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वस्तुतः राजनारायण के केस का खर्च अप्रत्यक्ष रूप से मोरारजी देसाई ने ही उठाया था अतः उनका समर्थन करना स्वभाविक था। ** रामनरेश यादव भी राजनारायण की ही पसंद थे और सांसद थे विधायक उनके विरुद्ध थे अतः उनके विरुद्ध बगावत हुई और उनको हटा कर बनरसीदास गुप्ता को सी एम बनाया गया था जिन्होंने बाद में हिन्दू - हिन्दू के आधार पर संसदीय चुनाव जीत था ।
इन तथ्यों का उल्लेख लेख में शायद इसलिए नहीं किया गया है कि लेखक सत्तारूढ़ सरकारों के समर्थक हैं । संकलन-विजय माथुर,
फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
कुछ दिनों पहले हमारे देश में भी ट्विटर पर एक मुहिम शुरू हुई थी कि कोरोना संकट के कारण मोदी जी को कम से कम 10 साल के लिए प्रधानमंत्री बना दिया जाए। .......... हंगरी में क्या हुआ है यह बता रहे है वाचस्पति शर्मा 'हंगरी का कोरोना संकट - और सबक' --------------------------------------------- हंगरी में कोरोना संकट के समय वहां की सरकार के मुखिया विक्टर ओरबान ने आपातकाल लागू करवा दिया है। विक्टर ओरबान अकेला और पहला ऐसा राजनीतिज्ञ है जिसने इस महामारी का फायदा अपनी सत्ता के लिए उठा लिया है। हंगरी का संकट क्या है इसपर थोड़ी देर में आतें है , लेकिन पहले कुछ बेसिक बातें याद कर लेते है। कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो दुनिया का हर राजनीतिज्ञ देश में आपदा आने की स्तिथि में सबसे पहले ये सोचता है की उससे कैसे फायदा उठाया जाए। फिलहाल भारत में कोरोना के बहाने लाखो करोड़ के घोटाले अंजाम दिए जा रहें हैं , धन्ना सेठ शेयर बाजार को कैसे लूटा जाए ये सोच रहें हैं , तो दूसरी तरफ तेल की कीमतें धड़ाम होने की स्तिथि में भी तेल कंपनियों ने लूट मचा रखी है. आप मुसलमान सब्ज़ी वालो को प्रताड़ित कर रहे हो , और उधर सरकार ने आपकी तमाम बचत योजनाओ में ब्याज दर में कटौती कर डाली है। रिजर्व बैंक से पैसा उड़ाने और जनता पर नए सेस टैक्स लगाने की जुगत भिड़ायीं जा रहीं है और इस पूरे ईको सिस्टम को हांकने के लिए पूंजीपति लॉबी ने जिस सरकार को चुन रखा है वो भी इस महामारी से " राजनितिक" फायदा उठाने के फिराक में नित नए हथकंडे अपना रही है ,,या माहौल बनाने की कोशिश में है। पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और देशभक्ति का काल चल रहा है। हंगरी में में जो हुआ उससे हम पूरी तरह अंदाजा लगा सकतें है की कल को ये हमारे देश और दुनिया के कई देशो में आराम से हो सकता है। अब हंगरी पर आतें है। हंगरी में सत्तासीन पार्टी के मुखिया विक्टर ओरबान ने कोरोना सकंट के चलते एक नया कानून पास करके वर्तमान सत्तासीन पार्टी (यानी खुद को ) को अविश्वसनीय राजनितिक और कानूनी अधिकार दे दिए हैं। ये अधिकार किसी भी डिक्टेटरशिप शाशन के समकक्ष ही नहीं बल्कि उससे भी कहीं अधिक हैं। विक्टर ओरबान 2010 से हंगरी का प्रधानमंत्री है , ये 1998 से 2002 तक भी सत्ता में थे , और आठ साल बाद दोबारा राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर वापिस सत्ता में आये और अब तक टिके हुए हैं। आज संसद में ये अपनी पार्टी के साथ पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में हैं। कोरोना संकट के आते ही हंगरी सबसे पहले देशो में था जिसने लॉक डाउन किया था , जो आज की तारीख तक जारी है। स्पष्ट है की बिजनेस, स्कूल और सरकारी कामकाज सब ठप्प है। कोरोना प्रभाव हंगरी में आज लगभग स्थिर हैं , लेकिन विक्टर ओरबान ने लगभग एक महीने पहले ही इस महामारी की वजह से देश में आपातकाल लागू करवा दिया। आपात काल के साथ साथ उन्होंने विशेष कानून भी पास करवा दिया , जिसे हम "रूल बाय डिक्री" कहतें हैं ( अधिक जानकारी के लिए Rule By Decree गूगल कीजिये ). संक्षेप में समझे तो ये कानून ऐसा है की जिसमे कोई भी नया ऐक्ट , कानून , या नया राजनितिक फैसला लेने के लिए संसद , न्याययालय या किसी भी संस्था की इज़ाज़त लेने , बहस चर्चा करने की कोई जरुरत नहीं है। मतलब जो प्रधानमंत्री चाहेंगे वही कानून नियम लागू करवा देंगे। दूसरी बात जो इस कानून को और खतरनाक बनाने का इशारा देती है वो ये की इस कानून की पास करते समय इसमें इसका कोई भी समयकाल निर्धारित नहीं किया है। मतलब ये आपातकाल अब तभी ख़तम होगा जब विक्टर ओरबान चाहेंगे। ये लगभग एक प्रकार का अप्रत्यक्ष एकतरफा राजनितिक तख्ता पलट है। विक्टर ओरबान ने ये काण्ड एक दिन या एक साल में ही नहीं किया। इन्होने सत्ता पाने और उसे एक तानाशाही में परिवर्तित करने के लिए जो रास्ता अपनाया वो कुछ यूँ था। # सबसे पहले ये तत्कालीन सरकारों को कोस कोस कर और राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करके पूर्ण बहुमत से सत्ता में आये . # इनका काम करने का तरीका सॉफ्ट तानाशाही वाला है। कोई भी व्यक्ति या संस्था को ये अपना विरोध करने पर हाशिये पर धकेल देतें हैं। # इन्होने कई ऐसे कानून बनाये जो दिखने में तो साधारण लगते हैं लेकिन धरातल पर लागू करने में बहुत खतरनाक हो जातें है। (नागरिकता कानून याद कीजिये --लगभग वैसे ही). # इन्होने सत्ता सम्हाले बाद पूरा संविधान ही बदल डाला और अब तक सात सालों में तमाम बार अपने हिसाब से उसमे अमेंडमेंट कर चुकें है। # फिर इन्होने धीरे धीरे सारी संस्थाओ ( न्यायपालिका, पुलिस फ़ौज , नौकरशाही आदि ) में अपने पप्पेट बिठाने शुरू कर दिए। # फिर इन्होने धीरे धीरे सारे मीडिया हाउस को अपने या अपने निकटवर्ती व्यावसायिक घरानो को खरीदवा दिए। # फिर इन्होने सीरिया और मध्य पूर्व के देशो में युद्ध के बाद शरणार्थी संकट का सबसे पहले विरोध किया , और बहुत ही उत्तेजक भाषणों से शरणार्थियों के घुसने का विरोध किया। # इन्होने देश के कई बॉर्डर्स में फेंसिंग तक करवा डाली। # गलत इन्फॉर्मेशन फैलाने पर सख्त सजाओ का क़ानून बनाया - लेकिन इसका इस्तेमाल इन्होने अपनी आलोचना करने वाले नागरिको, बुद्धिजीवियों और मीडिया के लोगो के खिलाफ करना शुरू कर दिया। जो आज भी जारी है। स्पष्ट है की इन्हे जर्मनी फ्रांस और अमेरिका के धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का समर्थन किया है , जो की खुद राष्ट्रवाद के नाम पर शरणार्थियों के विरोध और देशी-विदेशी पूंजीपतियों के इशारों पर सत्ता में आने के लिए बैचैन रहतें हैं। यही हाल विक्टर ओरबान का है जो की हंगरी, पश्चिमी यूरोप और अमेरिकी पूंजीपतियों के नाम पर खेलते हुए एक अप्रत्यक्ष तानाशाही शाशन स्थापित करके और देशो के लिए भी एक नज़ीर स्थापित कर चुकें हैं। इस प्रकार कोरोना संकट में आपातकाल लागू करने के पश्चात ओरबान पूरी सत्ता का इस्तेमाल किस किस शोषण और जनता को लूटने की कैसी कैसी आर्थिक नीतियां बनवाने में करेंगे कोई नहीं जानता। अगर ये चालु रहा तो हमें तानाशाही स्टेट का वो पूरा चक्र देखने को मिलेगा जिसमे कई सालों तक हंगरी में इनका रूल होगा - फिर विरोधियों को दबाया कुचला जाएंगे - खून खराबा होगा - कई साल गृहयुद्ध और अंततः हंगरी एक हताश बीमार गरीब और अपने अस्तित्व जूझता देश बन जाएगा। सब अमीर और सत्ता से सम्बंधित लोग देश छोड़ भाग जाएंगे , और अंत में आंसू बहाने और रोने को रह जाएगा हंगरी का गरीब मध्यमवर्ग। व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है की भारत जैसे विशाल देश में ऐसा संभव नहीं है , मैं ये नहीं बोलूंगा की भारत में कोरोना संकट की आड़ में क्या क्या राजनितिक गुल खिलाएं जाएंगे।
हिटलर कालीन जर्मनी से मोदी कालीन भारत की समानता देख मैं कभी कभी बेहद आश्चर्य में पड़ जाता हूँ ......आज की ही बात लीजिए आज सुबह से न्यूज़ चैनलों पर उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के BJP विधायक का मुसलमानों से सब्जी नहीं खरीदने की अपील का एक वीडियो दिखाया जा रहा है.......जब विधायक से इसके बारे में जवाब तलब किया गया तो उन्होंने सीना चौड़ा करते हुए कहा 'जनता मुझसे पूछ रही है कि क्या किया जाए तो विधायक क्या बोले? यही उनके हाथ में है कि उनसे सब्जी मत लो इसमें कुछ गलत कहा क्या मैंने?'........... मित्र Arvind Shekhar की वाल पर यह पोस्ट थी, यह जानकर मुझे भी बेहद आश्चर्य हुआ कि आज जैसे कोरोना का ख़ौफ़ है वैसे जर्मनी में भी उन दिनों टायफस महामारी का ख़ौफ़ था ओर जैसे आज मुसलमानो को कोरोना का कैरियर बतला दिया जाता है वैसे ही यहूदियों को हिटलर कालीन जर्मनी मे टायफस महामारी का कैरियर बताया जाता था......... मित्र arvind shekhar बताते है......... 'जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन की बाल रोग विशेषज्ञ और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. नाओमी बॉमस्लैग की 2005 में प्रकाशित किताब है- मर्डरस मेडिसिन (नाजी डॉक्टर्स ह्यूमन एक्सपैरिंमेंटेशन एंड टायफस) । यह किताब नाजी डॉक्टरों और फार्मा कंपिनयों द्वारा यहूदियों के नसंहार को आगे बढ़ाने में टायफस महामारी के इस्तेमाल के बारे में बताती है। जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी अपने घृणा के कारोबार को मजबूत करने के लिए सिर्फ और सिर्फ यहूदियों को टायफस महामारी का कैरियर बताते थे। किताब बताती है कि किस तरह जर्मन जनता को इस तर्क से सहमत कर लिया गया कि महामारी के लिए सिर्फ यहूदी ही जिम्मेदार हैं सो उन्हें अलग रखना जरूरी है। 1938 तक जर्मनी में यहूदी डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए थे। बहुत से नाजी डॉक्टरों का सहारा ले यहूदियों को बाकी समाज के अलग रखने (क्वैरैंटाइन करने) , उन्हें एक जगह रखने, उव्हें संक्रमण रहित करने के नाम पर उनकी बस्तियों को सील कर देने का काम किया गया। संक्रमण खत्म करने के नाम पर उन्हें गैस चैंबर में भी डाला गया। अस्वास्थ्यकर गंदे हालात में छोटे से स्थान पर एक साथ ठुंसे से हुए यहूदी टायफस से मरे भी और महामारी के फैलने में और मददगार भी साबित हुए।...........
( यह फोटो मित्र प्रकाश के रे की वाल से साभार लिया गया है नाज़ी पार्टी के सदस्य एक इज़रायली दुकान के सामने बैनर लेकर खड़े हैं. इन बैनरों पर लिखा है- जर्मनीवाले अपनी रक्षा करें. यहूदियों से ख़रीदारी न करें.)
एक ओर भविष्यवाणी कर रहा हूँ..... 'कोरोना का वैक्सीन अक्टूबर-नवम्बर 2021 तक आएगा, उससे पहले कोरोना का प्रकोप पूरे विश्व मे कम-ज्यादा होकर चलता रहेगा, वैक्सीन लाने वाले होंगे बिल गेट्स ओर उस वैक्सीन के निर्माण में भारत की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होगी, उसके परीक्षण भारत मे ही किये जाएंगे संभवतः बिहार में' बिल गेट्स ने कल जो ‘द इकाेनाॅमिस्ट’ में आर्टिकल लिखा है उसे ठीक से पढ़ा जाना चाहिए उसमे भविष्य की बेहद महत्वपूर्ण प्रस्थापनाए छुपी हुई है वे इस लेख में कहते है ....... -'जब इतिहासकार कोविड-19 महामारी पर किताब लिखेंगे तो जो हम अब तक जीते रहे हैं, वह एक तिहाई के आसपास ही होगा। कहानी का बड़ा हिस्सा उस पर होगा, जो आगे होना है' ( अभी इस बीमारी का 2 तिहाई हिस्सा बचा हुआ है ) - 'अधिकतर जनता को कोरोना वैक्सीन लगाए बिना जिंदगी सामान्य ढर्रे पर नहीं लौटेगी -'दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन बनाए गए हमे अब वैसे संगठन बनाने होंगे इस लेख से पहले ही वह संकेत दे चुके है कि कोरोना वायरस इस ग्रह से जाने के लिए नही आया है यह अब यही रहेगा हमारे साथ ही रहेगा बिल गेट्स ने ही एक मेडिकल पत्रिका के अपने लेख में लिखा – एसिम्प्टमैटिक ट्रांसमिशन की हकीकत का अर्थ है कि दुनिया में फैलाव रोक सकना वैसे संभव ही नहीं है, जैसे पिछले वायरसों याकि सार्स (SARS) आदि को रोका जा सका था। क्योंकि पिछले वायरस तो सिम्प्टमैटिक, लक्षणात्मक, रोगकारी लोगों से ट्रांसमिट हुए थे।..….बिल गेट्स एक विशुद्ध पूंजीपति व्यक्ति है जहाँ दुनिया के तमाम तमाम राजनेता अवसर में कठिनाई देख रहे वही अकेले बिल गेट्स कठिनाई में अवसर देख रहे हैं क्यो की वह पहले से प्रिपेयर है........ पिछली कड़ी से ही शुरू करते हैं जैसा कि आपको बता चुका हूँ कि अक्टूबर 2019 में, न्यूयॉर्क का जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर फॉर हेल्थ सिक्योरिटी एक इवेंट 201 नाम के एक सिमुलेशन एक्सरसाइज की मेजबानी करता है जिसमें पार्टनर बनाया जाता है वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन को......... इस इवेंट में एक काल्पनिक कोरोना वायरससे उपजी महामारी का मॉडल तैयार किया जाता है और अनुमान लगाए जाते हैं है एक ग्लोबल महामारी में वित्तीय बाजार क्या प्रतिक्रिया देगा हेल्थ सेक्टर किस तरह से रिस्पांस करेगा कितने लोगों की जान जा सकती है.......महामारी के प्रारंभिक महीनों के दौरान, मरीजो की संख्या वहां भी तेजी से बढ़ जाती है, हर हफ्ते दोगुनी हो जाती है। और जैसे-जैसे मामले और मौतें बढ़ती जा रही हैं, आर्थिक और सामाजिक परिणाम तेजी से गंभीर होते जाते हैं। '' इस सिमुलेशन एक्सरसाइज में महामारी का अंत तब होता है जब महामारी का वैक्सीन सामने आता है महामारी शुरू होने के ठीक 18 महीने बाद........ तब तक विश्व में इस महामारी के कारण 65 मिलियन मौतें होती हैं। बिल गेट्स एक ऐसे अकेले उद्योगपति है जो वैक्सीन निर्माण के लिए डेस्परेट नजर आ रहे हैं बिल गेट्स ने कुछ ही दिन पहले कहा कि हम कोरोना वायरस के लिए 7 वैक्सीन तैयार कर रही सभी फैक्ट्रियों को फंड दे रहे हैं। ये सातों वैक्सीन एक ही समय पर अलग-अलग जगह तैयार की जा रही हैं ताकि समय की बचत हो सके, इनमें से दो सबसे अच्छी वैक्सीन्स को चुनकर उनका ट्रायल किया जाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार एक वैक्सीन बनाने में मिनिमम 12 से 18 महीनों का समय लग सकता है।.......... कुछ लोगो को यह थ्योरी कांस्पिरेसी थ्योरी लगती है वे कहते हैं कि बिल गेट्स का फाउंडेशन तो स्वास्थ्य के क्षेत्र अपनी परोपकारी गतिविधियों को बहुत पहले से चला रहा है, सही बात है गेट्स एंड मिलिंडा फाउंडेशन की वेबसाइट पर जाकर आप देखे तो आप पाएंगे कि 2010 से ही बिल गेट्स इस क्षेत्र में सक्रिय है पर उसकी रूचि का मुख्य विषय है वैक्सीन निर्माण,...... मेलिंडा गेट्स ने कहा, "टीके एक चमत्कार हैं - बस कुछ खुराक के साथ, वे जीवन भर के लिए घातक बीमारियों को रोक सकते हैं।"......
समय आ गया है जब कोविड 19 के संक्रमण की पहली लहर गुजरने के बाद की परिस्थितियों पर चर्चा की जानी शुरू कर दी जाए,...........इस संक्रामक बीमारी के चलते समूचा विश्व परिदृश्य अब तेजी से बदलने वाला है दुनिया अब एक नए तरह के पासपोर्ट की तरफ देख रही है और वो है 'इम्युनिटी पासपोर्ट'......... यह बात अब बहुत से देश कहने लगे हैं कि जिन लोगों में वायरस से मुक़ाबला करने वाले एंटीबॉडीज़ बन गए हैं उन्हें ‘ख़तरे से मुक्त होने का प्रमाण-पत्र’ दिया जा सकता है यानि उन्हें ‘इन्यूनिटी पासपोर्ट’ दिया जा सकता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ कह रहा है 'ऐसे कोई सबूत नहीं है कि जो लोग कोविड-19 के संक्रमण से एक बार स्वस्थ हो गए हैं, उन्हें ये संक्रमण फिर से नहीं होगा' यह तो हुई विश्व की बात, भारत मे तो एक राज्य से दूसरे राज्य में, एक जिले से दूसरे जिले में अभी आए लोगों को शक की नजरो से देखा जा रहा है, तो एक तरह के इम्युनिटी पासपोर्ट तो यहाँ भी चाहिए........ गतांक से आगे.......... बिल गेट्स एक दूरदर्शी व्यक्ति है उन्होंने सबसे पहले इस बात के संकेत दिए हैं कोविड 19 का वैक्सीन को इम्युनिटी पासपोर्ट के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा उनका एक वीडियो जो 2015 का है वो वायरल है इसमें बिल गेट्स ये कहते नजर आ रहे हैं कि इंसानियत पर सबसे बड़ा खतरा न्यूक्लियर वॉर नहीं, बल्कि इंफेक्शस डिजीज हैं. कोरोना भी इसी कैटिगरी में आता है. यह वीडियो 2015 का है और आज हम 2020 में है यह जानना बहुत दिलचस्प है कि इन 5 सालो में बिल गेट्स ने क्या किया है....... महामारियों में अपनी रुचि के चलते बिल गेट्स इस क्षेत्र में अरबों रुपये की फंडिंग की ओर एक विशेष संगठन की स्थापना की ओर अपना ध्यान लगाया जिसका नाम है CEPI यानी 'कोएलिशन फॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस' इनोवेशन नाम से बहुत कुछ स्पष्ट है इसका हेडक्वार्टर नॉर्वे में बनाया गया सीईपीआई एक गैर-लाभकारी संगठन है, जिसकी स्थापना 2016 में हुई थी। “यह एक पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप” है, जिसका उद्देश्य टीका विकास प्रक्रिया को तेज गति से आगे बढ़ाकर महामारी पर अंकुश लगाना है। यह संगठन मौजूदा दौर की खतरनाक बीमारियों के लिए तेजी से वैक्सीन तैयार करता है...... CEPI के गठन के समय पश्चिम अफ्रीका में जानलेवा इबोला कहर बरपा रहा था। इस संस्था ने जैव तकनीकी शोधों के लिए वैज्ञानिकों पर बेइंतिहा पैसे खर्च किए थे। संस्था ने कारगर इलाज तलाशने के लिए लाखों डॉलर खर्च करके दुनियाभर में चार परियोजनाओं पर पैसे लगाए थे, ताकि टीके विकसित किए जा सकें।......लेकिन इबोला को इतनी प्रसिद्धि हासिल नही हुई जितनी इस कोविड 19 को मिली 31 जनवरी 2020 में डब्ल्यूएचओ ने कोरोना को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी की आधिकारिक घोषणा की लगभग उसी वक्त CEPI ने जर्मन-आधारित बायोफार्मास्युटिकल कंपनी CureVac AG के साथ अपनी साझेदारी की घोषणा की। कुछ दिनों बाद, फरवरी की शुरुआत में, सीईपीआई ने घोषणा की कि प्रमुख वैक्सीन निर्माता जीएसके अपने मालिकाना सहायक-यौगिकों की अनुमति देगा जो वैक्सीन की प्रभावशीलता को बढ़ाते हैं -सीईपीआई ने कुछ दिन पहले ही यह घोषणा भी की थी कि वह कोरोना वायरस के टीके बनाने के लिये यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड और अमेरिका – बेस्ड बायोटेक कंपनी मोडेर्ना को फंड उपलब्ध करा रहा है, यह तो हुई CEPI की बात इसके साथ ही इसी क्षेत्र में एक ओर संगठन है जिसकी स्थापना 2000 में हुई थी जो बिल गेट्स के साथ लंबे समय से सहयोगी रहा है वो है 'ग्लोबल अलायंस फॉर वैक्सीन एंड इम्यूनाइजेशन' यानी GAVI यह एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसका उद्देश्य नए और कम इस्तेमाल में लाए जा रहे टीकों को दुनिया के सबसे गरीब देशों में रहने वाले बच्चों तक पहुंचाना है । जीएवीआई भी कोरोना के बारे में बयान देता है कि “जीएवीआई आने वाले दिनों में इस महामारी की निगरानी करना जारी रखेगा ताकि यह समझा जा सके कि कैसे सबसे कमजोर लोगों को सस्ते टीके देने में गठबंधन की विशेषज्ञता का लाभ उठाया जाए।” यानी अभी तक आपने तीन संगठन के बारे में जाना.... CEPI , बिल गेट्स मेलिंडा फाउंडेशन ओर GAVI अब एक ओर संगठन के बारे में जानिए जिसका नाम है ID2020 ID2020 के संस्थापक साझेदार माइक्रोसॉफ्ट, रॉकफेलर फाउंडेशन और ग्लोबल अलायंस फॉर वैक्सीन एंड इम्यूनाइजेशन (जीएवीआई) हैं। ID2020 इलेक्ट्रॉनिक आईडी प्रोग्राम है जो डिजिटल पहचान के लिए एक प्लेटफॉर्म के रूप में जनरल वेक्सिनाइजेशन का उपयोग करता है".......यह प्रोग्राम नवजात शिशुओं को पोर्टेबल और लगातार बायोमेट्रिक रूप से जुड़े डिजिटल पहचान प्रदान करने के लिए मौजूदा जन्म पंजीकरण और टीकाकरण संचालन का उपयोग करता है" सितंबर 2019 में में एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी जिसमें यह जिक्र है कि ID2020 ने GAVI के साथ मिलकर बांग्लादेश सरकार को अपने टीकाकरण रिकॉर्ड की सलाह दी है बांग्लादेश ने भी यह घोषणा की है सरकार अपने माता-पिता की बायोमेट्रिक जानकारी से जुड़े बच्चों के टीकाकरण का एक डेटाबेस बनाएगी.......... यानी अब हमारे पास एक वैश्विक महामारी है, दुनिया का सबसे बड़ा उद्योगपति है, वेक्सिनाइजेशन पर सालो से काम करते हुए बहुत बड़े वैश्विक संगठन है जिसकी हर देश मे तगड़ी पकड़ है, टीकाकरण को डिजिटल ID से जोड़ते हुए प्रोग्राम है, ओर हा WHO भी है उसे हम कैसे भूल सकते हैं........ओर इम्युनिटी पासपोर्ट की परिकल्पना भी है
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20 साल बाद क्यों याद किया Y2K को मोदी ने, 21 वीं सदी का पहला ग्लोबल झूठ था Y2K भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई के अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि इस सदी की शुरूआत में दुनिया में Y2K संकट आया था, तब भारत के इंजीनियरों ने उसे सुलझाया था। प्रधानमंत्री ने जाने-अनजाने में कोरोना संकट की वैश्विकता की तुलना Y2K जैसे एक बनावटी संकट से कर दी। एक ऐसे संकट से जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो था ही नहीं। जिन्होंने इसके बारे में सुना होगा वो इसकी पूरी कहानी भूल चुके होंगे और जो 1 जनवरी 2000 के बाद पैदा हुए, मुमकिन है उन्हें कहानी पता ही न हो। Y2K का मतलब YEAR 2000 है जिसे संक्षेप Y2K लिखा गया। Y2K इस सदी का पहला ग्लोबल फेक न्यूज़ था जिसे मीडिया के बड़े-बड़े प्लेटफार्म ने गढ़ने में भूमिका निभाई। जिसकी चपेट में आकर सरकारों ने करीब 600 अरब डॉलर से अधिक की रकम लुटा दी। इस राशि को लेकर भी अलग अलग पत्रकारों ने अपने हिसाब से लिखा। किसी ने 800 अरब डॉलर लिखा तो किसी ने 400 अरब डॉलर लिख दिया। तब फेक न्यूज़ कहने का चलन नहीं था। HOAX यानि अफवाह कहा जाता था। Y2K संकट पर ब्रिटेन के पत्रकार निक डेविस ने एक बेहद अच्छी शोधपरक किताब लिखी है जिसका नाम है फ्लैट अर्थ न्यूज़( FLAT EARTH NEWS),यह किताब 2008 में आई थी। Y2K को मिलेनिम बग कहा गया। अफवाहें फैलाई गईं और फैलती चली गईं कि इस मिलेनियम बग के कारण 31 दिसंबर 2000 की रात 12 बजे कंप्यूटर की गणना शून्य में बदल जाएगी और फिर दुनिया में कंप्यूटर से चलने वाली चीज़ें अनियंत्रित हो जाएंगी। अस्पताल में मरीज़ मर जाएंगे। बिजली घर ठप्प हो जाएंगी। परमाणु घर उड़ जाएंगे। आसमान में उड़ते विमानों का एयर ट्रैफिक कंट्रोल से संपर्क टूट जाएगा और दुर्घटनाएं होने लगेंगी। मिसाइलें अपने आप चलने लगेंगी। अमरीका ने तो अपने नागरिकों के लिए ट्रैवल एडवाइज़री जारी कर दी। इसी के जैसा भारत के हिन्दी चैनलों में एक अफवाह उड़ी थी कि दुनिया 2012 में ख़त्म हो जाएगी। जो कि नहीं बल्कि लोगों में उत्तेजना और चिन्ता पैदा कर चैनलों ने टी आर पी बटोरी और खूब पैसे कमाए। इसकी कीमत पत्रकारिता ने चुकाई और वहां से हिन्दी टीवी पत्रकारिता तेज़ी से दरकने लगी। मंकी मैन का संकट टीवी चैनलों ने गढ़ा। कैराना के कश्मीर बन जाने का झूठ गढ़ा था। कई सरकारों ने Y2K संकट से लड़ने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया। भारत भी उनमें से एक था। आउटलुक पत्रिका में छपा है कि भारत ने 1800 करोड़ खर्च किए थे। Y2K को लेकर कई किताबें आईं और बेस्ट सेलर हुईं। इस संकट से लड़ने के लिए बड़ी बड़ी कंपनियों ने फर्ज़ी कंपनियां बनाईं और सॉफ्टवेयर किट बेच कर पैसे कमाए। बाद में पता चला कि यह संकट तो था ही नहीं, तो फिर समाधान किस चीज़ का हुआ? भारत की साफ्टवेयर कंपनियों ने इस संकट का समाधान नहीं किया था। बल्कि इस अफवाह से बने बाज़ार में पैसा बनाया था। ये वैसा ही था जैसे दुनिया की कई कंपनियों ने एक झूठी बीमारी की झूठी दवा बेच कर पैसे कमाए थे। जैसे गंडा ताबीज़ बेचकर पैसा बना लेते हैं। बेस्ट सेलर किताबें लिखकर लेखकों ने पैसे कमाए थे और एक ख़बर के आस-पास बनी भीड़ की चपेट में मीडिया भी आता गया और वो उस भीड़ को सत्य की खुराक देने की जगह झूठ का चारा देने लगा ताकि भीड़ उसकी खबरों की चपेट में बनी रहे। 31 दिसंबर1999 की रात दुनिया सांस रोके कंप्यूटर के नियंत्रण से छुट्टी पाकर बेलगाम होने वाली मशीनों के बहक जाने की ख़बरों का इंतज़ार कर रही थी। 1 जनवरी 2000 की सुबह प्रेसिडेंट क्लिंटन काउंसिल ऑन ईयर 2000 कंवर्ज़न के चेयरमैन जॉन कोस्किनेन एलान करते हैं कि अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है। उन तक ऐसी कोई जानकारी नहीं पहुंची है कि Y2K के कारण कहीं सिस्टम ठप्प हुआ हो। Y2K कोई कहानी ही नहीं थी। कोई संकट ही नहीं था। 21 वीं सदी का आगमन झूठ के स्वागत के साथ हुआ था। उस दिन सत्य की हार हुई थी। पत्रकार निक डेविस ने अपनी किताब में लिखा है कि ठीक है कि पत्रकारिता के नाम पर भांड, दलाल, चाटुकार, तलवे चाटने वाले पत्रकारों ने बेशर्मी से इस कहानी को गढ़ा, उसमें कोई ख़ास बात नहीं है। ख़ास बात ये है कि अच्छे पत्रकार भी इसकी चपेट में आए और Y2K को लेकर बने माहौल के आगे सच कहने का साहस नहीं कर सके। निक डेविस ने इस संकट के बहाने मीडिया के भीतर जर्जर हो चके ढाचे और बदलते मालिकाना स्वरूप की भी बेहतरीन चर्चा की है। कैसे एक जगह छपा हुआ कुछ कई जगहों पर उभरने लगता है फिर कॉलम लिखने वालों लेकर पत्रकारों की कलम से धारा प्रवाह बहने लगता है। Y2K की शुरूआत कनाडा से हुई थी। 1993 के मई महीने में टॉरोंटो शहर के फाइनेंशियल पोस्ट नाम के अखबार के भीतर एक खबर छपी। 20 साल बाद मई महीने में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सदी के पहले ग्लोबल फेक न्यूज़ को याद किया। तब कनाडा के उस अखबार के पेज नंबर 37 पर यह खबर छपी थी। सिंगल कॉलम की ख़बर थी। बहुत छोटी सी। खबर में थी कि कनाटा के एक टेक्नालजी कंसल्टेंट पीटर जेगर ने चेतावनी दी है कि 21 वीं दी की शुरूआत की आधी रात कई कंप्यूटर सिस्टम बैठ जाएंगे। 1995 तक आते आते यह छोटी सी ख़बर कई रूपों में उत्तरी अमरीका, यूरोप और जापान तक फैल गई। 1997-1998 तक आते आते यह दुनिया की सबसे बड़ी खबर का रुप ले चुकी थी। बड़े-बड़े एक्सपर्ट इसे लेकर चेतावनी देने लगी और एक ग्लोबल संकट की हवा तैयार हो गई। Y2K ने मीडिया को हमेशा के लिए बदल दिया। फेक न्यूज़ अपने आज के स्वरुप में आने से पहले कई रुपों में आने लगा। मीडिया का इस्तमाल जनमत बनाकर कोरपोरेट अपना खेल खेलने लगा। फेक न्यूज़ के तंत्र ने लाखों लोगों की हत्या करवाई। झूठ के आधार पर इराक युद्ध गढ़ा गया जिसमें 16 लाख लोग मारे गए। तब अधिकांश मीडिया ने इराक से संबंधित प्रोपेगैंडा को पैंटागन और सेना के नाम पर हवा दी थी। मीडिया हत्या के ग्लोबल खेल में शामिल हुआ। इसलिए कहता हूं कि मीडिया से सावधान रहें। वो अब लोक और लोकतंत्र का साथी नहीं है। आपके समझने के लिए एक और उदाहरण देता हूं. ब्रिटेन की संसद ने एक कमेटी बनाई । सर जॉन चिल्कॉट की अध्यक्षता में। इसका काम था कि 2001 से 2008 के बीच ब्रिटेन की सरकार के उन निर्णयों की समीक्षा करना था जिसके आधार पर इराक युद्ध में शामिल होने का फैसला हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन पहली बार किसी युद्ध में शामिल हुआ था। इस कमेटी के सामने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पेशी हुई थी। द इराक इनक्वायरी नाम से यह रिपोर्ट 2016 में आ चुकी है। 6000 पन्नों की है। इस रिपोर्ट में साफ लिखा है कि इराक के पास रसायनिक हथियार होने के कोई सबूत नहीं थे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने संसद और देश से झूठ बोला। उस वक्त ब्रिटेन में दस लाख लोगों का प्रदर्शन हुआ था इस युद्ध के खिलाफ। मगर मीडिया सद्दाम हुसैन के खिलाफ हवा बनाने लगा। टोनी ब्लेयर की छवि ईमानदार हुआ करती थी। उनकी इस छवि के आगे कोई विरोध प्रदर्शन टिक नहीं सका। सभी को लगा कि हमारा युवा प्रधानमंत्री ईमानदार है। वो गलत नहीं करेगा। लेकिन उसने अपनी ईमानदारी को धूल की तरह इस्तमाल किया और लोगों की आंखों में झोंक दिया। इराक में लाखों लोग मार दिए गए। सिर्फ एक अखबार था डेली मिरर जिसने 2003 में टोनी ब्लेयर के ख़ून से सने दोनों हाथों की तस्वीर कवर पर छापी थी। बाकी सारे अखबार गुणगान में लगे थे। जब चिल्काट कमेटी की रिपोर्ट आई तो गुणगान करने वाले अखबारों ने ब्लेयर को हत्यारा लिखा। जिस प्रेस कांफ्रेंस में यह रिपोर्ट जारी हो रही थी, उसमें इराक युदध में शहीद हुए सैनिकों के परिवार वाले भी मौजूद थे। जिन्होंने ब्लेयर को हत्यारा कहा। आप पुलवामा के शहीदों के परिवार वालों को भूल गए होंगे। उन्हें किसी सरकारी आयोजन देखा भी नहीं होगा।
बहरहाल मीडिया का तंत्र अब क़ातिलों के साथ हो गया है। इराक युद्ध के बाद भी लाखों लोगों का अलग अलग तरीके से मारा जाना अब भी जारी है। Y2K का संकट अनजाने में फैल गया। इसने कंप्यूटर सिस्टम को ध्वस्त नहीं किया बल्कि बता दिया कि इस मीडिया का सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। आप दर्शक और पाठक मीडिया के बदलते खेल को कम समझते हैं। तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप बर्बाद न हो जाएंगे। भारत में अब मीडिया के भीतर फेक न्यूज़ और प्रोपेगैंडा ही उसका सिस्टम है। प्रधानमंत्री मोदी से बेहतर इस सिस्टम को कौन समझ सकता है। आपसे बेहतर गोदी मीडिया को कौन समझ सकता है। दुनिया के लिए Y2K संकट की अफवाह 1 जनवरी 2000 को समाप्त हो गई थी लेकिन मीडिया के लिए खासकर भारतीय मीडिया के लिए Y2K संकट आज भी जारी है आज भी वह झूठ के जाल में आपको फांसे हुए है। https://www.facebook.com/ravish.kumar.359/posts/10157272204023133 रवीश जी ने लिखा है : " प्रधानमंत्री ने जाने-अनजाने में कोरोना संकट की वैश्विकता की तुलना Y2K जैसे एक बनावटी संकट से कर दी। एक ऐसे संकट से जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो था ही नहीं। " जी हाँ यह कोरोना संकट भी वैसी ही परिघटना है जो event 201 के रूप में 18-10-2019 को यू एस ए के न्यूयार्क में दिए गए प्रिजेंटेशन में परिकल्पित की गई थी। आर एस एस से जुड़े रहे राजीव दीक्षित के दो अनुयाई --- एक वीरेंद्र सिंह और दूसरे डॉ बिसवरूप राय चौधरी के अतिरिक्त आर एस एस के प्रति झुकाव वाले सुदर्शन चेनल के सुरेश चौहान ने इस परिकल्पना का पर्दाफाश पहले ही कर दिया है अगर पी एम ने इसकी तुलना Y2K से की है तो यह पर्दाफाश की एक तरह से पुष्टि ही है। https://www.youtube.com/watch?v=F7pan4j6P0A
मजदूरों की महायात्रा के अर्थ ! माथे पर बोझ लिए, छोटे-छोटे बच्चों का हाथ थामे या शिशुओं को गोद में उठा कर लगातार भागी जा रही भीड़ ने सब कुछ उघाड़ कर रख दिया है। विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक मानी जाने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था के चेहरे का पाउडर धुल चुका है। चिलचिलाती धूप में, बिना खाये-पिए चलते जाने की जिद कोई यूँ ही नहीं करता है ! बड़े-बड़े शहरों से भाग रहे इन लोगों के लिए गांव में कोई सुविधा इन्तजार नहीं कर रही है। मतलब साफ़ है कि जहाँ थे वहां अब और नहीं रह सकते थे। राशन, पानी, शेल्टर आदि की जो प्रचार नुमा ख़बरें टीवी चैनलों पर आ रही थीं, उसकी असलियत का पता चल गया है। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने पैदल चलने का फैसला किसी जुनून में आकर किया है। वे बस के अड्डों पर गए, रेलवे स्टेशनों पर जमा हुए, गुहार लगायी, विरोध जताया, गाली खायी, लाठियां खायी, सब कुछ किया और अंत में निकल पड़े अपनी मरती गृहस्थी को माथे पर उठाये। यह पलायन नहीं, विरोध है, नकार है।
देश के अलग-अलग हिस्सों से पूरब- बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड-की ओर चल रही इस महायात्रा ने उस उपनिवेशवाद को सामने ला दिया है जो आज़ादी के इतने सालों में गहरी से गहरी होती जा रही है। ये इलाके अब मजदूर उगाने वाले खेत बन गए हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने भी उन्हें ले जाने वाली ट्रेन रद्द करके उनकी इस नियति की तसदीक कर दी है। बंधुआ मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इस बंधुआ मजदूरी के कई किस्से सामने आ रहे हैं, लेकिन खबरों की सूची में शामिल करने के लिए मीडिया तैयार नहीं है। फैक्टरियों में लॉकडाउन खुलने के बाद से मजदूरों को रोके जाने की शिकायतें लगातार आ रही हैं। हमें इसे कोरोना काल की अफरातफरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह वर्षों के संघर्ष के बाद मिले कानूनी अधिकारों के नष्ट हो जाने के बाद के अत्याचारों की कहानियां हैं। इसे लोकतान्त्रिक और मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की घटना के रूप में लेना चाहिए। मजदूरों को वापस लाने की उत्तर प्रदेश सरकार की आधी-अधूरी पहल और बिहार सरकार के पूरे नकार के आर्थिक-राजनीतिक अर्थ को भी समझना चाहिए। आर्थिक दौड़ में बुरी तरह पिछड़ चुके इन राज्यों की हालत का अंदाजा तो उस समय हो जाता है जब गोरखपुर के अस्पतालों में ऑक्सीजन के अभाव में लगातार हो रही मौतों या मुज़फ़्फ़रपुर के अस्पतालों में दम तोड़ रहे बच्चों को वहां के मुख्यमंत्री खामोशी से देखते रहते हैं। अपनी असंवेदनशीलता को ढंकने के लिए एक अयोध्या में दीपोत्सव करते और दूसरा शराबंदी से लेकर दहेज़ का अभियान चलाते रहते हैं। वे वर्ल्ड बैंक या दूसरे कर्जों से बनी सड़कों और फ्लाईओवर को दिखा कर वोट मांग सकते हैं, अपने नागरिकों के लिए बाकी कुछ नहीं कर सकते हैं। इन सरकारों से क्या उम्मीद जो अपने लोगों को राज्य में कोई रोजगार देने पर विचार करने की स्थिति में भी नहीं हैं। लेकिन इन राज्यों के श्रम और मेधा की लूट में केंद्र सरकार का कम हिस्सा नहीं है। वैश्वीकरण की विषमता भरी अर्थव्यवस्था को टिकाये रखने में वह भी पूरा हाथ बंटाती है। कई लोगों को लग सकता है कि ट्रेन के किराये पर उठा विवाद केंद्र सरकार के रेल विभाग की कोई चूक है या मजदूरों की समस्या की अनदेखी किये जाने का एक नमूना। इसका मतलब है कि वे रेलवे के डिब्बों से गरीब लोगों को धकियाये जाने के पिछले कई सालों से चल रहे अभियान से अनजान हैं। गतिशील किराये यानि टिकट खरीदने वालों की ज्यादा संख्या होने पर भाड़ा बढ़ा देने का नियम सिर्फ पैसे वालों को ट्रेन में बिठाने के लिए बना है। इस रेल विभाग से आप गरीबों को मुफ्त में ले जाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? वास्तव में, गरीबों को देने के लिए केंद्र सरकार के पास कुछ भी नहीं है, फूलों का गुलदस्ता या मीठे बोल भी नहीं। यह भी उसने दूसरे लोगों के लिए अलग कर रखा है। इस महायात्रा ने एक और बात सामने लायी है जो भविष्य में हमारी आस्था को मजबूत करती है। अनजान यात्रियों को जगह-जगह लोगों ने पानी पिलाया, खाना खिलाया और सुस्ताने के लिए जगह दी। इंसानियत की इस छाँव में ही आकार लेगी कोरोना के बाद की नयी दुनिया! साभार : https://janchowk.com/beech-bahas/meaning-of-migrant-labourers-mahayatra/