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Wednesday, 14 August 2019

कश्मीर में आखिरकार पराजित हुआ लोकतंत्र ------ अनिल सिन्हा

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Anil Sinha
1 hr ( 14-08-2019 )
अगस्त, 1947 में जब पूरा भारतीय उपमहाद्वीप सांप्रदायिक नफरत की आग में जल रहा था, महात्मा गांधी कश्मीर गए तो उन्हें वहां रोशनी दिखाई पड़ी। 
लोगों की राय लिए बगैर विशेष तो क्या आम राज्य का दर्जा भी छीन लेना उनके अधिकारों पर आघात है। 
भारतीय लोकतंत्र की पराजय है, साथ ही उन कश्मीरियों की भी पराजय है जिन्हें लोकतंत्र में भरोसा रहा है।

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा अब इतिहास का हिस्सा हो चुका है। अनुच्छेद 370 को कमजोर करने और 35-ए को समाप्त करने के बाद जम्मू-कश्मीर बाकी राज्यों से दर्जे में हर तरह से छोटा हो गया है। उसे केंद्र शासित राज्य बना कर सरकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि जम्मू-कश्मीर को भारत के एक सामान्य प्रदेश की हैसियत पाने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ेगा। सवाल है कि यह राजनीतिक घटना किसकी जीत और किसकी हार बताती है/ अगर निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाएगा कि यह

कश्मीर का भारत में विलय धर्म आधारित द्वि-राष्ट्रवाद का नकार है। यह मुस्लिम लीग का सिद्धांत था और कांग्रेस ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। हिंदू और मुसलमान अलग कौमें हैं और मजहब राष्ट्र का आधार है, यह मान्यता हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों की थी। कश्मीरियों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा, दोनों की बातों को खारिज कर दिया। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलने वाली मुस्लिम कांफ्रेंस तीस के उत्तरार्ध में नेशनल कांफ्रेंस में बदल गई थी। वह मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति के विपरीत सेक्युलर राजनीति को आगे बढ़ाने लगी। उसके आदर्श महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू थे। अगस्त, 1947 में जब पूरा भारतीय उपमहाद्वीप सांप्रदायिक नफरत की आग में जल रहा था, महात्मा गांधी कश्मीर गए तो उन्हें वहां रोशनी दिखाई दे रही थी। उनके प्रयासों से ही महाराजा हरि सिंह भारत से अपने संबंध मजबूत करने पर राजी हुए।

महाराजा हरि सिंह अंत-अंत तक जम्मू-कश्मीर को आजाद मुल्क बनाने के प्रयासों में लगे थे। वह भारत और पाकिस्तान दोनों से यथास्थिति बनाए रखने का समझौता करना चाहते थे। पाकिस्तान ने तो उनसे समझौता कर लिया लेकिन पंडित नेहरू ने ऐसा करने से मना कर दिया। भारत में विलय का फैसला महाराजा ने पाकिस्तान की ओर से कबायलियों के हमले के बाद ही किया। महाराजा के कारण ही कश्मीर का विलय बाकी रियासतों की तरह नहीं हो पाया और अनुच्छेद 370 जैसा प्रावधान इसमें जोड़ना पड़ा। अपने राज्य को स्वायत्तता मिले, इसके पक्ष में शेख अब्दुल्ला भी थे। सवाल उठता है कि सांप्रदायिक राजनीति से दूर रहने और एक सच्ची सेक्युलर संस्कृति होने के बावजूद कश्मीर की घाटी एक ऐसे दुष्चक्र में कैसे फंस गई कि वह उपमहाद्वीप का सबसे अशांत इलाका बन गई/ सच पूछा जाए तो यह भारतीय उपमहाद्वीप, खासकर भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास की दास्तान है।

कश्मीर में शेख अब्दुल्ला लोकतांत्रिक और सेक्युलर राजनीति के प्रतीक थे तो महाराजा हरि सिंह सामंती और सांप्रदायिक राजनीति के पोषक थे। उन्हें राज्य की महत्वपूर्ण सामरिक स्थिति का लाभ मिला और पाकिस्तान की ओर जाने का भय दिखा कर वह बाकी रियासतों के मुकाबले अधिक अधिकार पाने में सफल रहे। उनके उत्तराधिकारी कर्ण सिंह कश्मीर के सदर-ए-रियासत बन गए। उन्हें सिर्फ कुछ मामलों में भारत सरकार के आदेशों का पालन करना होता था। राजपरिवार अपने अधिकारों के लिए भारत सरकार और कश्मीर सरकार, दोनों से सदैव सौदेबाजी करता रहा। कर्ण सिंह ने सदर-ए-रियासत का पद आजीवन अपने पास रखने के लिए भी कहा था। उन्होंने यह मांग भी रखी थी कि यह रायशुमारी हो जाए कि लोग डोगरा शासन चाहते हैं या नहीं।

राजपरिवार के संरक्षण में चलने वाले हिंदुत्ववादी संगठन प्रजा परिषद ने पाकिस्तान के साथ यथास्थिति के समझौते का समर्थन किया था। राजपरिवार को हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन हासिल था। नेशनल कांफ्रेंस की लोकतांत्रिक राजनीति से इस राजनीति का सीधा टकराव था। नेशनल कांफ्रेंस उपमहाद्वीप में हद दर्जे की प्रगतिशील राजनीति कर रही थी। धारा 370 से मिली स्वायत्तता के बल पर उसने जमींदारी उन्मूलन किया। कश्मीर ही भारत का अकेला राज्य है जहां हर किसान भूमि का मालिक है और कोई भूमिहीन नहीं है। अनुच्छेद 35-ए भी सरदार पटेल के प्रयास से अमल में आया ताकि कश्मीरी पाकिस्तान पलायन का रास्ता न अपनाएं और उनकी जमीन कोई और न ले सके।

लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति को आगे बढ़ाने में न तो भारत सरकार सफल हो पाई, न ही नेशनल कांफ्रेंस इसमें कामयाब रही। अपनी राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी न होते देख कश्मीरी भारत में विलय को संदेह से देखने लगे। पार्टी तथा जनता के दबावों के सामने शेख के पास भी स्वायत्तता की मांग को समर्थन देने के सिवा कोई चारा नहीं था। नेहरू ने इस स्थिति का सामना लोकतांत्रिक राजनीति से करने के बजाय केंद्रीकरण और सरकारी दमन का सहारा लिया। शेख गिरफ्तार किए गए और फिर वहां एक के बाद एक ऐसी सरकारें बिठाई गईं जिन्हें जन-समर्थन नहीं प्राप्त था। वहां लंबे समय तक निष्पक्ष चुनाव नहीं हुए। नतीजा यह हुआ कि प्रदेश की राजनीति में लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने और आतंकवाद तथा इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर जा रहे युवाओं को रोकने की ताकत नहीं बची।


कश्मीरियत की सबसे बड़ी पराजय 1990 में हुई जब कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया और उन्हें अपने घर छोड़ने पड़े। मुद्दे का राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिकीकरण हुआ और इसका इस्तेमाल कश्मीरी मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए किया गया। कश्मीर की समस्या अनुच्छेद 370 और 35-ए नहीं थी। एक अर्से से वहां सरकारें रहीं पर कोई संवाद नहीं रहा। इन कानूनों को खारिज करने का काम भी बिना बातचीत के हुआ है। असल में इनमें परिवर्तन की इजाजत संवैधानिक प्रक्रिया में नहीं है। भारतीय संविधान पर कश्मीर के लोगों का भरोसा तभी वापस लाया जा सकता है जब देश में सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल हो, कश्मीरियों के लोकतांत्रिक अधिकार बहाल हों और उनकी राय को वजन दिया जाए।

https://www.facebook.com/anil.sinha.503/posts/10220197901043746



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश