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Wednesday, 1 November 2017

गुनाह,तकदीर,खुदा और कलम ------ विजय राजबली माथुर

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पंजाब की कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे और खालिस्तान आंदोलन का विरोध करने के कारण शहीद हुये लाला जगत नारायण द्वारा स्थापित अखबार द्वारा गलत दलील पेश की जा रही है। 
'खुदा ' अर्थात जो खुद ही बना हो और जिसे किसी इंसान ने बनाया नहीं हो और जिसका कार्य उत्पत्ति (GENERATE), स्थिति (OPERATE),संहार (DESTROY)होता है जो भूमि (भ ),ग (गगन-आकाश ),व (वायु - हवा ),I (अनल-अग्नि ),न (नीर - जल ) का समन्वय होता है। 

 प्रकृति ने सृष्टि 'सत ' , ' रज ' और 'तम ' के परमाणुओं से की है। ये सदैव विषम अवस्था में रहते हैं  और परस्पर  ' संसर्ग ' करते रहते हैं  जिस कारण इसे संसार कहा जाता है। जब भी सत, रज और तम के परमाणु सं अवस्था में हो जाते हैं तब वह अवस्था  ' प्रलय ' की होते है जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि या संसार नष्ट हो जाता है। ' मनन ' करने वाला प्राणी  ' मनुष्य ' कहलाता है। यदि कोई मनन नहीं करता है तो उसे मनुष्य तन धारी पशु ही कहा जाता है। मनुष्य सदैव कुछ न कुछ ' कर्म ' करता है जिस कारण उसे  ' कृतु ' भी कहा जाता है। कर्म  तीन प्रकार के होते हैं -  सदकर्म, दुष्कर्म और अकर्म । सदकर्म का परिणाम सुफल , दुष्कर्म का परिणाम विफल होता है। अकर्म  वह कर्म  होता है जो किया जाना चाहिए था और किया नहीं गया । यद्यपि संसार के नियमों में यह अपराध नहीं है और समाज ऐसे कृत्य को दंडित नहीं करता है किन्तु प्रकृति, खुदा, GOD, भगवान की निगाह  में यह दंडित होता है।   
यह संसार एक परीक्षालय है यहाँ निरंतर परीक्षा चलती रहती है।खुदा = GOD=भगवान =भूमि,गगन,वायु,अग्नि,जल किसी भी प्राणी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते हैं वे एक निरीक्षक (Investigator) के तौर पर इंसान - मनुष्य के कार्यों का सिर्फ अवलोकन करते हैं। परंतु एक परीक्षक (Examinar) के तौर पर उसके कार्यों के लेखा- जोखा के आधार पर पुरस्कृत करते व दंड देते हैं। 


खुदा की कलम से तकदीर नहीं लिखी जाती तकदीर तो इंसान खुद गढ़ता है इसलिए खुदा को दोष देने की बात पूर्णतया: गलत है। 




संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 15 October 2016

देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है ------ ध्रुव गुप्त /प्रशासन का रवैया क्षोभपूर्ण ------ मधुवन दत्त चतुर्वेदी

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Dhruv Gupt

हमीं से मोहब्बत, हमीं से लड़ाई ! : 
अभी-अभी बृन्दावन में आयोजित नास्तिकों के सम्मेलन और वहां के कुछ धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद आस्तिकता बनाम नास्तिकता का विवाद एक बार फिर विमर्श के केंद्र में है। यह विवाद हमारे देश में हमेशा से चला आ रहा है। प्राचीन भारत में नास्तिकता के सबसे बड़े पैरोकार ऋषि चार्वाक थे जिन्होंने तर्क सहित किसी दैवी सत्ता, स्वर्ग-नरक और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। बौद्ध धर्म ने भी किसी पारलौकिक सत्ता का उल्लेख नहीं किया, लेकिन उसकी निर्वाण की परिकल्पना में मृत्यु के बाद किसी न किसी रूप में जीवन की उपस्थिति का स्वीकार अवश्य है। सच तो यह है कि मनुष्य द्वारा ईश्वर और विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक देवी-देवताओं के आविष्कार के पूर्व समूची मानवता नास्तिक ही थी। आप इसे अच्छी कह लीजिए या बुरी, ईश्वर की खोज दुनिया को मानसिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रभावित करने वाली सबसे प्रमुख खोज थी। तबसे हर दौर में कुछ लोग या कोई न कोई विचारधारा ईश्वर की परिकल्पना का निषेध और प्रतिकार करती रही है। विज्ञान भी किसी पारलौकिक सत्ता के अस्तित्व से इनकार करता है। इसके बावज़ूद आस्तिकता की अवधारणा के पीछे कुछ तो ऐसा है कि आज वैज्ञानिक कहे जाने वाली इक्कीसवी सदी में भी देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है। शायद जीवन की कठोर परिस्थितियों में अपने से इतर समूची सृष्टि के प्रति करुणा, दया, प्रेम, क्षमा और वात्सल्य से भरी किसी नियामक सत्ता पर भरोसा बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी ऐसे लोगों को जीने का संबल देती रही है। जीवन की परिस्थितियां जितनी जटिल होंगी सर टिकाने लायक किसी अभौतिक सत्ता की ज़रुरत उतनी ही बढ़ेगी। आप इसे अंधविश्वास, अफीम या यथास्थिति का स्वीकार कह लीजिए, लेकिन अगर यह भावनात्मक संबल और उम्मीद भी लोगों से छिन जाय बहुत से लोगों के पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता न बचेगा।

दुनिया में जो दस प्रतिशत लोग ख़ुद को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी ऐसे हार्डकोर नास्तिकों की संख्या एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं है जो अपनी अनास्था के साथ तमाम तर्क सहित मजबूती से टिके हुए हैं। इस दस प्रतिशत में निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें ठीक-ठीक पता नहीं कि वे वस्तुतः आस्तिक हैं अथवा नास्तिक। ये विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते वे ऐसे लोग हैं जिनकी आस्तिकता भी संदिग्ध है और नास्तिकता भी। इनकी ईश्वर के बारे में सोचने या जानने में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन मन के किसी कोने में छुपा हुआ एक डर भी है कि अगर सचमुच कोई ईश्वर हुआ तो जीते जी या मरने के बाद उनकी क्या गति होगी। उनका मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्च में भरोसा नहीं है, लेकिन किसी भी धर्म के पूजा-स्थल से गुज़रते हुए ऐसे लोगों के सर स्वतः झुक जाते हैं। पूजा-पाठ और कर्मकांड में आस्था न होते हुए भी वे शादी-ब्याह, श्राद्ध आदि के पारिवारिक आयोजनों में भागीदारी कर लेते हैं। जो धार्मिक रूढ़ियों का प्रखर विरोध भी करते हैं और छिपाकर कपड़ों के नीचे जनेऊ भी धारण करते हैं। सामने खड़ी किसी मुसीबत को देखकर इनके मुंह से 'हे विज्ञान', 'हे मार्क्स' या 'हे तर्कशास्त्र' की जगह 'हे भगवान' 'ओह गॉड' या 'या अल्लाह' ही निकलता है। लब्बोलुबाब यह कि आस्तिकता की जड़ें हमारे भीतर बहुत गहरी हैं। आस्तिकों और दुविधाग्रस्त लोगों में तो है ही, नास्तिकों में कुछ ज्यादा ही गहरी है। इतनी गहरी कि उन्हें चीख-चीखकर और मजमें जुटाकर इसकी घोषणा करनी पड़ती है। जैसे मुहब्बत जितनी गहरी, मुहब्बत के खिलाफ़ अभियान भी उतना ही प्रखर। बहरहाल दुनिया है तो क़िस्म-क़िस्म के वैचारिक द्वंद्व भी रहेंगे। यही दुनिया की खूबसूरती है। सबको अपनी आस्था, अनास्था के साथ जीने का अधिकार है और दोनों की सीमा-रेखा पर खड़े लोगों को इस पूरे संघर्ष का मज़ा लेने का भी।
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वास्तविकता यह है कि, प्रचलित 'आस्तिक ' और 'नास्तिक ' शब्द 'भ्रम ' उत्पन्न करते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार 'आस्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है' और 'नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है' । 
पाखंडी और नास्तिक दोनों संप्रदायों के विद्वान गफलत में जी रहे हैं और मानवता को गुमराह कर रहे हैं।समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
'ईश्वर ' का अर्थ है जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । आज कल पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है । दुनिया से परे जीवन की कल्पना पर इस दुनिया में आग लगाना किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्ता नहीं है। 
(विजय राजबली माथुर ) 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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Friday, 28 October 2011

अध्यात्म और कम्यूनिज़्म

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मनोज दास जी,बाम-पंथ और आध्यात्मिकता

हिंदुस्तान,लखनऊ,25 अक्तूबर,2011 
उडिया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार मनोज दास जी जो खुद बाम-पंथी रहे हैं और अब आध्यात्मिकता के मार्ग से जन-कल्याण मे लगे हुये हैं यहाँ स्पष्ट रूप से कह गए हैं कि 'बुकर पुरस्कार' भारत को नीचा दिखाने वालों को दिया जाता है और "बुकर पुरस्कार तय करने वाली कमेटी सामाजिक यथार्थ और कामुकता का काकटेल है।"

अभी कुछ ही दिनों पहले जन-लोकपाल को नियुक्त करने की कमेटी मे 'बुकर' पुरस्कार प्राप्त लोगों को रखने की मांग एक भारत-विरोधी शख्स ने खुले आम रखी थी। उसी शख्स ने स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट रखवाया था उसी ने राष्ट्रध्वज का अपमान करवाया था और आज भी वह तथा उसके गैंग के लोग निर्बाध  घूम रहे हैं।दुर्भाग्य यह है कि विद्वान भी जिनमे इंटरनेटी ब्लागर्स भी शामिल हैं उसी देशद्रोही शख्स के अंध-भक्त बने हुये हैं।

मनोज दास जी ने बताया है कि आज 36 प्रतिशत लोग 'अवसाद'-डिप्रेशन -से ग्रस्त हैं । बच्चों को अपने माँ-बाप पर नही ,फेसबुक और एस एम एस पर विश्वास है।मेरे विचार मे  उसी प्रकार इंटरनेटी ब्लागर्स को देश-भक्तों पर नही 'अन्ना' पर विश्वास है। अन्ना आंदोलन कांग्रेस  के मनमोहन गुट,संघ/भाजपा ,भारतीय और अमेरिकी कारपोरेट घरानों तथा अमेरिकी प्रशासन के सहयोग  से 'कारपोरेट-भ्रष्टाचार के संरक्षण' हेतु चलाया गया था। अपने उद्देश्य मे वह जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ कर पूरी तरह सफल रहा है।  टाटा,अंबानी,नीरा राडिया आदि उद्योगपति और उनके दलाल जिनहोने 'राजा' आदि मंत्री अपने हितार्थ बनवाए खुले घूम रहे हैं और राजा आदि मंत्री जिनहोने इन उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाया जेल मे विराजमान हैं। राजनेताओं का मखौल उड़ाने वाली किरण बेदी एयर टिकटों का घपला करके और अरविंद केजरीवाल प्राप्त चंदे मे घपला करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मे जनता को बेवकूफ बना रहे थे। हमारे इंटरनेटी ब्लागर्स उनका गुणगान कर रहे थे/हैं। सम्पूर्ण परिस्थितियों के लिए धर्म के नाम पर फैली अधार्मिकता जिम्मेदार है। लेकिन अफसोस कि हमारा बाम-पंथ अधार्मिकों की परिभाषा स्वीकार करके धर्म का विरोध करता तथा जनता की सहानुभूति खोता रहता है। जब मै धर्म की परिभाषा बताने का प्रयास करता हूँ तो सांप्रदायिक तत्व मुझ पर प्रहार करते हैं और हमारे बाम-पंथी बंधु भी उसका विरोध करते हैं। 'सत्य' कड़ुवा होता है और उसे कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।

आध्यात्मिकता=अध्ययन +आत्मा= अपनी आत्मा का अध्ययन करना ही अध्यात्म है।


धर्म=जो धारण करता है (शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब अधर्म है,एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए मूली अथवा दही का सेवन करना धर्म है लेकिन जुकाम-खांसी के रोगी व्यक्ति हेतु वही दही अथवा मूली सेवन अधर्म है)। यह व्यक्ति सापेक्ष है। सब को एक ही तरह नहीं हाँका जा सकता।

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन)+व (वायु)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। इन पाँच प्रकृतिक तत्वों के समन्वय को भगवान कहते हैं इनके पहले अक्षरों के संयोजन से और चूंकि ये खुद ही बने हैं इन्हें किसी ने बनाया नहीं है इसीलिए इन्हे 'खुदा' भी कहते हैं और चूंकि येGENERATE,OPERATE ,DESTROY करते हैं पहले अक्षरों के संयोजन से इन्हे ही GOD भी कहते हैं। भगवान=खुदा =GOD तीनों एक ही के तीन नाम हैं। मतभेद कहाँ है?

मतभेद जो है वह दलालों=पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ मे जनता को बाँट कर शोषण करने हेतु उत्पन्न किया है। अतः हमे पुरोहितवाद का जम कर और डट कर विरोध करना है न कि,अध्यात्म,भगवान,खुदा या गाड का या शरीर को धारण करने वाले धर्म का।

बाम-पंथ,कम्यूनिस्ट और वैज्ञानिक यहीं गलती करते हैं कि वे ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितों की व्याख्या को धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी पुरोहितवाद को ही धर्म मान कर उसका विरोध किया है। आज के कम्यूनिस्ट भी दक़ियानूसी पोंगापंथियों के काले कारनामों को ही धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं जबकि उन्हे वास्तविकता को समझ कर,पहचान कर जनता को भी समझाना चाहिए तभी 'मानव को मानव के शोषण 'से मुक्त कराकर 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध' बनाया जा सकेगा अन्यथा पुरोहितवाद का शिकार होकर परस्पर संघर्षरत रह कर जनता अपना उल्टे उस्तरे से मुंडन कराती रहेगी।

साहित्यकार मनोज दास जी ने जनता को  बामपंथ के मर्म  को समझाने हेतु अध्यात्म का मार्ग अपना कर एक  सकारात्मक पहल की है। हम उनके प्रयासों की सफलता की कामना करते हैं और 'भाई-दोज़' के इस पावन पर्व पर दुनिया मे भाई-चारा और अमन कायम करने की दिली ख़्वाहिश रखते हैं।

'भाई-दोज' पर' चित्रगुप्त-पूजा' भी होती है। 'चित्रगुप्त' के संबंध मे भी पुरोहितवाद ने भ्रांति फैला रखी है। ढोंगियों के अनुसार ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न होने के कारण 'कायस्थ'कहलाने वाले चित्रगुप्त की एक पत्नी ब्राह्मण कन्या और दूसरी नाग कन्या थीं। पढे-लिखे और समझदार कहलाने वाले कायस्थ इसे ही सही मान कर इतराते हैं। लेकिन यह पुरोहितवाद के शिकंजे को और मजबूत करने वाली मनगढ़ंत दन्त-कथा है।

वस्तुतः अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव आज जैसी स्थिति मे आया तो बुद्धि,ज्ञान और विवेक द्वारा उसने मनन करना प्रारम्भ किया और इसीलिए वह 'मनुष्य' कहलाया। उस समय 'काया' से संबन्धित ज्ञान देने वाले को 'कायस्थ' कहा गया। अर्थात मनुष्य की 'काया' से संबन्धित सभी प्रकार का ज्ञान देना इस कायस्थ का कर्तव्य था। 12 राशियों के आधार पर चित्रगुप्त की 12 संतानों की गणना प्रचलित हो गई। 

'चित्रगुप्त' कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है बल्कि प्रत्येक मनुष्य के 'अवचेतन-मस्तिष्क' मे  गुप्त रूप से सक्रिय रहने वाला उसका अपना ही 'चित्त' है । प्रत्येक मनुष्य द्वारा किए गए सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म का लेखा-जोखा उसके अपने मस्तिष्क के इसी 'चित्त' पर गुप्त रूप से अंकित होता रहता है जो मोक्ष-प्राप्ति तक जन्म-जन्मांतर मे उस मनुष्य के 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' के साथ उसकी 'आत्मा' के साथ चलता रहता है और उसी अनुरूप आगामी जन्म मे उसका 'भाग्य' या प्रारब्ध निर्धारित होता है।

अतः चित्रगुप्त पूजा का अभिप्राय तो मानव मस्तिष्क मे  इस 'गुप्त' रूप से अवस्थित 'चित्त' को स्वस्थ व संतुलित रखने से है न कि,पुरोहितवादी वितंडवाद  मे फँसने से।

बढ़ती आबादी के साथ-साथ जब  'कायस्थ' पर अधिक भार हो गया तो 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा को चार वर्गों मे बाँट दिया गया-
1-ब्रह्मांड से संबन्धित ज्ञान को ब्रह्म-विद्या और देने वाले को 'ब्राह्मण' कहा गया ,उत्तीर्ण करने पर विद्यार्थी को 'ब्राह्मण' की उपाधी दी जाती थी। 
2-क्षात्र विद्या जिसमे सैन्य तथा सामान्य प्राशासन आता था को 'क्षत्री' कहा गया। 
3-व्यापार,बानिज्य से समांबंधित ज्ञान को 'वैश्य' -उपाधि  से विभूषित किया गया। 
4-विभिन्न प्रकार की सेवाओं से संबन्धित ज्ञान प्राप्त  करने वालों को 'क्षुद्र' की उपाधि मिलती थी। 

ये चारों उपाधियाँ अर्जित ज्ञान के आधार पर थीं। 'कर्म' करना उनका उद्देश्य था। जैसे बिना डिग्री के डॉ की संतान डॉ नहीं हो सकती,इंजीनियर की संतान बिना डिग्री के इंजीनियर नहीं हो सकती उसी प्रकार उस समय भी ये उपाधियाँ ज्ञानार्जन से प्राप्त करने वाला ही उसके अनुरूप उन्हें धारण व उनका उपयोग कर सकता था। एक ही पिता की अलग-अलग सन्तानें उपाधि के आधार पर -ब्राह्मण,क्षत्री,वैश्य और क्षुद्र हो सकती थीं।

कालांतर मे शोषणवादी व्यवस्था मे 'पुरोहितवाद' पनपा और उसने इन उपाधियों-डिगरियों के स्थान पर 'कर्म'सिद्धान्त की अवहेलना करके 'जातिगत'व्यवस्था फैला दी जो आज तक उत्पीड़न और शोषण का माध्यम बनी हुई है।

जरूरत तो इस बात की है कि अपनी प्राचीन 'कर्म-सिद्धान्त'पर आधारित ज्ञान-व्यवस्था को बहाल करने मे कम्यूनिस्ट तथा बामपंथी कोशिश करेंतथा जनता को जागरूक करें और 'पुरोहितवाद' की जकड़न से उसे छुड़ाए। लेकिन पुरोहितवादियो के कुचक्र मे फंस कर अभी बामपंथ एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन इस ओर से आँखें मूँदे हुये है और इसीलिए सफल नहीं हो पा रहा है। हम आशा करते हैं कि महापंडित राहुल सांस्कृतियायान ,स्वामी सहजानन्द सरस्वती और क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्यसमाजी -कम्यूनिस्टों से प्रेरणा लेकर बामपंथ और कम्यूनिस्ट आंदोलन जनता को 'सन्मार्ग' पर ला सकेगा।  





http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.com/2011/10/blog-post_28.html




 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर