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Friday, 1 November 2013

पद्मश्री के॰पी॰ सक्सेना का महाप्रयाण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की आपूरणीय क्षति है --- सुधाकर अदीब

हिन्दी गौरव, पद्मश्री के॰पी॰ सक्सेना ने आज 31 अक्टूबर 2013 को प्रातः 8.45 बजे इस सरायफ़ानी को आखिरकार अलविदा कहा। उनका महाप्रयाण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की आपूरणीय क्षति है और मेरे लिए तो यह व्यक्तिगत क्षति भी है। एक बेहद गंभीर, भावुक, आस्थावान और स्नेहमय व्यक्तित्व का नाम के पी सक्सेना। हिन्दी व्यंग्य के अप्रतिम एवं स्वर्णिम हस्ताक्षर का नाम के पी सक्सेना। अपनी चटकीली अदायगी में व्यंग्य रचनाओं को पढ़कर बेतरह गुदगुदाने वाले केपी (ये उनके प्रशंसकों का दिया प्यार भरा नाम था) अपने निजी जीवन में उतने ही संजीदा व्यक्ति थे।... भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनन्य पुजारी ... रामकथा के मर्मज्ञ विद्वान ... दार्शनिक ... चिंतक ... वैज्ञानिक ... उन्हें नजदीक से जानने वाले उन्हें उनकी बहुत सी ख़ूबियों सहित जानते-बूझते थे।

वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हस्तलिपि फूलों से भी सुंदर। हिन्दी अंग्रेज़ी और उर्दू तीनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले केपी ने अभिव्यक्ति के जितने भी दृश्य और श्रव्य माध्यम हो सकते हैं सबमें उत्कृष्ट साहित्य की रचना की। पत्र-पत्रिकाएँ-काव्यमंच-आकाशवाणी-दूरदर्शन और हिन्दी फिल्म जगत सभी जगह उन्होने हिन्दी के इस तरह झंडे गाड़े जो किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं। लखनऊ का अदब तो केपी सक्सेना का लोहा मानता ही था उनकी कलम की मुरीद मुंबई फिल्म इंडस्ट्री भी हुई जब अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्होने 'हलचल' 'लगान' 'स्वदेश' और 'जोधा अकबर' जैसी सफल फिल्मों के खूबसूरत और दमदार संवाद लिखे। उन्हें भारत सरकार ने 'पद्मश्री' सम्मान प्रदान किया और हाल ही में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उन्हें 'हिन्दी गौरव' देकर स्वयं गौरवान्वित हुआ। वास्तव में केपी सक्सेना का व्यक्तित्व और कृतित्व किसी भी सम्मान और पुरस्कार से बड़ा था।

... और उर्दू भाषा और अवध की तहज़ीब के तो वह ऐसे विशेषज्ञ कि ' बीवी नातियों वाली' से लेकर नई नवेली दोशीज़ाएँ भी केपी की शीरीं ज़ुबान पर फ़िदा हुए बिना रह ही नहीं सकतीं। तभी तो केपी के दोस्त 'मिर्ज़ा' उनसे यूं ही परेशान थोड़े ही रहते थे।

केपी सर से मेरा प्रथम संपर्क सन 2003 में मेरे तृतीय उपन्यास 'हमारा क्षितिज' के लोकार्पण से कुछ दिन पूर्व हुआ। वह मेरे अनुरोध पर फ़ैज़ाबाद में इस उपन्यास के लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। इस समारोह में ज़ाहिर है कि केपी हीरो थे और मैं था उनका साइड हीरो। लोकार्पण के बाद सभी दर्शकों ने उनसे उनका कोई व्यंग्य सुनाने कि फ़र्माइश की। केपी ने प्रारम्भ में काफी नानुकुर की और कहा कि वह 20 वर्षों से सार्वजनिक मंचों से व्यंग्य पाठ करना छोड़ चुके हैं। फिर भी हमारे भारी आग्रह पर उन्होने अपना " इन्कम टैक्स का छापा पड़ने वाला " सुप्रसिद्ध व्यंग्य सुनाया अपने चिर-परिचित अंदाज़ में । उनका एक-एक वाक्य और जनता लोट-पोट। क़हक़हों का वह दौर चला कि हँसते हँसते लोगों की आँखों में आँसू आ गए। ... अब क्या कहूँ ? उन्हीं महान व्यंग्यकार केपी सक्सेना को मैंने ज़ार ज़ार रोते हुए भी देखा है। मेरा चौथा उपन्यास 'मम अरण्य' गतवर्ष 2012 में आया। इस उपन्यास के 'सीता कि अग्नि परीक्षा' विषयक प्रसंग को मुझसे सुनकर केपी मेरे समक्ष फूट फूट कर रोये। तब मैंने कुछ-कुछ जाना उनके भीतर के उस अत्यंत भावुक और गंभीर इंसान को।

इसी वर्ष 2013 में प्रकाशित अपने पांचवें हिन्दी उपन्यास 'शाने तारीख़' कि पाण्डुलिपि भी लेकर उनके पास गया। अब वे बेहद बीमार थे। पर शेरशाह सूरी पर उपन्यास है, जानकार वह बेहद खुश हुए और उन्होने उसके कुछ अंश सुनकर मुझे ढेरों आशीर्वाद दिये। अब वही दुआएं मेरा सरमाया हैं । 81 वर्ष की उम्र में भी साहित्य जगत के सदाबहार 'देवानन्द' के॰पी॰ सक्सेना हमेशा अमर रहेंगे। उन्हें मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।
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जहां एक ओर डॉ सुधाकर अदीब साहब का वर्णन के पी सक्सेना साहब के सकारात्मक एवं भावुक पक्ष पर प्रकाश डालता है वहीं हिंदुस्तान में प्रकाशित वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है की बाटनी जैसे साईन्स के विषय के ज्ञाता होकर भी सक्सेना साहब पोंगा-पंथ में विश्वास(हनुमान को इष्ट देव मानते थे) रखते थे।काफी सम्मान अर्जित करने के बाद भी उनको उत्तर प्रदेश द्वारा सम्मानित किए जाने की ख़्वाहिश थी। हो सकता है हिंदुस्तान का वर्णन सही हो।  हमारे लखनऊ का वह गौरव   थे अतः हम उन पर नाज़ कर सकते हैं। 
(विजय राजबली माथुर)