Monday, 28 November 2011
Monday, 21 November 2011
टेसी थामस पर नाज है हिनूस्तान को हिंदुस्तान
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भारतीय नारियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं वैज्ञानिक टेसी थामस जी ,वह प्रोत्साहन,पुरुसकार और सम्मान की अधिकारी हैं। हम उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
भारतीय नारियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं वैज्ञानिक टेसी थामस जी ,वह प्रोत्साहन,पुरुसकार और सम्मान की अधिकारी हैं। हम उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
Tuesday, 15 November 2011
राहुल कांग्रेस को वोट नहीं दोगे तो यही होगा.....
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'बाल दिवस'पर नेहरू जी के क्षेत्र मे उनकी बिटिया के पौत्र द्वारा चुनाव अभियान शुरू किया गया ,उसकी पहली बानगी इस स्कैन मे देखें।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
हिंदुस्तान-लखनऊ-15/11/2011 |
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
Monday, 14 November 2011
गलत परंपरा
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आज दिनांक 14 नवंबर 2011 के हिंदुस्तान मे उपरोक्त समाचार पढ़ कर ग्लानि हुई कि एक वरिष्ठ पत्रकार ने बेहद गलत परंपरा की शुरुआत की। कार्यक्रम के अध्यक्ष महान साहित्यकार मुद्रा राक्षस जी के सम्बोधन के बाद आमंत्रित किए जाने पर भी के विक्रम राव साहब को नहीं बोलना चाहिए था परंतु वह परंपरा तोड़ कर बोले भी और लेखको को बेजा नसीहत भी देने लगे। उनका यह भद्दा कृत्य घोर निंदनीय ही नहीं दंडनीय भी है।
वीरेंद्र यादव जी ने मंच छोड़ कर अच्छा ही किया और खुद मुद्रा राक्षस जी ने भी मंच छोड़ कर ठीक किया। प्रो रमेश दीक्षित जी का कथन भी सराहनीय रहा कि राव साहब लेखको को अन्ना का समर्थन करने का निर्देश नहीं दे सकते। ये तीनों लेखक-साहित्यकार बधाई के पात्र और स्तुत्य हैं।
http://vidrohiswar.blogspot.com/2011/11/blog-post.html---'लखनऊ के अपने मकान मे दो वर्ष'
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
आज दिनांक 14 नवंबर 2011 के हिंदुस्तान मे उपरोक्त समाचार पढ़ कर ग्लानि हुई कि एक वरिष्ठ पत्रकार ने बेहद गलत परंपरा की शुरुआत की। कार्यक्रम के अध्यक्ष महान साहित्यकार मुद्रा राक्षस जी के सम्बोधन के बाद आमंत्रित किए जाने पर भी के विक्रम राव साहब को नहीं बोलना चाहिए था परंतु वह परंपरा तोड़ कर बोले भी और लेखको को बेजा नसीहत भी देने लगे। उनका यह भद्दा कृत्य घोर निंदनीय ही नहीं दंडनीय भी है।
वीरेंद्र यादव जी ने मंच छोड़ कर अच्छा ही किया और खुद मुद्रा राक्षस जी ने भी मंच छोड़ कर ठीक किया। प्रो रमेश दीक्षित जी का कथन भी सराहनीय रहा कि राव साहब लेखको को अन्ना का समर्थन करने का निर्देश नहीं दे सकते। ये तीनों लेखक-साहित्यकार बधाई के पात्र और स्तुत्य हैं।
http://vidrohiswar.blogspot.com/2011/11/blog-post.html---'लखनऊ के अपने मकान मे दो वर्ष'
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
Tuesday, 8 November 2011
"क्रान्तिकारी लाला हर दयाल "-हस्तक्षेप से साभार
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वरिष्ठ पत्रकार सुनील दत्ता जी का एक लेख हस्तक्षेप .काम पर प्रकाशित हुआ है जिसे हम साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
वरिष्ठ पत्रकार सुनील दत्ता जी का एक लेख हस्तक्षेप .काम पर प्रकाशित हुआ है जिसे हम साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
विलक्षण प्रतिभावान प्रवासी क्रांतिकारी -लाला हरदयाल
WRITTEN BY AMALENDU ON NOVEMBER 8TH, 2011 | NO COMMENTS
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14 अक्तूबर 1884-4 मार्च 1939
सुनील दत्ता
लाला हरदयाल जी के बारे में लोग कम ही जानते है | उसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि उनकी वैचारिक एवं व्यवहारिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र देश से बाहर विदेश में खासकर अमेरिका में रहा | लाला जी में प्रचण्ड बौद्धिक क्षमता के साथ आत्म त्याग की और राष्ट्र – सेवा तथा जन – सेवा की भावना भी अत्यन्त प्रबल थी | यही कारण है कि उनकी विलक्षण बौद्धिक क्षमता , उनके निजी जीवन की चदत – बढत का सोपान कभी नही बनी | उन्होंने ऐसे हर अवसर को दृढ़ता के साथ ठुकरा दिया | लाला हरदयाल का जीवन राष्ट्रवादी – क्रांतिकारी तथा आध्यात्मिक , वैचारिक एवं व्यवहारिक क्रिया – कलापों का एक अजीब सा मिश्रण है | पर उनके हर क्रिया – कलाप में राष्ट्र व मानव समाज की मुक्ति का लक्ष्य समाहित था |फिर उनके समग्र क्रिया -कलाप राष्ट्र के क्रांतिकारी स्वतंत्रता की दिशा में विकसित होते और बढ़ते रहे | इसलिए आर्य – समाज , बौद्दवाद के साथ स्वत: के आध्यात्मवादी चिंतन से आगे बढ़ते हुए वे क्रांतिकारी भौतिकवाद को भी अपनाने के प्रयास में लगे रहे | राजनीति के क्षेत्र में वे सुधारवादी राष्ट्रवाद व अराजकवाद से गुजरते हुए तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की दिशा में आगे बढ़ते हुए गदर पार्टी के प्रमुख नायक बने | अधाधुंध नीजिवादी , भोगवादी जीवन के वर्तमान दौर में लाला जी का जीवन उन लोगो के लिए स्मरणीय एवं अनुकरणीय है , जो आज राष्ट्र तथा जनसाधारण की गिरती दशाओं के प्रति गम्भीर है , चिन्तित हैं | राष्ट्र पर बढती विदेशी प्रभुत्व के वर्मान दौर में गदर पार्टी व लाला हरदयाल की गतिविधिया तथा राष्ट्र की क्रांतिकारी स्वतंत्रता के उनके उद्देश्य आज भी हमारे लिए अनुकरणीय है |
महान राष्ट्रवादी विलक्षण विद्वान् , दृढनिश्चयी , संघर्षशील तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व के पर्याय थे लाला हरदयाल | उनका जन्म दिल्ली में हुआ था | उनके पिता गौरी दयाल माथुर जिला कचहरी में पेशकार थे | लाला हरदयाल ने दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज से बी0 ए0 किया |उसके पश्चात उन्होंने लाहौर के राजकीय कालेज से अंग्रेजी साहित्य में और फिर संस्कृत व इतिहास में मास्टर डिग्री किया | अनेक प्रश्न पत्रों में उन्हें शत – प्रतिशत अंक मिले | अंग्रेजी विषय में परीक्षक भी प्राय: अंग्रेज ही रहा करते थे , फिर भी उन्हें 96 % अंक प्राप्त हुए | उनकी शैक्षणिक उपलब्धिया साबित करती है कि वे विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न थे | अपनी इस प्रतिभा के चलते लन्दन के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा उच्च शिक्षा के लिए छात्र वृति मिली | इसके फलस्वरूप वे उच्च शिक्षा के लिए आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय पहुच गये | वहा के प्राध्यापक उनकी तीक्ष्ण बौद्धिकता से अत्यंत प्रभावित हुए | लन्दन में ही उनका परिचय श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुआ | श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृति विद्यार्थियों को अपनी ऑर आकर्षित कर रहे थे और विद्यार्थियों के रूप में वे क्रान्तिकारियो को संगठित कर रहे थे | इन विद्यार्थियों के भोजन और रहने की व्यवस्था करने के लिए ” इंडिया हाउस ‘ की स्थापना की गयी थी | सच कहा जाए तो यह स्थान क्रान्तिकारियो के लिए ही था | लाला हरदयाल यही पर विनायक दामोदर सावरकर और मैडम भीकाजी कामा तथा अन्य राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आये और उनसे प्रभावित भी हुए | इंग्लैण्ड में रहते हुए भी उन्होंने भारत सरकार और आक्सफोर्ड विद्यापीठ की छात्रवृति को नकार दिया था | अंग्रेजी शिक्षा के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी पोशाक को भी ठुकरा दिया था | लन्दन की ठंड में वे धोती पहनते थे |बाद में राष्ट्र स्वतंत्रता के उद्देश्य पूर्ति के लिए विश्व विद्यालय और इंग्लैण्ड को छोडकर हिन्दुस्तान पहुच आये | फिर देश सेवा के लिए उन्होंने गृह त्याग कर दिया | उसके पश्चात उन्होंने पुन:कभी भी परिवार में वापसी नही की |यहा वे लाहौर के एक आश्रम में रहने लगे |फिर यहा उन्होंने पंजाबी भाषा में अखबार निकाला | लाहौर की आश्रम में कार्यकर्ताओं के भर्ती के लिए युवको के खोज के लिए कानपुर आये | यहा वे प्रसिद्ध वकील और समाज सेवक पृथ्वीनाथ के घर पर रुके | कुछ कार्यकर्ता जमा हुए | उनके सादगी पूर्ण और तपस्वियों – से जीवन का उन युवको पर बहुत प्रभाव पडा | फिर पंजाब के अकाल के समय उन्होंने संकटग्रस्त लोगो की बहुत सहायता की थी | इन कामो से भी वे अत्यधिक लोकप्रिय हुए | लन्दन में रहते हुए ही वे ‘ इंडियन सोशियोलाजिस्ट ‘ में ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में खुलकर लिखा करते थे | यह प्रक्रिया उन्होंने यहा भी जारी रखी |सरकार विरोधी रवैये के साथ उनकी बढती लोकप्रियता को को देखकर सरकार उन्हें गिरफ्तार कर लेना चाहती थी |इसीलिए कुछ शुभ चिंतको ने तथा लाला लाजपत राय ने भी लाला हरदयाल को विदेश चले जाने पर पूरा जोर लगा दिया | परन्तु हरदयाल इसके लिए तैयार नही थे | बहुत कहने सुनने पर लाला हरदयाल ने बड़े दू:खी मन से भारत छोड़ा | भविष्य में वे पुन: कभी भारत के दर्शन न कर सके | वे कोलम्बो मार्ग से इटली और इटली से फ्रांस पहुचे |फ्रांस में श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनका सहयोगी दल सक्रिय था | मादाम कामा ने ‘वन्देमातरम ‘ नामक अखबार का सम्पादन कार्य लाला हरदयाल जी को सौप दिया | उस दैनिक पत्र का प्रथम अंक मदन लाल धिगरा की स्मृति को समर्पित किया गया |आगामी अंको में भी बलिदानों के संस्मरण ही रहते थे | ये अंक भारतीयों को देशभक्ति की प्रेरणा देते थे | पेरिस में ब्रिटिश सरकार की नजर इन भारतीय क्रांतिकारियों का पीछा कर ही रही थी |
ब्रिटिश सरकार फ्रांस सरकार पर इन भारतीयों को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाल रही थी | इन परिस्थितियों में लाला हरदयाल मिस्र चले गये | वहा मिस्र के क्रांतिकारियों से उनका परिचय हुआ | कुछ समय बाद वे पुन: पेरिस वापस लौटे , परन्तु अभी भी उन पर ब्रिटिश सरकार की नजर थी , जिससे बचने के लिए वे वेस्टइंडीज के ‘ ला मार्टिनिक ‘ नामक समुद्री तट पर पहुचे | वहा वे लोगो को अंग्रेजी पढाकर अपना गुजर – बसर करते अपने साथियो और क्रांतिकारी आंदोलनों से निर्लिप्त होकर दूर अकेले पड़े थे | वे पूरी तरह सन्यासियों और वैरागियो – सा जीवन व्यतीत कर रहे थे | फिर भी उन्हें खोजते हुए प्रसिद्ध आर्य समाजी एवं क्रांतिकारी भाई परमानन्द वहा पहुचे | भाई परमानन्द लाला हरदयाल के साथ उस समुद्र किनारे महीना भर रहे |उन्होंने उन्हें तपस्वी जीवन छोडकर पुन:क्रांति कार्य में शामिल होने के लिए राज़ी कर लिया |
लाला हरदयाल पेरिस में बिताए जा रहे अपने जीवन और अपने लोगो की स्वार्थ – वृत्ति से उकता गये थे |भाई परमानन्द जैसे क्रांतिकारी ही उन्हें पुन:आन्दोलन में वापस लाने में सफल हो सकते थे |भाई परमानन्द के जोर देने पर वे कैलिफोर्निया पहुचे |वहा उन्होंने एक समिति का गठन किया और भारत के परिश्रमी विद्यार्थियों के लिए अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए छात्र वृत्ति देने की घोषणा की |उन्होंने छ:विद्यार्थियों को चुना और उन्हें उच्च शिक्षा देने के साथ ही क्रान्तिकारी उद्देश्यों की भी शिक्षा देने का काम किया |इस दौरान लाला हरदयाल के सेन फ्रांसिस्को में और बर्कल में दीये गये भाषणों से प्रभावित होकर उन्हें लेलैंड – स्टेनफोर्ड विद्यापीठ में संस्कृत और भारतीय दर्शन के प्राध्यापक के पद पर रखा गया , जिसे उन्होंने अवैतनिक सेवा के रूप में ही स्वीकारा |अमेरिका में उनकी प्रसिद्धि एक भारतीय ऋषि के रूप में फ़ैल गयी |अपनी लोकप्रियता और प्रसिद्धि का उपयोग उन्होंने क्रांति कार्य को बढावा देने में कर लिया | अमेरिका में रहते हुए भी उनका सारा ध्यान भारत में आ रहे बदलाव पर लगा हुआ था |23 दिसम्बर , 1912 को दिल्ली में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंके जाने की खबर सुनकर वे प्रसन्न हुए थे |इस उपलक्ष्य में उन्होंने उनके क्रांतिकारी विद्यार्थियों ने ‘वन्देमातरम ‘ ‘भारत माता की जय ‘ की हर्षोल्लास के साथ सार्वजनिक सभा को भी आयोजित किया |
1- अमेरिका व कनाडा में प्रवासी हिन्दुस्तानियों में देश को स्वतंत्र कराने की भावनाए जोर पकड़ने लगी थी |उनमे खासकर पंजाब के किसान घरो से गये हुए लोगो की अच्छी खासी संख्या थी | लाला हरदयाल अब इन राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियो के साथ थे | उनके अगुवा लोगो में थे |उन्होंने अमेरिका में हिन्दुस्तानियों की समिति का गठन किया | पहले उसका नाम ‘ द हिन्दुस्तान एसोसियन आफ द पेसिफिक एशियन ‘ था | बाद में उसका नाम बदलकर ‘ गदर पार्टी ‘ रख दिया गया |गदर पार्टी के अध्यक्ष सोहन सिंह बहकना थे |लाला हरदयाल उसके मंत्री और पंडित काशीराम कोषाध्यक्ष थे |गदर पार्टी का प्रमुख पत्र ‘ गदर ‘ था |जो उर्दू और पंजाबी भाषा में निकलता था |कुछ सामग्री अंग्रेजी में भी प्रकाशित की जाती थी |’ गदर ‘ की प्रतिया सारी दुनिया में भेजी जाती थी | कड़े पहरे के बावजूद ‘ गदर ‘ की प्रतिया हिन्दुस्तान की लश्करी छावनियो तक में पहुचाई जाती थी |२ गदर पार्टी के एक अगुआ के रूप में ही लाला हरदयाल का राष्ट्रवादी , क्रांतिकारी जीवन परवान चढा |वे अमेरिका में पार्टी के एक प्रमुख प्रवक्ता या कहिये प्रमुख बौद्धिक प्रतिनिधि थे |गदर पार्टी के साहित्यों के प्रकाशन में लाला जी की अग्रणी भूमिकाये थी | पार्टी के प्रति विदेशो में समर्थन जुटाने और अन्य देशो में बसे हिन्दुस्तानियों को इसका सक्रिय समर्थन व सहयोगी बनाने की भूमिका प्रमुखत:लाला हरदयाल को ही निभानी थी | सेन फ्रांस्सिको का युगान्तर आश्रम गदर पार्टी और ‘ गदर ‘ पत्र का कार्यालय था | इस आश्रम में अनेक क्रांतिकारियों के साथ लाला हरदयाल तपोमय पर क्रांतिकारी जीवन जी रहे थे |’ गदर ‘ के अभियान को गति तो मिल रही थी |साथ ही लाला हरदयाल के ओजस्वी लेखन के जादू से धन संग्रह भी बढ़ रहा था |बाद में ‘ गदर ‘ पार्टी के अनुरोध से वे तुर्की से जिनेवा पहुच गये |रामदास के झूठे नाम से 27 जनवरी 1915 को वे जिनेवा से बर्लिन जा पहुचे |तब तक प्रथम विश्व युद्ध का आरम्भ हो चुका था |अनेक भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन में जमा थे | उन्होंने बर्लिन कमेटी की स्थापना करके यहा भी स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी | इन क्रान्तिकारियो में चम्पक रामन पिल्लै , तारकनाथ दास , अब्दुल हफ़ीज़ , बरकतुल्ला , डॉ ० भूपेन्द्रनाथ दत्त , डॉ प्रभाकर , वीरेंद्र सरकार व वीरेंद्र चट्टोपाध्याय प्रमुख थे | लाला हरदयाल के आ जाने से क्रांतिकारी साहित्य के निर्माण में तेज़ी आ गयी | क्रान्तिकारियो ने तुर्की , अरब और अफगानिस्तान के शासको को ब्रिटेन के विरुद्ध एकत्रित होने का पत्र भी भेजा था | परन्तु वह पत्र अंग्रेजो के हाथ लग गया | क्रान्तिकारियो की यह योजना थी कि भारतीय जनता की ओर से जब भारत विद्रोह हो तभी अंग्रेजो के शत्रु देश आक्रमण तेज़ कर दे | अपने लक्ष्य तक पहुचने के लिए गदर पार्टी के सदस्य हजारो की संख्या में अमेरिका और कनाडा से भारत वापस लौट रहे थे |पंजाब और संयुक्त प्रांत के गदर आन्दोलन का संचालन रासबिहारी बोस और यतीन्द्रनाथ सान्याल कर रहे थे |यतीन्द्रनाथ मुखर्जी ( बाघा जतिन ) बंगाल से एशिया और यूरोप के क्रान्तिकारियो से सम्पर्क साध रहे थे |बर्लिन कमेटी के प्रयत्नों से क्रान्तिकारियो के लिए जर्मनी से शस्त्रों से भरे जहाज भेजे गये |परन्तु अंग्रेजो ने इन्हें पकड़ लिया |लाला हरदयाल ने फ्रांस , स्वीडन , नार्वे , स्विट्जरलैंड , इटली ,आस्ट्रिया आदि देशो के क्रान्तिकारियो से सम्पर्क बनाकर उन्हें भारत की क्रांति के समर्थन के लिए प्रेरित किया |जर्मनी में युद्ध बंदी के पश्चात लौटे हुए सैनिको का उपयोग करने की योजना बनाई गयी | लेकिन विश्वासघातियो के चलते गदर पार्टी द्वारा देश में सशस्त्र एवं सैन्य विद्रोह के जरिये राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का प्रयास निर्धारित समय से पहले ही विफल हो गया | लिहाजा लाला हरदयाल और विदेशो में रह रहे दुसरे क्रान्तिकारियो का मनोबल भी काफी टूट – सा गया | उधर विश्व युद्ध के अंतिम दौर से पराजित हो रहे जर्मनी का भारत की तरफ देखने का दृष्टिकोण बदल गया था |अब जर्मनी ने लाला हरदयाल पर नजर रखनी शुरू की | 1916 से 1917 तक वे जर्मनी में नजर कैद में रखे गये | बाद में छिपते हुए स्वीडन पहुचे और अलग – अलग शहरों में 9 वर्षो तक रहे | विलक्षण बुद्धि के धनी तो वे थे ही |स्वीडन पहुचते ही स्वीडिश भाषा में अपना भाषण सभाष्ण और अध्यापन भी करने लगे | दुनिया कि अनेक भाषाओं पर उनको महारत हासिल थी | अध्यापन से वे अपनी आजीविका चलाते रहे | वहा भी उनके अनेक मित्र और प्रशंसक बन गये थे | बाद के दौर में सर तेज़ बहादुर सप्रू और सी ० ऍफ़ ० एंड्रूज के प्रयत्नों से ब्रिटिश सरकार से उन्हें भारत आने की अनुमति मिल गयी | उस समय लाला हरदयाल अमेरिका में थे | स्वदेश वापसी की अनुमति के वावजूद लाला हरदयाल हिन्दुस्तान कभी नही पहुच सके | अमेरिका के फिलाडेलिफया नामक स्थान पे 4 मार्च 1939 को उनकी अकस्मात मृत्यु हो गयी | मृत्यु से पहले वे पूरी तरह स्वस्थ थे |हमेशा कि तरह 3 मार्च कि रात को वे सोये और दूसरे दिन उन्हें मृत पाया गया | लाला हरदयाल व उनके साथी क्रांतिकारी युद्ध के माध्यम से भारत को स्वतंत्र कराना चाहते थे | पर वे अपने उद्देश्य में सफल न हो सके | लेकिन राष्ट्र – स्वतंत्रता के उनके उद्देश्य और उसके लिए किए गये अथक प्रयास देश वासियों के लिए स्मरणीय है | लाला हरदयाल विलक्षण -प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व थे , वे कुशल वक्ता और उच्च कोटि के लेखक भी थे |उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की | इसमें कोई सन्देह नही की अगर जीवन ने उन्हें और मौक़ा दिया होता तो वे अपनी विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा और सांगठनिक क्षमता का उपयोग आश्चर्यजनक कार्यो के लिए कर जाते.
ऐसे महान क्रांतिकारी को मेरा शत – शत नमन
महान राष्ट्रवादी विलक्षण विद्वान् , दृढनिश्चयी , संघर्षशील तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व के पर्याय थे लाला हरदयाल | उनका जन्म दिल्ली में हुआ था | उनके पिता गौरी दयाल माथुर जिला कचहरी में पेशकार थे | लाला हरदयाल ने दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज से बी0 ए0 किया |उसके पश्चात उन्होंने लाहौर के राजकीय कालेज से अंग्रेजी साहित्य में और फिर संस्कृत व इतिहास में मास्टर डिग्री किया | अनेक प्रश्न पत्रों में उन्हें शत – प्रतिशत अंक मिले | अंग्रेजी विषय में परीक्षक भी प्राय: अंग्रेज ही रहा करते थे , फिर भी उन्हें 96 % अंक प्राप्त हुए | उनकी शैक्षणिक उपलब्धिया साबित करती है कि वे विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न थे | अपनी इस प्रतिभा के चलते लन्दन के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा उच्च शिक्षा के लिए छात्र वृति मिली | इसके फलस्वरूप वे उच्च शिक्षा के लिए आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय पहुच गये | वहा के प्राध्यापक उनकी तीक्ष्ण बौद्धिकता से अत्यंत प्रभावित हुए | लन्दन में ही उनका परिचय श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुआ | श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृति विद्यार्थियों को अपनी ऑर आकर्षित कर रहे थे और विद्यार्थियों के रूप में वे क्रान्तिकारियो को संगठित कर रहे थे | इन विद्यार्थियों के भोजन और रहने की व्यवस्था करने के लिए ” इंडिया हाउस ‘ की स्थापना की गयी थी | सच कहा जाए तो यह स्थान क्रान्तिकारियो के लिए ही था | लाला हरदयाल यही पर विनायक दामोदर सावरकर और मैडम भीकाजी कामा तथा अन्य राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आये और उनसे प्रभावित भी हुए | इंग्लैण्ड में रहते हुए भी उन्होंने भारत सरकार और आक्सफोर्ड विद्यापीठ की छात्रवृति को नकार दिया था | अंग्रेजी शिक्षा के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी पोशाक को भी ठुकरा दिया था | लन्दन की ठंड में वे धोती पहनते थे |बाद में राष्ट्र स्वतंत्रता के उद्देश्य पूर्ति के लिए विश्व विद्यालय और इंग्लैण्ड को छोडकर हिन्दुस्तान पहुच आये | फिर देश सेवा के लिए उन्होंने गृह त्याग कर दिया | उसके पश्चात उन्होंने पुन:कभी भी परिवार में वापसी नही की |यहा वे लाहौर के एक आश्रम में रहने लगे |फिर यहा उन्होंने पंजाबी भाषा में अखबार निकाला | लाहौर की आश्रम में कार्यकर्ताओं के भर्ती के लिए युवको के खोज के लिए कानपुर आये | यहा वे प्रसिद्ध वकील और समाज सेवक पृथ्वीनाथ के घर पर रुके | कुछ कार्यकर्ता जमा हुए | उनके सादगी पूर्ण और तपस्वियों – से जीवन का उन युवको पर बहुत प्रभाव पडा | फिर पंजाब के अकाल के समय उन्होंने संकटग्रस्त लोगो की बहुत सहायता की थी | इन कामो से भी वे अत्यधिक लोकप्रिय हुए | लन्दन में रहते हुए ही वे ‘ इंडियन सोशियोलाजिस्ट ‘ में ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में खुलकर लिखा करते थे | यह प्रक्रिया उन्होंने यहा भी जारी रखी |सरकार विरोधी रवैये के साथ उनकी बढती लोकप्रियता को को देखकर सरकार उन्हें गिरफ्तार कर लेना चाहती थी |इसीलिए कुछ शुभ चिंतको ने तथा लाला लाजपत राय ने भी लाला हरदयाल को विदेश चले जाने पर पूरा जोर लगा दिया | परन्तु हरदयाल इसके लिए तैयार नही थे | बहुत कहने सुनने पर लाला हरदयाल ने बड़े दू:खी मन से भारत छोड़ा | भविष्य में वे पुन: कभी भारत के दर्शन न कर सके | वे कोलम्बो मार्ग से इटली और इटली से फ्रांस पहुचे |फ्रांस में श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनका सहयोगी दल सक्रिय था | मादाम कामा ने ‘वन्देमातरम ‘ नामक अखबार का सम्पादन कार्य लाला हरदयाल जी को सौप दिया | उस दैनिक पत्र का प्रथम अंक मदन लाल धिगरा की स्मृति को समर्पित किया गया |आगामी अंको में भी बलिदानों के संस्मरण ही रहते थे | ये अंक भारतीयों को देशभक्ति की प्रेरणा देते थे | पेरिस में ब्रिटिश सरकार की नजर इन भारतीय क्रांतिकारियों का पीछा कर ही रही थी |
ब्रिटिश सरकार फ्रांस सरकार पर इन भारतीयों को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाल रही थी | इन परिस्थितियों में लाला हरदयाल मिस्र चले गये | वहा मिस्र के क्रांतिकारियों से उनका परिचय हुआ | कुछ समय बाद वे पुन: पेरिस वापस लौटे , परन्तु अभी भी उन पर ब्रिटिश सरकार की नजर थी , जिससे बचने के लिए वे वेस्टइंडीज के ‘ ला मार्टिनिक ‘ नामक समुद्री तट पर पहुचे | वहा वे लोगो को अंग्रेजी पढाकर अपना गुजर – बसर करते अपने साथियो और क्रांतिकारी आंदोलनों से निर्लिप्त होकर दूर अकेले पड़े थे | वे पूरी तरह सन्यासियों और वैरागियो – सा जीवन व्यतीत कर रहे थे | फिर भी उन्हें खोजते हुए प्रसिद्ध आर्य समाजी एवं क्रांतिकारी भाई परमानन्द वहा पहुचे | भाई परमानन्द लाला हरदयाल के साथ उस समुद्र किनारे महीना भर रहे |उन्होंने उन्हें तपस्वी जीवन छोडकर पुन:क्रांति कार्य में शामिल होने के लिए राज़ी कर लिया |
लाला हरदयाल पेरिस में बिताए जा रहे अपने जीवन और अपने लोगो की स्वार्थ – वृत्ति से उकता गये थे |भाई परमानन्द जैसे क्रांतिकारी ही उन्हें पुन:आन्दोलन में वापस लाने में सफल हो सकते थे |भाई परमानन्द के जोर देने पर वे कैलिफोर्निया पहुचे |वहा उन्होंने एक समिति का गठन किया और भारत के परिश्रमी विद्यार्थियों के लिए अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए छात्र वृत्ति देने की घोषणा की |उन्होंने छ:विद्यार्थियों को चुना और उन्हें उच्च शिक्षा देने के साथ ही क्रान्तिकारी उद्देश्यों की भी शिक्षा देने का काम किया |इस दौरान लाला हरदयाल के सेन फ्रांसिस्को में और बर्कल में दीये गये भाषणों से प्रभावित होकर उन्हें लेलैंड – स्टेनफोर्ड विद्यापीठ में संस्कृत और भारतीय दर्शन के प्राध्यापक के पद पर रखा गया , जिसे उन्होंने अवैतनिक सेवा के रूप में ही स्वीकारा |अमेरिका में उनकी प्रसिद्धि एक भारतीय ऋषि के रूप में फ़ैल गयी |अपनी लोकप्रियता और प्रसिद्धि का उपयोग उन्होंने क्रांति कार्य को बढावा देने में कर लिया | अमेरिका में रहते हुए भी उनका सारा ध्यान भारत में आ रहे बदलाव पर लगा हुआ था |23 दिसम्बर , 1912 को दिल्ली में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंके जाने की खबर सुनकर वे प्रसन्न हुए थे |इस उपलक्ष्य में उन्होंने उनके क्रांतिकारी विद्यार्थियों ने ‘वन्देमातरम ‘ ‘भारत माता की जय ‘ की हर्षोल्लास के साथ सार्वजनिक सभा को भी आयोजित किया |
1- अमेरिका व कनाडा में प्रवासी हिन्दुस्तानियों में देश को स्वतंत्र कराने की भावनाए जोर पकड़ने लगी थी |उनमे खासकर पंजाब के किसान घरो से गये हुए लोगो की अच्छी खासी संख्या थी | लाला हरदयाल अब इन राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियो के साथ थे | उनके अगुवा लोगो में थे |उन्होंने अमेरिका में हिन्दुस्तानियों की समिति का गठन किया | पहले उसका नाम ‘ द हिन्दुस्तान एसोसियन आफ द पेसिफिक एशियन ‘ था | बाद में उसका नाम बदलकर ‘ गदर पार्टी ‘ रख दिया गया |गदर पार्टी के अध्यक्ष सोहन सिंह बहकना थे |लाला हरदयाल उसके मंत्री और पंडित काशीराम कोषाध्यक्ष थे |गदर पार्टी का प्रमुख पत्र ‘ गदर ‘ था |जो उर्दू और पंजाबी भाषा में निकलता था |कुछ सामग्री अंग्रेजी में भी प्रकाशित की जाती थी |’ गदर ‘ की प्रतिया सारी दुनिया में भेजी जाती थी | कड़े पहरे के बावजूद ‘ गदर ‘ की प्रतिया हिन्दुस्तान की लश्करी छावनियो तक में पहुचाई जाती थी |२ गदर पार्टी के एक अगुआ के रूप में ही लाला हरदयाल का राष्ट्रवादी , क्रांतिकारी जीवन परवान चढा |वे अमेरिका में पार्टी के एक प्रमुख प्रवक्ता या कहिये प्रमुख बौद्धिक प्रतिनिधि थे |गदर पार्टी के साहित्यों के प्रकाशन में लाला जी की अग्रणी भूमिकाये थी | पार्टी के प्रति विदेशो में समर्थन जुटाने और अन्य देशो में बसे हिन्दुस्तानियों को इसका सक्रिय समर्थन व सहयोगी बनाने की भूमिका प्रमुखत:लाला हरदयाल को ही निभानी थी | सेन फ्रांस्सिको का युगान्तर आश्रम गदर पार्टी और ‘ गदर ‘ पत्र का कार्यालय था | इस आश्रम में अनेक क्रांतिकारियों के साथ लाला हरदयाल तपोमय पर क्रांतिकारी जीवन जी रहे थे |’ गदर ‘ के अभियान को गति तो मिल रही थी |साथ ही लाला हरदयाल के ओजस्वी लेखन के जादू से धन संग्रह भी बढ़ रहा था |बाद में ‘ गदर ‘ पार्टी के अनुरोध से वे तुर्की से जिनेवा पहुच गये |रामदास के झूठे नाम से 27 जनवरी 1915 को वे जिनेवा से बर्लिन जा पहुचे |तब तक प्रथम विश्व युद्ध का आरम्भ हो चुका था |अनेक भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन में जमा थे | उन्होंने बर्लिन कमेटी की स्थापना करके यहा भी स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी | इन क्रान्तिकारियो में चम्पक रामन पिल्लै , तारकनाथ दास , अब्दुल हफ़ीज़ , बरकतुल्ला , डॉ ० भूपेन्द्रनाथ दत्त , डॉ प्रभाकर , वीरेंद्र सरकार व वीरेंद्र चट्टोपाध्याय प्रमुख थे | लाला हरदयाल के आ जाने से क्रांतिकारी साहित्य के निर्माण में तेज़ी आ गयी | क्रान्तिकारियो ने तुर्की , अरब और अफगानिस्तान के शासको को ब्रिटेन के विरुद्ध एकत्रित होने का पत्र भी भेजा था | परन्तु वह पत्र अंग्रेजो के हाथ लग गया | क्रान्तिकारियो की यह योजना थी कि भारतीय जनता की ओर से जब भारत विद्रोह हो तभी अंग्रेजो के शत्रु देश आक्रमण तेज़ कर दे | अपने लक्ष्य तक पहुचने के लिए गदर पार्टी के सदस्य हजारो की संख्या में अमेरिका और कनाडा से भारत वापस लौट रहे थे |पंजाब और संयुक्त प्रांत के गदर आन्दोलन का संचालन रासबिहारी बोस और यतीन्द्रनाथ सान्याल कर रहे थे |यतीन्द्रनाथ मुखर्जी ( बाघा जतिन ) बंगाल से एशिया और यूरोप के क्रान्तिकारियो से सम्पर्क साध रहे थे |बर्लिन कमेटी के प्रयत्नों से क्रान्तिकारियो के लिए जर्मनी से शस्त्रों से भरे जहाज भेजे गये |परन्तु अंग्रेजो ने इन्हें पकड़ लिया |लाला हरदयाल ने फ्रांस , स्वीडन , नार्वे , स्विट्जरलैंड , इटली ,आस्ट्रिया आदि देशो के क्रान्तिकारियो से सम्पर्क बनाकर उन्हें भारत की क्रांति के समर्थन के लिए प्रेरित किया |जर्मनी में युद्ध बंदी के पश्चात लौटे हुए सैनिको का उपयोग करने की योजना बनाई गयी | लेकिन विश्वासघातियो के चलते गदर पार्टी द्वारा देश में सशस्त्र एवं सैन्य विद्रोह के जरिये राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का प्रयास निर्धारित समय से पहले ही विफल हो गया | लिहाजा लाला हरदयाल और विदेशो में रह रहे दुसरे क्रान्तिकारियो का मनोबल भी काफी टूट – सा गया | उधर विश्व युद्ध के अंतिम दौर से पराजित हो रहे जर्मनी का भारत की तरफ देखने का दृष्टिकोण बदल गया था |अब जर्मनी ने लाला हरदयाल पर नजर रखनी शुरू की | 1916 से 1917 तक वे जर्मनी में नजर कैद में रखे गये | बाद में छिपते हुए स्वीडन पहुचे और अलग – अलग शहरों में 9 वर्षो तक रहे | विलक्षण बुद्धि के धनी तो वे थे ही |स्वीडन पहुचते ही स्वीडिश भाषा में अपना भाषण सभाष्ण और अध्यापन भी करने लगे | दुनिया कि अनेक भाषाओं पर उनको महारत हासिल थी | अध्यापन से वे अपनी आजीविका चलाते रहे | वहा भी उनके अनेक मित्र और प्रशंसक बन गये थे | बाद के दौर में सर तेज़ बहादुर सप्रू और सी ० ऍफ़ ० एंड्रूज के प्रयत्नों से ब्रिटिश सरकार से उन्हें भारत आने की अनुमति मिल गयी | उस समय लाला हरदयाल अमेरिका में थे | स्वदेश वापसी की अनुमति के वावजूद लाला हरदयाल हिन्दुस्तान कभी नही पहुच सके | अमेरिका के फिलाडेलिफया नामक स्थान पे 4 मार्च 1939 को उनकी अकस्मात मृत्यु हो गयी | मृत्यु से पहले वे पूरी तरह स्वस्थ थे |हमेशा कि तरह 3 मार्च कि रात को वे सोये और दूसरे दिन उन्हें मृत पाया गया | लाला हरदयाल व उनके साथी क्रांतिकारी युद्ध के माध्यम से भारत को स्वतंत्र कराना चाहते थे | पर वे अपने उद्देश्य में सफल न हो सके | लेकिन राष्ट्र – स्वतंत्रता के उनके उद्देश्य और उसके लिए किए गये अथक प्रयास देश वासियों के लिए स्मरणीय है | लाला हरदयाल विलक्षण -प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व थे , वे कुशल वक्ता और उच्च कोटि के लेखक भी थे |उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की | इसमें कोई सन्देह नही की अगर जीवन ने उन्हें और मौक़ा दिया होता तो वे अपनी विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा और सांगठनिक क्षमता का उपयोग आश्चर्यजनक कार्यो के लिए कर जाते.
ऐसे महान क्रांतिकारी को मेरा शत – शत नमन
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर
Thursday, 3 November 2011
अखबार नवीसी का शौक ------ विजय राजबली माथुर
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http://vijaimathur.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html
हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।
डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।
ऐसे डॉ राम नाथ(03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।
मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।
तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा।
अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया।
लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?
अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है।
डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html
यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html
खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm
उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है।
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http://vijaimathur.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html
हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।
डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।
ऐसे डॉ राम नाथ(03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।
मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।
तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा।
अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया।
लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?
अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है।
डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html
यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html
खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm
उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है।
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