Monday, 27 April 2020

खबर कैसे बनाई जाती है ? ------ श्याम मीरा सिंह

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )

Kailash Prakash Singh
२७-०४-२०२० 
आप जो अखबारों में पढ़ते हैं वह खबर कैसे बनाई जाती है।
बड़े पत्रकार हों या छोटे पत्रकार वे किसके दबाव में काम करते हैं ? इसे जानने के लिए श्याम मीरा सिंह की यह पोस्ट पढ़ी जानी चाहिए।———

भारतीय अखबारों की दुनिया का अंडरवर्ल्ड कौन है?
----------
कल अमर उजाला में फ्रंट पेज पर एक लीड स्टोरी थी "लॉकडाउन न होता तो एक लाख से ऊपर होते कोरोना मामले"। अमर उजाला की ये पहली पॉजिटिव न्यूज नहीं है लॉकडाउन के बाद से ही लगभग हर अखबार में "Positive News" की फ्लड आ रक्खी हैं। ये किस कदर की भ्रामक खबर है आप इस आंकड़े से ही जान लेंगे, 24 मार्च के दिन तक पूरे देश में कुल 1100 के करीब मामले थे, जबकि आज प्रतिदिन के हिसाब से 1300 से अधिक मामले बढ़ रहे हैं। लेकिन अखबार का कहना है कि लॉकडाउन न होता तो हर तीसरे दिन कोरोना मामलों की संख्या दोगुनी होती। ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं आई है न ही किसी संस्थान से ऐसा कोई अध्ययन पब्लिश हुआ है, अखबार असली आंकड़ों पर बात न करके, आपको अपने अनुमान बता रहा है। एकदम निजी अनुमान। वह भी अपनी लीड स्टोरी में पहले पेज पर। एक तरह से ऐसी खबरें आपके मन में ये डालने के लिए हैं कि लॉकडाउन सफल हुआ है। आप सरकार से सवाल मत करिए कि इतने दिन में क्या कुछ किया। अमर उजाला ऐसा अकेला अखबार नहीं है, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, उड़िया पोस्ट, पंजाब केसरी से लेकर अंग्रेजी के वामपंथी अखबार कहे जाने वाले अखबार "द हिन्दू और द इंडियन एक्सप्रेस" और हिंदुस्तान टाइम्स में भी अब केवल कथित पॉजिटिव खबरें ही आ रही हैं। ये कोई आम पैटर्न नहीं है। आपको पता भी नहीं इस गेम के पीछे कौन से अदृश्य हाथ काम कर रहे हैं। मोदी मीडिया पहले से ही यही कर रही है लेकिन 24 मार्च के बाद से ही ये पैटर्न और अधिक बढ़ गया है। इसके पीछे के कारण को जानना चाहते हैं तो अपने पूर्वाग्रहों को एक बगल में रखिए, और ध्यान से पढ़िए।
--------------------

24 मार्च के दिन रात 8 बजे देशभर में लॉकडाउन घोषित किया गया था, इससे ठीक 6 घण्टे पहले प्रधानमंत्री ने देशभर के बड़े-बड़े अखबारों और रीजनल अखबारों के मालिकों और सम्पादकों के साथ एक मीटिंग की। इस मीटिंग का उद्देश्य घोषित किया कि कोरोना एक बड़ी बीमारी है। अफवाहों का बाजार गर्म है। अखबारों से निवेदन की भाषा में कहा गया कि अफवाहों को खत्म करने के लिए और लोगों को पैनिक होने से रोकने के लिए आप लोग सरकार और जनता के बीच एक पूल का काम करें। इस पूरी खबर की जानकारी आपको नरेंद्र मोदी की खुद की वेबसाइट Narendramodi. in पर मिल जाएगी। जिसकी विस्तृत विवेचना की है द Caravan Magazine ने।

मीटिंग का पर्पज दिखाया गया कि अफवाहें रोकनी हैं, लोगों को पैनिक होने से रोकना है, लेकिन आपके लिए असल उद्देश्य समझना उतना भी मुश्किल नहीं है, यदि आप निस्पक्ष होकर इसे डीकोड करेंगे तो आराम से समझ सकेंगे कि प्रधानमंत्री ने इसी बहाने अखबारों और मालिकों को हिदायत दे दी कि कोरोना मसले पर किस तरह की खबरें करनी हैं और खबरों की प्रकृति को नाम दिया गया "पॉजिटिव न्यूज"।

पॉजिटिव न्यूज क्या होती हैं? पॉजिटिव न्यूज अखबारों की दुनिया में "सोने की ईंट" हैं। जैसे असल दुनिया में ठग पीतल की ईंट दिखाकर सोने की ईंट बताता है और भोले भाले लोगों को ठग ले जाते हैं ऐसे ही अखबारों की दुनिया में "पॉजिटिव न्यूज" से भोली-भाली जनता को ठगा जाता है।

ये मीटिंग एक तरह से सभी अखबारों के लिए एक निर्देश भी थी और एक तरह की चेतावनी भी थी। इस मीटिंग का स्वरूप प्रेस कॉन्फ्रेंस की तरह नहीं था जिसमें आमतौर पर अखबार प्रश्न पूछते हैं, प्रधानमंत्री जबाव देते हैं। बल्कि ये मीटिंग सिर्फ सजेशंस देने के लिए थी। कुल मिलाकर "सुझावों" के भेष में ये मीटिंग अखबारों पर एक दबाव क्रिएट करने के लिए थी।

इसके लिए एक उदाहरण समझिए। 28 मार्च के दिन दिल्ली के आंनद विहार बस टर्मिनल पर प्रवासी मजदूरों की भीड़ इकट्ठा हुई। इसकी एक वीडियो एक टीवी चैनल ने ऑन एयर चला दी। इसके तुरंत बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से उस टीवी चैनल को ईमेल आ गया। ईमेल में लिखा था "Please avoid, be cautious,’”

यहां "Be cautious" का अर्थ क्या था? आप सोचिए यदि समाचार चैनल और सोशल मीडिया मजदूरों की खबर न चलाती तो क्या सरकार इतनी सक्रियता के साथ काम करती? क्या समाचार चैनलों का काम सरकार और प्रधानमंत्री की स्तुति भर करना रह गया है? क्या आपको नहीं लगता इस ईमेल के बाद उस टीवी चैनल पर दबाव नहीं बना होगा? Obviously ऐसे एक ही ईमेल से खबर चलाने वाले को पशीने आ गए होंगे। ये ईमेल ही उसके लिए एक सरकारी निर्देश बन गया होगा। इस ईमेल का अर्थ कोई सुझाव या निवेदन नहीं था बल्कि वह आदेश ही था जिसके न माने जाने पर टीवी चैनल को सजा भुगतने के लिए तैयार रहना था।

सूचना प्रसारण मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) इस समय मीडिया का अंडरवर्ल्ड बन चुका है।

-लॉक डाउन के 1 दिन पहले यानी 23 मार्च के दिन प्रधानमंत्री ने अखबारों की तरह ही टीवी चैनलों के साथ भी मीटिंग की थी। जिसमें इंडिया टीवी एडिटर इन चीफ रजत शर्मा जैसे पत्रकार भी शामिल रहे।

-लॉकडाउन की घोषणा से 6 घण्टे अखबारों के साथ मीटिंग की ही थी और

-लॉकडाउन के अगले दिन प्रधानमंत्री ने देशभर के रेडियो जॉकी के साथ मीटिंग की थी।

इन सबमें एक ही प्रकार के इंस्ट्रक्शंस दिए गए थे कि "पॉजिटिव न्यूज" ही करनी है।

इसके परिणाम भी अगले दिन से ही आने शुरू हो गए। अगली सुबह ही पंजाब केसरी अखबार ने अपने फ़्रंट पेज पर क्या हेडलाइन लगाई देखिए- "आपको बचाने के लिए बार बार हाथ जोड़ते दिखे प्रधानमंत्री".

ये स्तर है आपके हिंदी अखबारों का, इसी पंजाब केसरी के मालिक हैं अविनाश चोपड़ा। अविनाश चौपड़ा भी प्रधानमंत्री की मीटिंग में शामिल थे। Caravan Magazine ने अविनाश चौपड़ा से इस मीटिंग के बारे में पूछा कि क्या प्रधानमंत्री की मीटिंग के बाद आपको सरकार की किसी पॉलिसी पर कोई क्रिटिक लिखना पड़े तो क्या आप लिखेंगे? अविनाश का जबाव था "नहीं"। अविनाश का मानना है कि प्रधानमंत्री जबर तरीके से लगे हुए हैं इसलिए केवल पॉजिटिव न्यूज ही छपेंगी।

अविनाश ही नहीं, Caravan Magazine ने ऐसे अलग-अलग अखबारों के 9 मालिकों, सम्पादकों से बात की थी जो मीटिंग में शामिल हुए थे। मैगज़ीन उनसे पूछा कि यदि आवश्यकता पड़ी तो क्या वे सरकार के किसी काम की आलोचना भी करेंगे? केवल 2 अखबारों ने ही "हामी" भरी। बाकी सब या तो जबाव देना ही टाल गए। या कोई क्लियर जबाव नहीं दिया। तीन अखबारों ने तो ये भी कहा कि वे किसी भी हाल में सरकार की आलोचना नहीं करेंगे।

ये पूरा वाकया आपको Caravan Magazine के एक आर्टिकल "Speaking Positivity to power" में मिल जाएगा।

प्रधानमंत्री की मीटिंग के बाद केवल हिंदी अखबारों को ही "पॉजिटिव न्यूज सिंड्रोम" नहीं हुआ है बल्कि अंग्रेजी के अखबारों भी उस रोग से पीड़ित हो गए। आप बीते दिनों में कोरोना मामलों को लेकर हिंदुस्तान टाइम्स की कवरेज पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि किस तरह से ये अखबार अपने पाठकों को मूर्ख बना रहे हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की एडिटर शोभना भारतीय भी प्रधानमंत्री के साथ मीटिंग में शामिल थीं। 24 मार्च के बाद से इस अखबार की रिपोर्टिंग देखिए-

1. 86 people in India beat Covid-19, nearly 10% of all coronavirus patients recover”

2.Govt forms empowered groups, task force to deal with Covid-19 outbreak”

3.India’s relief package vs the world’s

4.what more can Modi government do?

आपको इस अखबार की किसी भी खबर में सरकार के प्रति क्रिटिकल नजरिया नहीं मिलेगा।

आपातकाल के समय पत्रकारिता का झंडा बुलंद रखने वाले अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की टोन भी इस मीटिंग के बाद ढीली-ढीली सी हो चुकी है। हालांकि बाकी अखबारों, मीडिया के मुकाबले इंडियन एक्सप्रेस ने अभी भी काफी स्पेस बचाकर रखा हुआ है। लेकिन उसकी भी खबरों में "कोरोना से सम्बंधित समस्याएं तो बताई गईं हैं लेकिन ये नहीं बताया गया कि उपरोक्त समस्याओं के लिए जिम्मेदार कौन है।

जैसे 28 मार्च के दिन प्रवासी मजदूरों का संकट सामने आने के बाद एक्सप्रेस ने एक खबर की-- "Moving migrant crisis deepens at multiple points, worried states scramble to get a grip"।

इस खबर में समस्या तो बताई गई, लेकिन इस समस्या को लॉकडाउन का अपरिहार्य परिणाम ही मान लिया गया है। जैसे कि इसमें किसी की गलती है ही नहीं। अखबार ने समस्या तो बताई लेकिन इस समस्या के लिए सरकार के प्रबंधन पर, उसकी तैयारियों पर कोई प्रश्न नहीं किया। इंडियन एक्सप्रेस के मैनेजिंग डायरेक्टर विवेक गोइन्का भी प्रधानमंत्री के साथ हुई मीटिंग में शामिल हुए थे।

-Caravan Magazine ने इंडियन एक्सप्रेस के गोइन्का से इस मसले पर सवाल पूछा तो गोइन्का ने इस मीटिंग को अभूतपूर्व घटना बताते हुए प्रधानमंत्री को सराहा।

-पंजाब केसरी के मालिक अविनाश चौपड़ा ने तो प्रधानमंत्री को अलग से फोन कर के लॉकडाउन के लिए बधाई भी दी।

-राजस्थान पत्रिका के एडिटर इन चीफ गुलाब कोठारी ने प्रधानमंत्री की प्रशंसा में एक ब्लॉग भी लिखा।

-इनाडु ग्रुप (ईटीवी भारत) के मालिक रामोजी राव प्रधानमंत्री के उद्बोधन से ही गदगद हुए पड़े हैं

- महाराष्ट्र के लोकमत अखबार के जॉइंट मीडिया डायरेक्टर ऋषि डारदा ने प्रधानमंत्री के साथ की बैठक के अलग अलग पिक्चर्स के साथ ट्वीट किए।

हद्द तो तब हो गई जब द हिन्दू जैसे अखबार की को-चेयरपर्सन मालिनी पार्थसारथी ने भी ट्विटर पर प्रधानमंत्री के साथ बैठक पर गदगद होते हुए ट्वीट किया। प्रधानमंत्री के साथ हुई बैठक के बाद से ही मालिनी पार्थसारथी के ट्विटर हैंडल को जाकर देखेंगे तो लगभग सभी खबरें "पॉजिटिव" खबरों से भरी हुई ही मिलेंगीं।

ये हाल आपके हिंदी-अंग्रेजी अखबारों का हो चुका है। रीजनल अखबारों की तो आप बात ही छोड़ दीजिए।

सबको इस सरकार से डर है, ये सरकार बेहद निचले स्तर पर मीडिया को कंट्रोल किए हुए है। गिने-चुने संस्थान भी आखिर कब तक लड़ेंगे।

पॉजिटिव न्यूज अखबारों की दुनिया का ऐसा षड्यंत्र है जिसपर आप प्रश्न भी नहीं कर सकते। मीडिया, सरकार पर प्रश्न करने का एकमात्र माध्यम है। पॉजिटिव न्यूज फैलाने के लिए सरकार के पास एक पूरी मशीनरी है, आईटी सेल है, मंत्रालय है, गोदी मीडिया है, पार्टी है, सरकारी टीवी चैनल्स हैं। यदि बाकी बची मीडिया भी केवल पॉजिटिव न्यूज देने के काम में लग जाएगी तो प्रवासी मजदूरों, किसानों, हेल्थ वर्करों, आदिवासियों, अस्पतालों, वेन्टीलेटरों की बात कौन करेगा?

Syam meera Singh
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=2622044878051219&id=100007371978661


Sunday, 19 April 2020

आर एस एस की राजनीतिक टेक्निक ------ श्याम मीरा सिंह


Jaya Singh
संघ(RSS) की इस टेक्निक को समझे बिना आप आरएसएस की राजनीति को नहीं समझ सकते-----

संघ का हमेशा से एक गूढ़ उद्देश्य रहा है कि संघ को कथित ऊंची जातियों की, उसमें भी ऊंची जातियों के सक्षम पूंजीपतियों की सत्ता स्थापित करनी थी, जिसके लिए "हिन्दू धर्म" का चोगा ही अंतिम विकल्प था। चूंकि लोकतंत्र में सीधे एक दो जाति की श्रेष्ठता का दावा करके विजयी नहीं हुआ जा सकता था इसलिए अपनी जातियों को आगे बढ़ाने के लिए उस धर्म को चुना गया जिसमें उन्हें शीर्ष पर रहने की वैधता मिली हुई थी। यही कारण है सीधे जाति से न लड़कर संघ ने धर्म का रास्ता चुना। अब धर्म के राज की स्थापना के लिए जरूरी है कि "सेक्युलरिज्म" जैसे शब्द को अप्रसांगिक किया जाए। यही कारण है कि संघ की विचारधारा मानने वालों ने सबसे अधिक निशाना बनाया तो सेक्युलरिज्म शब्द को.

संघ के तमाम प्रचारकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों को "सेक्युलिरिज्म के नाम पर", "सिक्यूलरिज्म", "स्यूडो सेक्युलिरिज्म", "फेक सेक्युलिरिज्म" जैसी उपमाओं का उपयोग करते हुए देखा होगा। इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ एक टेक्निक ही काम करती है, सेक्युलिरिज्म अप्रासंगिक हो जाएगा तो स्वभाविक है उसकी जगह एक धार्मिक राज्य ही लेगा जिसमें कि वर्चस्व केवल कुछेक अभिजातीय जातियों का ही होगा जिससे कि संघ असल में ताल्लुक रखता है। यही भाषा बबिता फोगाट और रंगोली चंदेल की रही है। अब आप इनकी भाषा के निहितार्थ आसानी से समझ सकते हैं, और उस स्रोत को भी जिसने इनके दिमाग में डाला है कि सेक्युलिरिज्म ही देश का सबसे बड़ा दुश्मन है न कि लिंचिंग कर देना और जय श्री राम के नारों के साथ किसी को मार देना।

सेक्युलिरिज्म जो दुनिया के सबसे ब्राइट माइंड पीपल के मस्तिष्क से निकला ऐसा एकमात्र आईडिया है जिससे आधुनिक राज्य बिना धार्मिक संघर्ष के संचालित किए जा सकते थे। उसे आधुनिक समझदार राज्यों ने अपनाया। लेकिन भारत में उसे मलाइन करने में संघ शुरू से लगा रहा।

सेक्युलिरिज्म शब्द के अलावा दूसरा शब्द "वामपंथी" है। चूंकि संघ अपने कथित दावों में कथित हिन्दू धर्म की लड़ाई लड़ रहा है, इसलिए हिंदुओं के ऐसे पढ़े लिखे लोगों को साफ करना उसके लिए मुश्किल था जो उसके रिग्रेसिव विचारों से सहमत न हों। चूंकि संघ इन्हें मुसलमान भी नहीं ठहरा सकता था और न ही इन्हें ईसाई मिशनरी ठहराकर अपराधी घोषित कर सकता था, इसलिए संघ ने हिंदुओं के पढ़े-लिखे वर्ग को साफ करने के लिए "वामपंथी" शब्द को उठाया। और इस एक शब्द के खिलाफ इतना जहर बोना शुरू कर दिया कि वामपंथी शब्द सुनते ही नागरिकों को लगे कि वे आतंकवादियों की बात कर रहे हैं।

पहली बार जब मैंने वामपंथ शब्द सुना था तब मुझे यही जानने को मिला था कि ये नक्सली होते हैं, हिंसा करते हैं, भारत को नहीं मानते, तिरंगा को नहीं मानते, देश की सीमाओं को नहीं मानते". इस तरह बिना वामपंथ को जाने-पढ़े ही मेरे मन में वामपंथ के लिए एक स्वभाविक घृणा आ गई। यही संघ का उद्देश्य है। अब जितनी नफरत आपमें, सेक्युलिरिज्म के लिए है, जितनी नफरत आपमें मुसलमानों के लिए है, ईसाई मिशनरियों के लिए है वही नफरत आपमें अब हिंदुओं के उस उस वर्ग के लिए भी रहेगी जो संघ के झूठ में संघ के साथ नहीं है।

अब संघ के लिए हिंदुओं के उस वर्ग को हटाना आसान हो गया जो संघ की नफरत में उसके साथ नहीं है। अब संघ वामपंथी कहकर "हिंदुओं" को भी साफ कर सकता था और आपको ये भी लगेगा कि संघ हिंदुओं की लड़ाई लड़ रहा है। इस प्रोपेगैंडा का प्रतिफल ये निकला है कि संघ के समर्थक आपको ये कहते हुए मिल जाएंगे कि "हिंदुओं के असली दुश्मन तो हिंदुओं का पढ़ा लिखा वर्ग ही है". "इस देश को सबसे अधिक खतरा तो 'ज्यादा' पढ़े लिखे लोगों से है"

यकीन मानिए संघ देश के एक बड़े हिस्से के मन में ये भरने में भी कामयाब रहा कि पढ़े लिखे होना हमारी सदी का सबसे बड़ा अपराध है। जोकि पढ़-लिखकर हमको नहीं करना है। संघ नागरिकों के एक बड़े वर्ग के मन में ये भरने में भी कामयाब रहा कि यदि कथित "हिन्दू हितों" के लिए कुछ हिंदुओं का सफाया करना पड़े भी तो देश हित में किया जा सकता है। यही कारण है कि संघ बाकी सबके मुकाबले वामपंथियों को अधिक निशाना बनाता है।

संघ की ये पुरानी टेक्निक है जिससे ये वैचारिक रूप से मुकाबला नहीं कर पाते उसे बदनाम करके ये अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश करते हैं। जैसे इनके पास गांधी, नेहरू के मुकाबले के स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, तो इन्होंने गांधी, नेहरू के खिलाफ भ्रामक झूठ बुन बुन कर उन्हें अप्रसांगिक बनाने की कोशिश की। अब देश के भोले-भाले नागरिक ये भूलकर कि देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ क्या कर रहा था इस बात पर आ गए कि नेहरू का तो एडविना से अफेयर था। गांधी तो बच्चियों के साथ सोता था।

दूसरे व्यक्ति को अप्रसांगिक बनाकर खुद को प्रासंगिक बनाना एक सर्वकालिक युक्ति है। यही संघ ने किया है। इसमें कुछ मेहनत भी नहीं लगती। इसका नतीजा ये निकला कि नेहरू और गांधी को पढ़े और जाने बिना ही नागरिक अब संघ की ओर देखेगा ही देखेगा। अब वह ये प्रश्न भी नहीं करेगा कि आपके पास स्वतंत्रता आंदोलन के समय नेहरू और गांधी जैसा एक चेहरा भी क्यों नहीं था? नेहरू और गांधी जैसा श्रेष्ठ बनने का मार्ग कठिन था बल्कि उन्हें बदनाम करने का मार्ग बेहद सरल था। यही संघ ने अपनाया।

इसी प्रकार संघ ने हमारी भाषा में
"लोकतंत्र के नाम पर",
"अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर"
"और ले लो आजादी"
"आजादी गैंग" जैसे शब्द जोड़े...

आप अब आसानी से समझ सकते हैं कि संघ ने न केवल लोकतंत्र जैसे मूल्य को अप्रसांगिक बनाया बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों को भी बेकार की बातें साबित करने में एक हद तक सफलता भी पाई है। आप आराम से अन्दाजा लगा सकते हैं लोकतंत्र अप्रसांगिक होगा तो राजशाही का आधुनिक रूप लागू करना कितना आसान होगा। यही संघ की इच्छा है। यही संघ कर रहा है।

अब आप सोचिए
-सेक्युलिरिज्म जैसा शब्द जो सभी धर्मों के लोगों के जीने की आजादी देता है।
-"अभिव्यक्ति की आजादी, जैसा शब्द जो आपके, मेरे, हम सबके बोलने की आजादी देता है।
-लोकतंत्र, जो हम सबको स्वतंत्रता प्रदान करता है।

इन शब्दों को खोकर हम क्या पाने जा रहे हैं? हमारे लोकतंत्र, हमारे बोलने की आजादी, हमारी स्वतंत्रता को खत्म करके कोई हमें क्या देना चाहता है?
-क्या संघ लोकतंत्र की जगह वापस से जमींदारी, राजशाही, सामन्तशाही स्थापित करना चाहता है?
-क्या संघ "अभिव्यक्ति की आजादी" की जगह 'लाठी की आजादी" स्थापित करना चाहता है?
- क्या संघ सेक्युलिरिज्म और धार्मिक आजादी छीनकर संघ केवल ऊंची जातियों के मंदिरों में प्रवेश की नीति को लागू करना चाहता है जिसमें वेद, पुराण, उपनिषद पढ़ने की आजादी सिर्फ कुछेक जातियों को होगा?

जबाव ढूंढिए, मिलेंगे...... उतने भी मुश्किल नहीं..

Shyam Meera Singh 

https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=910820852690730&id=100012884707896

Saturday, 18 April 2020

विनय दूबे और कोरोना पीड़ितों की मदद

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 



Mehboob Khan
2 days ago

दुबे जी समय समय पर बिकाऊ मीडिया की पोल खोलने का काम कर रहे थे।और साथ ही सरकार की नकामीयों को भी उजागर कर रहे थे। गरीब, मजदूर और मजलूम की  आवाज सरकार को सुननी चाहिए। मजदूर लोग एक ही कमरे में 30--40 संख्या तक रहे हैं। खाना पानी का इंतेजाम नहीं है।सरकार को इस ओर ध्यान देने की जरुरत है।तभी इस समस्या का समाधान हो पायेगा। हमारी सरकार अमीर लोगों को विदेश से हवाई जहाज से भारत लेकर आ रहे है।इसी तर्ज पर हमारे गरीब मजदूरों को भी सरकार चाहे तो उनके राज्य पहुंचा सकती हैं।वहां की सरकार उनकी जांच कर अलग रख सकती हैं।स्वास्थ्य होने पर मजदूरो को उनके घर जाने की ईजाजत दे सकती हैं।लोकडाउन रखो,लेकिन गरीब की समस्याओं का भी ध्यान रखो।तभी करोनावाईरस से जीता जा सकता है।अन्यथा भूख से मरने वालो की भी गिनती लगानी पडेगी।जो हमारी सरकार के लिये शर्मिंदा का सबब बनेगा ।

April 16 at 9:04 PM · 
जहां दिग्गज ट्रेड यूनियंस लाकडाउन पर सरकार के साथ कदम - ताल मिला रही हैं एक सर्वथा अज्ञात जागरूक नागरिक ने उत्पीड़ित मजदूरों के हक की आवाज उठाई तो उसे जेल में ठूंस दिया गया ।

पुलिस द्वारा दमन करके महामारी का इलाज किया जाएगा, स्वास्थ्य रक्षा करके नहीं ------
(विजय माथुर )








 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 17 April 2020

कोरोना वायरस महामारी या व्यापारिक राजनीति

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं ) 






Pandemic not as deadly as initially projected: PIO doc
==============================
Chidanand.Rajghatta@timesgroup.com

Washington:
==============================
.
An Indian-American Stanford University professor of medicine has said that the actual death rate from the coronavirus pandemic is “likely orders of magnitude lower than the initial estimates”, the observation coming amid widespread resentment in right-wing circles that matter was exaggerated by those intent on damaging the US economy and undermining the Trump presidency.

While not touching on the political or ideological aspects of the issue, Dr Jay Bhattacharya, who is also the director of the Program on Medical Outcomes at Stanford University, told Fox News on Tuesday that the coronavirus, albeit dangerous because of the speed of transmission and lack of vaccine, isn’t as deadly as was initially projected.

“Per case, I don’t think it’s as deadly as people thought,” Bhattacharya told Fox News host Tucker Carlson. “The WHO put an estimate out that was, I think, initially 3.4%. It’s very unlikely it is anywhere near that. It’s much likely, much closer to the death rate that you see from the flu per case.”

Bhattacharya and his colleague Dr Eran Bendavid, who is also an associate professor of medicine at Stanford and a core faculty member in the Center for Health Policy, maintained in a Wall Street Journal op-ed that initial morality estimates from the coronavirus were “deeply flawed and the way to find the true death rate would be to look at fatalities as a percentage of people who have been infected with the new coronavirus — not just those who are tested and become confirmed cases. If the number of people infected with the virus is much larger than the number of confirmed cases, projections of fatalities would drop substantially.

The WHO, too, has acknowledged more recently that Covid-19 death rate is between 3% and 4% of reported cases, and if the death rate as a percentage of infections is considered (rather than just reported or confirmed cases), it would be lower.

Full report on www.toi.in







असलियत यह है कि, कोरोना वायरस महामारी नहीं केवल साधारण फ्लू है। यू एस ए और चीन गुप्त आर्थिक समझौते के तहत इसकी किट , दवा वगैरह से होने वाले लाभ को ५० - ५० प्रतिशत बाँट लेंगे, स्वभाविक है कि अतिरिक्त लाभ से चीन अधिक अंश का योगदान दे । ऊपर ऊपर दिखावे के लिए यू एस ए चीन पर और चीन यू एस ए पर कटाक्ष कर रहे हैं। लेकिन यू एस ए के अपनी मदद घटाने के साथ ही चीन ने अधिक योगदान का ऐलान करते हुए who की तारीफ की है। सारी दुनिया को मूर्ख बना कर ये दोनों देश अपने - अपने व्यापार / अर्थव्यवस्था को मजबूत बना रहे हैं। ------



If coronavirus infection is more widespread than we thought, by definition that means the virus is less deadly; insight from Dr. Jay Bhattacharya, Stanford University professor of medicine.







 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 15 April 2020

फुटकर व्यापार का बंटाधार ------ पंकज चतुर्वेदी

फुटकर व्यापार का बंटाधार
====================

बीस लाख सुरक्षा स्टोर, कॅरोना और फुटकर व्यापार का बंटाधार
कहते हैं ना कि संकट हो या खुशी हो पूंजीपति की चिंता सरकार भी करती है और समाज भी । जब कोरोना वायरस के कारण पूरा देश हताश और परेशान हैं । कई जगह एक एक रोटी के लिए लोग तरस रहे हैं ,उस समय देश के बड़े घराना अंबानी अदानी टाटा बिरला के लिए सरकार एक ऐसी योजना लेकर आई है जिससे उनकी पौवारा होगी ।
आपके मोहल्ले में के लिए छोटे किराने की दुकान है नाई की दुकान में कपड़े की दुकान में लगभग सब पर ताला लग जाएगा।
ऐसे 2000000 स्टोर पूरे देश में खुले जा रहे हैं जिनको सुरक्षा स्टोर कहा जाएगा। उसमें सभी सुविधाएं होंगी जिनमें नाई की दुकान ब्यूटी पार्लर चश्मे की दुकान मेडिकल स्टोर और कपड़े की दुकान आदि सबको शामिल होगा।
लोगों को मजबूरी होगी कि वह वहीं से सामान खरीदें। पता नहीं लॉक डाउन कितना लंबा चलेगा। इस योजना से तो यही लग रहा है क्योंकि यदि 2000000 स्टोर के लिए कोई पूंजी लगाएगा तो उसकी वसूली के लिए उसे एक लंबा चाहिए
सरकार ने ‘सुरक्षा स्टोर’ खोलने की तैयारी की है। अगले 45 दिन में देशभर में ऐसे 20 लाख सुरक्षा स्टोर संचालन में आ जाने की उम्मीद है। इसके लिए सरकार बड़ी एफएमसीजी कंपनियों के साथ मिलकर आसपास के रिटेल स्टोर को ही सुरक्षा स्टोर में बदलने की व्यवस्था कर रही है। सूत्रों को कहना है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कुछ शर्तो को पूरा करने वाला कोई भी किराना स्टोर ‘सुरक्षा स्टोर’ बनने के लिए आवेदन कर सकेगा। सुरक्षा स्टोर में सिर्फ किराना दुकानों को ही नहीं बल्कि टिकाऊ उपभोक्ता उत्पाद की दुकानों, कपड़ों और सैलून को भी शामिल करने की योजना है। इन दुकानों पर साफ-सफाई और एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने से जुड़ी हर तरह की एहतियात बरती जाएगी। इन दुकानों को डिसइंफेक्टेंट भी किया जाएगा।
दुकानदारों को ग्राहकों के दुकान में घुसने से पहले हैंड सैनिटाइजर या हाथ धोने, सभी स्टाफ के लिए मास्क और ज्यादा छूने में आने वाले स्थानों को दिन में दो बार डिसइंफेक्टेंट करने की व्यवस्था करनी होगी। योजना को लागू करने के लिए सरकार निजी कंपनियों को शामिल करेगी। यह कंपनियां हर तरह के प्रोटोकॉल का पालन सुनिश्चित करेंगी। साथ ही अनिवार्य वस्तुओं के विनिर्माता के यहां से सामान लेकर खुदरा दुकानों तक उनकी सुरक्षित पहुंच भी सुनिश्चित करेंगी।
सूत्रों ने बताया कि उपभोक्ता मामलों के सचिव पवन कुमार अग्रवाल के साथ टॉप एफएमसीजी कंपनियां एक दौर की बैठक कर चुकी हैं। यह सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के साथ लागू की जाने वाली महत्वाकांक्षी योजना है। प्रत्येक एफएमसीजी कंपनी को इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए एक या दो राज्यों की जिम्मेदारी दी जा सकती है। अग्रवाल ने सुरक्षा स्टोर की दिशा में काम करने की जानकारी तो दी है, लेकिन विस्तार से कुछ नहीं बताया। एक प्रमुख एफएमसीजी कंपनी के शीर्ष अधिकारी ने इस योजना की पुष्टि की है। अधिकारी ने बताया कि 50 से ज्यादा बड़ी एफएमसीजी कंपनियों से संपर्क किया गया है। कंपनियां इस योजना में सरकार का साथ देने के लिए तैयार हैं।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10219866030674560&set=a.10200356239501974&type=3