Wednesday, 22 November 2017

यदि गुजरात में मोदी - शाह की भाजपा परास्त होती है तो ........... ------ विजय राजबली माथुर







वरिष्ठ पत्रकार गण विनोद दुआ, नीरजा चौधरी, आरफा खानम शेरवानी और जयप्रकाश गुप्त कांग्रेस के संभावित नए अध्यक्ष राहुल गांधी की  संभावनाओं पर जो विचार व्यक्त कर रहे हैं उनमें प्रमुख है उनके नेतृत्व में गुजरात चुनावों में 22 वर्षीय भाजपा शासन को उखाड़ पाने की उनकी क्षमता पर निर्भर करेगा उनका राजनीतिक भविष्य। परंतु कांग्रेस और भाजपा की आज की स्थिति को समझने के लिए इनके अतीत पर प्रकाश डालना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। 

सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित  रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से 1885 में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस 1875 में स्वामी दयानन्द द्वारा  स्थापित आर्यसमाज के अनुयायियों के कारण  राष्ट्र वादियों  के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग-भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं,मुसलमानों,हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल,पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।

1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'की स्थापना करके पूर्ण स्व-राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया। कम्यूनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आ गया ) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो कम्यूनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों के साथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।

1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया-भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे काश्मीर मे प्रति-सांप्रदायिकता उभरी कि,काश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।

पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो काश्मीर को अलग करने के लिए अनुच्छेद  370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए गए । माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि/बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।
1991 के  सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे तभी  संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया था। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ज़्यादा पुरानी  घटना  नहीं है। 1991 के कांग्रेसी वित्तमंत्री  मनमोहन सिंह ने जिन उदारीकृत आर्थिक नीतियों को लागू किया था उनको न्यूयार्क जाकर एल के आडवाणी ने उनकी नीतियों का चुराया जाना बताया था। पी एम के रूप में अपनाई उनकी नीतियों को ही मोदी सरकार आज भी बढ़ा रही है। 

पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी-रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।जिस प्रकार सत्तारूढ़ भाजपा के मंत्री और नेता जनता को धमका कर वोट हासिल करना चाहते हैं उससे इस बात की पुष्टि भी होती है। आसन्न गुजरात चुनाव के संदर्भ में अधिकांश लोगों का अभिमत है कि, वहाँ कांग्रेस द्वारा भाजपा को परास्त करना सर्वथा असंभव है ।

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 मेरा अपना सुद्र्ढ़ अभिमत है कि जिस प्रकार 1980 में इन्दिरा कांग्रेस और फिर 1984 में राजीव गांधी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस को आर एस एस का पूर्ण समर्थन मिला था भाजपा के स्थान पर कुछ उसी प्रकार से गुजरात चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही कांग्रेस को पुनः आर एस एस का समर्थन मिलने जा रहा है। जिस प्रकार पी एम मोदी ने भाजपा को नियंत्रण में लेने के बाद आर एस एस को नियंत्रित करने का अभियान चला रखा है उससे आर एस एस नेतृत्व उनको कमजोर करने का मार्ग ढूंढ रहा था। यू एस ए के हितार्थ  लागू की गई नोटबंदी फिर गलत तरीके से लागू की गई जी एस टी पर जिस प्रकार आर एस एस व भाजपा नेता मोदी सरकार पर हमलावर हुये हैं और आर एस एस के आनुषंगिक संगठन  भामस द्वारा मोदी सरकार के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन किया गया है उससे ऐसे स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। 

यदि गुजरात में मोदी - शाह की भाजपा परास्त होती है तो वह राहुल गांधी के चमत्कार या कांग्रेस के  बढ़ते प्रभाव का दिग्दर्शक न होकर आर एस एस की वह रणनीति होगी जिसके द्वारा वह सत्ता और विपक्ष दोनों को अपने नियंत्रण में लाकर भविष्य के लिए अपना मार्ग निष्कंटक बनाना चाहता है। यदि यह प्रयोग सफल रहा तो मेनका व वरुण गांधी को कांग्रेस में शामिल करवाकर मेनका गांधी को कांग्रेसी पी एम के रूप में  सुनिश्चित करना आर एस एस का लक्ष्य होगा। इस प्रकार देश को आगामी लोकसभा  चुनावों में मोदी से तो मुक्ति मिल जाएगी लेकिन आर एस एस का शिंकजा और मजबूत हो जाएगा।  

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