Wednesday 9 September 2020

रिया-सुशांत की कहानी इस शोषणकारी डूबती अर्थव्यवस्था की कहानी है ------ सीमा आजाद


अर्थव्यवस्था और रिया-सुशांत फिल्म का काला जादू
कुछ ही सप्ताह पहले तक देश भर में लगे लॉकडाउन की भयावहता के दृश्य छाये हुए थे। शहरों में काम करने वाले गांवों के मजदूर इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आये थे, कि मीडिया को अपना कैमरा उधर घुमाना ही पड़ गया। हर जगह यही चर्चा थी कि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को लॉकडाउन ने और खस्ताहाल बनाया है या यह खस्ताहाल स्थिति लॉकडाउन की वजह से आयी है। दोनों की स्थितियों के लिए सरकार पर सवाल उठ रहे थे। नौजवानों के अन्दर कितना गुस्सा भर चुका है यह 5 सितम्बर की थाली-ताली से समझा जा सकता है। हर जगह यह चिन्ता थी कि अब आगे क्या होगा, भविष्य की भयावहता डरा रही थी।
मार्च 2020 के पहले वाले जीवन में लोग जब अपने रूटीन काम से ऊब जाते थे, तो सब कुछ भुलाने के लिए सीरियल या फिल्म देख लिया करते थे। फिल्म देखने के दौरान और उसके आगे-पीछे के समय में भी काफी देर तक इंसान अपनी परेशानियों से बाहर निकलकर फिल्म की चमकीली दुनिया में, पोशाक और मेकअप में खोया रहता है। लेकिन अभी फिल्मे बंद हैं और टीवी पर कितना भी चीन पाकिस्तान चिल्लाया जाय, अर्थव्यवस्था के रसातल में जाने का असर दिख ही जाता है। ऐसी स्थिति में सुशांत-रिया मामला एक ऐसी फिल्म के रूप में लोगों के सामने पेश कर दिया गया है, जिसमें हीरो-हिरोइन, खलनायक-खलनायिका, प्यार-धोखा, सेक्स और सस्पेंस सब कुछ है। बताने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म का प्रोड्यूसर सरकार और वितरक मीडिया है। इन मीडिया वितरकों के माध्यम से यह फिल्म/सीरियल घर-घर में देखा जा रहा है। लोगों ने अपनी-अपनी समझ के हिसाब से नायक/नायिका और खलनायक/खलनायिका चुन लिया है। देश की अर्थव्यवस्था के गर्त में जाने की चर्चा इसके बहुत पीछे छूट गयी है। इसका असर इतना व्यापक है कि काफी समय तक जो लोग इस फिल्म के प्रकोप से बच रहे थे या भाग रहे थे, वे भी इसे देखने के लिए और अपने नायक/नायिका, खलनायक/खलनायिका चुनने के लिए मजबूर हो गये हैं। फिल्म की महिला पात्र के साथ जिस तरीके का ट्रीटमेंट किया जा रहा है, प्रगतिशील लोगों का उसके पक्ष में आवाज उठना स्वाभाविक है, आवाज उठी भी। इसके पहले भी मीडिया कईयों के साथ यूं ही गिद्ध चाल दिखा चुका है। रिया पर इस तरीके से टूट पड़ने का दृश्य सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद एक पुराना दृश्य फिर से घूम रहा है, जब 2007 में बच्चों से यौनकर्म कराने के आरोप में एक शिक्षिका को भीड़ और मीडिया ने न सिर्फ घसीटा, बल्कि उसके कपड़े भी फाड़ दिये थे। याद करेंगे तो और कई ऐसे दृश्य और घटनायें याद आयेंगे। मीडिया के इस गिद्ध चरित्र को भी नायक पक्ष के लोगों ने सही माना, दूसरी ओर इसके बाद ही रिया के पक्ष में लिखने बोलने वालों की संख्या बढ़ गयी। मीडिया द्वारा वितरित इस फिल्म को फॉलो करने वालों और इस पर बोलने वालों की संख्या बढ़ गयी। (यह लिखकर मैं भी इसमें शामिल हो गयी) इसी बीच भीमा कोरेगांव साजिश केस में कबीर कलामंच के तीन कलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें एक ज्योति जगताप को पुलिस ने पीछा करते हुए पकड़ा है, लेकिन यह सुशांत-रिया की फिल्म में कहीं दब गया। हवाई अड्डे बिक गये, शिक्षा को बरबाद और लोगों को अशिक्षित करने वाली शिक्षा नीति आ गयी, रेलवे बेंच दिया गया, एलआईसी बेंचने की तैयारी है, श्रम कानून खतम हो गये। लाखों लोग एक झटके में सड़क पर आ गये, अर्थव्यवस्था डूब चुकी है, लेकिन इन सब पर बातों और चर्चा की जगह सुशांत-रिया की इस सरकारी फिल्म ने ले लिया है।
सुशांत-रिया इस समाज का हिस्सा हैं, इसलिए उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन ऐसे समय में ये चुनाव का मुद्दा बन जाय, तो इसे कोई बड़ी साजिश ही कही जा सकती है। काला जादू रिया ने सुशांत पर नहीं सरकार ने मीडिया के माध्यम से हम पर किया है, जिसके कारण हम सच्चाई देखना भूल गये हैं। रिया-सुशांत की कहानी इस शोषणकारी डूबती अर्थव्यवस्था की कहानी है। यह बॉलीबुड के चमक-धमक के पीछे बहते गन्दे गटर की कहानी है। राजदीप सरदेसाई को दिये गये रिया के इण्टरव्यू में दरअसल उसके सही होने की बात से ज्यादा इसी गटर की कहानी है। जहां इफरात पैसा है, और यह पैसा सिर्फ फिल्म की कमाई का पैसा नहीं है। जहां नशे का बड़ा व्यापार है, जिसमें इण्डस्ट्री के ज्यादातर लोग किसी न किसी रूप में शामिल हैं। जहां पैसे से पैसे को खींचने के लिए कम्पनियां (सुशांत रिया और शौविक ने आर्टिफीशिएल इंटेलिजेंस कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कराया) और एनजीओ खोलते जाने का धन्धा है। जहां सफल लोगों के कदमों में हर सुख-सुविधा है, लेकिन उनका जीवन कई मनोचिकित्सकों के भरोसे और नींद किसी नशे के भरोसे है। जहां बेइन्तहां पैसा खर्चकर लोग विदेश जाते हैं कि वहां वे सड़क पर घूमेंगे, लेकिन किसी अनजाने डर से खुद को कमरे में बन्द कर लेते हैं। ये किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं, इस ग्लैमर की दुनिया के पीछे का सच है, जो समय-समय पर किसी न किसी के माध्यम से बाहर आता रहता है। कभी परवीन बॉबी, कभी संजय दत्त तो कभी सुशांत या रिया। जहां महिलाओं के शारीरिक शोषण की खबरें भी आती रहती हैं और ये यहां के लिए आम बात मानी जाती है। रिया भले ही अपनी लड़ाई को पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई कह रही हैं, लेकिन अपने इण्टरव्यू में पितृसत्तात्मक लम्पटई के खिलाफ खड़े हुए ‘मी टू’ आन्दोलन के प्रति उनका नजरिया सकारात्मक नहीं लगता। ‘मी टू’ आन्दोलन के समय भी फिल्म इण्डस्ट्री के इस गटर की बदबू सामने आई थी, जिसे खुशबू छिड़ककर दूर करने की कोशिश की गयी। रिया सुशान्त की कहानी को इस समाज की इस ‘एलीट’ संस्था के एक नमूने के तौर पर ही देखना चाहिए। यह ऐसी संस्था है, जो हो सकता है अपने अन्दर की इस कहानी पर ही जल्द ही फिल्म बनाकर कमाई कर डाले।
पूरे देश की अर्थव्यवस्था डूबने का असर फिल्म इण्डस्ट्री पर भी हुआ है, लॉकडाउन ने इस कहर को और बढ़ाया है, बहुत सारे कलाकारों के अवसाद में जाने की खबरें लगातार आ रही हैं। हो सकता है सुशांत की मौत भी उसका हिस्सा हो।
जो भी हो, मीडिया में धारावाहिक के रूप में प्रसारित हो रही इस फिल्म ने क्योंकि सरकार की नाकामी की बहस को पीछे छोड़ने का काम किया है, क्योंकि यह इस समय में बिहार चुनाव और महाराष्ट्र की राजनीति का केन्द्रीय मुद्दा बन गया है, जब रोजगार का सवाल एक बड़ा सवाल है। क्योंकि यह दो-तीन हिन्दुत्ववादी राजनीति पार्टियों का फुटबाल मैच हो गयी है, क्योंकि हम इसके कारण अपने हालात भूल बैठे हैं इसलिए इसपर सवाल तो उठता ही है कि यह मुद्दा था या सरकार हम पर काला जादू करने के लिए इस धारावाहिक फिल्म का प्रसारण कर रही है।
इस काला जादू से जितनी जल्दी निकल जायं, उतना अच्छा है। 
सीमा आज़ाद
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