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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा की ख्याति न सिर्फ बतौर कथाकार-उपन्यासकार रही, बल्कि अपने लेखन में वह स्त्री अस्मिता की बड़ी पैरोकार बनकर भी उभरी हैं। उनकी सार्वजनिक सक्रियता और बेबाक टिप्पणियों ने भी हिंदी पट्टी में उन्हें अलग मुकाम पर खड़ा किया। हिंदी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष के तौर पर भी उनकी सक्रियता चर्चा में है, सवाल भी उठे। मैत्रेयी के अपने अवदान के साथ समाज व साहित्य में स्त्री की हैसियत, सोशल मीडिया पर साहित्य के अच्छे-बुरे स्वरूप आदि मुद्दों पर हिन्दुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार नागेन्द्र ने उनसे लंबी बातचीत की:
अपने फेसबुक पेज पर आपने लिखा है, ‘आंधियों को पता है कि इधर के रास्ते आना है उन्हें, और हम भी जानते हैं कि कैसे पेश आया जाएगा’... इसमें कोई खास संदेश पढ़ा जाए?
जीवन के सफर में वे आसानियां नहीं देखीं, जो रास्तों को चलने लायक बना देती हैं। बचपन भी जीने और पढ़ने की जुड़वां चुनौती लेकर आया। पिता को नहीं देखा मैंने, क्योंकि वे तब खत्म हो गए, जब मैं सिर्फ 18 महीने की थी। मां ने किसानी की और फिर अपनी पढ़ाई। स्कूल हम दोनों के ही पास नहीं था। तीन-चार मील के बीहड़ सफर के बाद कक्षा में बैठना नसीब होता। मैं गांव से पढ़ने जाने वाली अकेली लड़की थी। शायद तभी से मेरे छोटे से मन ने दृढ़ता हासिल कर ली और खतरों की चुनौतियों का सामना करती हुई पढ़ती रही। बाबा से कहा करती थी कि स्कूल क्यों नहीं है, सड़क क्यों नहीं है और हमारे घर कच्चे फूस की छान वाले क्यों हैं, पक्के क्यों नहीं? बाबा कहते, सब नसीब के खेल हैं। मेरी समझ के बाहर रही यह बात और मैं नसीब के खिलाफ जाना सीखने लगी। बस तभी से मेरे साथ चल रही हैं ये पंक्तियां ...यह मेरा उद्बोधन गीत है।
जीवन के सफर में वे आसानियां नहीं देखीं, जो रास्तों को चलने लायक बना देती हैं। बचपन भी जीने और पढ़ने की जुड़वां चुनौती लेकर आया। पिता को नहीं देखा मैंने, क्योंकि वे तब खत्म हो गए, जब मैं सिर्फ 18 महीने की थी। मां ने किसानी की और फिर अपनी पढ़ाई। स्कूल हम दोनों के ही पास नहीं था। तीन-चार मील के बीहड़ सफर के बाद कक्षा में बैठना नसीब होता। मैं गांव से पढ़ने जाने वाली अकेली लड़की थी। शायद तभी से मेरे छोटे से मन ने दृढ़ता हासिल कर ली और खतरों की चुनौतियों का सामना करती हुई पढ़ती रही। बाबा से कहा करती थी कि स्कूल क्यों नहीं है, सड़क क्यों नहीं है और हमारे घर कच्चे फूस की छान वाले क्यों हैं, पक्के क्यों नहीं? बाबा कहते, सब नसीब के खेल हैं। मेरी समझ के बाहर रही यह बात और मैं नसीब के खिलाफ जाना सीखने लगी। बस तभी से मेरे साथ चल रही हैं ये पंक्तियां ...यह मेरा उद्बोधन गीत है।
सोशल मीडिया पर खास तरह की रचनात्मक सक्रियता दिख रही है। क्या नई रचनाशीलता सोशल मीडिया से निकलेगी, जैसे कभी लघु पत्रिका आंदोलन से निकली थी?
सोशल मीडिया पर रचनाशीलता से ज्यादा रचना पर मनमानी है। कोई कविता अच्छी लगी, शेयर कर ली। बस इतना ही। कूड़ा-कबाड़ा भी कम नहीं होता। लघु पत्रिका आंदोलन व्यावसायिक घरानों की पत्रिकाओं के लोप होते जाने का परिणाम था। उनमें रचनाएं मुकम्मल होती थीं। सोशल मीडिया के लेखन में वह करीनेदारी और गहराइयां कहां? यहां तो ‘जोई सोई कछु गावै’ जैसा ज्यादा है। कुछ पंक्तियों या पैराग्राफ बन जाने से साहित्य नहीं बनता।
सोशल मीडिया पर रचनाशीलता से ज्यादा रचना पर मनमानी है। कोई कविता अच्छी लगी, शेयर कर ली। बस इतना ही। कूड़ा-कबाड़ा भी कम नहीं होता। लघु पत्रिका आंदोलन व्यावसायिक घरानों की पत्रिकाओं के लोप होते जाने का परिणाम था। उनमें रचनाएं मुकम्मल होती थीं। सोशल मीडिया के लेखन में वह करीनेदारी और गहराइयां कहां? यहां तो ‘जोई सोई कछु गावै’ जैसा ज्यादा है। कुछ पंक्तियों या पैराग्राफ बन जाने से साहित्य नहीं बनता।
ब्लॉगिंग को साहित्य के किस खांचे में रखेंगी...?
ब्लॉग के जरिये साहित्य लिखा जाएगा, यह समझ से परे है, क्योंकि ब्लॉग तो कोई भी लिख रहा है। माना कि साहित्य से जुडे़ लोग भी लिख रहे हैं, तो उनसे इसमें कैसी रचनाशीलता की उम्मीद की जाए? सोचने की बात है कि क्लासिक आज भी क्यों महत्वपूर्ण है? इधर कुछ ऐसी किताबें भी आ रही हैं, जो ब्लॉग लिखते-लिखते बन गईं। वे पढ़ी तो जा रही हैं, लेकिन ये फास्ट-फूड की तर्ज पर ही हैं।
ब्लॉग के जरिये साहित्य लिखा जाएगा, यह समझ से परे है, क्योंकि ब्लॉग तो कोई भी लिख रहा है। माना कि साहित्य से जुडे़ लोग भी लिख रहे हैं, तो उनसे इसमें कैसी रचनाशीलता की उम्मीद की जाए? सोचने की बात है कि क्लासिक आज भी क्यों महत्वपूर्ण है? इधर कुछ ऐसी किताबें भी आ रही हैं, जो ब्लॉग लिखते-लिखते बन गईं। वे पढ़ी तो जा रही हैं, लेकिन ये फास्ट-फूड की तर्ज पर ही हैं।
क्या सोशल मीडिया ने रचनाकार का समय चुराया है? साहित्य को यह किस तरह प्रभावित कर रहा है?
सोशल मीडिया ऐसा नशा परोसता है कि चस्का लग जाता है। गंभीर विषयों पर सोचने वाला रचनाकार छोटी-मोटी, हल्की-पतली टिप्पणी करके खुश हो लेता है, क्योंकि वहां तत्काल लाइक मिलने लगता है। यह एक भ्रम में डालता है। रचनाकार को इससे बचना होगा। खासकर तब, जब उसकी रचनाशीलता प्रभावित होने लगे।
सोशल मीडिया ऐसा नशा परोसता है कि चस्का लग जाता है। गंभीर विषयों पर सोचने वाला रचनाकार छोटी-मोटी, हल्की-पतली टिप्पणी करके खुश हो लेता है, क्योंकि वहां तत्काल लाइक मिलने लगता है। यह एक भ्रम में डालता है। रचनाकार को इससे बचना होगा। खासकर तब, जब उसकी रचनाशीलता प्रभावित होने लगे।
आरोप है कि साहित्य का दायरा धीरे-धीरे सिमट रहा है, यह नई पीढ़ी से दूर जा रहा है?
माना जा रहा है कि साहित्य के नाम पर अब सूचनाएं ही रह गई हैं, क्योंकि नए लेखकों का रुझान इंटरनेट ने खींचा है। फेसबुक का प्लेटफॉर्म सहज सुलभ है। इस बात को हम खारिज नहीं कर सकते कि फेसबुक पर लेखक-लेखिकाओं की जो बाढ़ आई है, उनमें से कुछ बहुत अच्छे रचनाकार होकर साहित्य में योगदान कर सकते हैं। लेकिन यह भी तय है कि अच्छे संपादक और समीक्षकों के हट जाने से निखारने और संवारने का काम कौन करेगा? पत्रिकाएं और अखबारों के साहित्यिक पृष्ठ जरूरी हैं। न तो पुराना सब बुरा है और न नया सारा अच्छा।
माना जा रहा है कि साहित्य के नाम पर अब सूचनाएं ही रह गई हैं, क्योंकि नए लेखकों का रुझान इंटरनेट ने खींचा है। फेसबुक का प्लेटफॉर्म सहज सुलभ है। इस बात को हम खारिज नहीं कर सकते कि फेसबुक पर लेखक-लेखिकाओं की जो बाढ़ आई है, उनमें से कुछ बहुत अच्छे रचनाकार होकर साहित्य में योगदान कर सकते हैं। लेकिन यह भी तय है कि अच्छे संपादक और समीक्षकों के हट जाने से निखारने और संवारने का काम कौन करेगा? पत्रिकाएं और अखबारों के साहित्यिक पृष्ठ जरूरी हैं। न तो पुराना सब बुरा है और न नया सारा अच्छा।
कभी-कभी लगता है कि साहित्य में स्त्री विमर्श और देह विमर्श के बीच कुछ घालमेल हो गया है?
स्त्री विमर्श बनाम देह विमर्श का नारा चारों ओर सुनाई देता है। राजेंद्र यादव ने स्त्री के लिए देहमुक्ति का आह्वान किया था -‘पुरुष ने स्त्री के खून में यह भावना संस्कार की तरह कूट-कूटकर भर दी कि वह सिर्फ और सिर्फ शरीर है। वह शरीर के सिवा उसकी और किसी पहचान से इनकार करता है।’ पर मैं मानती हूं कि यह विमर्श का प्रथम चरण था। अब आगे आना चाहिए। शरीर के दावे के साथ लोकतांत्रिक समाज का दावा जरूरी है। जो स्थितियां हमारे खिलाफ हैं, हमारा हक छीनती हैं, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम किए हुए हैं, उनके विरुद्ध लड़ना स्त्री विमर्श के फलक का विस्तार करेगा, पर ऐसा दिख नहीं रहा।
स्त्री विमर्श बनाम देह विमर्श का नारा चारों ओर सुनाई देता है। राजेंद्र यादव ने स्त्री के लिए देहमुक्ति का आह्वान किया था -‘पुरुष ने स्त्री के खून में यह भावना संस्कार की तरह कूट-कूटकर भर दी कि वह सिर्फ और सिर्फ शरीर है। वह शरीर के सिवा उसकी और किसी पहचान से इनकार करता है।’ पर मैं मानती हूं कि यह विमर्श का प्रथम चरण था। अब आगे आना चाहिए। शरीर के दावे के साथ लोकतांत्रिक समाज का दावा जरूरी है। जो स्थितियां हमारे खिलाफ हैं, हमारा हक छीनती हैं, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम किए हुए हैं, उनके विरुद्ध लड़ना स्त्री विमर्श के फलक का विस्तार करेगा, पर ऐसा दिख नहीं रहा।
आपकी कहती हैं कि ‘राजनीति जैसा क्रूर इलाका कहीं नहीं’? राजनीति से इतनी नफरत क्यों?
हाथ कंगन को आरसी क्या? महाभारत से बड़ा कोई राजनीतिक ग्रंथ नहीं। कृष्ण कहते हैं- ‘मर जाने पर स्वर्ग मिलेगा, जय होने पर भूतल राज/ इससे ही निश्चय भारत, तू हो जा खड़ा युद्ध को आज’। तब से आज तक देखा जाए तो बिना स्वार्थ के संबंधों का कोई वजूद नहीं। हाल के चुनाव में जो दृश्य देखने को मिले, वे महाभारत को ही दोहरा रहे थे। कहीं धृतराष्ट्र, कहीं शकुनि। हां, जयचंदों की कमी न थी। संबंध ही खूनमखून नहीं हुए, देश के लिए बेहतरी के डंकों की चोट में कुटिल चालें चली आईं।
हाथ कंगन को आरसी क्या? महाभारत से बड़ा कोई राजनीतिक ग्रंथ नहीं। कृष्ण कहते हैं- ‘मर जाने पर स्वर्ग मिलेगा, जय होने पर भूतल राज/ इससे ही निश्चय भारत, तू हो जा खड़ा युद्ध को आज’। तब से आज तक देखा जाए तो बिना स्वार्थ के संबंधों का कोई वजूद नहीं। हाल के चुनाव में जो दृश्य देखने को मिले, वे महाभारत को ही दोहरा रहे थे। कहीं धृतराष्ट्र, कहीं शकुनि। हां, जयचंदों की कमी न थी। संबंध ही खूनमखून नहीं हुए, देश के लिए बेहतरी के डंकों की चोट में कुटिल चालें चली आईं।
लेकिन आपका हिंदी अकादमी में आना भी तो राजनीति (अरविंद केजरीवाल) से नजदीकी के कारण हुआ?
लोग ऐसा कहते और फैलाते भी हैं कि अरविंद केजरीवाल से नजदीकी मुझे हिंदी अकादमी में लाई। बेशक मुख्यमंत्री ने मेरे नाम का चुनाव किया होगा, पर मेरी जान-पहचान या मिलना-जुलना हरगिज न था। ताज्जुब हुआ था, जब महिला आयोग के लिए मेरा नाम आया, फिर दूसरी बार सरकार आई, तो हिंदी अकादमी के लिए बुला लिया, जबकि मेरी कोई मुलाकात तक नहीं थी। यहां राजनीति नहीं, शायद ईमानदारी का कोई भरोसा या साहित्यकार का सम्मान होगा।
लोग ऐसा कहते और फैलाते भी हैं कि अरविंद केजरीवाल से नजदीकी मुझे हिंदी अकादमी में लाई। बेशक मुख्यमंत्री ने मेरे नाम का चुनाव किया होगा, पर मेरी जान-पहचान या मिलना-जुलना हरगिज न था। ताज्जुब हुआ था, जब महिला आयोग के लिए मेरा नाम आया, फिर दूसरी बार सरकार आई, तो हिंदी अकादमी के लिए बुला लिया, जबकि मेरी कोई मुलाकात तक नहीं थी। यहां राजनीति नहीं, शायद ईमानदारी का कोई भरोसा या साहित्यकार का सम्मान होगा।
शिकायत है कि हिंदी अकादमी लेखकों, कलाकारों के लिए वह नहीं कर पाई, जिसकी अपेक्षा थी?
कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें आप अपना परिश्रम ही नहीं, जिंदगी भी झोंक दें, तब भी लोगों को संतुष्ट नहीं कर पाएंगे। ऐसा ही मामला दिल्ली हिंदी अकादमी का है। हमने साहित्यकारों, नाट्यकर्मियों और पत्रकारों के साथ शिक्षकों के लिए कार्यक्रम किए हैं। छात्रों को अकादमी से जोड़ा। अभी कुछ ही दिनों पहले हिंदू कॉलेज में तीन दिन का साहित्य महोत्सव हुआ, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया। ऐसे कार्यक्रम कालेजों में ले जाने से छात्र काफी संख्या में साहित्य के प्रति आकर्षित हुए हैं। अकादमी के सम्मान में पूरी ईमानदारी बरती जाती है। रेस्पांस बहुत अच्छा है। हां, कुछ लोग हैं, जिनका मेरे आने के पहले यहां प्रभुत्व रहा होगा, उनका सिक्का चलना जरूर बंद हुआ है।
कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें आप अपना परिश्रम ही नहीं, जिंदगी भी झोंक दें, तब भी लोगों को संतुष्ट नहीं कर पाएंगे। ऐसा ही मामला दिल्ली हिंदी अकादमी का है। हमने साहित्यकारों, नाट्यकर्मियों और पत्रकारों के साथ शिक्षकों के लिए कार्यक्रम किए हैं। छात्रों को अकादमी से जोड़ा। अभी कुछ ही दिनों पहले हिंदू कॉलेज में तीन दिन का साहित्य महोत्सव हुआ, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया। ऐसे कार्यक्रम कालेजों में ले जाने से छात्र काफी संख्या में साहित्य के प्रति आकर्षित हुए हैं। अकादमी के सम्मान में पूरी ईमानदारी बरती जाती है। रेस्पांस बहुत अच्छा है। हां, कुछ लोग हैं, जिनका मेरे आने के पहले यहां प्रभुत्व रहा होगा, उनका सिक्का चलना जरूर बंद हुआ है।
आपके रचनाकार में एक एक्टिविस्ट हावी दिखाई देता है?
मैं खुद न तो समाज सेविका बनी, न आगे बढ़कर नारे-झंडे लहराने का मन बनाया। हां, परिस्थितियां जरूर ऐसी आ टकराईं कि कभी विरोध करना पड़ा, तो कभी विद्रोह। मैं लड़कों वाले स्कूल-कॉलेज में पढ़ी हूं। पंद्रह साल की उम्र में इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल साहब का दिल इस किशोरी पर आ गया और फिर एक्स्ट्रा क्लास के फरेब के बीच धक्का-मुक्की। दूसरे दिन लड़कों से मिलकर स्ट्राइक! मैंने उन दिनों ही जान लिया, जिस लड़की के पिता-भाई या संरक्षक नहीं होते, उसके सच्चे मित्र सहपाठी होते हैं। मैं एक्टिविस्ट थी नहीं, बना दी गई।
मैं खुद न तो समाज सेविका बनी, न आगे बढ़कर नारे-झंडे लहराने का मन बनाया। हां, परिस्थितियां जरूर ऐसी आ टकराईं कि कभी विरोध करना पड़ा, तो कभी विद्रोह। मैं लड़कों वाले स्कूल-कॉलेज में पढ़ी हूं। पंद्रह साल की उम्र में इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल साहब का दिल इस किशोरी पर आ गया और फिर एक्स्ट्रा क्लास के फरेब के बीच धक्का-मुक्की। दूसरे दिन लड़कों से मिलकर स्ट्राइक! मैंने उन दिनों ही जान लिया, जिस लड़की के पिता-भाई या संरक्षक नहीं होते, उसके सच्चे मित्र सहपाठी होते हैं। मैं एक्टिविस्ट थी नहीं, बना दी गई।
आपकी नई किताबवह सफर था कि मुकाम था ... राजेंद्र यादव पर केंद्रित है। क्या यह गुड़िया भीतर गुड़िया की अगली कड़ी है?
वह सफर था कि मुकाम था... अभी का लेखन है। राजेंद्र यादव का नाम मेरे साथ आते ही लोग चौकन्ने हो जाते हैं। कारण कि स्त्रयिों को लेकर राजेंद्र जी की छवि एक शिकारी की बनती रही है, जिसके पास लुभाने और ललचाने के लिए हंस पत्रिका है। मेरे लिए भी लेखक-लेखिकाओं ने ऐसा ही माना और प्रचारित किया कि पाठक भी यही बात मान लें। मेरा और उनका साथ 23 साल का रहा। मुझे लगा कि जिस विद्वान से मैंने लिखने का प्रशिक्षण पाया, जिसने मेरे उपन्यासों की पांडुलिपियों को मनोयोग से पढ़ा और जिसने उस प्रशिक्षण के दौरान कठोर शिक्षक की भूमिका अदा कर मुझे लिखने के अनुशासन में ढाला, उसके प्रति मेरा व्यवहार क्या हो? संयोग ही था कि मुझे राजेंद्र यादव मिले, जिन्होंने माना और लिखा - ‘मैत्रेयी एक विद्यार्थी की तरह आई।’ तब यह किताब एक स्त्री-पुरुष के संबंध से पहले एक लेखिका के बनने और संपादक के निर्देशन की कहानी है।
वह सफर था कि मुकाम था... अभी का लेखन है। राजेंद्र यादव का नाम मेरे साथ आते ही लोग चौकन्ने हो जाते हैं। कारण कि स्त्रयिों को लेकर राजेंद्र जी की छवि एक शिकारी की बनती रही है, जिसके पास लुभाने और ललचाने के लिए हंस पत्रिका है। मेरे लिए भी लेखक-लेखिकाओं ने ऐसा ही माना और प्रचारित किया कि पाठक भी यही बात मान लें। मेरा और उनका साथ 23 साल का रहा। मुझे लगा कि जिस विद्वान से मैंने लिखने का प्रशिक्षण पाया, जिसने मेरे उपन्यासों की पांडुलिपियों को मनोयोग से पढ़ा और जिसने उस प्रशिक्षण के दौरान कठोर शिक्षक की भूमिका अदा कर मुझे लिखने के अनुशासन में ढाला, उसके प्रति मेरा व्यवहार क्या हो? संयोग ही था कि मुझे राजेंद्र यादव मिले, जिन्होंने माना और लिखा - ‘मैत्रेयी एक विद्यार्थी की तरह आई।’ तब यह किताब एक स्त्री-पुरुष के संबंध से पहले एक लेखिका के बनने और संपादक के निर्देशन की कहानी है।
इतना व्यापक कथा संसार रचने के बाद भी आपको मनचाहा मुकाम नहीं मिला?
व्यापक कथा संसार रच पाई, यह मेरे अनुभव के खजाने की देन है। अगर इशारा किसी विशेष सम्मान या पुरस्कार की ओर है, तो बताओ कि मेरे अनुभवों का खजाना किसी का कृपाकांक्षी होने के लिए था क्या? मानो या न मानो, लेखन में आई लिखने के लिए। यहीं पता चला कि लिखने का इनाम भी मिलता है। और कुछ इनाम बड़ी भाग-दौड़, जोड़-तोड़ के बाद मिलते हैं...। मैं स्त्री हंू, स्त्री के घर से तो लेखन ही हो जाए यही बहुत, इनाम-खिताब की कौन कहे? हां, पाठक मिले और मिली अच्छी सी रॉयल्टी!
व्यापक कथा संसार रच पाई, यह मेरे अनुभव के खजाने की देन है। अगर इशारा किसी विशेष सम्मान या पुरस्कार की ओर है, तो बताओ कि मेरे अनुभवों का खजाना किसी का कृपाकांक्षी होने के लिए था क्या? मानो या न मानो, लेखन में आई लिखने के लिए। यहीं पता चला कि लिखने का इनाम भी मिलता है। और कुछ इनाम बड़ी भाग-दौड़, जोड़-तोड़ के बाद मिलते हैं...। मैं स्त्री हंू, स्त्री के घर से तो लेखन ही हो जाए यही बहुत, इनाम-खिताब की कौन कहे? हां, पाठक मिले और मिली अच्छी सी रॉयल्टी!
महिला कथा-लेखन की मौजूदा स्थिति से आप संतुष्ट नहीं हैं, क्यों?
महिला रचनाकार कहानियां लिख रही हैं। आप की भाषा में महिला कथाकारों की फौज भी है। होनी भी चाहिए, नहीं तो छोटी से लेकर बड़ी पत्रिकाओं का पेट कैसे भरेगा? मैं संतुष्ट होती हूं या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ेगा? फिर भी, मेरा कहना यही रहा है कि देखना चाहिए कि कहां कमी है कि कहानियां पहले की तरह सिर चढ़कर बोलती नहीं। कैसा समय चल रहा है, इससे कोई सरोकार है नहीं। कपड़े, सेक्स और मर्द से रिलेशनशिप जैसे विषय फेडआउट हो चुके हैं।
महिला रचनाकार कहानियां लिख रही हैं। आप की भाषा में महिला कथाकारों की फौज भी है। होनी भी चाहिए, नहीं तो छोटी से लेकर बड़ी पत्रिकाओं का पेट कैसे भरेगा? मैं संतुष्ट होती हूं या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ेगा? फिर भी, मेरा कहना यही रहा है कि देखना चाहिए कि कहां कमी है कि कहानियां पहले की तरह सिर चढ़कर बोलती नहीं। कैसा समय चल रहा है, इससे कोई सरोकार है नहीं। कपड़े, सेक्स और मर्द से रिलेशनशिप जैसे विषय फेडआउट हो चुके हैं।
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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