सारा खेल समझे ------------------------ आज संसार भयभीत है कि कोरोना से उसका बचाव कैसे हो, पर क्या आप वास्तव में भयभीत हैं? अथवा आपको भयभीत होने पर मज़बूर किया जा रहा है भविष्य के व्यवसाय को सुरक्षित करने हेतु, आइये कुछ चरणों में इसे जानने का प्रयत्न करते हैं| क्या है कोरोना:- कोरोना जैसे लगभग ३२०००० वायरस/बैक्टीरिया संसार में हम सबके आस पास रहते हैं और जब कभी भी हमें कोई फ्लू होता है तो वो इनकी ही वजह से होता है, साधारणतः फ्लू उचित भोजन लेने से तीन दिन में स्वतः ही समाप्त हो जाता है| कोरोना भी इसी प्रकार का एक फ्लू है जो किसी भी उत्तम रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले को कुछ हानि नहीं पहुंचा सकता| २-४ दिन पूर्व ही "New England Journal of Medicine" ने एक पेपर पब्लिश करके बताया है कि कोरोना से मृत्यु का खतरा मात्र ०.१% है अर्थात १००० लोगों को यदि कोरोना हो तो मात्र एक कि मृत्यु होगी अतः ये साधारण सर्दी-जुकाम-बुख़ार की भांति ही है| यदि यह साधारण फ्लू ही है तो इतना हल्ला क्यूँ:- दरअसल जिसे आप महामारी समझ रहे हैं वास्तव में वो एक व्यवसायिक संधि है जो अमेरिका और चीन के बीच में हुई है, संधि का आधार है कि कोरोना वायरस को नियंत्रित करने हेतु जो भी उपकरण अथवा दवाइयां अभी अथवा भविष्य में बिकेंगी उनका लाभ चीन और अमेरिका में आपस में बांटा जायेगा और इन सबका निर्माण वो ही पेटेंट कानून के आधार पर कर पाएंगे| अभी आपको ये गप्प लगेगी पर इसकी असलियत जानने हेतु मैं आपको कुछ पीछे ले जाना चाहता हूँ, १९८४ में इसी प्रकार से अमेरिका ने अफवाह फैलाई एचआईवी वायरस की और लोगों को इतना डरा दिया कि यदि किसी पीड़ित का हाथ छू गया, रुमाल छू गया तब भी यह फ़ैल जाएगा| चारों ओर बस एचआईवी का ही भय था और इसी बीच उस समय इन लोगों ने जांच हेतु उपकरण और बचाव हेतु खूब वस्तुएं बेंची, उपरांत इसका टीका बना दिया जो कि अब हर बच्चे को पैदा होने के कुछ समय में ही लगा दिया जाता है, डॉक्टर भी प्रायः किसी भी रोग में इसकी जांच करवाते रहते हैं पर इसके पीछे की सच्चाई ये है कि १९८४ से आजतक एक भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसमें एचआईवी का वायरस पाया गया हो अथवा किसी की मृत्य एचआईवी से हुई हो, यदि ऐसा कोई शोधपत्र आपके पास हो तो अवश्य हमें उपलब्ध करावें, लोग एड्स से मरे हैं पर इसको एड्स से मत जोड़िए क्यूंकि एड्स एक शारीरिक रोग है और एचआईवी एक वायरस दोनों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है| स्मृति में रहे कि एचआईवी के लिए अमेरिका और फ़्रांस ने आपस में संधि की थी| इस प्रकार की ही कहानी टीबी की है| ऐसी और भी बीमारियां हैं पर इन दोनों का ही लगभग हर देश प्रतिवर्ष हज़ारों करोड़ का बजट बनाता है और पैसा अमेरिका के पास जाता है क्यूंकि दवाइयों व उपकरण बनाने के पेटेंट उनके पास हैं, यह उनकी सदैव के लिए बनी एक स्थाई आय है| इसी प्रकार का एक बजट कुछ दिनों में कोरोना का बनेगा और उनके अभी हो रहे कुछ आर्थिक नुकसान से लाखों गुना बढ़के उन्हें प्रतिवर्ष मिलने वाले हैं| यह हानि नहीं उनका इन्वेस्टमेंट है लाइफटाइम फिक्स रिटर्न के लिए| फिर लोग मर कैसे रहे:- आपके मन में प्रश्न होगा कि लोग तो मर रहे हैं, पर कैसे पता चला है कि मरने वाला कोरोना से मरा है| इसकी जांच हेतु बस एक ही परिक्षण होता है जिसे पीसीआर टेस्ट कहते हैं पर संभवतः आपको नहीं पता कि ये जांच प्रामाणिक नहीं है, यह जांच यदि किन्हीं भी १०० स्वस्थ लोगों पर भी की जाएगी तब भी ये उनमें से एक को कोरोना का पॉज़िटिव केस बताएगी क्यूंकि इसके बारे में कहा जाता है कि "PCR test can detect Corona with 99% specificity" और स्वयं इसके निर्माता श्री कैरी मलिस ने कहा था कि "" The PCR test is for genetic sequencing of the virus and not a test for the virus itself". इसके साथ ही यदि आप तमाम देशों में होने वाले परीक्षण और पॉजिटव मिले मामलों का औसत निकालेंगे तो आपको ज्ञात हो जाएगा कि यह किट कैसे कार्य करती है अतः जो लोग मर रहे हैं वो या तो बहुत कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते मर रहे हैं अथवा वो जिन्हें पहले से ही कोई गंभीर रोग है और वो वृद्ध हैं अथवा उन्हें ज़बरदस्ती कोरोना से मरा बताया जा रहा है| प्रतिवर्ष पूरे विश्व में लगभग १ करोड़ ७० लाख लोग वायरस व बैक्टीरियल इन्फेक्शन से मरते हैं पर उनमें से अधिकांश का बाज़ार बन चुका है अतः उन पर कोई चर्चा नहीं है| उदाहरण हेतु टीबी, टीबी से पूरे विश्व में प्रतिवर्ष लगभग १५ लाख लोग मरते हैं और इनमें से ५ लाख तो मात्र भारत में ही मरते हैं पर इसके बचाव हेतु आपको कुछ नहीं बताया जाता क्यूंकि इसके हज़ारों करोड़ का बाज़ार बना हुआ है पर कोरोना टीबी की तुलना में बिल्कुल भी हानिकारक नहीं है पर इसका इतना भयभीत कर देने वाला प्रचार बस इसलिए ही हो रहा है क्यूंकि आप डरेंगे नहीं तो इनकी उपकरण और दवाइयां कौन खरीदेगा? प्रतिवर्ष ऐसे ही बाज़ार खड़े किये जाते हैं कभी स्वाइन फ्लू, कभी बर्ड फ्लू, कभी डेंगू, कभी चिकेनगुनिया, कभी इबोला और कभी कोरोना के नाम पे और इन सबकी दवाएं व उपकरण बनाने के पेटेंट लगभग सदैव अमेरिका के पास ही रहते हैं| क्या आपको लगता है कि ये पहले वाले वायरस - बैक्टीरिया सब कोरोना के भय से कहीं दुबक के बैठ गए हैं नहीं ये भी उतने ही मौजूद हैं बल्कि कोरोना से बहुत अधिक हैं पर उनको इसलिए नहीं दिखाया जा रहा क्यूंकि उनका बाज़ार स्थापित हो चुका है, सरकारें उसका बजट बनाती हैं और सब मिल बांटके खाते हैं| संभवतः अब आपको कुछ खेल समझ आया हो| फिर क्या करें:- कुछ भी न करिए, सबसे पहले तो भयभीत होना बंद करिये| अपना भोजन और रोग प्रतिरोधक क्षमता उचित रखिए कभी भी जीवन में ऐसा कोई रोग आपको नहीं लगेगा| सैनिटाइज़र का उपयोग करें अथवा नहीं:- सेनेटाइजर का उपयोग आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को और दुर्बल कर देगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना हर सामान बेचने में बहुत चतुर तो हैं ही साथ में वो एड सेल भी बखूबी करते हैं। देखिए, हमारे हाथों में सदैव विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया रहते हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में फ्रेंडली अर्थात शरीर हेतु मित्र बैक्टीरिया बोला जाता है जो कि आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत बनाये रखने में सहायतार्थ होते हैं, जब आप सेनेटाइजर का उपयोग करते हैं तो दूषित बैक्टीरिया तो आपके पास पहले ही नहीं होता है पर उसके चक्कर में आपके ये मित्र बैक्टीरिया पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं और जिसके कारण आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बड़ा आघात लगता है व आप शीघ्र ही बीमार पड़ने लगते हैं और इस प्रकार पहले कंपिनयां आपको सेनेटाइजर बेचती हैं और फिर बाद में वही कंपनियां दवा। दूसरी बात बैक्टीरिया मारने हेतु जो रसायन आपने अपने हाथों में डाला और पश्चात उन्हीं हाथों से कुछ खाया तो निसंदेह वो विष्कारी रसायन आपके शरीर में भी जाएगा जो कि घातक है, क्या आप डिटोल अपने हाथों में चुपड़ के मुंह से चाट सकते हैं?? मास्क पहनें अथवा नहीं:- प्रथम बात तो ये कि यह वायरस वायु में घूमने वाला वायरस नहीं है अतः इसका मास्क से कोई लेना देना नहीं है यह शारीरिक स्पर्श से ही फैलता है दूसरी बात कि यह अथवा कोई भी वायरस इतने सूक्ष्म होते हैं कि वो शरीर के किसी भी छिद्र से भीतर जा सकते हैं यहां तक कि रोमछिद्रों से भी, तो ऐसे में आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता ही आपको बचाएगी कोई सेनेटाइजर अथवा मास्क नहीं, उसको मज़बूत रखिए और आनंद में रहिए| डिसइंफेक्टेंट डालें अथवा नहीं:- यह एक मूर्खतापूर्ण कृत्य है, ऐसे विषैले पदार्थ डालने से लोगों के ऊपर और भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, आज से लगभग ३० - ४० वर्ष पूर्व टीबी व अन्य संक्रमित रोगों से बचने हेतु प्रतिदिन सरकारों की ओर से डीडीटी का छिड़काव किया जाता था पर अब ३० वर्ष बाद शोध में ये निकल के सामने आया कि उस डीडीटी के छिड़काव के कारण ही पोलियो नामक खतरनाक बीमारी का जन्म हुआ था अतः इन सबसे दूर रहें तो ही उत्तम है| विशेष नोट - उपरोक्त में से अधिकांश जानकारियां देश विदेश के जाने माने चिकित्सक व जनमानस की भलाई हेतु "एचआईवी सदी का सबसे बड़ा धोखा" व "हार्ट माफिया" जैसी पुस्तकें लिख चुके श्री विश्वरूप रॉय चौधरी जी के वक्तव्यों से ली गयी हैं|
एक वर्सेटाइल पर्सनैलिटी के धनी फारुख अब्दुल्ला साहब ने मुझे हमेशा बहुत आकर्षित किया, चाहे मंत्रमुग्ध होकर उनका रामधुन गाना हो या फिर मस्त होकर बॉलीवुड गानो पर नाचना या खुल कर अपनी बात को रखना । पिछले सात महीने से जबसे धारा 370 समाप्त की गई उन पर पीसीए लगाकर उन्हें कैद में रखा गया था,कल उन्हें छोडा गया तो तमाम चर्चाएं शुरु हो गईं, बिना ये सोचे कि एक अस्सी बर्ष का इंसान जो कि सात महीनों की कैद में था उसकी मानसिक स्थिति इस समय क्या होगी ? मैं इतना जानती हूं कि स्वतंत्रता के बाद कश्मीर को भारत में बने रहने के लिये सबसे ज्यादा प्रयत्न शायद इसी इंसान ने किये । और ये देशभक्ति उन्हें विरासत में मिली है। मेडिकल साइंस के विद्यार्थी और इंग्लैंड में सफल पेशेवर चिकित्सक रह चुके आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी,डॉ फारूख अब्दुल्ला की ज़िंदगी बहुआयामी और दिलचस्प किरदारों को समेटे हुए है। फारुख के साथ विवाद भी कम नहीं जुड़ते हैं। पर हर स्थिति में ऊपर से बेफिक्र फारुख अब्दुल्ला अंदर से एक भावुक एवं गम्भीर इंसान हैं; और यदि तेवर में आ जाएं तो सामने सन्नाटा छा जाता है। उनका एक चिकित्सक से लेकर जम्मू काश्मीर के 3 बार के मुख्यमंत्री तक का सफर; उनके परिवार का सप्रू ब्राह्मण(कौल) से लेकर इस्लाम अपनाने तक का सफर,इंगलैंड परस्ती के फैशन और क्रिकेट से लेकर आम कश्मीरी के जीवन मे घुल-मिल जाने का सफर, और कश्मीर में इस्लाम का परचम उठाने से लेकर माता के जयकारे तथा राम धुन गाने तक का सफर फारुख अब्दुल्ला के एक ऐसे विरोधाभासी किन्तु रोचक व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हैं जिससे आप सहमत न भी हों किन्तु उससे दूरी भी नहीं चाहेंगे। सन 1890 तक अब्दुल्ला परिवार कश्मीरी ब्राह्मण था।इनका गोत्र सप्रू था और फारुख के परदादा का नाम पंडित राघवराम कौल था।इस्लाम स्वीकार करने के बाद इनके दादा का नाम शेख मुहम्मद इब्राहिम था।एक छोटे कारखाने के मालिक इस परिवार का पश्मीने का कारोबार था।ये लोग शाल-दुशाले के अच्छे व्यापारी थे। कश्मीर की राजनीति में दखल रखने वाले फारुख के पिता शेख अब्दुल्ला जिनका पंडित नेहरू से अच्छा दोस्ताना था ने,1930 में "मुस्लिम कांफ्रेंस" के नाम से एक राजनीतिक दल की स्थापना की।बाद में देश के अन्य कट्टर मुस्लिम परस्तों से अपनी पृथक क्षवि बनाने के उद्देश्य से 1939 में इस दल का नाम बदल कर "नेशनल कांफ्रेंस" कर दिया गया।यह नाम अभी भी चल रहा है।आज़दी के दौर में नेहरू- गांधी का विश्वास शेख अब्दुल्ला पर था इसलिए उन्हें जम्मू कश्मीर रियासत का प्रधानमंत्री बनाया गया।इसी समय मे एक बार राजा हरिसिंह ने शेख अब्दुल्ला को जब गिरफ्तार करवा दिया तो नेहरु क्रोध में काश्मीर पहुंच गए थे।किन्तु,बाद में शेख अब्दुल्ला पर अंग्रेजों की शह पर पाकिस्तान के लिए जब जासूसी का आरोप लगा तो उन्हें कैद करके बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर की कमान सौंपी गई।बख्शी गुलाम मो, शेख अब्दुल्ला सरकार में गृहमंत्री थे। बाद में भी शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार और रिहा होते रहे और अंत मे नेहरू की मृत्यु के पूर्व नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच एक समझौता हो गया।कश्मीर के प्रधानमंत्री का पद मुख्यमंत्री में बदल दिया गया। 1983 में अपनी मृत्यु के पूर्व शेख अब्दुल्ला 3 बार कश्मीर के गृहमंत्री भी रहे। पिता शेख अब्दुल्ला की तरह फारुख अब्दुल्ला भी 3 बार कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। बाद में उनका पुत्र उमर अब्दुल्ला भी जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बना और फारुख अब्दुल्ला कश्मीर का बन्द दायरा छोड़ कर सांसद बने और केंद्र की राहनीति में आ गए। कदाचित वे अपनी क्षवि एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। समय-समय पर विवादों में घिरने वाले इस परिवार पर पाकिस्तान परस्ती के आरोप लगते रहे हैं जिसका कारण-कश्मीर के आंतरिक विशेष हालात अधिक रहे हैं,,,किन्तु यह भी सत्य है कि कश्मीरी अलगाववादी माहौल में फारूख और उनका परिवार भारत से जोड़े रखने की एक कड़ी के रूप में भी देखा और पहंचाना जाता है। डॉ फारुख अब्दुल्ला को अपनी सेक्युलर छवि प्रदर्शित करने से विशेष लगाव है।उनकी पत्नी इंग्लैड से थींऔर पुत्र उमर अब्दुल्ला ने भी हिन्दू लडकी पायल से शादी की थी, फारुख अब्दुल्ला की बेटी सारा अब्दुल्ला राजस्थान के कद्दावर नेता रह चुके राजेश पायलट के पुत्र और कांग्रेसी सांसद सचिन पायलट की पत्नी है।जबकि उनकी मां भी स्कॉटलैंड मूल से थीं। इस उम्र में भी युवाओं को मात देने का जज़्बा रखने वाले मस्तमौला फारुख अब्दुल्ला के अनेक वीडियो वायरल होते रहते हैं,जिनमे कभी शराब पीने के मंत्र का पाठ करते,कभी मंच से रामधुन गाते तो कभी तीर्थयात्रियों के साथ माता का जयकारा लगवाने वाले धार्मिक नेता के रूप में दिखाई पड़ जाते हैं। फारुख की गायन में पकड़ है और उम्र के हिसाब से वे डांस करने से भी परहेज नहीं करते हैं। कुल मिला कर डॉ फारुख अब्दुल्ला एक ऐसे व्यक्तित्व के सियासतदान हैं जिनमे हर उम्र वर्ग के लोग रुचि रखते हैं। साभार :
भारत के इतिहास और राजनीतिक दांव पेंच के पिछले 160 बरस अगर आप नजदीक से देखना चाहते हैं, तो ग्वालियर के महल की खिड़की से देखिए। यहां पर शो की फ्रंट सीट लगी है। सब नजदीक से साफ साफ दिखता है। -- शो 1857 से शुरू होता है।तब तक लुटेरी कम्पनी सरकार ने, दीवानी पर कब्जे जमाये थे, और फौजदारी अधिकार अधीनस्थ रजवाड़ो के हाथ में छोड़ रखा था। ऐसे मे पब्लिक डीलिंग रजवाड़ो के हाथ थी। जब 1858 में कम्पनी को हटाकर सीधे ब्रिटिश क्राउन ने सत्ता हाथ मे ली। उन्होंने 1857 के ग़दर से गहरे सबक लिए। पहला- इस ग़दर में हिन्दू मुस्लिम जनता शिद्दत से, साथ साथ लड़ी थी। इसे डिवाइड करना था। दूसरा- राजाओ नवाबों का कोई भरोसा नही है, पब्लिक डीलिंग सीधे सरकार को हाथ मे लेना होगा। बांटने के लिए अंग्रेजो ने मुस्लिम रजवाड़ों से कड़ा और हिन्दू रजवाड़ो से नरम बिहेव करना शुरू किया। मुस्लिम नवाब और उच्च वर्ग हाशिये में फील करने लगे। हिन्दू मुस्लिम एकता टूटी। अंग्रेजो का ये नरम गरम बर्ताव नैचुरल था। तब उत्तर भारत में या तो मुगल बिखराव से उपजे मुस्लिम रूलर थे, या मराठा खंडहरों पर उगे हिन्दू रजवाड़े। ग़दर में मुस्लिम रजवाड़े, और वहाबी आंदोलन से उपजे जननायक कहीं ज्यादा मजबूती से आगे थे। सिंधिया आदि मराठा मूल के रजवाड़े कम्पनी सरकार के साथ गए। असल मे, विद ड्यू रिस्पेक्ट टू रानी लक्ष्मीबाई.. 1857 की क्रांति का मंच झांसी नही, बेगम हजरत महल का लखनऊ था। ये हमे आज नही पता, मगर तब अंग्रेजो को पता था। तो सत्ता से बेदखल होते मुस्लिम वर्ग में जो होशियार थे, उन्होंने सामाजिक सुधार और शिक्षा की ओर ध्यान दिया। अगर नवाबी न रहे, तो समाज के लोग पढ़ लिखकर अफसर ही बन जाएं। सत्ता में भागीदारी रहेगी। नतीजतन अलीगढ़ का कालेज आया, मुस्लिम बुद्धिजीवी साथ आये। नवाबो ने कॉलेज के लिए दान दिया। इसी में से मुस्लिम लीग निकलने वाली थी। - इधर डायरेक्ट पब्लिक डीलिंग के लिए अंग्रेजों ने बनाई कांग्रेस। देश भर के एनजीओ, वकील टाइप लोगो की सालाना सभा। इसमे पढ़े लिखे प्रगतिशील लोग थे। कोई दिक्कत हो, तो सरकार से आवेदन निवेदन करके निपटा लें, न कि ग़दर विद्रोह की सोचे। तिलक द्वारा कांग्रेस की तासीर बदल देने के पहले ये सिस्टम काफी सफल हुआ। कांग्रेस प्रगतिशील लोगो की संस्था थी। अनुनय विनय अक्सर देशी राजा के टैक्स, कानून अत्याचारों के खिलाफ होते थे। जब जब कांग्रेस की सुनी जाती, राजा नवाबों की जेब कटती। तो राजाओ नवाबों इसे काउंटर करने के लिए जनसंगठन चाहिए था। मुस्लिम नवाबों ने पहले एक्ट किया, मुस्लिम सेंट्रिक बुद्धिजीवीयो से मुस्लिम लीग बनवाई। पीछे पीछे हिन्दू रजवाड़े थोड़ा लेट से जागे। सेम प्रोसेस से बीएचयू बना, मदनमोहन मालवीय ने राजाओ से दान लिया। सिंधिया ने भी दिया। मालवीय जी सबको साथ लिए। उनके संगत के हिन्दू सेंट्रिक बुद्धिजीवियों से धीरे से हिन्दू महासभा बन गयी। -------- अब तीन टीमें खेल रही थी। समय के साथ कप्तान बदलते हैं। हिन्दू राजाओ की टीम हिन्दू महासभा, कप्तान सावरकर। नवाबों की टीम मुस्लिम लीग, कप्तान जिन्ना। और आम पब्लिक की टीम कांग्रेस, कप्तान गांधी। आगे चुनाव आते हैं। तीनो में मैच चलता है। अंपायर अंग्रेज हैं, कभी इसके फेवर में रोंठाई करते है, कभी उंसके फेवर में रोंठाई करते है। मगर दरअसल हमेशा अपने फेवर में रोठाई करते हैं। रोठाई बोले तो बेईमानी। खैर .. यहां पब्लिक की टीम कांग्रेस मजबूत है। तो कई बार राजा और नवाबो की टीम मिलकर उसका मुकाबला करती हैं। फिर आपस मे भी दंगा करती है। किस्सा चलता रहता है। इनके लफड़े में हिंदुस्तान दो टुकड़े हो जाता है। नवाबों की टीम को पाकिस्तान मिल जाता है। भारत पब्लिक की टीम, याने कांग्रेस के हाथ लगता है। राजाओ की टीम याने हिन्दू महासभा टापते रह जाती है। इस टीम के लीडर गांधी हत्या में कटघरे में थे। उन्हें कूड़े दान में फेंककर पुर्नगठन होता है। टीम का नया नामकरण होता है। मगर जनता माफ करने को तैयार नही। इधर नेहरू सम्विधान और धर्मनिरपेक्षता ले आते हैं। इनके हिन्दू राज्य, बाबा, पंडे, सब खिसियाये रह जाते हैं। अभी ये 70 साल खिसियायें रहने वाले हैं। --- हिन्दू महासभा के सबसे बड़े पोषक और फ़ंडर महाराज सिंधिया थे। विलय के बाद नेहरू ने चाहा कि जीवाजी कांग्रेस जॉइन कर लें। सेंट्रल प्रान्त का राज्यपाल भी बनाया। मगर जीवाजी तन मन धन से महासभाई थे। नेहरू के लिहाज में पत्नी को कांग्रेस में भेजा। विजयाराजे कांग्रेस सांसद हुई। मगर ध्यान दें, की पत्नी भले कांग्रेस में थी, लेकिन जनसंघ को जो भी सीटें आती रही, वे पूर्व ग्वालियर राज्य से ही आती रही। इसे ड्युअल गेम कह सकते हैं क्या?? आखिर उस दौर में महल की मर्जी के बगैर जीतने की औकात किसकी थी?? 1967 में डीपी मिश्र, इंदिरा, विजयाराजे के ईगो क्लैश में, डीपी की सरकार जाती है। राजमाता सिंधिया जनसंघ के विधायकों के समर्थन से कॉंग्रेस तोड़कर पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनवाती है। अभी नेहरू की बेटी, जो राजमाता से बेहद जूनियर है, पीएम हो चुकी। राजमाता मुहिम छेड़कर सारे रजवाड़ो को फिर एक कर रही हैं। मिशन- महासभा वाली टीम/जनसंघ को पुनर्जीवित करना फंडिंग करना, उसे सत्ता में लाना। लेकिन इंदिरा तो इंदिरा थी, सारे मास्टरस्ट्रोक की अम्मा थी। पैसा राजाओ की ताकत थी। पैसा जो सरकार से मिलता था, अपना राज्य भारत मे विलय करने के बदले। ये प्रिवीपर्स कहलाता था। इंदिरा 8 बजे टीवी पर हाथ नही हिलाई, मगर राजाओ का धनस्रोत सूख गया। प्रिवीपर्स खत्म हो चुका था। जयपुर में छापा पड़ा, मिला कुछ नही। 1500 डॉलर मिले, विदेशी मुद्रा कानून में राजमाता रानी गायत्री देवी डिटेन हुई। रजवाड़ो ने सरेंडर कर दिया। मगर राजमाता भी शेरनी थी। जनसंघ के साथ खुलकर रही।इमरजेंसी में राजमाता सिन्धिया को जेल भेजा जाता है। बेटे माधवराव नेपाल भाग जाते हैं। फिर कोई सेटिंग होती है। बेटा कांग्रेस जॉइन कर लेता हैं। कांग्रेस सांसद हो जाता है। इंदिरा की हत्या हो जाती है। -- राजीव और माधव विदेश की पढ़ाई के वक्त दोस्त थे। व्हाट्सप गल्प है कि सोनिया से राजीव माधवराव के मार्फ़त मिले थे। कौन जाने। जानिए इतना कि जीवाजी के खिलाये पढ़ाये बढ़ाये अटल से, राजीव माधवराव को सीधे भिड़ा देते हैं। अटल खेत रहते हैं। ये 1985 था। भाजपा दो सीटों पर सिमट गई। परिवार में सम्पत्ति और दूसरी वजहों से मतभिन्नता है। माधव की बहने मा के साथ हैं। परिवार की स्वाभाविक तासीर के अनुरूप भाजपा में जाती हैं। एक वंसुन्धरा दो बार सीएम हो चुकी। दूसरी एमपी में सीनियर विधायक हैं। इधर माधव को कॉन्ग्रेस में ऊंची जगह मिलता हैं। राजीव के बाद गांधी परिवार के निर्वासन के दौर में वे कांग्रेस छोड़ते हैं। भाजपा में नही जाते, अपनी पार्टी बनाकर जीतते हैं। परिवार का दौर लौटते ही कांग्रेस में लौट आते हैं। विधि का विधान, कांग्रेस की सत्ता लौटने के ठीक पहले देहांत हो जाता है। ज्योतिरादित्य उनकी जगह लेते हैं। मंत्री, सांसद, सीएम कैंडीडेट (2013) सब होते हैं। उन्हें पिता की लिगेसी और खानदान की तासीर में से एक का चुनाव करना था। ताजा खबरे यही हैं कि उन्होंने अपने दादाजी की टीम का बारहवां खिलाड़ी होना तय किया है।