Sunday, 30 September 2018

नव उपनिवेशवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति ------ हेमंत कुमार झा



Hemant Kumar Jha
29-09-2018 
बकरा कसाई की जयजयकार कैसे करता है, यह देखना हो तो भारतीय मध्यवर्ग के राजनीतिक मनोविज्ञान को समझना होगा।

यही वह वर्ग है जिसने भाजपा की राजनीतिक सफलताओं को आधारभूमि उपलब्ध कराई। इस संदर्भ में इन लोगों ने जातीय ध्रुवीकरण को भी नकारा। सवर्णों की तो कोई बात ही नहीं, शहरों में रहने वाले पिछड़े वर्गों के मध्यवर्गीय लोग भी अपने को राजनीतिक रूप से पॉलिश्ड दिखाने के चक्कर में भाजपा को समर्थन देने की बातें करते थे। यह 1990 के दशक का उत्तरार्द्ध था जिसमें 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' और 'मंदिर वहीं बनाएंगे' के नारों के साथ भाजपा कदम दर कदम भारतीय सत्ता शीर्ष की ओर बढ़ रही थी। माहौल ऐसा था कि पढ़े-लिखे लोगों के बीच भाजपा समर्थक होना एक फैशन बन गया था।

भाजपा सत्ता में आई...और क्या खूब आई। पहली बार 13 दिन, दूसरी बार 13 महीने और फिर तो पूरा एक कार्यकाल।

भाजपा के मुखर समर्थन का सबसे बड़ा पुरस्कार जो मध्य वर्ग को मिला वह नौकरियों में पेंशन के खात्मे के रूप में सामने आया। सरकारी कार्यालयों में खाली पड़े हजारों पदों पर नियुक्तियों में अघोषित रोक, सफल सरकारी उपक्रमों में भी विनिवेश आदि तो बोनस के रूप में थे।

आधारभूत संरचना में भारी निवेश और उच्च विकास दर ने शिखर के कंगूरों में चमक बढ़ाई तो उसकी चकाचौंध से भ्रमित होकर भाजपा 'शाइनिंग इंडिया' के स्लोगन के साथ अगले आम चुनाव में उतरी। पराजय अकल्पनीय थी जिसके बाद इसके सबसे बड़े नायक वाजपेयी नेपथ्य में चले गए और मनमोहन के नेतृत्व में कांग्रेस की नई पारी शुरू हुई।

सांस्कृतिक मुद्दों पर विभेद के अलावा अब की कांग्रेस और भाजपा में कोई खास अंतर नहीं रह गया था। जाहिर है, कारपोरेट हितैषी नीतियों पर देश आगे चलता रहा। यद्यपि, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा के अधिकार, सूचना के अधिकार आदि कुछ ऐतिहासिक कदम उठाए गए जिन्होंने गरीबों के जीवन में कुछ सकारात्मक प्रभाव डाला, किन्तु, कमजोर शासन ने मंत्रियों को अराजक होने के अवसर उपलब्ध कराए और सरकार भ्रष्टाचार के अनेक मुद्दों पर घिरती गई। कारपोरेट मनमोहन का अधिकाधिक इस्तेमाल कर चुका था और अब उसे कुछ अधिक साहसी, कुछ अधिक पाखंडी नेतृत्व की जरूरत थी जो नाम गरीबों का ले और काम उनका करे।

नरेंद्र मोदी इन अर्थों में बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आए। 'गुजरात मॉडल' को विविधताओं और विषमताओं से भरे इस देश के लिये आदर्श के रूप में स्थापित किया गया और आम चुनाव में चुनिंदा कारपोरेट घरानों ने भाजपा के पक्ष में खुल कर पैसा बहाया। अब भाजपा सिर्फ कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं थी बल्कि उससे आगे की चीज थी। बीते साढ़े चार वर्षों में सरकार ने खुल कर कारपोरेट के लिये बैटिंग की और अकूत रन जुटाए। जल्दी ही बड़े अंबानी की संपत्ति दुगुनी हो गई, छोटे अंबानी के डगमगाते व्यावसायिक साम्राज्य को सहारा देने के लिये राजसत्ता का जम कर दुरुपयोग किया गया, अडानी सरकार के चहेते व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठित हुए जिनके लिये देश ही नहीं विदेशों में भी सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल होता रहा।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तिजोरी तो मनमोहन सरकार में भी खुली रहती थी और लूटने की भी सारी सुविधाएं उपलब्ध थी। मोदी सरकार में बैंकों की कारपोरेट लूट में आनुपातिक रूप से अगाध वृद्धि हुई और बैंक खोखले होकर रह गए।

मध्य वर्ग को क्या मिला? इसने तो मोदी सरकार को समर्थन देने में अपनी चेतना तक गिरवी रख दी थी। सरकार एक से एक मध्य वर्ग विरोधी कदम उठाती रही और लोग न जाने किस नशे में गाफिल हो इसके स्तुति गायन में लगे रहे। वाजिब तर्कों का भी कोई स्थान नहीं रह गया और बहसें अक्सर कुतर्कों के दायरे में प्रवेश करने लगीं। राष्ट्रवाद और संस्कृतिवाद, जो धर्म का चोगा पहन कर चहलकदमी कर रहा था, इसने मध्यवर्गीय लोगों को नशे में रखने में बड़ी भूमिका निभाई। सेना, सरकार, पार्टी और सत्तासीन नेता के बीच की दूरियां मिटने लगी और एक नया मंजर लोगों के सामने था। यह मंजर उन लोगों को खूब भाता रहा जो खाते-पीते स्तर के थे और वंचितों के बढ़ते अंधेरों से जिनका कोई लेना देना नहीं था।

गरीबों के पास है क्या जिसे लूटा जा सके? श्रम है और वोट का अधिकार है। श्रम के शोषण को संवैधानिक रूप दिया जाने लगा और वोटों के लिए अस्मितावादी विमर्शों का सहारा लिया गया। नतीजा में विधान सभाओं के चुनाव दर चुनाव भाजपा की जीत का सिलसिला आगे बढ़ता रहा। अपवाद में सिर्फ बिहार रहा, जिसके अपवाद होने के कई तात्कालिक कारण थे।

लूटने के लिये मध्य वर्ग है। तो...लूट का सिलसिला शुरू हुआ। इन्कम टैक्स में आनुपातिक रूप से अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई, सर्विस टैक्स आदि को बढ़ाया गया, 70 वर्षों के इतिहास में सबसे कम वेतन वृद्धि मोदी राज में सातवें वेतन आयोग के दौरान ही हुई। स्वच्छता सेस के रूप में बेवजह का दंड वेतन भोगियों पर लाद दिया गया। बैंकों के तरह तरह के शुल्कों में बढ़ोतरी हुई और कई तरह के नए शुल्क लगाए जाने लगे। यानी चौतरफा मार।

कच्चे तेल की कीमतों में कमी का कोई लाभ नहीं दे कर पेट्रोल डीजल पर लगातार एक्साइज ड्यूटी को बढ़ाया जाता रहा। और अब, जब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल के दाम बढ़ते जा रहे हैं तो एक्साइज ड्यूटी में कटौती की कोई संभावना नजर नहीं आ रही।

नतीजा...? 
वित्तीय वर्ष 2013-14 के बाद 2017-18 तक आते-आते पेट्रोल डीजल पर एक्साइज ड्यूटी के रूप में राजस्व 3 गुना बढ़ गया है। लोग हलकान हैं लेकिन...राजनीतिक चेतना कहीं गिरवी सी पड़ी है।

यही तो है नव औपनिवेशिक शक्तियों का मायाजाल। उनके मायाजाल का चमत्कार। बकरा कसाई की जयजयकार में रमा है।

शिक्षा इतनी महंगी कर दी गई है कि आम वेतन भोगी अपने बच्चों की पढ़ाई पर अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा खर्च करने को विवश है। चिकित्सा कारपोरेट तंत्र के हवाले की जा रही है। मध्य वर्ग की कमर टूट जाती है जब उसके घर का कोई बच्चा उच्च तकनीकी शिक्षा के लिये कहीं दाखिला लेता है या घर का कोई सदस्य गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाता है। लूटने के लिये प्राइवेट शिक्षण संस्थान और अस्पताल मुंह फाड़े खड़े हैं और इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है।

सुधारवाद के नाम पर बीते दशकों में बहुत ही सुनियोजित तरीके से सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को ध्वस्त किया गया और मध्य वर्ग को छोटी सस्ती कारें खरीदने के लिये प्रेरित किया गया। ऐसी कारें, जो सुरक्षा मानकों पर किसी भी परीक्षण में बारंबार फेल होती हैं लेकिन भारत की सड़कों पर फर्राटे से दौड़ रही हैं। कारों की बिक्री से कई फायदे हैं। कम्पनियों का माल बिकता है, सरकार को टैक्स मिलता है, बैंकों को कार लोन देकर सूद कमाने की सुविधा मिलती है। सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता बढ़ाई जाए और उन्हें सुविधा सम्पन्न बनाया जाए तो कंपनियों को और सरकार को उतना फायदा नहीं है, जितना इसे बर्बाद कर देने के बाद फायदा हो रहा है।

मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में परिवहन व्यवस्था को आभिजात्य केंद्रित बनाने पर और अधिक जोर दिया है। जिस देश में पब्लिक बसों और पैसेंजर ट्रेनों की संख्या में भारी बढ़ोतरी की आवश्यकता है उसकी सड़कों पर सुरक्षा मानकों में फेल घोषित कारों की संख्या अप्रत्याशित गति से बढ़ती जा रही है और बुलेट या अन्य हाई स्पीड ट्रेनों में संसाधनों का बड़ा हिस्सा व्यय किया जा रहा है। यानी 120 करोड़ लोगों के हितों की कीमत पर 15 करोड़ लोगों की सुविधाएँ बढाने की कवायद।

बीते साढ़े चार साल की तर्कपूर्ण व्याख्या की जाए तो सीधा सा निष्कर्ष यही निकलता है कि सरकार ने बड़े पूंजीपतियों की जेबें भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वह भी खुल कर... निर्लज्ज होकर। उसे मध्य वर्ग की खोखली वैचारिकता का अहसास है और गरीबों के वोट के लिये जातीय वोटों के ठेकेदारों से डीलिंग पर उसे विश्वास है। 2019 के चुनाव में भाजपा अभी भी 'फेवरिट' मानी जा रही है तो इसके पीछे विपक्ष की संज्ञाहीनता और कारपोरेट का अप्रत्यक्ष किन्तु प्रभावी समर्थन जिम्मेदार है।

भारतीय अर्थतंत्र पर नव औपनिवेशिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव का भाजपा के राजनीतिक उत्थान से क्या संबंध है, इसे समझे बिना हम भाजपा के चरित्र को नहीं समझ सकते। यद्यपि भारत में नवउदारवाद की राजनीति कांग्रेस ने शुरू की लेकिन विपक्ष में रहते हुए भी इस अभियान में उसे भाजपा का पूरा साथ मिला। जब भाजपा सत्ता में आई तो इसने नव औपनिवेशिक शक्तियों के हितों के लिये अभियान चला दिया।
धर्म, गाय, राष्ट्रवाद, संस्कृति आदि तो महज टूल हैं जो मतदाताओं को साधने के काम में आते हैं। वास्तविकता यही है कि भाजपा जैसी पार्टी नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री और अरुण जेटली जैसे वित्त मंत्री के नेतृत्व में नव उपनिवेशवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति मात्र रह गई है।
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