Sunday, 7 August 2016

हिंदी पत्रकारिता का 'तेज' : राजेंद्र माथुर ------ पंकज श्रीवास्तव


Pankaj Srivastava
आज राजेंद्र माथुर का जन्मदिन है। दिल्ली में नवभारत टाइम्स के संपादक रहे 1982 से 1991 तक। बमुश्किल 56 साल की उम्र पाई लेकिन हिंदी पत्रकारिता को ऐसा 'तेज' दिया कि तमाम नामी अंग्रेज़ी संपादक 'उपग्रह' नज़र आते थे। हाल यह था कि वे रज्जू बाबू के संपादकीय और लेख पढ़कर देश-दुनिया के तमाम विषयों पर अपनी समझ बढ़ाते थे.. राय बनाते थे। हाँ, घर नहीं बना पाए थे और जब उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उनक फ़्लैट पर पहुँचे तो मकान मालिक जान पाया कि किरायेदार क्या हस्ती था !
बहरहाल, अब दिल्ली में तमाम फ़ार्म हाउस वाले संपादक हैं। दो-चाार फ़्लैट के मालिक संपादकों की तो गिनती ही नहीं। संपादक जी की कार की लंबाई उनके वास्तविक कद से मीलों ज़्यादा है, लेकिन वे यह नहीं जानते कि सार्क सम्मेलन में केवल अध्यक्ष के भाषण का प्रसारण होता है। बाक़ी कार्रवाई 'इन कैमरा' होती है। वे शान से राजनाथ सिंह के भाषण को प्रसारित न करने को भारत की बेइज्ज़ती करार देते हुए पाकिस्तान से जंग का आह्वान करते हैं। दूसरे दिन जब विदेश मंत्रालय का कोई बाबू प्रसारण रोकने की ख़बर का खंडन करता है तो कुछ 'सम्मानित' अख़बार दसवें पेज पर छोटी सी ख़बर छाप देते हैं। बाक़ी में इतनी भी शर्म नहीं.! चैनलों से तो उम्मीद करना ही क़ुफ़्र है ! सोचिये, क्या ही अच्छे दिन आये हैं.. संपादकों को सरकारी बाबू 'ज्ञान' पिला रहा है !
कई बार लगता है कि रज्जू बाबू का 1991 में मरना एक रूपक है। उदारीकरण की शुरुआत के साथ तमाम प्रतिभाओं को बौना बनाने का जो क़ामयाब उपक्रम चला, उसमें रज्जू बाबू कहाँ फिट होते। रोज़-रोज़ मरने से तो अच्छा था कि तभी मर गये।
हो सके तो माफ़ कर देना सर, हाँलाकि हम इस लायक़ नहीं हैं । 
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