Sunday, 2 September 2018

निजी अस्पतालों पर सरकारी धन लुटाना... "आयुष्मान भारत योजना" शताब्दी का सबसे बड़ा छलावा स्वीकार्य नहीं ------हेमंत कुमार झा


Hemant Kumar Jha
02-09-2018 


"आयुष्मान भारत योजना" आकर्षक पैकिंग में शताब्दी का सबसे बड़ा छलावा है। गरीबों के इलाज के नाम पर बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों की लूट का एक ऐसा सिलसिला शुरू होने वाला है जिसे नियंत्रण में लाना व्यवस्था के लिये संभव नहीं रह जाएगा।

सार्वजनिक स्वास्थ्य को कारपोरेट सेक्टर के हवाले करने के कितने बड़े खतरे हैं इस पर बहस होनी चाहिये थी। लेकिन, जैसा कि माहौल है, इन जरूरी मुद्दों पर बहस नहीं होती। इतना बड़ा देश है, इतने सारे मुद्दे हैं, बहस के नए-नए मुद्दों को जन्म देने में इतनी सारी शक्तियां लगी हुई हैं तो शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर कौन बहस करे।

एक गरीब, जो 5 लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा का लाभार्थी है, अस्पताल में भर्त्ती होता है। उसे क्या हुआ है यह अस्पताल को तय करना है। इलाज का बिल बीमा कंपनी को भरना है। बीच में दवा कंपनियां हैं जिनके अपने दांव हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जहां खर्च 25 हजार है वहां 2 लाख का बिल नहीं बनाया जाएगा। डॉक्टर समुदाय की अपनी विवशताएं हैं और उनमें से बहुत सारे कारपोरेट के दलाल बन कर काम करते हैं।
इस बीमा योजना के तहत सिर्फ सरकारी अस्पताल ही नहीं, निजी अस्पताल भी सूचीबद्ध किए जाएंगे। वैसे भी, सरकारी स्वास्थ्य संरचना के भग्नावशेषों पर फलता-फूलता निजी अस्पताल-तंत्र ही 'न्यू इंडिया' का भविष्य है।

25 सितंबर से औपचारिक रूप से शुरू होने वाली इस बीमा योजना में मार्च, 2020 तक के लिये 85 हजार करोड़ रुपये का प्रीमियम होगा। उसके बाद तो हर वर्ष 10 करोड़ परिवारों यानी कि लगभग 50 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य बीमा के नाम पर न जाने कितने हजार करोड़ रुपये बीमा कंपनियों को प्रीमियम के नाम पर दिये जाएंगे। जैसे...फसल बीमा के नाम पर दिये गए थे... और यह कोई छुपा तथ्य नहीं है कि किसानों को क्या मिला और बीमा कंपनियों ने फसल बीमा के नाम पर कितनी भयानक लूट मचाई।

दरअसल, यह जो हम "विदेशी निवेश-विदेशी निवेश" का मंत्र जपते रहते हैं और सरकारें गर्व से बताती हैं कि पिछली तिमाही में इतना विदेशी निवेश आया, उनमें अधिकांश निवेश विदेशी वित्तीय और बीमा कंपनियों का आता है। उन्हें पता है कि भारत में बीमा का उभरता हुआ बहुत बड़ा बाजार है और इस क्षेत्र में अकूत लाभ की गुंजाइश है क्योंकि यहां नागरिक और उपभोक्ता जागरूकता का बहुत अभाव है और राजनीतिक तंत्र वित्तीय शक्तियों के समक्ष आत्म समर्पण कर चुका है। यह आत्म समर्पण वैचारिक स्तरों पर तो है ही, बहुत हद तक नैतिक स्तरों पर भी है।

तो...इस देश के 50 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम अगर सरकार ही देने को तैयार हो जाए तो बीमा व्यवसाय के तो वारे-न्यारे होने तय हैं।

अब...जब अंतिम के 50 करोड़ लोगों का स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम सरकार भरेगी तो ऊपर के 85 करोड़ लोग क्या करेंगे?
भारत की आबादी तो 135 करोड़ है न...?

सबसे ऊपर के 20-25 करोड़ लोगों के लिये तो अपना इलाज या बीमा प्रीमियम कोई खास समस्या नहीं है। लेकिन...अंतिम के 50 करोड़ और ऊपर के 25 करोड़ लोगों के बीच जो 50-60 करोड़ निम्न मध्य वर्गीय लोग हैं, वे क्या करेंगे? उनका प्रीमियम तो कोई सरकार नहीं भरने वाली।

तो...ये 50-60 करोड़ लोग मजबूरन अपना प्रीमियम खुद जमा करेंगे क्योंकि बीमार पड़ने पर इलाज के लिये यही रास्ता प्रधान होगा। सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की कब्र पर निजी तंत्र की ऊंची होती मीनारों के दौर में निम्न मध्य वर्गीय लोगों के सामने स्वास्थ्य बीमा का कोई विकल्प नहीं होगा।

जाहिर है, बीमा कंपनियों के पौ-बारह हैं। बीमा क्षेत्र के अधिकतम निजीकरण के प्रयास यूँ ही नहीं हैं। देश और दुनिया की बड़ी वित्तीय शक्तियों के दांव इस पर लगे हैं। लूट की हद तक मुनाफा...वह भी गारंटिड। करना केवल यह होगा कि सत्ता-संरचना की छाया में गरीबों की आंखों में धूल झोंकना होगा। इसमें तो कंपनियों को महारत हासिल है।
बीते ढाई-तीन दशकों में भारत में जो अरबपति बने हैं, खरबपति बने हैं, उनमें से अधिकांश की सफलताओं का राज यही है कि उन्होंने पब्लिक को चूना लगाया, नेताओं-अधिकारियों की मिलीभगत से सरकार को चूना लगाया और अपनी संपत्ति में बेहिंसाब इज़ाफ़ा करते रहे।

बीते दशक में हमारे देशी कारपोरेट का जो मौलिक चरित्र उभर कर सामने आया है वह आशंकित करता है। उससे भी अधिक डरावना है सत्ता पर उनका बढ़ता प्रभाव, राजनीतिक शक्तियों को अपने अनुकूल नियंत्रित करने की उनकी बढ़ती शक्ति।

निजी स्कूलों की मनमानियों और मुनाफाखोरी के शिकार हो रहे मध्य और निम्नमध्यवर्गीय लोगों ने अब तक क्या कर लिया? वे सिर्फ खीजते हैं और अत्यंत विवश भाव से ऐसे शुल्क भी भरते रहते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं। वे अपनी लूट को अपनी नियति मान चुके हैं।

यही बेचारगी स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बढ़ेगी। लोग विकल्पहीन होते जाएंगे। निजी अस्पताल, बीमा कंपनी और दवा कंपनियों का नेक्सस कितना लूट मचाएगा, यह देखने-झेलने के लिये हमें तैयार रहना होगा।

टैक्स पेयर के पैसे सरकारी अस्पतालों के विकास और विस्तार में न लगा कर बीमा योजना के माध्यम से निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करने का उपक्रम गहरे संदेह पैदा करता है।

आज नहीं तो कल...सभ्यता इस पर पश्चाताप करेगी कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा को मुनाफा की संस्कृति के हवाले कर देना बहुत बड़ी गलती थी। 
गरीबों के लिये सरकारी अस्पतालों का कोई विकल्प नहीं जहां वे अधिकार से जा सकते हैं, इस बात से निश्चिंत रह सकते हैं कि उन्हें लूटा नहीं जा रहा, मुनाफा बढाने के लिये किसी तरह का छल नहीं किया जा रहा उनके साथ...। साधन संपन्न सरकारी अस्पताल और उपलब्ध सरकारी डॉक्टर इस देश के गरीबों का सबसे बड़ा कल्याण है।
गंभीर बीमारियों के लिये बीमा योजनाओं को प्रोत्साहित करना अलग बात है और यह होना चाहिये, लेकिन पूरे स्वास्थ्य का जिम्मा बीमा के हवाले कर देना, प्रकारान्तर से निजी अस्पतालों पर सरकारी धन लुटाना...यह स्वीकार्य नहीं।

भारत में नए-नवेले विकसित हुए निजी अस्पताल तंत्र की अमानवीय मुनाफाखोरी के किस्से आम हैं, भुक्तभोगियों की संख्या अपार है। लेकिन, व्यवस्था की जकड़ में लोग विवश हैं और...सबसे खतरनाक यह कि यह विवशता बढ़ती जा रही है।

कोई जाल है...जिसमें सम्पूर्ण मानवता उलझती जा रही है।

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