Sunday, 30 October 2011

नर हो न निराश करो मन को

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उपरोक्त स्कैन कापी हिंदुस्तान,लखनऊ ,30-10-2011 के समपादकीय आलेख की है जिसमे शशि शेखर जी ने विस्तार से बढ़ती आबादी और उससे उत्पन्न समस्याओं का वर्णन किया है। बहौत अच्छा होता यदि वह इसका समाधान भी बताते। मैंने ब्लाग लेखन का पहला लेख जो लखनऊ के ही एक स्थानीय अखबार मे पूर्व प्रकाशित था द्वारा इस समस्या का समाधान बताने की चेष्टा की थी। आपकी सुविधा के लिए उसे नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। Act according to the laws of nature पर आधारित हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति ही विश्व की प्रत्येक समस्या का समाधान प्रस्तुत करती है। दुर्भाग्य से हमारे देश मे ही उसे ठुकरा कर विदेशी शासकों की गुलामी मे लिखे गए पुराणों को अपना लिया गया है तब दुनिया के दूसरे लोगों से हम उसके पालन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?अतः रोते रहिए और भुगतते रहिए।

यदि विनाश से बचना है तो राष्ट्र कवि की वाणी-"नर हो न निराश करो मन को,जग मे रह कर कुछ तो काम करो"-को आधार बना कर वैदिक संस्कृति के पुनरुद्धार का कार्य करें ,निश्चय ही समाधान हो जाएगा।


बुधवार, २ जून २०१०


आठ और साठ घर में नहीं


हमारे प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानते हुए जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया था बाल्यावस्था ,प्रौढ़ावस्था ,वानप्रस्थ और सन्यास.प्रत्येक अवस्था पच्चीस वर्ष की थी और सभी लोग उनका ठीक से परिपालन करके सतुष्ट रहते थे.वानप्रस्थ में बुजुर्ग घर-परिवार का मोह छोड़ कर शहर से दूर वनों में समाज हित के कार्य,शिक्षा दान,आदि करते थे केवल अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रहते थे.७५ वर्ष कीआयु प्राप्त करने पर सन्यास ले लेते थे और केवल वनों में रहते थे,अब उनका सरोकार अखिल मानवता से ही होता था उनकी सोच और समझ का दायरा परिवार व समाज से ऊपर रहता था.परन्तु आज है क्या?६२ और उससे अधिक आयु तक सरकारी सेवाओं में डटे रह कर बुजुर्ग युवा पीढ़ी का शोषण और उत्पीडन कर रहे हैं.घर-परिवार समाज और राष्ट्र में पदों व कुर्सियों से चिपके हुए हैं और अपनी ही संतानों के समग्र विकास को बाधित किये हुए हैं.बोया पेड़ बबुल का तो आम कहाँ?जो जैसा बोता  है वैसा ही काटता है परन्तु दोष अपनी ही संतानों को देता है.जैसे संस्कार संतान को दिए गए हैं जैसा व्यव्हार अपने बुजुर्गों के साथ  किया है जब वही कुछ अपने साथ  घटित होता है तो पीड़ा क्यों?
हमारे ऋषि-मुनि तत्व ज्ञानी थे,उन्होंने आज से दस लाख वर्ष पूर्व ही यह निर्धारित कर दिया था की आठ वर्ष का बालक होते ही उसे गुरुकुल में भेज दो और ६० वर्ष से अधिक होते ही हर हालत में परिवार छोड़ दो.जब आठ और साठ का साथ होगा तब संकट आना लाजिमी है.आज न गुरुकुल हैं न ही बुजुर्गों के मध्य त्याग व तप की भावना,आज के बुजुर्ग अपनी ही संतानों के प्रतिद्वंदी बने हुए हैं और अपने एकाधिकार को स्वेच्छा से छोड़ ने को तत्पर नहीं हैं-इसीलिए सामाजिक विसंगतियों का बोलबाला हो गया है।
गलत अवधारणाएं उत्तरदायी -आज हमारे समाज में प्राचीन मान्यताओं की गलत अवधारणा व्याख्यायित की जा रही हैं जिनसे संकट उत्तरोत्तर बढता जा रहा है.उदहारण स्वरुप वर्ष में एक पखवाड़ा मनाये जाने वाले श्राद्ध पर्व को लें.श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है जिसका अर्थ है बड़ों के प्रति आस्था व सम्मान की भावना रखना.तर्पण शब्द की उत्पत्ति तृप्ति से हुई है.इस प्रकार श्राद्ध और तर्पण से अभिप्राय था-जीवित माता-पिता,सास-श्वसुर ,और गुरु की इस प्रकार सम्मान सहित सेवा करना जिससे वे तृप्त अथार्त संतुष्ट हो जाएँ.परन्तु आज ढोंगियों-पाखंडियों ने प्राचीन पद्दति को उलट वर्ष में मात्र एक पखवाडा मृत पूर्वजों के नाम पर पेशेवर कर्मकांडियों की पेट पूजा का विधान बना दिया है.इस प्रकार अन्न केवल फ्लश तक ही रूपांतरित हो कर पहुँचता है न की पितृ आत्माओं तक.वर्ष-वर्शांतर तक चलने वाला श्राद्ध और तर्पण का कार्यक्रम वर्ष में मात्र एक पखवाड़ा तक वह भी केवल मृतात्माओं के लिए सीमित कर देने वाली पाखंडी व्यवस्था ही बुजुर्गों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी है.किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है-
जियत पिता से दंगम दंगा,मरे पिता पहुंचाए गंगा ,
जियत पिता की न पूछी बात,मरे पिता को खीर और भात ,
जियत पिता को घूंसे लात,मरे पिता को श्राद्ध करात ,
जियत पिता को डंडा लाठिया,मरे पिता को तोसक तकिया,
जियत पिता को कछु न मान,मरत पिता को पिंडा दान।
एक ओर तो आप अपनी प्राचीन संस्कृति की गलत व्याख्या कर उन को मानें और दूसरी ओर दुखी हो कर रोयें तो याद रखें---
वीप एंड यू वीप एलोन
मृतात्माओं की तृप्ति के लिए वेदों में विशेष सात मन्त्रों से हवन आहुतियाँ देने का प्राविधान है.इस प्रकार पूर्वज आत्मा चाहे मोक्ष में हो अथवा की पुनर्जनम में उसे धूम्र के रूप में हवन में डाले गए पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है उस के स्थान पर किसी दुसरे व्यक्ति को खिलाया गया पदार्थ पूर्वज आत्माओं तक नहीं केवल फ्लश तक पहुँचता है.क्या इस पाखंडी -ढोंगी दुर्व्यवस्था का परित्याग कर हम अपनी प्राचीन परम्परा को बहाल कर पाएंगे? यदि हाँ तो निश्चय ही समाज में बुजुर्गों का मान सम्मान वास्तविकता में बढ़ जायेगा.शाल ओढ़ाना ,पगड़ी बांधना या मोमेंटो भेंट करना महज एक दिखावा है-सम्मान नहीं.आईये अपनी 'आठ और साठ' घर में नहीं परम्परा को बहल करें तथा बुजुर्गों को सुखी रख सकें।
------विजय माथुर 
http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.com/2011/10/blog-post_28.html
 http://krantiswar.blogspot.com/2010/06/blog-post.html

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Friday, 28 October 2011

अध्यात्म और कम्यूनिज़्म

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मनोज दास जी,बाम-पंथ और आध्यात्मिकता

हिंदुस्तान,लखनऊ,25 अक्तूबर,2011 
उडिया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार मनोज दास जी जो खुद बाम-पंथी रहे हैं और अब आध्यात्मिकता के मार्ग से जन-कल्याण मे लगे हुये हैं यहाँ स्पष्ट रूप से कह गए हैं कि 'बुकर पुरस्कार' भारत को नीचा दिखाने वालों को दिया जाता है और "बुकर पुरस्कार तय करने वाली कमेटी सामाजिक यथार्थ और कामुकता का काकटेल है।"

अभी कुछ ही दिनों पहले जन-लोकपाल को नियुक्त करने की कमेटी मे 'बुकर' पुरस्कार प्राप्त लोगों को रखने की मांग एक भारत-विरोधी शख्स ने खुले आम रखी थी। उसी शख्स ने स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट रखवाया था उसी ने राष्ट्रध्वज का अपमान करवाया था और आज भी वह तथा उसके गैंग के लोग निर्बाध  घूम रहे हैं।दुर्भाग्य यह है कि विद्वान भी जिनमे इंटरनेटी ब्लागर्स भी शामिल हैं उसी देशद्रोही शख्स के अंध-भक्त बने हुये हैं।

मनोज दास जी ने बताया है कि आज 36 प्रतिशत लोग 'अवसाद'-डिप्रेशन -से ग्रस्त हैं । बच्चों को अपने माँ-बाप पर नही ,फेसबुक और एस एम एस पर विश्वास है।मेरे विचार मे  उसी प्रकार इंटरनेटी ब्लागर्स को देश-भक्तों पर नही 'अन्ना' पर विश्वास है। अन्ना आंदोलन कांग्रेस  के मनमोहन गुट,संघ/भाजपा ,भारतीय और अमेरिकी कारपोरेट घरानों तथा अमेरिकी प्रशासन के सहयोग  से 'कारपोरेट-भ्रष्टाचार के संरक्षण' हेतु चलाया गया था। अपने उद्देश्य मे वह जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ कर पूरी तरह सफल रहा है।  टाटा,अंबानी,नीरा राडिया आदि उद्योगपति और उनके दलाल जिनहोने 'राजा' आदि मंत्री अपने हितार्थ बनवाए खुले घूम रहे हैं और राजा आदि मंत्री जिनहोने इन उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाया जेल मे विराजमान हैं। राजनेताओं का मखौल उड़ाने वाली किरण बेदी एयर टिकटों का घपला करके और अरविंद केजरीवाल प्राप्त चंदे मे घपला करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मे जनता को बेवकूफ बना रहे थे। हमारे इंटरनेटी ब्लागर्स उनका गुणगान कर रहे थे/हैं। सम्पूर्ण परिस्थितियों के लिए धर्म के नाम पर फैली अधार्मिकता जिम्मेदार है। लेकिन अफसोस कि हमारा बाम-पंथ अधार्मिकों की परिभाषा स्वीकार करके धर्म का विरोध करता तथा जनता की सहानुभूति खोता रहता है। जब मै धर्म की परिभाषा बताने का प्रयास करता हूँ तो सांप्रदायिक तत्व मुझ पर प्रहार करते हैं और हमारे बाम-पंथी बंधु भी उसका विरोध करते हैं। 'सत्य' कड़ुवा होता है और उसे कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।

आध्यात्मिकता=अध्ययन +आत्मा= अपनी आत्मा का अध्ययन करना ही अध्यात्म है।


धर्म=जो धारण करता है (शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब अधर्म है,एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए मूली अथवा दही का सेवन करना धर्म है लेकिन जुकाम-खांसी के रोगी व्यक्ति हेतु वही दही अथवा मूली सेवन अधर्म है)। यह व्यक्ति सापेक्ष है। सब को एक ही तरह नहीं हाँका जा सकता।

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन)+व (वायु)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। इन पाँच प्रकृतिक तत्वों के समन्वय को भगवान कहते हैं इनके पहले अक्षरों के संयोजन से और चूंकि ये खुद ही बने हैं इन्हें किसी ने बनाया नहीं है इसीलिए इन्हे 'खुदा' भी कहते हैं और चूंकि येGENERATE,OPERATE ,DESTROY करते हैं पहले अक्षरों के संयोजन से इन्हे ही GOD भी कहते हैं। भगवान=खुदा =GOD तीनों एक ही के तीन नाम हैं। मतभेद कहाँ है?

मतभेद जो है वह दलालों=पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ मे जनता को बाँट कर शोषण करने हेतु उत्पन्न किया है। अतः हमे पुरोहितवाद का जम कर और डट कर विरोध करना है न कि,अध्यात्म,भगवान,खुदा या गाड का या शरीर को धारण करने वाले धर्म का।

बाम-पंथ,कम्यूनिस्ट और वैज्ञानिक यहीं गलती करते हैं कि वे ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितों की व्याख्या को धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी पुरोहितवाद को ही धर्म मान कर उसका विरोध किया है। आज के कम्यूनिस्ट भी दक़ियानूसी पोंगापंथियों के काले कारनामों को ही धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं जबकि उन्हे वास्तविकता को समझ कर,पहचान कर जनता को भी समझाना चाहिए तभी 'मानव को मानव के शोषण 'से मुक्त कराकर 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध' बनाया जा सकेगा अन्यथा पुरोहितवाद का शिकार होकर परस्पर संघर्षरत रह कर जनता अपना उल्टे उस्तरे से मुंडन कराती रहेगी।

साहित्यकार मनोज दास जी ने जनता को  बामपंथ के मर्म  को समझाने हेतु अध्यात्म का मार्ग अपना कर एक  सकारात्मक पहल की है। हम उनके प्रयासों की सफलता की कामना करते हैं और 'भाई-दोज़' के इस पावन पर्व पर दुनिया मे भाई-चारा और अमन कायम करने की दिली ख़्वाहिश रखते हैं।

'भाई-दोज' पर' चित्रगुप्त-पूजा' भी होती है। 'चित्रगुप्त' के संबंध मे भी पुरोहितवाद ने भ्रांति फैला रखी है। ढोंगियों के अनुसार ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न होने के कारण 'कायस्थ'कहलाने वाले चित्रगुप्त की एक पत्नी ब्राह्मण कन्या और दूसरी नाग कन्या थीं। पढे-लिखे और समझदार कहलाने वाले कायस्थ इसे ही सही मान कर इतराते हैं। लेकिन यह पुरोहितवाद के शिकंजे को और मजबूत करने वाली मनगढ़ंत दन्त-कथा है।

वस्तुतः अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव आज जैसी स्थिति मे आया तो बुद्धि,ज्ञान और विवेक द्वारा उसने मनन करना प्रारम्भ किया और इसीलिए वह 'मनुष्य' कहलाया। उस समय 'काया' से संबन्धित ज्ञान देने वाले को 'कायस्थ' कहा गया। अर्थात मनुष्य की 'काया' से संबन्धित सभी प्रकार का ज्ञान देना इस कायस्थ का कर्तव्य था। 12 राशियों के आधार पर चित्रगुप्त की 12 संतानों की गणना प्रचलित हो गई। 

'चित्रगुप्त' कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है बल्कि प्रत्येक मनुष्य के 'अवचेतन-मस्तिष्क' मे  गुप्त रूप से सक्रिय रहने वाला उसका अपना ही 'चित्त' है । प्रत्येक मनुष्य द्वारा किए गए सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म का लेखा-जोखा उसके अपने मस्तिष्क के इसी 'चित्त' पर गुप्त रूप से अंकित होता रहता है जो मोक्ष-प्राप्ति तक जन्म-जन्मांतर मे उस मनुष्य के 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' के साथ उसकी 'आत्मा' के साथ चलता रहता है और उसी अनुरूप आगामी जन्म मे उसका 'भाग्य' या प्रारब्ध निर्धारित होता है।

अतः चित्रगुप्त पूजा का अभिप्राय तो मानव मस्तिष्क मे  इस 'गुप्त' रूप से अवस्थित 'चित्त' को स्वस्थ व संतुलित रखने से है न कि,पुरोहितवादी वितंडवाद  मे फँसने से।

बढ़ती आबादी के साथ-साथ जब  'कायस्थ' पर अधिक भार हो गया तो 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा को चार वर्गों मे बाँट दिया गया-
1-ब्रह्मांड से संबन्धित ज्ञान को ब्रह्म-विद्या और देने वाले को 'ब्राह्मण' कहा गया ,उत्तीर्ण करने पर विद्यार्थी को 'ब्राह्मण' की उपाधी दी जाती थी। 
2-क्षात्र विद्या जिसमे सैन्य तथा सामान्य प्राशासन आता था को 'क्षत्री' कहा गया। 
3-व्यापार,बानिज्य से समांबंधित ज्ञान को 'वैश्य' -उपाधि  से विभूषित किया गया। 
4-विभिन्न प्रकार की सेवाओं से संबन्धित ज्ञान प्राप्त  करने वालों को 'क्षुद्र' की उपाधि मिलती थी। 

ये चारों उपाधियाँ अर्जित ज्ञान के आधार पर थीं। 'कर्म' करना उनका उद्देश्य था। जैसे बिना डिग्री के डॉ की संतान डॉ नहीं हो सकती,इंजीनियर की संतान बिना डिग्री के इंजीनियर नहीं हो सकती उसी प्रकार उस समय भी ये उपाधियाँ ज्ञानार्जन से प्राप्त करने वाला ही उसके अनुरूप उन्हें धारण व उनका उपयोग कर सकता था। एक ही पिता की अलग-अलग सन्तानें उपाधि के आधार पर -ब्राह्मण,क्षत्री,वैश्य और क्षुद्र हो सकती थीं।

कालांतर मे शोषणवादी व्यवस्था मे 'पुरोहितवाद' पनपा और उसने इन उपाधियों-डिगरियों के स्थान पर 'कर्म'सिद्धान्त की अवहेलना करके 'जातिगत'व्यवस्था फैला दी जो आज तक उत्पीड़न और शोषण का माध्यम बनी हुई है।

जरूरत तो इस बात की है कि अपनी प्राचीन 'कर्म-सिद्धान्त'पर आधारित ज्ञान-व्यवस्था को बहाल करने मे कम्यूनिस्ट तथा बामपंथी कोशिश करेंतथा जनता को जागरूक करें और 'पुरोहितवाद' की जकड़न से उसे छुड़ाए। लेकिन पुरोहितवादियो के कुचक्र मे फंस कर अभी बामपंथ एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन इस ओर से आँखें मूँदे हुये है और इसीलिए सफल नहीं हो पा रहा है। हम आशा करते हैं कि महापंडित राहुल सांस्कृतियायान ,स्वामी सहजानन्द सरस्वती और क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्यसमाजी -कम्यूनिस्टों से प्रेरणा लेकर बामपंथ और कम्यूनिस्ट आंदोलन जनता को 'सन्मार्ग' पर ला सकेगा।  





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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Thursday, 27 October 2011

आबिद सुहैल साहब को मुबारकवाद

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Hindustan-Lucknow-27/10/2011

प्रख्यात पत्रकार और प्रगतिशील साहित्यकार आबिद सुहैल साहब को 'उर्दू' लेखन मे पुरस्कार प्राप्ति पर उन्हें हार्दिक मुबारकवाद। 09 अक्तूबर को कैफी आज़मी एकेडमी मे 'प्रगतिशील लेखक संघ' मे गोष्ठी के अध्यक्ष मण्डल शामिल रहे सुहैल साहब का ही यह सुझाव था कि,ब्रहमनवाद' पर हमला या विरोध करने की बजाय 'पुरोहितवाद' का विरोध करना उचित है क्योंकि ब्रहमनवद से एक 'जाति'की बू आती है और पुरोहितवाद सभी तथाकथित धर्मों को विकृत करने के लिए जिम्मेदार है। उनके सुझाव को 'प्रस्ताव'रूप मे पास करके उस पर अमल होना चाहिए था। परंतु मैंने अपने लेखन मे उनके सुझाव के अनुसार 'पुरोहितवाद' शब्द का उल्लेख करना शुरू कर दिया है।

अभी इसी माह के शुरू मे आबिद सुहैल साहब को देखा व सुना था। उनको पुरुसकार मिलने से बेहद खुशी हुई।




संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Wednesday, 26 October 2011

दीपावली कैसे मनाएँ

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Hindustan-Lucknow-13/10/2011
पावर कार्पोरेशन के स्पेशल  डाइरेक्टर जेनेरल शैलजाकान्त मिश्र साहब ने अपने साथियों के साथ पटाखे छोडने के स्थान पर 'टेसू' के वृक्ष लगाने की जो मुहिम शुरू की है वह न केवल सराहनीय वरन अनुकरणीय भी है। 'टेसू' या 'पलाश' अब उत्तर-प्रदेश का राजकीय वृक्ष तो है ही पर्यावरण संरक्षा मे भी सहायक है। 'टेसू' के फूलों से पहले होली मे रंग एक-दूसरे पर डाला जाता था। इसका रंग कच्चा होने के साथ-साथ जो आसानी से छूट जाता है,चर्म-रोगों से त्वचा की रक्षा भी करता है। पटाखे केवल ध्वनि-प्रदूषण ही नहीं करते बच्चों-बड़ों सभी  के लिए घातक भी होते हैं।

प्रतिवर्ष दीपावली पर करोड़ों रुपए पटाखों पर फूँक दिये जाते हैं। इनसे सिर्फ पर्यावरण ही नहीं प्रदूषित होता। इनके निर्माण के पीछे असंख्य बच्चों के शोषण की कहानी भी छिपी हुई है जिस पर विगत वर्ष मे कुछ ब्लागर्स ने अपने-अपने ब्लाग्स पर खुलासा भी किया था। सुप्रसिद्ध आर्य सन्यासी (अब दिवंगत) स्वामी स्वरूपानन्द  जी के प्रवचन कमलानगर,आगरा मे सुनने का अवसर मिला है। उन्होने बड़ी बुलंदगी के साथ बताया था किजिन लोगों की आत्मा हिंसक प्रकृति की होती है वे ही पटाखे छोड़ कर धमाका करते हैं। उनके प्रवचनों से कौन कितना प्रभावित होता था या बिलकुल नहीं होता था मेरे रिसर्च का विषय नहीं है। मै सिर्फ इतना ही बताना चाहता हूँ कि यशवन्त उस समय 13 या 14 वर्ष का रहा होगा और उसी दीपावली से उसने पटाखे छोडना बंद कर दिया है क्योंकि उसने अपने कानों से स्वामी जी के प्रवचन को सुना और ग्रहण किया। वैसे भी हम लोग केवल अपने पिताजी द्वारा प्रारम्भ परंपरा निबाहने के नाते प्रतीक रूप मे ही छोटे लहसुन आदि उसे ला देते थे। पिताजी ने अपने पौत्र को शुगन के नाम पर पटाखे देना इस लिए शुरू किया था कि औरों को देख कर उसके भीतर हींन भावना न पनपे। प्रचलित परंपरा के कारण ही हम लोगों को भी बचपन मे प्रतीकात्मक ही पटाखे देते थे। अब जब यशवन्त ने स्वतः ही इस कुप्रथा का परित्याग कर दिया तो हमने अपने को धन्य समझा।

स्वामी स्वरूपानन्द जी  आयुर्वेद मे MD  थे ,प्रेक्टिस करके खूब धन कमा सकते  थे लेकिन जन-कल्याण हेतु सन्यास ले लिया था और पोंगा-पंथ के दोहरे आचरण से घबराकर आर्यसमाजी बन गए थे। उन्होने 20 वर्ष तक पोंगा-पंथ के महंत की भूमिका मे खुद को अनुपयुक्त पा कर आर्यसमाज की शरण ली थी और जब हम उन्हें सुन रहे थे उस वक्त वह 30 वर्ष से आर्यसमाजी प्रचारक थे। स्वामी स्वरूपानन्द जी स्पष्ट कहते थे जिन लोगों की आत्मा 'तामसिक' और हिंसक प्रवृति की होती है उन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाने मे आनंद आता है और ऐसा वे धमाका करके उजागर करते हैं।यही बात होली पर 'टेसू' के फूलों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों,नाली की कीचड़,गोबर,बिजली के लट्ठों का पेंट,कोलतार आदि का प्रयोग करने वालों के लिए भी वह बताते थे। उनका स्पष्ट कहना था जब प्रवृतियाँ 'सात्विक' थीं और लोग शुद्ध विचारों के थे तब यह गंदगी और खुराफात (पटाखे /बदरंग)समाज मे दूर-दूर तक नहीं थे। गिरते चरित्र और विदेशियों के प्रभाव से पटाखे दीपावली पर और बदरंग होली पर स्तेमाल होने लगे।

दीपावली/होली क्या हैं?

हमारा देश भारत एक कृषि-प्रधान देश है और प्रमुख दो फसलों के तैयार होने पर ये दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। खरीफ की फसल आने पर धान से बने पदार्थों का प्रयोग दीपावली -हवन मे करते थे और रबी की फसल आने पर गेंहूँ,जौ,चने की बालियों (जिन्हें संस्कृत मे 'होला'कहते हैं)को हवन की अग्नि मे अर्द्ध - पका कर खाने का प्राविधान  था।  होली पर अर्द्ध-पका 'होला' खाने से आगे आने वाले 'लू'के मौसम से स्वास्थ्य रक्षा होती थी एवं दीपावली पर 'खील और बताशे तथा खांड के खिलौने'खाने से आगे शीत  मे 'कफ'-सर्दी के रोगों से बचाव होता था। इन पर्वों को मनाने का उद्देश्य मानव-कल्याण था। नई फसलों से हवन मे आहुतियाँ भी इसी उद्देश्य से दी जाती थीं।

लेकिन आज वेद-सम्मत प्रविधानों को तिलांजली देकर पौराणिकों ने ढोंग-पाखंड को इस कदर बढ़ा दिया है जिस कारण मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। आज यदि कोई चीज सबसे सस्ती है तो वह है -मनुष्य की जिंदगी। छोटी-छोटी बातों पर व्यक्ति को जान से मार देना इन पौराणिकों की शिक्षा का ही दुष्परिणाम है। गाली देना,अभद्रता करना ,नीचा दिखाना और खुद को खुदा समझना इन पोंगा-पंथियों की शिक्षा के मूल तत्व हैं। इसी कारण हमारे तीज-त्योहार विकृत हो गए हैं उनमे आडंबर-दिखावा-स्टंट भर  गया है जो बाजारवाद की सफलता के लिए आवश्यक है। पर्वों की वैज्ञानिकता को जान-बूझ कर उनसे हटा लिया गया है ।

इन परिस्थितियों मे चाहे छोटी ही पहल क्यों न हो 'पटाखा-विरोधियों'का 'टेसू'के पौधे लगाने का यह अभियान आशा की एक किरण लेकर आया है। सभी देश-भक्त ,जागरूक,ज्ञानवान ,मानवता-हितैषी नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे इस अभियान की सफलता मे अपना भी योगदान दें। हम इन समाज-हितैषियों की सफलता की कामना करते हैं।

हिंदुस्तान-लखनऊ-24/10/2011
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    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Tuesday, 25 October 2011

पुस्तकें सबसे अच्छा उपहार हैं

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हिंदुस्तान-लखनऊ-24/10/2011

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Thursday, 20 October 2011

मजाज जन्मशती

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hindustan-lucknow-19/10/2011
19 अक्तूबर 1911 को जन्मे प्रगतिशील शायर मजाज साहब की सौवी सालगिरह निकल भी गई मगर आम जनता अपने इस रहनुमा के बारे मे जानने से महरूम ही रह गई। 08 अक्तूबर 2011 को डॉ नामवर सिंह जी ने इस ओर ध्यान भी खींचा था। कल के अखबार मे मजाज साहब पर यह लेख था उसका अवलोकन आप भी कर सकते हैं। मजाज साहब के देश मे आज कितनी प्रगति हुई इसकी भी नमूना नीचे इस स्कैन मे देख सकते हैं। आज का नौजवान अपने कल के नौजवानों को भुला देगा या उसे उनसे परिचित नहीं कराया जाएगा तो आजाद भारत मे यही सब कुछ दोहराया जाता रहेगा।


hindustan-lucknow-19/10/2011





संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Monday, 17 October 2011

चुनाव आयोग की सकारात्मक पहल

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हिंदुस्तान-लखनऊ-17/10/2011



संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Sunday, 9 October 2011

प्रगति शील लेखक संघ का 75 वां महोत्सव (8-9 oct-2011)

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हिंदुस्तान-लखनऊ-09/10/2011 

Hindustan-Lucknow-10/10/2011

Hindustan-Lucknow-10/10/2011





 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Thursday, 6 October 2011

सच्चाई सामने आने लगी है

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Hindustan-Lucknow-06/10/2011



Hindustan-Lucknow-06/10/2011

'विद्रोही'साहब का यह आलेख अन्ना की पोल को खोल रहा है और भाजपा के इस ढ़ोल की सच्चाई को उजागर कर रहा है। क्या अब भी अन्ना-भक्त उसके पीछे -पीछे भेड़-बकरियों की तरह चलते रहेंगे?



संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

Tuesday, 4 October 2011

डाक्टर को जनसमर्थन

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HINDUSTAN-LUCKNOW04/10/2011
Hindustan-Lucknow-06/10/2011





संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर