रहे हैं। अतः लखनऊ के नागरिकों का परम कर्तव्य है कि वे न केवल लखनऊ संसदीय क्षेत्र से बल्कि प्रदेश के बाकी बचे सभी संसदीय क्षेत्रों से भाजपा-सपा-तिवारी गठबंधन के नापाक सांप्रदायिक इरादों को ध्वस्त करने हेतु भारी संख्या में मतदान सुनिश्चित करें।
 NOTA का प्रयोग मतदान का बहिष्कार ही है और उससे सांप्रदायिक शक्तियों का ही भला होगा अतः उसका प्रयोग न करके भाजपा-सपा-तिवारी गठबंधन को परास्त करने हेतु मतदान अवश्य ही करें। 


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday 27 April 2014

जो बचा है वह सिर्फ लोकतन्त्र का गुबार है---गोपाल दास नीरज

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday 24 April 2014

सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए ? ---तुकाराम वर्मा






विश्व के मानवीय समाज के बीच चोरी को कब से अपराध घोषित किया गया इसका उत्तर बीस वर्षों से अत्यधिक अन्वेषण करने पर भी कहीं से किसी स्रोत से नहीं मिल सका| हाँ इतना तो सुनिश्चित हो गया कि जब कुछ लोगों ने संघठित शक्ति और समूहों ने लूट के द्वारा अपार संपत्ति को एकत्र कर लिया तो उस लूटी हुई उनकी संपत्ति को कोई और न लूट सके इस कारण चोरी और लूट को सामाजिक अपराध मान लिया गया|
कालांतर में राज्य व्यवस्था बनने के बाद उसे कानूनी मान्यता दे दी गई| यह सब राजशाही के दौरान हुआ, फिर भी लूट का उद्योग चलता रहा और एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करके उसकी संपत्ति को लूटने में विजय और शौर्य के रूप में पहचान पाता रहा| इसे उस राजा के धार्मिक पुरोहितों ने मान्यता दी तथा राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर जनता से स्वीकार्य करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया| इस सहयोग के लिए धार्मिक तंत्र और उसके आचार्यों को राजा से पुरस्कार एवं सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होती रही|
विश्व में लोकतंत्र आने के बाद साधारण जनता को सत्ता की भागेदारी मिलने लगी जिस कारण स्थापित भोगवादी तंत्र को अपने को स्थापित किये रहने का खतरा बढ़ने लगा| अब चिंतनीय प्रश्न यह  उभरा कि जनता को सत्ता से कैसे अलग रक्खा जाए अतः दुरभिसंधियां रची आने लगी और प्रतिमान रूप में स्वच्छ दिखने वाली व्यवस्था के पीछे शोषण लूट और अर्थ का स्थापित साम्राज्य अधिक मजबूत किया जाने लगा|
सम्प्रति धनतंत्र प्रभावी है, दुनिया को बाजार चला रहा है| राजनेता बाजारवाद से ग्रसित हैं और पूँजीपतियों के इशारों को समझकर अपना मुँह खोलते हैं| जिन कमजोर वर्गों के नेताओं ने इस साजिश को समझा और उसे उजागर करने का प्रयास किया उनपर शिकंजा कसा गया और संगठित होकर व्यवस्था, सत्ता, धर्मतंत्र और औद्योगिक घरानों ने उन्हें अपमानित और बदनाम करना प्रारम्भ कर दिया|
चूँकि निर्वाचन के लिए राजनैतिक दल बनाना उसे चलाना अर्थ के बिना संभव नहीं अतः इन दलों को आर्थिक सहयोग से  वंचित रक्खा गया और जब इन्होंने अपने आपको आर्थिक सुदृढ़ता के अपने स्तर से प्रयास किए तो उसे वर्षों से भ्रष्टाचार करते आ रहे वर्ग ने भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरना प्रारम्भ कर दिया, जिससे उन्हें सत्ता से बेदखल किया जा सके अथवा वह वर्ग इनके अधीन चलने वाले दलों में शामिल होकर उनकी दासता को शिरोधार्य कर ले|
ऐसा कहकर यहाँ कमजोर वर्ग के भ्रष्ट आचरण को बचाने का प्रयास नहीं किया जा रहा अपितु यह स्पष्ट करने की कोशिश है कि सत्ता की भागीदारी से उपेक्षित वर्ग कैसे दूर रक्खा जाए तथा स्थापित वर्ग का वर्जस्व बना रह सके और लोकतंत्र का केवल प्रदर्शनीय चेहरा सामने रहे|

यह विचार किसी भी तरह से एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लोकतंत्र के पथिकों के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं कि किसी को सत्ता प्राप्त करने के लिए ईश्वर ने चुना है| यह काल्पनिक भ्रामक मनगढंत ढोंग है कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा चुन लिया गया है| भारतीय संवैधानिक व्यवस्था ऐसे किसी विचार को मान्यता नहीं देती जिसके लिए कोई प्रमाणिक साक्ष्य न हो, क्या इस कथन के प्रमाण में परमेश्वर उनके लिए साक्ष्य के रुप में उपस्थित हो सकता है? कदाचित नहीं|
हमारा संसद भवन ईश्वर का मंदिर नहीं अपितु जनता का मंदिर है, इसमें ईश्वर के प्रतिनिधियों की नहीं अपितु जनता के प्रतिनिधियों की आवश्यकता एवं उपयोगिता है| ईश्वर के प्रतिनिधि को जनता से वोट माँगने की क्या जरूरत? ऐसा लग रहा है कि जनता का अपार धन जो ईश्वर के मंदिरों में भरा पड़ा है वह इनके प्रचार में प्रयुक्त हो रहा है|
ईश्वर के प्रतिनिधियों को ईश्वर के मंदिर में जाकर सेवकाई करनी चाहिये|

Monday 21 April 2014

वामपंथ का विरोधाभास -मीडिया का प्रयास

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 भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान का निष्कर्ष और आशंका की पुष्टि इसी समीक्षा द्वारा बड़ी आसानी से हो जाती है। हिंदुस्तान के समीक्षक पत्रकार महोदय ने  टेलीफोन पर विभिन्न वामपंथी नेताओं से साक्षात्कार लिए और उनके द्वारा बताई विस्तृत बातों में से जो परस्पर विरोधाभासी प्रतीत हुईं उनको अखबार में प्रकाशित कर दिया गया। जहां अंजान साहब ने बिलकुल सटीक कहा -"आ आ पा कभी वामपंथ का विकल्प नहीं बन सकती। " वहीं राज्यसचिव डॉ गिरीश के बयान का वही भाग छापा गया है जिससे अंजान साहब के विपरीत ध्वनि निकलती है-"यह सही है कि आप ने हमारे ही मुद्दे उठा कर हमारे स्पेस को छीन लिया है। "

पत्रकार और अखबार यह दिखाना चाहते थे कि एक ही पार्टी के एक राष्ट्रीय सचिव व एक राज्यसचिव एकमत नहीं हैं तो सम्पूर्ण वामपंथ कैसे एकजुट हो सकता है? फिर cpm के राज्यसचिव डॉ कश्यप के हवाले से छापा गया है कि उनकी पार्टी 'उदारवादी आर्थिक नीतियों की पोषक है '। अपने आगरा कार्यकाल के दौरान तो डॉ कश्यप cpm की ओर से उदारवादी आर्थिक नीतियों पर कडा प्रहार करते थे अब लखनऊ आकर समर्थक कैसे हो गए? क्या कहीं अखबारी खेल तो नहीं है?

अखबार वाले देख रहे हैं कि वामपंथी दल कई लोकसभा सीटों पर आपस में ही टकरा रहे हैं इसलिए वे उन मतभेदों को जनता के बीच ले जाकर सम्पूर्ण वामपंथ की छ्वी खराब कर देना चाहते हैं। वामपंथी प्रभावशाली नेता गण अपने ही साथियों को धकिया कर आगे बढ़ना  चाहते हैं और इसके लिए अपने पत्रकार मित्रों का सहारा लेते हैं और उनकी इसी लालसा का लाभ पत्रकार उठा कर वामपंथ में दरार व खाई दिखाने का प्रयास करते हैं। 

यदि उत्तर-प्रदेश में कामरेड अंजान के संरक्षत्व में भाकपा आगे बढ़ती तो न केवल भाकपा वरन सम्पूर्ण वामपंथ को लाभ मिलता। परंतु ऐसा नहीं हुआ उल्टे कामरेड अंजान की छ्वी खराब करने हेतु अङ्ग्रेज़ी पत्रिकाओं का सहारा लिया गया जिसके कारण उनको खंडन व बचाव में ऊर्जा व्यय करनी पड़ी । ऐसा अचानक अभी नहीं शुरू हो गया है बल्कि योजनाबद्ध ढंग से राष्ट्रीय सचिव के रूप में बनी अंजान साहब की छ्वी को धूमिल करने का अभियान सतत चलता रहता है। 26 दिसंबर 2010 को भाकपा के स्थापना दिवस पर प्रदेश कार्यालय में आयोजित सभा में मुख्य वक्ता के रूप में अंजान साहब के बोलने के बाद संचालक महोदय ने IAC के अरविंद केजरीवाल को बुलवाया था जो कि सरासर मुख्य वक्ता का अपमान था। उन संचालक महोदय की भाषा में अंजान साहब के लिए अश्लील शब्दों का प्रयोग आम बात है। वैसे वह सभी वरिष्ठ नेताओं का निरादर करने में ही अपनी काबिलियत समझते हैं। अखबार में आ आ पा के समर्थन में डॉ गिरीश का बयान उन संचालक महोदय की नीतियों के अनुरूप ही है। 

आ आ पा का गठन नरेंद्र मोदी की खराब छ्वी के चलते उनके विकल्प के रूप में अरविंद केजरीवाल को प्रतिस्थापित करने हेतु देशी-विदेशी कारपोरेट द्वारा किया गया है तो भला वह वामपंथ के मुद्दे कैसे छीन सकता है? क्या वामपंथ का उद्देश्य मोदी के स्थान पर केजारीवाल की फासिस्ट तानाशाही स्थापित करना था? यह कैसे हो सकता है? अतः आ आ पा को भाजपा के साथ ही निशाने पर रख वामपंथ को मजबूत किया जा सकता है अन्यथा कारपोरेट और मीडिया इस अंतर्विरोध का लाभ वामपंथ विरोधियों को पहुंचाता ही रहेगा।


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश 

Friday 18 April 2014

रिलायंस इंडस्ट्रीज समानांतर सरकार है : गोपालकृष्ण गांधी


नई दिल्ली : पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने मंगलवार को रिलायंस इंडस्ट्रीज को ऐसी `समानांतर सरकार` बताया जो देश के प्राकृति व वित्तीय संसाधनों पर `ढिठाई` से अधिकार करती है।

गांधी यहां 15वां डीपी कोहली स्मृति व्याख्यान दे रहे थे। इसका आयोजन सीबीआई के स्वर्ण जयंती कार्य्रकमों के तहत किया गया था। उन्होंने कहा, `हम काले धन की बात समानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में करते हैं और यह अब भी बनी हुई है। लेकिन रिलायंस तो समानांतर सरकार है। मैं किसी ऐसे देश को नहीं जानता जहां कोई एक कंपनी प्राकृतिक संसाधनों, वित्तीय संसाधनों, पेशेवर संसाधनों और अंतर मानव संसाधनों पर इतनी ढिठाई से अधिकार चलाती है जितना कि अंबानियों की यह कंपनी।`
उन्होंने कहा, `भीमराव अंबेडकर ने जिस आर्थिक-लोकतंत्र की बात की थी वह अंबानी की कंपनी से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता क्यों कि यह कंपनी एक अभूतपूर्व स्तर की तकनीकी-वाणिज्यिक एकाधिकारी फर्म है।` देश के आर्थिक हालात की चर्चा करते हुए गांधी ने कहा कि अर्थव्यवस्था ने कुछ अद्भुत सफलताएं हासिल की हैं जिनमें कुछ बेघरों को मकान तथा जरूरत का बाकी सामान मिला है।
गांधी ने कहा, `अगर आप दूसरा पहलू नहीं देखना चाहें तो हमारी अर्थव्यवस्था आश्चर्यचकित करने वाली है। अगर आप वह दूसरा पहलू देखेंगे तो यहां पागलपन जैसी स्थिति है। कंपनियों का लालच सभी सीमाओं को पार कर चुका है और कंपनियों में कोई लिज्जत या स्वाद नहीं बचा है।` इस व्याख्यान का विषय `भरी दोपहरी में ग्रहण: भारत की अंतरात्मा पर छाया` था। गांधी ने कहा कि धन शक्ति से लोकतंत्र प्रभावित हो रहा है। उन्होंने कहा, `हमारा लोकतंत्र बड़ा है, गतिशील है लेकिन इसमें गंभीर खामिया हैं। केवल बड़ा होना ही अपने आप में देश के लोकतंत्र को वैधता प्रदान नहीं करता। गुणवत्ता नाम की भी कोई चीज भी होती है।`
उन्होंने कहा कि ‘लोकतंत्र का राजा मतदाता ताकतवर है लेकिन उसकी शक्ति को खुशामद से बराबार बेकार कर दिया जाता है। पैसे ने हमरे लोकतंत्र की गर्दन पकड़ रखी है। यह कोई भी गड़बड़ कर सकती है और करती भी है।
साभार:
https://www.facebook.com/jalaun.times/posts/213915182152366 

Monday 14 April 2014

Monday 7 April 2014

बेगम हज़रत महल -स्मृति दिवस पर ---संजोग वाल्टर

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Begum Hazrat Mahal , born c. 1820 also known as Begum of Awadh, was the first wife of Nawab Wajid Ali Shah.She rebelled against the British East India Company during the Indian Rebellion of 1857. After her husband had been exiled to Calcutta, she took charge of the affairs in the state of Awadh and seized control of Lucknow. She also arranged for her son, Prince Birjis Qadir, to become Wali (ruler) of Awadh; However, he was forced to abandon this role after a short reign. She finally found asylum in Nepal where she died in 7 April 1879.