Saturday, 29 February 2020

घबराइए मत, सब ठीक हो जाएगा ------ कोमिका माथुर

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घबराइए मत, सब ठीक हो जाएगा


कोमिका माथुर

अपने इर्द-गिर्द समस्याओं को देखकर हम अक्सर परेशान हो जाते हैं। बुरे ख्याल हमारे मन में आने लगते हैं। लगने लगता है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा, सब कुछ खत्म ही हो जाएगा। लेकिन, क्या वाकई ऐसा होता है/ साहिर लुधियानवी ने लिखा है, ‘रात भर का है मेहमां अंधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा/ रात जितनी भी संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी/ गम ना कर गर है बादल घनेरा।’ ये पंक्तियां मन में एक उम्मीद जगाती हैं कि सब ठीक हो जाएगा। उम्मीद ही तो है जो हमें जिंदा रखती है। कम से कम इतिहास तो यही कहता है। पहाड़-सी दिखने वाली हर दिक्कत के बीच से हमने एक रस्ता बनाया है।

‘हॉर्स मैन्योर क्राइसिस’ को याद कीजिए। अब से 130 साल पहले न्यूयॉर्क और लंदन को एक अजीबोगरीब समस्या का सामना करना पड़ा। आज के चमचमाते, रंगीन, फैशनेबल और साफ-सुथरे लंदन की सड़कें तब घोड़ों की लीद से भरने लगी थीं। यही हाल न्यूयॉर्क का भी था। मामला यह था कि एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने और सामान पहुंचाने के लिए लोग घोड़ों पर निर्भर थे। घोड़ों को फैक्ट्रियों में जुतना था और खेतों में भी। मालगाड़ियों से ढोकर लाए गए सामान को भी शहर में इधर से उधर ले जाने का काम घोड़ों के ही जिम्मे था। लंदन की सड़कों पर उस वक्त हर रोज 50 हजार से ज्यादा घोड़े सड़कों पर दौड़ रहे थे, इंसान और उनसे कहीं ज्यादा सामान ढोते हुए। और यही घोड़े अपने पीछे ढेर सारी गंदगी भी छोड़ रहे थे। टाइम्स अखबार ने तो यहां तक कह दिया था कि अगले कुछ सालों में लंदन की हर सड़क पर नौ-नौ फीट ऊंची लीद की परत जमी होगी।

यह गंदगी अपने साथ कई और समस्याएं लेकर आ रही थी। मक्खी-मच्छर भिनभिना रहे थे। लोगों को टायफॉयड और दूसरी गंभीर बीमारियां होने लगी थीं। मुर्दा घोड़ों को दफनाना भी कोई छोटा सिरदर्द नहीं था। एक बार अकेले न्यूयॉर्क शहर में 15 हजार घोड़ों की लाशें एक साथ दफनाई गईं। जाहिर है, इंसान की कई जरूरतें पूरी कर रहे घोड़े देखते-देखते उसके लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गए थे। शहरों का यह हाल देख तमाम अफसर और पॉलिसी मेकर सिर पकड़ कर बैठे थे। लेकिन संकट की इस घड़ी में कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा रहे थे। फिर एक दिन सामने आई मोटरगाड़ी। इंसान ने अपनी समस्या का हल खोज लिया था। देखते-देखते शहरों में घोड़े गैरजरूरी होने लगे। गंदगी और बदबू से बेहाल शहर मौत के मुंह से निकल आए थे। सब कुछ ठीक हो गया था, बल्कि पहले से बेहतर। 

ऐसा ही कुछ हुआ था इलेक्ट्रिक लाइटों के साथ भी हुआ था। सदियों से शहरों में स्ट्रीट लैंप जलाते आए कर्मचारियों ने एक बार हड़ताल कर दी। उन्हें पता नहीं था कि दुनिया बदलने जा रही है। फिर बिजली की लाइटें लगीं तो अफवाह फैली कि इनकी रोशनी से आंखें खराब हो सकती हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स तक ने इस पर मुहर लगानी वाली रिपोर्टें छाप दी थीं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। रेलगाड़ियां चलनी शुरू हुईं तो भी ऐसी पचासों अफवाहें फैलीं। इंग्लैंड के डॉक्टर कहने लगे कि रेलगाड़ी में ज्यादा सफर करने से इंसान को दिमागी बीमारियां हो सकती हैं! आज दुनिया के हर कोने में न जाने किस-किस रफ्तार से ट्रेनें दौड़ रही हैं। 

ऐसे ही न जाने कितनी बार दुनिया खत्म हो जाने की बातें हुईं। कहा गया कि फलां साल में कोई धूमकेतु धरती से टकरा जाएगा और सब उलट-पलट हो जाएगा। 2020 आते-आते दुबई या मुंबई शहर डूब जाने की बात अभी कुछ ही समय पहले कही गई थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह धरती, पेड़-पौधे, नदियां, समंदर, पर्वत, इंसान, परिंदे, सब चहचहा हैं। अमेरिकी मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक टोनी रॉबिन्स कहते हैं, ‘हर परेशानी एक तोहफा है। इन तोहफों के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। जितने भी बड़े आविष्कार हुए, फिर चाहे पहिया हो, बिजली का बल्ब या टेलीफोन, ऐसे ही नामुमकिन से लगने वाले हालात से निकल कर हुए हैं।’ 

इधर, कुछ समय से देश और दुनिया में फिर ऐसे हालात बन रहे हैं कि लगने लगा है जैसे सब खत्म हो जाएगा। चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस अब तक हजारों लोगों की जान ले चुका है। कई देश इस वायरस की जद में हैं। शेयर बाजार इसकी वजह से औंधे मुंह गिर पड़ा है। दुनिया में आर्थिक मंदी लौट आने की बातें शुरू हो गई हैं। वाणिज्य और उद्योग मंडल पीएचडीसीसीआई के मुताबिक, कोरोना वायरस के फैलाव से वैश्विक ग्रोथ 0.3 प्रतिशत तक घट सकती है, यानी करीब 230 अरब डॉलर का नुकसान। वहीं अफ्रीका और मिडल ईस्ट में टिड्डियों ने आतंक मचा रखा है। लाखों एकड़ की खड़ी फसल इन्होंने तबाह कर दी है। कहा जा रहा है कि 20 सालों में यह टिड्डियों का सबसे बड़ा हमला है और जून तक ये टिड्डी दल 500 गुना बड़े हो सकते हैं। पाकिस्तान ने इसे राष्ट्रीय संकट घोषित कर रखा है और भारत में गुजरात और राजस्थान के किसान टिड्डियों की पहली मार झेल चुके हैं। 


टिड्डियों से होने वाली तबाही का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनका एक झुंड एक दिन में जितनी फसल को नुकसान पहुंचाता है, उससे 35 हजार लोगों का पेट भर सकता है। क्लाइमेट चेंज और पॉल्यूशन जैसी समस्याओं से भी दुनिया परेशान है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग से लेकर मणिपुर की 8 साल की नन्हीं लिसीप्रिया कंगजुम तक क्लाइमेट चेंज के खिलाफ मोर्चा खोले बैठी हैं। क्या पता जल्द ही इन तमाम परेशानियों का कोई ऐसा कोई समग्र समाधान निकाल आए कि घोड़ों की लीद की तरह ये हमारी याद से भी उतर जाएं। हां, ऐसे युग बदलने वाले तोहफे यूं ही नहीं मिला करते। लीक से हटकर सोचना पड़ता है। मन में एक उम्मीद जगानी पड़ती है। घबराइए मत, सब ठीक हो जाएगा।
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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 20 February 2020

बी जे पी के साथ सरकार बनाना मुफ्ती मोहम्मद सईद का गलत फैसला ------ इल्तिजा मुफ्ती

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 19 February 2020

सामाजिक ताने-बाने के बिखरने की कहानी है तलाक ------ मोनिका शर्मा

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बढ़ते तलाक के पीछे रिश्तों के बदले समीकरण

यूएन की रिपोर्ट में यह बात रेखांकित की गई है कि बीते दो दशकों में महिलाओं के अधिकार काफी बढ़े हैं, लेकिन परिवारों में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले घटे नहीं हैं


कुछ समय पहले आई संयुक्त राष्ट्र की ‘प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्ड्स विमिन 2019-20: ­फैमिलीज इन ए चेंजिंग वर्ल्ड’ रिपोर्ट के मुताबिक  हमारे यहां नाकाम शादियों के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं। बीते दो दशकों के दौरान तलाक के मामले दोगुना हो गए हैं। यूएन की यह रिपोर्ट बताती है कि एकल परिवारों की बढ़ती अवधारणा के कारण देश में एकल दंपतियों वाले परिवारों की संख्या बढ़ रही है। 

यह रिपोर्ट हालांकि पूरी दुनिया की तस्वीर पेश करती है, लेकिन इसमें अलग-अलग क्षेत्रों और देशों की स्थिति को वहां की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि और कायदे-कानूनों की रोशनी में देखने का प्रयास किया गया है। इसमें कहा गया है कि अगर एसडीजी (सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स) का लक्ष्य हासिल करना है तो परिवार के अंदर जेंडर इक्वलिटी स्थापित करनी होगी। इस लिहाज से दुनिया के अलग-अलग देशों में तलाक बढ़ने की जो भी पृष्ठभूमि हो, भारत के सांस्कृतिक परिवेश में यह कोई सामान्य बात नहीं है। पिछले दो-ढाई दशकों में देश में महिलाओं की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मोर्चे पर जो बदलाव आए हैं उनकी तुलना उससे पहले के दशकों से नहीं की जा सकती। आज की  आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और उच्च शिक्षित युवतियां स्वाभाविक रूप से परिवार से जुड़े  फैसलों में भी भागीदारी चाहती हैं। अपनी सोच और समझ को लेकर वे अपनों से स्वीकार्यता चाहती हैं। लेकिन अधिकतर परिवार के अंदर का माहौल इस बदलाव को आत्मसात नहीं कर पा रहा। 

यूएन की इस  रिपोर्ट में यह बात रेखांकित की गई है कि बीते दो दशकों में महिलाओं के अधिकार काफी बढ़े हैं, लेकिन  परिवारों में मानवाधिकार उल्लंघन और लैंगिक असमानता के मामले घटे नहीं हैं। वे लगभग जस के तस हैं। हालांकि परिवार और समाज का पूरा ढांचा अब काफी हद तक बदल गया है। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ले चुके हैं। लेकिन इन परिवारों में भी पुरुष पारंपरिक सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस सोच से उपजी अपेक्षाओं पर आज की महिलाओं का रिस्पॉन्स इतना अलग होता है कि पारंपरिक सोच में उसका फिट बैठना मुश्किल होता है। यह स्थिति उन टकरावों को जन्म देती है जिन्हें संवाद की कमी, असहिष्णुता और संवेदनहीनता जैसे कारक तलाक तक ले जाते हैं।

यही स्थिति अक्सर इस आम शिकायत के रूप में सामने आती है कि उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्षम पति-पत्नी एक दूसरे की बात सुनना-समझना जरूरी नहीं मानते। एक समय में शादी के रिश्ते में सामंजस्य और समझौते लड़कियों की अनकही जिम्मेदारी हुआ करते थे। तब सामाजिक और आर्थिक निर्भरता के चलते इस जिम्मेदारी को निभाना महिलाओं की मजबूरी बन जाया करती थी। लेकिन शिक्षा के जरिए हासिल आर्थिक आत्मनिर्भरता ने लड़कियों की वह मजबूरी खत्म कर दी है। आज की पढी-लिखी और जॉब करने वाली लड़कियां उम्मीद करती हैं कि रिश्ता निभाने की कोशिश दोनों ओर से की जाए। ऐसे में शादी के बंधन को बचाए रखने के लिए  लड़कियों के  मन को समझने और उनका साथ देने वाली सोच की दरकार है।


नाकाम शादियों की बढ़ती संख्या केवल एक  आंकड़ा भर नहीं है। यह हमारे सामाजिक ताने-बाने के बिखरने की कहानी है। एक तरफ परिवार टूट रहे हैं लेकिन इसका कोई विकल्प समाज में अभी विकसित नहीं हो पाया है। ऐसे में अगर इसे बचाने और स्वस्थ रूप देने की कोशिश नहीं हुई तो कई पीढ़ियों को इसकी त्रासदी झेलनी पड़ सकती है। यह तथ्य गौर करने लायक है कि भारत में  शादी के पहले 5 साल में ही तलाक की इच्छा रखने वाले युवाओं के हजारों मामले कोर्ट में चल रहे हैं। मामूली अनबन और मनमुटाव भी अब तलाक का कारण बन रहे हैं। जरूरी है कि  अब समाज और परिवार महिलाओं की काबिलियत  तथा आगे बढ़ने की उनकी  इच्छा को  समझे, उसका सम्मान करे।  एक-दूसरे से  तालमेल बैठाने  के भाव के बिना कोई परिवार नहीं चल सकता, यह अब महिलाओं को ही नहीं पुरुषों को भी समझना होगा।

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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

स्वाभिमान, संविधान और वतन की लड़ाई में सरदार डी एस बिन्दरा का योगदान ------ शैलेन्द्र सिंह ठाकुर





Shailendra Singh Thakur
 09-02-2020
आप पूछते हैं शाहीनबाग की फंडिंग कहाँ से आ रही है. कौन बिरयानी खिला रहा है, कौन पानी के पैसे दे रहा है. पहले इस आदमी को देखिए. इनका नाम D.S. बिंद्रा है..
ज़ूम करिए, इनके चेहरे को पढ़िए. एक सब्र जैसा कुछ तो दिख होगा!..अब ठहरिए, पता है आपको! इस इंसान ने शाहीनबाग के लिए चलने वाले लंगर के लिए अपना फ्लैट बेच दिया है. ताकि उस पैसे से लंगर चालू रख सके, जहां दोनों मजहबों के आदमी-औरतों के पेट तक रोटी-चावल पहुंच सकें.

बीस दिन पहले सिख भाई पंजाब से शाहीनबाग पहुंचें, अब तक 17 बसें शाहीनबाग में डेरा जमाए हुए हैं. एक खास जगह पर तो मुसलमानों से ज्यादा सिख दिखाई दे रहे हैं. बीस दिन पहले एक लंगर शुरू हुआ. करीब 50 हजार से अधिक लोगों का भोजन इंतजाम वहां होता था. सिख धर्म में परम्परा में है एकबार जो लंगर शुरू हुआ तो खत्म नहीं होता, रुकता नहीं है, उसकी कीमत चाहे जो हो. धीरे धीरे सब पैसे बीत गए, लंगर चलाने के लिए पैसों की जरूरत हुई, इस आदमी के पास 3 फ्लैट थे. तुरंत ही बिना ज्यादा सोचे बिचारे अपना एक फ्लैट बेच दिया. घर वालों ने शुरू में विरोध किया. लेकिन अब सब साथ आ गए हैं, बेटा कह रहा है पापा प्राउड ऑफ यु, आपने वो काम किया है जिसपर गर्व हो रहा है. आज बीबी साथ है, भाई-बेटा साथ हैं.

ये आदमी कह रहा है यदि जरूरत पड़ी तो बाकी दो फ्लैट भी बेच दूंगा, लेकिन लंगर नहीं रुकेगा. इस कहानी को जानने के बाद भामाशाह की याद आ रही है, जिन्होंने अपने पूरे जीवन की संपत्ति महाराणा प्रताप को सौंप दी थी, ताकि महाराणा वतन की रक्षा कर सकें, ताकि सम्मान की लड़ाई रुकने न पाए, स्वशासन की लड़ाई रुकने न पाए... यहां भी स्वाभिमान, संविधान और वतन की लड़ाई इस मुल्क की औरतें लड़ रही हैं. जिसे रुकने न देने की जिम्मेदारी कुछ लोगों ने अपने कंधों पर ले रखी है.

इसी मुल्क में कितने गुरुओं, बाबाओं के भंडारे चलते हैं, स्कूल, अस्पताल चलते हैं. कोई प्रश्न नहीं करता पैसे कहाँ से आते हैं. कोई प्रश्न नहीं पूछता कि आरएसएस द्वारा देशभर में महीनों चलने वाले ट्रेनिंग कैम्पों के लिए पैसे कहां से आते हैं? लेकिन जब भी मजदूर या किसान दिल्ली की सड़कों पर आते हैं, पत्रकार उनसे टोपी-पानी, झंडों के पैसे पूछने लगते हैं. ताकि लोगों को इनपर एक डाउट सा क्रिएट हो, ताकि लड़ाई जनसमर्थन थोड़ा कमजोर हो, इन पत्रकारों के सवाल नेताओं, मंत्रियों की होने वाली रैलियों से नहीं होते, लेकिन मजदूर, किसानों, आंदोलनकारियों से होते हैं.

लेकिन इन्हें खबर नहीं, आज भी भामाशाह जिंदा हैं, आज भी गुरुगोविंद जिंदा हैं। ये औरतें महाराणा की तरह ही लड़ने वाली वीर यौद्धाएं हैं, इनके स्वाभिमान को खरीद सकें इतनी औकात इस देश के प्रधानमंत्री या गृहमंत्री में नहीं है...

यदि अगली बार कोई आपसे शाहीनबाग की फंडिंग पर सवाल करे तो बताना एक सिख भाई ने अपना फ्लैट तक बेच दिया है, ऐसे ही अनगिनत ईमान रखने लोग शाहीनबाग के लिए खड़े हुए हैं. जो जितना सक्षम है उतनी मदद के लिए आगे बढ़ा हुआ है, कोई घी दे जा रहा है, कोई चावल, कोई गेहूं.... कोई गैस सिलेंडर.

कुछ तो बात है न है इस मुल्क में कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...

(सिख कौम अपने किए की गाती नहीं है, लंगर के लिए फ्लैट बेचने वाली बात सरदार जी के मुंह से बातचीत में अनायास ही निकल गई थी,)

Monday, 10 February 2020

एक निहायत शर्मनाक हादसा ------ रमाशंकर बाजपेयी

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Delhi के Gargi College में छेड़छाड़ का मामला Lok Sabha में उठा है. Congress सांसद गोरव गोगोई ने इसका जिक्र लोकसभा में किया है, गोगोई ने कहा है कि सरकार इसमें क्या कर रही है? शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने जवाब देते हुए कहा है कि बाहरी लोग कॉलेज में घुसे थे.थोड़ी देर पहले दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल यहां पहुंची. राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी मामले का संज्ञान लेते हुए कॉलेज में एक टीम भेजने की बात कही है.







 संकलन-विजय माथुर, 
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Saturday, 8 February 2020

हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग गठबन्धन विभाजन का जिम्मेदार ------ मनीष सिंह

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अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए नेहरू लियाकत पैक्ट हुआ था।  पैक्ट की पहली. लाइन में "इर्रिस्पेक्टिव ऑफ रेलीजियन" लिखा था। प्रंधानमंत्री जी ने अपने संसदीय भाषण CAA को उचित साबित करने के लिए इसी नेहरू-लियाकत पैक्ट को आधार बनाया। बीच का वो शब्द स्किप कर गए।


प्रधानमंत्री की स्पीच की तथ्यात्मक मिथ्यावाचन को टेलीग्राफ ने करीने से उजागर किया है। 
 बंगाल मंत्रिमंडल ,1941में हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार के वित्तमंत्री बने



Manish Singh
07-02-2020 
विभाजन का जिम्मेदार कौन... क्रोनोलॉजी समझिये। 
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👉विभाजन पर सहमति क्यो दी गयी-इसलिए कि दंगे नही रुक रहे थे.. 
👉दंगे क्यो नही रुक रहे थे- क्योकि पुलिस बैठे देख रही थी
👉पुलिस क्यो बैठे देख रही थी- क्योकि दंगाइयों की सरकार थी
👉 दंगाई सत्ता तक कैसे आये - गठबंधन बनाकर
👉 गठबन्धन किनका था- हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का
👉 इनके लीडर कौन थे- सावरकर और जिन्ना
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1940 में मुस्लिम लीग पृथक पाकिस्तान का प्रस्ताव पास कर चुकी थी। 1941 में हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार के वित्तमंत्री बने।

सिंध की मुस्लिम लीग सरकार ने 1943 में पाकिस्तान बनने का रिजोल्यूशन पास किया। इस सरकार में हिन्दू महासभा के 3 मंत्री थे। प्रस्ताव के बाद भी मंत्रिमंडल में बने रहे।

कांग्रेस कहाँ थी??- विपक्ष में।

गांधी कहां थे??- विभाजन के खिलाफ जान देने की बात कर रहे थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद को कांग्रेस का अध्यक्ष बना रहे थे। जिन्नाह को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत कर रहे थे। महासभाइयों के लिए ये मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा थी।

गांधी को मारने की कोशिशें तेज हो गयी। 
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1941 में बंगाल के मुख्यमंत्री फजलुल हक, 1950 के दशक में पाकिस्तान के गृहमंत्री हो गए। उनके मंत्रिमंडल के वित्त मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के फाउंडर प्रेजिडेंट हुए। 1946 आते आते जिन्ना को महासभा के टेक की जरूरत नही रही। महासभाई दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंके गए। लीग ने अपने इलाकों में दंगे करवाकर उसे पाकिस्तान बनवा लिया।

तो श्यामा प्रसाद नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। 
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नीचे एक नक्शा है। खुद से पूछिए की जो इलाके कांग्रेस के थे, वो पाकिस्तान क्यों नही बने। जवाब मिल जाएगा।

नीचे फोटो में भारत का पहला टुकड़े टुकड़े गैंग भी है। फोटो बंगाल मंत्रिमंडल की है, जो केंद्र में खड़े जिन्ना के साथ हैं। शक्लों से नही, कपड़ों से नही, तो टोपियों से पहचान लीजिये। आपका इतिहास का जानकार न होना शर्मनाक नही।


मगर जानने के बाद भी ... ?? डूब मरो। 70 साल आपके बाप-दादे इनसे नफरत क्यो करते रहे, कभी सोचा ???

https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2731672406917059









संकलन-विजय माथुर
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Sunday, 2 February 2020

इनका असल निशाना संविधान है ------ उर्मिलेश

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सन् 1948 की 30 जनवरी को सांप्रदायिक-फासीवादियों ने 'राष्ट्रपिता' पर निशाना साधा। तब से वे लंबे समय तक समाज और सियासत में हाशिए पर रहे! लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वे बड़ी ताकत के साथ उभरे हैं। इस बार 30 जनवरी के शहादत-दिवस को फिर रक्तरंजित किया गया! यह एक असमाप्त सिलसिले का हिस्सा है! इनका असल निशाना संविधान है! 30 जनवरी की हालिया घटना पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण:


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 1 February 2020

कुणाल कामरा : प्रतिबंध और पायलट

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 संकलन-विजय माथुर