Saturday, 6 October 2018
Thursday, 4 October 2018
Wednesday, 3 October 2018
क्या नैतिकता और वैधानिकता परस्पर विरोधी खेमा हुए ? ------ वी एन राय
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03 10 2018 09:13:42 AM
योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया
पूर्व आई पी एस वी एन राय का विश्लेषण :
अरसे से उत्तर प्रदेश की राजनीति में बिगड़ी हुयी कानून व्यवस्था की स्थिति लाचार पवित्र गाय वाली रही है। हाल के मुख्यमंत्रियों में मायावती ने इसे दुहा, अखिलेश यादव ने इसे चारा खिलाया और अब योगी आदित्यनाथ इसे ‘विधर्मियों’ से बचाने के संकल्प में जुटे हैं। यानी जिसकी जैसी राजनीति उसकी वैसी ही कानून व्यवस्था के नाम पर रणनीति!
इस क्रम में, लखनऊ के विवेक तिवारी प्रकरण ने रोजमर्रा के दो सम्बंधित मुद्दों को और ज्वलंत करने का काम अंजाम दिया है- एक मुद्दा है, पुलिस की औपनिवेशिक जड़ों का और दूसरा, सत्ता राजनीति के जातिवादी मंचन का।
न ये मुद्दे नये हैं न समाज के लिए इनका घातक होना। लेकिन योगी के राज में इनमें नये मारक आयाम जुड़ गये हैं। सत्ता के जातिवादी प्रोफाइल का पुलिस के सामंती चरित्र से अघोषित घालमेल तमाम सरकारों में कमोबेश दिखता रहा है; योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया।
प्रदेश में सत्ता सम्हालते ही घोषित हो गया था कि योगी ने कानून व्यवस्था में सुधार के प्रश्न को, एकमात्र पुलिस की सामंती दबंगई से जोड़ने का रास्ता चुना है- एनकाउंटर प्रणाली को, वह भी पिछड़ो के एनकाउंटर को, इसकी स्वाभाविक प्रशाखा कहा जाएगा। उत्तर प्रदेश, अस्सी के दशक में, वीपी सिंह के मुख्यमंत्रित्व में भी एनकाउंटर के खुले खेल का एक सीमित दौर देख चुका है और उसकी असफल परिणति को भी।
ताज्जुब नहीं कि योगी की शातिर राजनीतिक बनावट में इस असफलता से सबक लेने की जरूरत नहीं रही हो। भाजपा का मुसलमानों, यादवों और चमारों का राजनीतिक बहिष्कार, सहज ही योगी के ‘ठोक दो’ का भी चेहरा बनता गया है। ऐसे में राजनीतिक विरोधी, नागरिक संगठन, मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका भी योगी सरकार के एनकाउंटर सैलाब के सामने विवश लग रहे थे कि अचानक विनीत तिवारी हत्याकांड का भस्मासुर उसके सामने आ खड़ा हुआ।
भस्मासुर को कैसे छलावे से रोकते हैं, इस पौराणिक पहेली को हल करना एक महंत मुख्यमंत्री और सवर्णवादी भाजपा से बेहतर कौन जानेगा। लिहाजा, पीड़ित परिवार को अप्रत्याशित रूप से भारी मुआवजा और उनकी जातीय-वर्गीय घेरेबंदी की कवायद देखने को मिली! डीजीपी का हत्या-पीड़ित परिवार को संबोधित ताबड़तोड़ माफीनामा भी!
दुर्भाग्य से राज्य शासन और पुलिस प्रशासन ने, स्वयं उनके मानदंडों पर भी उन्हें शर्मसार करने वाले इस प्रकरण से कुछ नहीं सीखा है। आजमगढ़ से अलीगढ़ तक अपराध की रोकथाम के नाम पर करीब सौ लोगों की हत्या, योगी के डेढ़ साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश पुलिस कर चुकी है जबकि इनमें से एक भी मामले में स्वतंत्र जांच नहीं की गयी।
यहां तक कि विनीत तिवारी मामले में भी, जहां वे गलती स्वीकारने का ढोंग कर रहे थे, अपराध की छानबीन से छेड़छाड़ की गयी। डीजीपी का माफीनामा भी, जो पुलिस को नैतिक उपदेश देने तक सीमित है, पूर्णतया गैरकानूनी एनकाउंटर संस्कृति के चलन पर एकदम खामोश है। क्या नैतिकता और वैधानिकता परस्पर विरोधी खेमा हुए?
दरअसल, औपनिवेशिक निर्मिति से संवैधानिक निर्मिति की यात्रा का पहला निर्णायक कदम उठाने से भी हमारी पुलिस अभी कोसों दूर है। विवेक तिवारी हत्याकांड पर अपनी पहली टिप्पणी में मैंने कहा था-
Our police leaders refuse to appreciate a simple crucial factor that it is the integrity of their law and order protocols that matters and not just the individual integrity of police persons alone. When your professional orientations are flawed any amount of moral lecturing will have little impact on the outcome.
To start with, blatant authorisation of checking, questioning and arrest by police without quantifiable basis needs to be curbed urgently. They do not require any constitutional amendment to adapt to this absolute minimum standard of accountability. They do need serious training in Constitutional Conditioning and commitment in Community Policing though.
Stop immediately the ongoing drive of moral policing the society, under the guise of controlling anti-social elements. Police’s cause will be best served when their working protocols strengthen the society!
पुलिस के अपराधीकरण के रास्ते से अपराध सफाये की योगी मुहिम एक दिवा स्वप्न से अधिक कुछ नहीं। लेकिन विवेक तिवारी हत्याकांड को जातिवादी राजनीति का आईना मत बन जाने दीजिये। हाँ, यह विवेक का वह प्रशासनिक आईना जरूर हो सकता है जिसमें हर पुलिस एनकाउंटर को देखा जाना चाहिये।
http://janjwar.com/post/police-kee-yogi-chhap-gundai-ka-namoona-hai-vivek-tiwari-hatyakand-vn-roy-former-ips?utm_source=izooto&utm_medium=push_notification&utm_campaign=browser_push&utm_content=&utm_term=
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
03 10 2018 09:13:42 AM
योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया
पूर्व आई पी एस वी एन राय का विश्लेषण :
अरसे से उत्तर प्रदेश की राजनीति में बिगड़ी हुयी कानून व्यवस्था की स्थिति लाचार पवित्र गाय वाली रही है। हाल के मुख्यमंत्रियों में मायावती ने इसे दुहा, अखिलेश यादव ने इसे चारा खिलाया और अब योगी आदित्यनाथ इसे ‘विधर्मियों’ से बचाने के संकल्प में जुटे हैं। यानी जिसकी जैसी राजनीति उसकी वैसी ही कानून व्यवस्था के नाम पर रणनीति!
इस क्रम में, लखनऊ के विवेक तिवारी प्रकरण ने रोजमर्रा के दो सम्बंधित मुद्दों को और ज्वलंत करने का काम अंजाम दिया है- एक मुद्दा है, पुलिस की औपनिवेशिक जड़ों का और दूसरा, सत्ता राजनीति के जातिवादी मंचन का।
न ये मुद्दे नये हैं न समाज के लिए इनका घातक होना। लेकिन योगी के राज में इनमें नये मारक आयाम जुड़ गये हैं। सत्ता के जातिवादी प्रोफाइल का पुलिस के सामंती चरित्र से अघोषित घालमेल तमाम सरकारों में कमोबेश दिखता रहा है; योगी शासन में यह घालमेल सरकारी नीति के झीने परदे से संचालित किया जा रहा था जिसे विवेक तिवारी हत्याकांड की ‘विशिष्टता’ ने अब ऐन खुले में नंगा कर दिया।
प्रदेश में सत्ता सम्हालते ही घोषित हो गया था कि योगी ने कानून व्यवस्था में सुधार के प्रश्न को, एकमात्र पुलिस की सामंती दबंगई से जोड़ने का रास्ता चुना है- एनकाउंटर प्रणाली को, वह भी पिछड़ो के एनकाउंटर को, इसकी स्वाभाविक प्रशाखा कहा जाएगा। उत्तर प्रदेश, अस्सी के दशक में, वीपी सिंह के मुख्यमंत्रित्व में भी एनकाउंटर के खुले खेल का एक सीमित दौर देख चुका है और उसकी असफल परिणति को भी।
ताज्जुब नहीं कि योगी की शातिर राजनीतिक बनावट में इस असफलता से सबक लेने की जरूरत नहीं रही हो। भाजपा का मुसलमानों, यादवों और चमारों का राजनीतिक बहिष्कार, सहज ही योगी के ‘ठोक दो’ का भी चेहरा बनता गया है। ऐसे में राजनीतिक विरोधी, नागरिक संगठन, मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका भी योगी सरकार के एनकाउंटर सैलाब के सामने विवश लग रहे थे कि अचानक विनीत तिवारी हत्याकांड का भस्मासुर उसके सामने आ खड़ा हुआ।
भस्मासुर को कैसे छलावे से रोकते हैं, इस पौराणिक पहेली को हल करना एक महंत मुख्यमंत्री और सवर्णवादी भाजपा से बेहतर कौन जानेगा। लिहाजा, पीड़ित परिवार को अप्रत्याशित रूप से भारी मुआवजा और उनकी जातीय-वर्गीय घेरेबंदी की कवायद देखने को मिली! डीजीपी का हत्या-पीड़ित परिवार को संबोधित ताबड़तोड़ माफीनामा भी!
दुर्भाग्य से राज्य शासन और पुलिस प्रशासन ने, स्वयं उनके मानदंडों पर भी उन्हें शर्मसार करने वाले इस प्रकरण से कुछ नहीं सीखा है। आजमगढ़ से अलीगढ़ तक अपराध की रोकथाम के नाम पर करीब सौ लोगों की हत्या, योगी के डेढ़ साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश पुलिस कर चुकी है जबकि इनमें से एक भी मामले में स्वतंत्र जांच नहीं की गयी।
यहां तक कि विनीत तिवारी मामले में भी, जहां वे गलती स्वीकारने का ढोंग कर रहे थे, अपराध की छानबीन से छेड़छाड़ की गयी। डीजीपी का माफीनामा भी, जो पुलिस को नैतिक उपदेश देने तक सीमित है, पूर्णतया गैरकानूनी एनकाउंटर संस्कृति के चलन पर एकदम खामोश है। क्या नैतिकता और वैधानिकता परस्पर विरोधी खेमा हुए?
दरअसल, औपनिवेशिक निर्मिति से संवैधानिक निर्मिति की यात्रा का पहला निर्णायक कदम उठाने से भी हमारी पुलिस अभी कोसों दूर है। विवेक तिवारी हत्याकांड पर अपनी पहली टिप्पणी में मैंने कहा था-
Our police leaders refuse to appreciate a simple crucial factor that it is the integrity of their law and order protocols that matters and not just the individual integrity of police persons alone. When your professional orientations are flawed any amount of moral lecturing will have little impact on the outcome.
To start with, blatant authorisation of checking, questioning and arrest by police without quantifiable basis needs to be curbed urgently. They do not require any constitutional amendment to adapt to this absolute minimum standard of accountability. They do need serious training in Constitutional Conditioning and commitment in Community Policing though.
Stop immediately the ongoing drive of moral policing the society, under the guise of controlling anti-social elements. Police’s cause will be best served when their working protocols strengthen the society!
पुलिस के अपराधीकरण के रास्ते से अपराध सफाये की योगी मुहिम एक दिवा स्वप्न से अधिक कुछ नहीं। लेकिन विवेक तिवारी हत्याकांड को जातिवादी राजनीति का आईना मत बन जाने दीजिये। हाँ, यह विवेक का वह प्रशासनिक आईना जरूर हो सकता है जिसमें हर पुलिस एनकाउंटर को देखा जाना चाहिये।
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
Sunday, 30 September 2018
नव उपनिवेशवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति ------ हेमंत कुमार झा
Hemant Kumar Jha
29-09-2018
बकरा कसाई की जयजयकार कैसे करता है, यह देखना हो तो भारतीय मध्यवर्ग के राजनीतिक मनोविज्ञान को समझना होगा।यही वह वर्ग है जिसने भाजपा की राजनीतिक सफलताओं को आधारभूमि उपलब्ध कराई। इस संदर्भ में इन लोगों ने जातीय ध्रुवीकरण को भी नकारा। सवर्णों की तो कोई बात ही नहीं, शहरों में रहने वाले पिछड़े वर्गों के मध्यवर्गीय लोग भी अपने को राजनीतिक रूप से पॉलिश्ड दिखाने के चक्कर में भाजपा को समर्थन देने की बातें करते थे। यह 1990 के दशक का उत्तरार्द्ध था जिसमें 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' और 'मंदिर वहीं बनाएंगे' के नारों के साथ भाजपा कदम दर कदम भारतीय सत्ता शीर्ष की ओर बढ़ रही थी। माहौल ऐसा था कि पढ़े-लिखे लोगों के बीच भाजपा समर्थक होना एक फैशन बन गया था।
भाजपा सत्ता में आई...और क्या खूब आई। पहली बार 13 दिन, दूसरी बार 13 महीने और फिर तो पूरा एक कार्यकाल।
भाजपा के मुखर समर्थन का सबसे बड़ा पुरस्कार जो मध्य वर्ग को मिला वह नौकरियों में पेंशन के खात्मे के रूप में सामने आया। सरकारी कार्यालयों में खाली पड़े हजारों पदों पर नियुक्तियों में अघोषित रोक, सफल सरकारी उपक्रमों में भी विनिवेश आदि तो बोनस के रूप में थे।
आधारभूत संरचना में भारी निवेश और उच्च विकास दर ने शिखर के कंगूरों में चमक बढ़ाई तो उसकी चकाचौंध से भ्रमित होकर भाजपा 'शाइनिंग इंडिया' के स्लोगन के साथ अगले आम चुनाव में उतरी। पराजय अकल्पनीय थी जिसके बाद इसके सबसे बड़े नायक वाजपेयी नेपथ्य में चले गए और मनमोहन के नेतृत्व में कांग्रेस की नई पारी शुरू हुई।
सांस्कृतिक मुद्दों पर विभेद के अलावा अब की कांग्रेस और भाजपा में कोई खास अंतर नहीं रह गया था। जाहिर है, कारपोरेट हितैषी नीतियों पर देश आगे चलता रहा। यद्यपि, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा के अधिकार, सूचना के अधिकार आदि कुछ ऐतिहासिक कदम उठाए गए जिन्होंने गरीबों के जीवन में कुछ सकारात्मक प्रभाव डाला, किन्तु, कमजोर शासन ने मंत्रियों को अराजक होने के अवसर उपलब्ध कराए और सरकार भ्रष्टाचार के अनेक मुद्दों पर घिरती गई। कारपोरेट मनमोहन का अधिकाधिक इस्तेमाल कर चुका था और अब उसे कुछ अधिक साहसी, कुछ अधिक पाखंडी नेतृत्व की जरूरत थी जो नाम गरीबों का ले और काम उनका करे।
नरेंद्र मोदी इन अर्थों में बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आए। 'गुजरात मॉडल' को विविधताओं और विषमताओं से भरे इस देश के लिये आदर्श के रूप में स्थापित किया गया और आम चुनाव में चुनिंदा कारपोरेट घरानों ने भाजपा के पक्ष में खुल कर पैसा बहाया। अब भाजपा सिर्फ कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं थी बल्कि उससे आगे की चीज थी। बीते साढ़े चार वर्षों में सरकार ने खुल कर कारपोरेट के लिये बैटिंग की और अकूत रन जुटाए। जल्दी ही बड़े अंबानी की संपत्ति दुगुनी हो गई, छोटे अंबानी के डगमगाते व्यावसायिक साम्राज्य को सहारा देने के लिये राजसत्ता का जम कर दुरुपयोग किया गया, अडानी सरकार के चहेते व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठित हुए जिनके लिये देश ही नहीं विदेशों में भी सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल होता रहा।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तिजोरी तो मनमोहन सरकार में भी खुली रहती थी और लूटने की भी सारी सुविधाएं उपलब्ध थी। मोदी सरकार में बैंकों की कारपोरेट लूट में आनुपातिक रूप से अगाध वृद्धि हुई और बैंक खोखले होकर रह गए।
मध्य वर्ग को क्या मिला? इसने तो मोदी सरकार को समर्थन देने में अपनी चेतना तक गिरवी रख दी थी। सरकार एक से एक मध्य वर्ग विरोधी कदम उठाती रही और लोग न जाने किस नशे में गाफिल हो इसके स्तुति गायन में लगे रहे। वाजिब तर्कों का भी कोई स्थान नहीं रह गया और बहसें अक्सर कुतर्कों के दायरे में प्रवेश करने लगीं। राष्ट्रवाद और संस्कृतिवाद, जो धर्म का चोगा पहन कर चहलकदमी कर रहा था, इसने मध्यवर्गीय लोगों को नशे में रखने में बड़ी भूमिका निभाई। सेना, सरकार, पार्टी और सत्तासीन नेता के बीच की दूरियां मिटने लगी और एक नया मंजर लोगों के सामने था। यह मंजर उन लोगों को खूब भाता रहा जो खाते-पीते स्तर के थे और वंचितों के बढ़ते अंधेरों से जिनका कोई लेना देना नहीं था।
गरीबों के पास है क्या जिसे लूटा जा सके? श्रम है और वोट का अधिकार है। श्रम के शोषण को संवैधानिक रूप दिया जाने लगा और वोटों के लिए अस्मितावादी विमर्शों का सहारा लिया गया। नतीजा में विधान सभाओं के चुनाव दर चुनाव भाजपा की जीत का सिलसिला आगे बढ़ता रहा। अपवाद में सिर्फ बिहार रहा, जिसके अपवाद होने के कई तात्कालिक कारण थे।
लूटने के लिये मध्य वर्ग है। तो...लूट का सिलसिला शुरू हुआ। इन्कम टैक्स में आनुपातिक रूप से अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई, सर्विस टैक्स आदि को बढ़ाया गया, 70 वर्षों के इतिहास में सबसे कम वेतन वृद्धि मोदी राज में सातवें वेतन आयोग के दौरान ही हुई। स्वच्छता सेस के रूप में बेवजह का दंड वेतन भोगियों पर लाद दिया गया। बैंकों के तरह तरह के शुल्कों में बढ़ोतरी हुई और कई तरह के नए शुल्क लगाए जाने लगे। यानी चौतरफा मार।
कच्चे तेल की कीमतों में कमी का कोई लाभ नहीं दे कर पेट्रोल डीजल पर लगातार एक्साइज ड्यूटी को बढ़ाया जाता रहा। और अब, जब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल के दाम बढ़ते जा रहे हैं तो एक्साइज ड्यूटी में कटौती की कोई संभावना नजर नहीं आ रही।
नतीजा...?
वित्तीय वर्ष 2013-14 के बाद 2017-18 तक आते-आते पेट्रोल डीजल पर एक्साइज ड्यूटी के रूप में राजस्व 3 गुना बढ़ गया है। लोग हलकान हैं लेकिन...राजनीतिक चेतना कहीं गिरवी सी पड़ी है।
यही तो है नव औपनिवेशिक शक्तियों का मायाजाल। उनके मायाजाल का चमत्कार। बकरा कसाई की जयजयकार में रमा है।
शिक्षा इतनी महंगी कर दी गई है कि आम वेतन भोगी अपने बच्चों की पढ़ाई पर अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा खर्च करने को विवश है। चिकित्सा कारपोरेट तंत्र के हवाले की जा रही है। मध्य वर्ग की कमर टूट जाती है जब उसके घर का कोई बच्चा उच्च तकनीकी शिक्षा के लिये कहीं दाखिला लेता है या घर का कोई सदस्य गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाता है। लूटने के लिये प्राइवेट शिक्षण संस्थान और अस्पताल मुंह फाड़े खड़े हैं और इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है।
सुधारवाद के नाम पर बीते दशकों में बहुत ही सुनियोजित तरीके से सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को ध्वस्त किया गया और मध्य वर्ग को छोटी सस्ती कारें खरीदने के लिये प्रेरित किया गया। ऐसी कारें, जो सुरक्षा मानकों पर किसी भी परीक्षण में बारंबार फेल होती हैं लेकिन भारत की सड़कों पर फर्राटे से दौड़ रही हैं। कारों की बिक्री से कई फायदे हैं। कम्पनियों का माल बिकता है, सरकार को टैक्स मिलता है, बैंकों को कार लोन देकर सूद कमाने की सुविधा मिलती है। सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता बढ़ाई जाए और उन्हें सुविधा सम्पन्न बनाया जाए तो कंपनियों को और सरकार को उतना फायदा नहीं है, जितना इसे बर्बाद कर देने के बाद फायदा हो रहा है।
मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में परिवहन व्यवस्था को आभिजात्य केंद्रित बनाने पर और अधिक जोर दिया है। जिस देश में पब्लिक बसों और पैसेंजर ट्रेनों की संख्या में भारी बढ़ोतरी की आवश्यकता है उसकी सड़कों पर सुरक्षा मानकों में फेल घोषित कारों की संख्या अप्रत्याशित गति से बढ़ती जा रही है और बुलेट या अन्य हाई स्पीड ट्रेनों में संसाधनों का बड़ा हिस्सा व्यय किया जा रहा है। यानी 120 करोड़ लोगों के हितों की कीमत पर 15 करोड़ लोगों की सुविधाएँ बढाने की कवायद।
बीते साढ़े चार साल की तर्कपूर्ण व्याख्या की जाए तो सीधा सा निष्कर्ष यही निकलता है कि सरकार ने बड़े पूंजीपतियों की जेबें भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वह भी खुल कर... निर्लज्ज होकर। उसे मध्य वर्ग की खोखली वैचारिकता का अहसास है और गरीबों के वोट के लिये जातीय वोटों के ठेकेदारों से डीलिंग पर उसे विश्वास है। 2019 के चुनाव में भाजपा अभी भी 'फेवरिट' मानी जा रही है तो इसके पीछे विपक्ष की संज्ञाहीनता और कारपोरेट का अप्रत्यक्ष किन्तु प्रभावी समर्थन जिम्मेदार है।
भारतीय अर्थतंत्र पर नव औपनिवेशिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव का भाजपा के राजनीतिक उत्थान से क्या संबंध है, इसे समझे बिना हम भाजपा के चरित्र को नहीं समझ सकते। यद्यपि भारत में नवउदारवाद की राजनीति कांग्रेस ने शुरू की लेकिन विपक्ष में रहते हुए भी इस अभियान में उसे भाजपा का पूरा साथ मिला। जब भाजपा सत्ता में आई तो इसने नव औपनिवेशिक शक्तियों के हितों के लिये अभियान चला दिया।
धर्म, गाय, राष्ट्रवाद, संस्कृति आदि तो महज टूल हैं जो मतदाताओं को साधने के काम में आते हैं। वास्तविकता यही है कि भाजपा जैसी पार्टी नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री और अरुण जेटली जैसे वित्त मंत्री के नेतृत्व में नव उपनिवेशवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति मात्र रह गई है।
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Wednesday, 26 September 2018
Monday, 17 September 2018
Wednesday, 5 September 2018
Sunday, 2 September 2018
निजी अस्पतालों पर सरकारी धन लुटाना... "आयुष्मान भारत योजना" शताब्दी का सबसे बड़ा छलावा स्वीकार्य नहीं ------हेमंत कुमार झा
Hemant Kumar Jha
02-09-2018
"आयुष्मान भारत योजना" आकर्षक पैकिंग में शताब्दी का सबसे बड़ा छलावा है। गरीबों के इलाज के नाम पर बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों की लूट का एक ऐसा सिलसिला शुरू होने वाला है जिसे नियंत्रण में लाना व्यवस्था के लिये संभव नहीं रह जाएगा।
सार्वजनिक स्वास्थ्य को कारपोरेट सेक्टर के हवाले करने के कितने बड़े खतरे हैं इस पर बहस होनी चाहिये थी। लेकिन, जैसा कि माहौल है, इन जरूरी मुद्दों पर बहस नहीं होती। इतना बड़ा देश है, इतने सारे मुद्दे हैं, बहस के नए-नए मुद्दों को जन्म देने में इतनी सारी शक्तियां लगी हुई हैं तो शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर कौन बहस करे।
एक गरीब, जो 5 लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा का लाभार्थी है, अस्पताल में भर्त्ती होता है। उसे क्या हुआ है यह अस्पताल को तय करना है। इलाज का बिल बीमा कंपनी को भरना है। बीच में दवा कंपनियां हैं जिनके अपने दांव हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जहां खर्च 25 हजार है वहां 2 लाख का बिल नहीं बनाया जाएगा। डॉक्टर समुदाय की अपनी विवशताएं हैं और उनमें से बहुत सारे कारपोरेट के दलाल बन कर काम करते हैं।
इस बीमा योजना के तहत सिर्फ सरकारी अस्पताल ही नहीं, निजी अस्पताल भी सूचीबद्ध किए जाएंगे। वैसे भी, सरकारी स्वास्थ्य संरचना के भग्नावशेषों पर फलता-फूलता निजी अस्पताल-तंत्र ही 'न्यू इंडिया' का भविष्य है।
25 सितंबर से औपचारिक रूप से शुरू होने वाली इस बीमा योजना में मार्च, 2020 तक के लिये 85 हजार करोड़ रुपये का प्रीमियम होगा। उसके बाद तो हर वर्ष 10 करोड़ परिवारों यानी कि लगभग 50 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य बीमा के नाम पर न जाने कितने हजार करोड़ रुपये बीमा कंपनियों को प्रीमियम के नाम पर दिये जाएंगे। जैसे...फसल बीमा के नाम पर दिये गए थे... और यह कोई छुपा तथ्य नहीं है कि किसानों को क्या मिला और बीमा कंपनियों ने फसल बीमा के नाम पर कितनी भयानक लूट मचाई।
दरअसल, यह जो हम "विदेशी निवेश-विदेशी निवेश" का मंत्र जपते रहते हैं और सरकारें गर्व से बताती हैं कि पिछली तिमाही में इतना विदेशी निवेश आया, उनमें अधिकांश निवेश विदेशी वित्तीय और बीमा कंपनियों का आता है। उन्हें पता है कि भारत में बीमा का उभरता हुआ बहुत बड़ा बाजार है और इस क्षेत्र में अकूत लाभ की गुंजाइश है क्योंकि यहां नागरिक और उपभोक्ता जागरूकता का बहुत अभाव है और राजनीतिक तंत्र वित्तीय शक्तियों के समक्ष आत्म समर्पण कर चुका है। यह आत्म समर्पण वैचारिक स्तरों पर तो है ही, बहुत हद तक नैतिक स्तरों पर भी है।
तो...इस देश के 50 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम अगर सरकार ही देने को तैयार हो जाए तो बीमा व्यवसाय के तो वारे-न्यारे होने तय हैं।
अब...जब अंतिम के 50 करोड़ लोगों का स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम सरकार भरेगी तो ऊपर के 85 करोड़ लोग क्या करेंगे?
भारत की आबादी तो 135 करोड़ है न...?
सबसे ऊपर के 20-25 करोड़ लोगों के लिये तो अपना इलाज या बीमा प्रीमियम कोई खास समस्या नहीं है। लेकिन...अंतिम के 50 करोड़ और ऊपर के 25 करोड़ लोगों के बीच जो 50-60 करोड़ निम्न मध्य वर्गीय लोग हैं, वे क्या करेंगे? उनका प्रीमियम तो कोई सरकार नहीं भरने वाली।
तो...ये 50-60 करोड़ लोग मजबूरन अपना प्रीमियम खुद जमा करेंगे क्योंकि बीमार पड़ने पर इलाज के लिये यही रास्ता प्रधान होगा। सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की कब्र पर निजी तंत्र की ऊंची होती मीनारों के दौर में निम्न मध्य वर्गीय लोगों के सामने स्वास्थ्य बीमा का कोई विकल्प नहीं होगा।
जाहिर है, बीमा कंपनियों के पौ-बारह हैं। बीमा क्षेत्र के अधिकतम निजीकरण के प्रयास यूँ ही नहीं हैं। देश और दुनिया की बड़ी वित्तीय शक्तियों के दांव इस पर लगे हैं। लूट की हद तक मुनाफा...वह भी गारंटिड। करना केवल यह होगा कि सत्ता-संरचना की छाया में गरीबों की आंखों में धूल झोंकना होगा। इसमें तो कंपनियों को महारत हासिल है।
बीते ढाई-तीन दशकों में भारत में जो अरबपति बने हैं, खरबपति बने हैं, उनमें से अधिकांश की सफलताओं का राज यही है कि उन्होंने पब्लिक को चूना लगाया, नेताओं-अधिकारियों की मिलीभगत से सरकार को चूना लगाया और अपनी संपत्ति में बेहिंसाब इज़ाफ़ा करते रहे।
बीते दशक में हमारे देशी कारपोरेट का जो मौलिक चरित्र उभर कर सामने आया है वह आशंकित करता है। उससे भी अधिक डरावना है सत्ता पर उनका बढ़ता प्रभाव, राजनीतिक शक्तियों को अपने अनुकूल नियंत्रित करने की उनकी बढ़ती शक्ति।
निजी स्कूलों की मनमानियों और मुनाफाखोरी के शिकार हो रहे मध्य और निम्नमध्यवर्गीय लोगों ने अब तक क्या कर लिया? वे सिर्फ खीजते हैं और अत्यंत विवश भाव से ऐसे शुल्क भी भरते रहते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं। वे अपनी लूट को अपनी नियति मान चुके हैं।
यही बेचारगी स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बढ़ेगी। लोग विकल्पहीन होते जाएंगे। निजी अस्पताल, बीमा कंपनी और दवा कंपनियों का नेक्सस कितना लूट मचाएगा, यह देखने-झेलने के लिये हमें तैयार रहना होगा।
टैक्स पेयर के पैसे सरकारी अस्पतालों के विकास और विस्तार में न लगा कर बीमा योजना के माध्यम से निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करने का उपक्रम गहरे संदेह पैदा करता है।
आज नहीं तो कल...सभ्यता इस पर पश्चाताप करेगी कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा को मुनाफा की संस्कृति के हवाले कर देना बहुत बड़ी गलती थी।
गरीबों के लिये सरकारी अस्पतालों का कोई विकल्प नहीं जहां वे अधिकार से जा सकते हैं, इस बात से निश्चिंत रह सकते हैं कि उन्हें लूटा नहीं जा रहा, मुनाफा बढाने के लिये किसी तरह का छल नहीं किया जा रहा उनके साथ...। साधन संपन्न सरकारी अस्पताल और उपलब्ध सरकारी डॉक्टर इस देश के गरीबों का सबसे बड़ा कल्याण है।
गंभीर बीमारियों के लिये बीमा योजनाओं को प्रोत्साहित करना अलग बात है और यह होना चाहिये, लेकिन पूरे स्वास्थ्य का जिम्मा बीमा के हवाले कर देना, प्रकारान्तर से निजी अस्पतालों पर सरकारी धन लुटाना...यह स्वीकार्य नहीं।
भारत में नए-नवेले विकसित हुए निजी अस्पताल तंत्र की अमानवीय मुनाफाखोरी के किस्से आम हैं, भुक्तभोगियों की संख्या अपार है। लेकिन, व्यवस्था की जकड़ में लोग विवश हैं और...सबसे खतरनाक यह कि यह विवशता बढ़ती जा रही है।
कोई जाल है...जिसमें सम्पूर्ण मानवता उलझती जा रही है।
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