Monday, 5 September 2011

शिक्षक दिवस पर

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प्रस्तुत कविता 1954 मे प्रकाशित पुस्तक 'सरल हिन्दी पाठमाला' से उद्धृत है जिसे बनारस वासी( 'सुखी बालक'के सहायक संपादक) रमापति शुक्ल जी ने हास्य-रचना के रूप मे प्रस्तुत किया था । आपकी यह कविता रूढ़ीवादी शिक्षा-प्रणाली पर तीव्र व्यंग्य है । बालोपयोगी कविताओं की रचना मे शुक्ल जी सिद्ध हस्त रहे हैं ।

शिक्षक दिवस पर उनकी इस रचना को विशेष रूप से आपके समक्ष रख रहे हैं ।







 क्या आज भी ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है?क्या ऐसा उचित था?या है?




(संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर)

1 comment:

  1. "अरे गुरूजी का वह डंडा", ये वाकई में बहुत मज़ेदार है सर| और यथार्थ से जुडा हुआ भी | डंडे से तो सबको डर लगता है| बचपन में मैंने भी अपनी राइटिंग के पीछे बहुत डंडे खाए हैं, पर आज तक नहीं सुधरी |

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