Wednesday 13 January 2016

युद्ध कभी विकल्प नहीं होता ------ संजय सिन्हा



आप मुझे कायर कहिए। आप मुझे डरपोक कहिए। पर आप प्लीज़ युद्ध की दुआ मत कीजिए। 
आपने युद्ध की रिपोर्टिंग नहीं की है। मैंने की है। 
मैं कारगिल युद्ध का चश्मदीद हूं। मैं उस मेजर पुरुषोत्तम की मौत का भी चश्मदीद हूं, जिसकी चर्चा कल यूं ही अपने फेसबुक परिजन Rajeev Chaturvedi ने कर दी थी। मैं नहीं जानता था कि चतुर्वेदी जी मेजर पुरुषोत्तम को जानते भी होंगे। 
तब मैं ज़ी न्यूज़ में रिपोर्टिग करता था। मेरे बॉस ने मुझे एक शाम बुला कर कहा कि संजय, तुम्हें कल कारगिल के लिए निकलना है। वहां पाकिस्तानी घुसपैठिए घुस आए हैं। 
मैंने सुबह इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट ली। उड़ान भरने के साथ ही एयर होस्टेस की ओर से अनाउंसमेंट हुई कि विमान की सारी खिड़कियां बंद रखें। मतलब खुले आसमान को देखने पर रोक लगा दी गई थी। 
हम कब जम्मू पहुंचे, पता ही नहीं चला। जम्मू में भी हमें बाहर देखने की मनाही थी। हमारा विमान श्रीनगर पहुंचा। वहां से सीधे हम लाल चौक स्थित अहदूस होटल पहुंचे। 
अब हमें कारगिल के लिए निकलना था। 
पर कारगिल जाने के लिए तब कोई तैयारी नहीं थी। हमारे साथ उसी होटल में और भी कई पत्रकार ठहरे थे। 
किसी पत्रकार ने बताया कि संजय, कल तुम मेरे साथ बादामीबाग छावनी चलना। वहां मेजर पुरुषोत्तम से मिलना। वो सेना के जनसंपर्क अधिकारी हैं। वो पत्रकारों की खूब मदद करते हैं। 
मैं मुस्कुराया।” अच्छा! तो कल रात जो रम की बोतल तुम्हारे कमरे में थी, वो वहीं से आई है।” मेरे पत्रकार साथी के होठों पर चार इंच लंबी मुस्कुराहट दौड़ गई। 
मैं अगली सुबह बादामीबाग छावनी में था। 
मेरे सामने एक मुस्कुराता हुआ नौजवान खड़ा था। 
“हैलो, मिस्टर सिन्हा, मैं मेजर पुरुषोत्तम।”
“जी आपकी बहुत तारीफ मैंने सुनी है।”
“पता नहीं तारीफ वाली क्या बात है, पर आपको जब भी यहां श्रीनगर में किसी चीज की ज़रूरत हो, तो आप मुझसे बिना किसी पूर्व सूचना के भी मिल सकते हैं।”
“फिलहाल तो मैं सिर्फ कारगिल जाना चाहता हूं। अगर सेना की कोई गाड़ी जा रही हो तो मुझे बता दें।”
“ओह! अभी तुरंत तो संभव नहीं। पर मैं आपको भिजवा दूंगा। अभी आप अहदूस में ही आराम कीजिए। श्रीनगर के मज़े लीजिए।”
“श्रीनगर में मज़ा कैसा? यहां तो हर जगह तनाव ही तनाव है। लाल चौक पर तो आए दिन फायरिंग होती है।”
“ओह! आप इतने से घबरा गए। हमें देखिए, न जाने कब हम पर हमला हो जाए। हमें तो जरा भी घबराहट नहीं होती। जनाब, ये श्रीनगर है। यहां तो पानी में भी इतना लोहा है कि लोहा भी डर जाए।”
“मेजर साहब, आपको तो शायर होना चाहिए था। कहां फौज में फंस गए!”
“यार सिन्हा, फौज से अच्छी कोई नौकरी नहीं। यहां आदमी पूरे टिप-टाप में रहता है। गोली लग जाए और आदमी मर भी जाए तो एकदम टिप-टाप मरता है। किसी सैनिक को तुमने कभी बिस्तर पर पड़े-पड़े खांसते हुए मरते देखा है? एक सैनिक को आप संसार के किसी कोने में भेज दीजिए, वो खुद को फंसा हुआ महसूस नहीं करता। और ये तो कशमीर है। वही कश्मीर जिसके लिए कहा जाता है कि अगर संसार में कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। 
मैं स्वर्ग में हूं।”
***
आम तौर पर मेरे सभी साथी मुझे संजय ही बुलाते थे। लेकिन पहली बार कोई मुझे सिन्हा नाम से संबोधित कर रहा था। 
पहली ही मुलाकात में मैं समझ गया था कि पुरुषों में उत्तम ये शख्स जो पुरुषोत्तम नाम से जाना जा रहा है, वो है बहुत बिंदास और दिलचस्प आदमी। 
मेरी समझ में ये बात भी आ चुकी थी अगर मुझे कारगिल तक पहुंचना है, तो यही आदमी मदद कर सकता है।। 
***
वो गर्मी का मौसम था। श्रीनगर में भी ठंड नहीं थी। हम अहदूस होटल से निकलते, दिन भर श्रीनगर और आसपास के इलाकों में घूमते और कारगिल जाने को बेचैन रहते। अगले दिन मेजर पुरुषोत्तम का फोन आया। “सिन्हा, कल तुम अपनी कैमरा टीम तैयार रखना। कारगिल निकलना है।” 
बाकी की कहानी आपको मुझसे अधिक पता है। सैनिक वहां सिर्फ दुश्मनों से लोहा भर नहीं ले रहे थे, हम पत्रकारों की भरपूर मदद भी कर रहे थे। 
कारगिल से टीवी पर खूब रिपोर्टिंग हुई। हमारे दफ्तर को अंदाज़ा था कि कारगिल में काफी मुश्किल हालात हैं, इसलिए उन्होंने कई रिपोर्टरों की टीम बना दी और ये तय हुआ कि एक टीम दिल्ली वापस बुलाई जाए और दूसरी टीम वहां भेज दी जाए। ऐसा ही हुआ। 
मैं कारगिल से वापस श्रीनगर पहुंचा, दिल्ली से दूसरी टीम वहीं अहदूस होटल पहुंच चुकी थी। 
मेरे साथी ने मुझसे पूछा कि कारगिल कैसे पहुंचना होगा। 
मैंने मुस्कुराते हुए कहा कि अपने मेजर पुरुषोत्तम हैं न! वो बताएंगे। 
शाम को मैं अपने साथी को लेकर मेजर से मिलने गया। मेजर एकदम प्रसन्न भाव से मिले। “चिंता न करो, जी। भिजवा देंगे। बताओ क्या लोगे?” 
“चाय।”
“यार, चाय भी लेने की चीज है?”
मेरे दोस्त ने मुझे कोहनी मारी। यार मैं तो दिल्ली से निकला था बहुत टेंशन में कि पता नहीं श्रीनगर में क्या हालात हों। एयरपोर्ट से होटल तक पहुंचने में मेरी जान निकली पड़ी थी। दिल्ली में बैठ कर और टीवी पर खबरें देख कर तो मेरा दम निकला पड़ा था। पर यहां तो मेजर साहब से मिल कर सारी टेंशन गायब हो गई। मैंने कहा कि हां, मैं भी पहली बार सेना के इस जनसंपर्क अधिकारी से मिला हूं। ये बंदा बड़ा खुशदिल है। और सबसे बड़ी बात कि मीडिया फ्रेंडली है। 
अपने साथी को मेजर से मिलवा कर मैं दिल्ली के लिए निकल पड़ा। 
***
जहां तक मुझे याद आ रहा है, कारगिल का युद्ध खत्म हो चुका था। हम जीत गए थे। आज मैं यहां ये बयां नहीं करने जा रहा कि कितने सैनिक हमारे शहीद हुए थे। कितनी लाशें मैंने खुद देखी थीं। कारगिल की कितनी विधवाओं से मैं खुद मिला था। कइयों के छोटे-छोटे बच्चों को मैंने मां से ये पूछते हुए खुद सुना था कि मम्मी, पापा की फोटो टीवी पर क्यों आ रही है।
टीवी मीडिया उन दिनों नया-नया था। एक-एक कर सारी टीमें वहां गई थीं। खूब रिपोर्टिंग हुई। कभी लिखने बैठा तो मैं तब सेना अध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक के साथ एकदम अकेले सीमा तक की उन यात्राओं और यादों को भी जरूर आपसे साझा करूंगा कि एक सैनिक को शहीद कह देना जितना आसान होता है, उसके पीछे की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं रह जाती है। पर फिलहाल उसका वक्त नहीं है। फिलहाल तो वक्त है मेजर पुरुषोत्तम की कहानी सुनाने का।
***
युद्ध खत्म हो चुका था। पर श्रीनगर भितरघात का शिकार था। आतंकवाद अपने चरम पर था। हालात का जायजा लेने के लिए हम एक बार फिर श्रीनगर में थे। फिर उसी अहदूस होटल में। लाल चौक पर आए दिन धमाके हुआ करते थे। पर हमें किसी बात का डर नहीं था। अपने पास मेजर पुरुषोत्तम थे। 
मैं दिन भर रिपोर्टिंग करता और शाम को मेजर से मिलता। मेजर साहब अब मीडिया के लिए सेना वाले नहीं रह गए थे। वो हमारे लिए मीडिया मैन बन गए थे। उनके पास दिन भर पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता। संसार की सारी खबरें उनके पास होतीं। मैंने कई बार देखा, कोई नया पत्रकार कहीं से उनका नाम पूछता हुआ उनके पास पहुंचता, तो वो उससे ऐसे मिलते, मानो वर्षों से जान पहचान हो। वो बहुत मजबूती से हाथ मिलाते। पहली मुलाकात में ही ऐसा लगता कि बंदे में दम है। इतनी गर्मजोशी उनके चेहरे पर होती कि आदमी ये भूल जाता कि वो फिलहाल जिस शहर में है, वो बारूद के ढेर पर है। हम बादामी बाग इलाके में होते, तो लगता कि यहां कोई क्या कर लेगा। ये तो श्रीनगर की सबसे महफूज जगह है।
अब श्रीनगर में सर्दी शुरू हो चुकी थी। हमें मेजर से मिलना था। 
तभी खबर आई कि आतंकवादियों ने बादामी बाग छावनी पर हमला कर दिया है। 
“बादामी बाग? वहां कोई कैसे घुस सकता है। वो तो सैनिकों का इलाका है। यार वहां तो मेजर पुरुषोत्तम भी होंगे।”
“नहीं यार, वो नहीं रहे। कुछ पत्रकार वहां उनसे मिलने गए हुए थे। वो उनके साथ बैठे थे। तभी अचानक गोलियों की आवाज़ आई। 
मेजर को अपनी चिंता नहीं थी। उन्हें चिंता थी तो बस अपने पत्रकार साथियों की। उन्होंने पता नहीं कैसे, लेकिन सभी पत्रकारों को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और खुद उन आतंकवादियों से लोहा लेने लगे। इसी हमले में हमारा मेजर शहीद हो गया। उसके साथ कुछ और जवान भी शहीद हुए हैं।”
हमारा खबरची मुझे बता रहा था। मेरे कान सुन्न पड़ चुके थे। 
जबलपुर का वो नौजवान, जो कहता था कि एक सैनकि को कहीं भी भेज दो, वो खुश रह लेगा, अब नहीं है?
कारगिल में किसी पहाड़ी पर चढ़ कर सीमा पार से बम लुढ़का कर भारत की सीमा में गिरा देना आसान था। पर यहां श्रीनगर में एकदम सेना की नाक के नीचे भला कैसे कोई इस तरह गोला-बारूद से लैस होकर घर में घर में घुस कर हमला कर सकता है? दुश्मन तो सीमा पार था, पर यहां कौन?
***
मेजर पुरुषोत्तम मेरी यादों से कभी मिटे ही नहीं। मेरी क्या, मुझे लगता है कि जो भी पत्रकार कारगिल वार के दिनों में श्रीनगर गया होगा, उसकी यादों में मेजर पुरुषोत्तम बसे होंगे। 
पर कल जब मैंने कहा कि नीतिविहीन रणनीति एक ऐसी आग है, जिसकी लपटें दुश्मनों की तुलना में खुद को अधिक जलाती हैं, इसलिए युद्ध को कभी विकल्प नहीं बनाना चाहिए, तो कई लोगों ने मुझे कायर कहा। मुझसे कहा कि मुझे पठानकोट जाकर उन सात शहीदों के घर के लोगों से मिलना चाहिए और उनसे पूछना चाहिए कि युद्ध या शांति? 
मैं उन लोगों से कहना चाहता हूं कि पठानकोट में जो हुआ, वो भितरघात है। आप युद्ध की बात करते हैं। सात में आप इतने विचलित हैं। सोचिए ये आंकड़ा सात सौ या सात हज़ार हो जाए तो आप पर क्या बीतेगी?
***
मैं इतनी लंबी पोस्ट नहीं लिखता। लेकिन आपको ये बताना चाह रहा था कि जैसे कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने शांति की राह चुन ली थी, वैसे ही आपका ये रिपोर्टर, जो हर सुबह रिश्तों की कहानियां आपको सुनाता है, वो बारूद की सुरंग में घुस कर रिपोर्टिंग कर चुका है। वो लाशों के बीच रातें गुजार चुका है। वो दहशत के धमाकों बीच पीटीसी कर चुका है। वो सबकुछ करके, सबका हश्र देख कर आज शांति की बातें करता है, रिश्तों की बातें करता है। आपका ये रिपोर्टर आपसे रिश्तों की कहानियां इसलिए साझा करता है क्योंकि इसने मृत्यु के दंश को बहुत करीब महसूस किया है। क्योंकि ये जानता है कि जब अपना कोई इस संसार से चला जाता है, तो उसकी विजय गाथा चाहे जितनी लंबी लिखी जाए, सड़कों के नाम उसके नाम पर रख दिए जाएं, लेकिन घर वालों के सीने में धड़कने वाला दिल हर सुबह अपनी गति से समझौता करता है। 


युद्ध कभी विकल्प नहीं होता। 
युद्धनीति और राजनीति दो अलग-अलग चीज़ें हैं। युद्ध नीति भले तलवार का जवाब तलवार से देने को व्याकुल हो, लेकिन राजनीति गिरती तलवार के आगे सिर झुका कर बच निकलने की शिक्षा भी देती है। 
कई बार जानबूझ कर दुश्मन युद्ध के लिए सिर्फ इसलिए भी उकसाते हैं, ताकि आप उसमें फंस जाएं। 
जरासंध ने भी मथुरा में कृष्ण को बहुत उकसाया था युद्ध के लिए। 
पर कृष्ण उसमें नहीं फंसे। उनसे ये तक कहा गया था कि आप रण छोड़ रहे हैं। 
कृष्ण ने कहा था छोड़ नहीं रहा, बल्कि बहादुरी से पीछे हट रहा हूं। कहने वाले ने उनसे कहा था कि भगवन आप तो रणजीत समझे जाते रहे हैं, आप रणछोड़ क्यों बन रहे हैं। 
तब कृष्ण ने जवाब दिया था, “इतिहास इस पर विचार करेगा कि मैं रणछोड़ क्यों बना। भले इतिहास की किताब में मेरी सही तस्वीर न उभरे, लेकिन मथुरा के इतिहास में रक्त के छींटे तो नहीं बिखरे होंगे।” 
कभी-कभी अनिच्छा को भी इच्छा की तरह स्वीकार करना चाहिए।

‪#‎Rishtey‬ Sanjay Sinha


*  साभार *     https://www.facebook.com/sanjayzee.sinha/posts/10207578791964578

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 01- 2016 को चर्चा मंच पर <a href="http://charchamanch.blogspot.com/2016/01/2221.html> चर्चा - 2221 </a> में दिया जाएगा
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश-गति के उत्तरायण में होने का इंतजार - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    ReplyDelete

कुछ अनर्गल टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम है.असुविधा के लिए खेद है.