Hemant Kumar Jha
वे एक महीने की तो क्या, एक साल की हड़ताल पर चले जाएं, मन हो तो ज़िन्दगी भर की हड़ताल पर चले जाएं, उस पहिये की चाल की दिशा नहीं बदल सकते जिसमें उन्होंने खुद हवा भरी है। उनकी अहमियत पहिये में हवा भरने तक ही थी, बाकी... उसकी चाल को दिशा देने वाला तो कोई और है और वह अपनी मनमाफिक दिशा दे रहा है।आयुध निर्माण फैक्ट्रियों के तमाम कर्मचारी एक महीने की हड़ताल पर हैं। सरकार उनकी फैक्ट्रियों का निगमीकरण करने वाली है जो निजीकरण की ओर पहला कदम है।
अब ऐसा है कि हथियार के व्यापार में प्रचुर मुनाफा है। वैसे ही, जैसे शिक्षा के व्यापार में, चिकित्सा के व्यापार में बहुत मुनाफा है।
तो...जिस भी क्षेत्र में प्रचुर मुनाफा की संभावना है उसका निजीकरण होगा। जितनी मर्जी हो, विरोध में सड़कों पर नारे लगा लो,धरना-प्रदर्शन कर लो।
जब बीएसएनएल का निगमीकरण हुआ था तो कर्मचारियों ने विरोध जताया था। कुछ फर्क नहीं पड़ा। देखते-देखते सरकारों ने बीएसएनएल का भट्ठा बैठा दिया, कर्मचारी लकीरें पीटते रह गए। आज उसमें कर्मियों के वेतन के लाले पड़े हैं और कल को पैदा हुई निजी दूरसंचार कंपनी चांदी कूट रही है। बीएसएनएल की अकाल मौत में किसी को कोई संदेह नहीं रहना चाहिये।
तय मानिये कि जिन आयुध निर्माण इकाइयों के निगमीकरण का प्रस्ताव है, वे अगले कुछ वर्षों में रुग्ण होंगी। फिर, उनकी उत्पादकता और उपादेयता पर सरकार के आर्थिक सलाहकारों की प्रतिकूल टिप्पणियां आएंगी। फिर उनमें विनिवेश का प्रस्ताव आएगा। फिर वे निजी हाथों में सौंप दी जाएंगी। खुद को भारत सरकार का कर्मचारी मान कर आश्वस्ति की छाया में जीने वाले लोग एक दिन अपने को किसी मुंगरी साहू के कारिंदे के रूप में पाएंगे।
दरअसल, हमारी पूरी पीढ़ी कालिदास की उस मिथकीय कथा की तरह उसी डाल को काटने में जुटी है जिस पर वह बैठी है। तो, अचानक धड़ाम से गिरने में आश्चर्य कैसा?
यह कोई छुपा तथ्य नहीं था कि माननीय नरेंद्र मोदी दोबारा सत्ता में आएंगे तो निजीकरण ही नहीं, अंध निजीकरण का दौर आएगा। क्या आयुध निर्माण, क्या दूरसंचार, क्या रेलवे, बैंक, बीमा, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय। कोई क्षेत्र नहीं बचेगा।
खुली आँखों से देखा जा सकता था कि कारपोरेट की प्रमुख शक्तियां और कारपोरेट संचालित मीडिया मोदी जी को दोबारा सत्ता में लाने के लिये कितने बेचैन हैं। चुनाव नजदीक आते-आते मीडिया की हालत तो यह हो गई थी कि सत्ता की दलाली में दिन भर टीवी स्टूडियो में बैठ कर चीखते एंकर/एंकरानियों को घर लौटने पर अपने घर वालों से नजरें मिलाने में भी कलेजा मजबूत करना पड़ता होगा। आखिर, दलाली आज भी इस देश में सम्मानित पेशा तो नहीं ही है।
सब कुछ खुली आँखों से देखा जा सकता था। तो...जब मोदी जी दोबारा आ ही गए और, क्या खूब आए दोबारा...तो जो हो रहा है उसमें क्या आश्चर्य?
और जब कोई आश्चर्य नहीं तो फिर ये कैसी हड़ताल? बचपन से ही हम कहावत सुनते आए हैं..."बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय"।
पता नहीं, सर्वे का क्या तरीका हो सकता है, लेकिन अगर कोई विश्वसनीय सर्वे हो तो पता चलेगा कि आज जो ये आयुध कंपनियों के बाबू लोग हड़ताल कर रहे हैं और अपने तथा बाल-बच्चों के भविष्य को लेकर आशंकित हैं, उनमें से 80 प्रतिशत लोगों की राजनीतिक रुझान किस ओर रही थी और क्यों रही थी।
'देश'...'देशभक्ति'...'राष्ट्रवाद'...आदि की परिभाषाओं के विकृत होने का यह दौर है। अगर हम समझने से इन्कार करें तो पूरी व्यवस्था के ढहने के जिम्मेवार हम क्यों नहीं होंगे।
तो...ढहती हुई व्यवस्थाओं के मलबों को देखिये। बात सिर्फ एक पार्टी या एक नेता की नहीं है। बात उस रास्ते की है जिसे हमने अपनी नियति मान लिया है। जिन नीतियों पर हम ढाई-तीन दशकों से तालियां बजाते रहे, आज उसकी आंच हमारे घरों तक पहुंच गई तो हड़ताल...??? यह कैसे चलेगा?
रिपोर्ट्स बता रहे हैं कि अगले 20-21 वर्षों में सरकारी प्रारंभिक स्कूल खत्म हो सकते हैं क्योंकि उनमें पढ़ने वाले बच्चे ही नहीं मिलेंगे। निजी स्कूलों का जाल सरकारी प्रारंभिक शिक्षा-तंत्र को लील जाएगा। सरकारें भी ऐसा ही चाहती हैं। सोचने की बात है कि अगले 20-21 वर्षों में पब्लिक सेक्टर के बैंकों की हालत क्या होगी। क्या उन्हें निजीकरण का जाल लील नहीं जाएगा? ऐसे ही अन्य अनेक क्षेत्र हैं जो निजीकरण के अंधेरों में गुम होने वाले हैं और उनकी कब्र पर निजी पूंजी की जगमगाहट होगी।
नहीं, निजीकरण उत्कृष्ट उत्पादकता और गुणवत्ता की अंतिम या एकमात्र गारंटी नहीं है। यही आयुध निर्माण इकाइयां दशकों से भारत की हथियार जरूरतों का बड़ा हिस्सा मुहैया कराती रही हैं और इनकी उत्पादकता या गुणवत्ता पर कभी कोई सवाल नहीं उठे।
महाशक्ति बनने की ओर कदम बढ़ाते भारत के निर्माण में सरकारी निर्माण केंद्रों, सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी शोध संस्थानों की भूमिका को कम करके आंकना भारत की आत्मा का हनन होगा। क्या इसरो निजी क्षेत्र में है? क्या आईआईटी, जेएनयू, बीएचयू, एएमयू, आईआईएम निजी हैं जिनके जोड़ का कोई संस्थान निजी क्षेत्र में अब तक नहीं आ सका?
मुनाफा आधारित संस्थान किसी भी सभ्यता के अंग तो हो सकते हैं लेकिन उसके आदर्श नहीं हो सकते।
लेकिन, यह दौर छद्म को सत्य के रूप में स्थापित करने का दौर है। हमें लगातार बताया जा रहा है कि निजीकरण में ही विकास है, इसी में निर्धनता का निवारण है, इसी में मुक्ति है। कोई यह नहीं बताता कि निजी पूंजी कितनी बर्बर साबित हो सकती है।
हमने खुद यह रास्ता चुना है। खुद को, अपनी आने वाली पीढ़ियों को निजी पूंजी का गुलाम बनाने का रास्ता। इसलिये, हमने ऐसा नेता चुना है जो निजी पूंजी के बढ़ते साम्राज्य का सबसे बड़ा पैरोकार है।
तो...हमारा नेता अपना काम कर रहा है। फिर...यह हड़ताल कैसी? इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं। निर्णायक क्षणों में चूक करने वाली पीढियां अपना जीवन तो कठिन बनाती ही हैं, आने वाली पीढ़ियों का जीना भी दुश्वार कर देती हैं। हमने यही किया है।
साभार :
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