Sunday, 2 September 2012

उल्टी और डकार


भर्त्सना

अरुण चन्द्र रॉय said...

"यह तो होना ही था... शास्त्री जी आप जैसे यशस्वी और अनुभवी साहित्यकार को उस फार्स (farce) कार्यक्रम में जाना ही नहीं चाहिए था. क्या गत वर्ष की अवास्य्स्था और बंदरबाट भूल गए थे आप... गत वर्ष के कार्यक्रम की रूपरेखा जो हिंदी साहित्य निकेतन ने तय की थी वह वैसी रही और वहां भी ब्लॉग सत्र को स्क्रैप कर दिया गया था. यहाँ भी सूना है कि वैसा ही हुआ है.... शिवमूर्ति जैसे कथाकार को बुलाकर बेईज्ज़त करना शर्मनाक है... यदि आप ब्लोगर को आमंत्रित करते हैं तो उन्हें सम्मान देना चाहिए.... यह कार्यक्रम तीन लोगों का व्यक्तिगत कार्यक्रम था...वटवृक्ष के ब्लोगर विशेषांक के अवसर पर उसके संपादक का न रहना भी दुखद है... गत वर्ष के अनुभव से शायद वे न आई हों..... खैर.... हम इसकी भर्त्सना करते हैं..... "


सम्मान समारोह : ब्लागिंग का ब्लैक डे !

"1- पूरी हो गई "अलीबाबा 40 चोर" की टीम।
2-नाराजगी शिखा वार्ष्णेय से भी है। आप मंचासीन थीं, आप नहीं जानतीं कि रुपचंद्र शास्त्री जी का हिंदी ब्लागिग और ब्लागर के बीच क्या सम्मान है। इस पर तो हिंदी ब्लागर में वोटिंग करा ली जानी चाहिए कि क्या शास्त्री जी को मंच पर स्थान नहीं मिलना चाहिए था ? मुझे पता है कि जब लोग देश छोडकर बाहर जाते हैं तो अपनी संस्कृति  और सभ्यता से भी बहुत दूर हो जाते हैं। वरना शिखा से ऐसी  उम्मीद नहीं की जा सकती थी। उन्हें चाहिए था कि वो अपना स्थान शास्त्री जी के लिए खाली करतीं, इससे आयोजक मजबूर हो जाते एक वरिष्ठ ब्लागर को सम्मान देने के लिए।
3- एक ब्लागर की बात तो मैं आज भी नहीं भूल पाया हू, जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें "वटवृक्ष" का सह संपादक बनाने के लिए पैसे लिए गए।"

संपादक-प्रकाशक गठजोड़-

जो ब्लागर्स अपने नाम के प्रचार के ख़्वाहिशमंद होते हैं उनके इस लालच को भुनाने मे माहिर उक्त संपादक उनसे हजारों मे रकम एंठ कर पुस्तकें छ्पवाता रहता है। स्व्भाविक रूप से पुस्तकें प्रकाशक लोग ही छापते हैं जिंनका धंधा उक्त संपादक के सहारे चलता रहता है। फलतः यदि ऐसे प्रकाशक उक्त संपादक की आड़ लेकर हल्ला करते हैं तो विस्मय की कोई बात नहीं है यह तो व्यापीरिक रिश्ते निभाने का उनका अपना फर्ज़ ही है।  

वस्तुतः  "वटवृक्ष" का सह संपादक बनाने के लिए पैसे लिए गए।"---जैसा कि तमाम ब्लागर्स ने पीड़ा व्यक्त की कि उक्त सम्पादक महोदया ही ने उनको फोन करके हजारों मे रकम की मांग करके 'वटवृक्ष' पत्रिका से जोड़ने की बात कही थी जिन लोगों ने रकम नहीं दी वे नहीं जुड़े जिसने दी होगी वह जुड़ गया होगा।

   यदि वटवृक्ष पत्रिका के मालिकान कारपोरेट घराना होते तो अब तक सम्पादक को कान पकड़ कर हटा चुके होते। लेकिन सम्पादक उनके विरुद्ध लगातार लामबंदी करके विष-वमन करता जा रहा है सिर्फ उनको ब्लैकमेल करने हेतु। अपने बच्चों के एंगेजमेंट करना ,धन बटोरना और फिर रिश्ता तोड़ना यही धंधा है उन सम्पादक का।

    • "उंगलियाँ इतनी लचीली होती हैं
      कि फट से उठ जाती हैं किसी पर
      अपनी हार पर बौखला कर
      सबसे सरल तरीका है
      ऊँगली उठाना !
      ...
      सामनेवाला कोई शिकायत न रख दे
      बेहतर है उससे शिकायत कर अपना रास्ता साफ़ कर लेना ...

      सौ प्रतिशत सही कौन होता है दोस्त
      मेरी कमी तो तुम कह गए
      रिश्ते का मान उतार गए
      अब तो अपनी कमी देखो मेरे दोस्त !

      कहनेवालों ने तुम्हारे लिए भी बहुत कहा
      हमने अनसुना किया
      प्रश्न उठाकर तुमसे
      तुम्हें रुसवा न किया
      तुमने जो भी कहा मुझसे
      बस उसी पर ऐतबार किया ...

      बड़े मनोयोग से तुम मेरी तस्वीर बनाते गए
      दूसरी तरफ उसमें आग लगाते गए
      तस्वीर देख लोगों ने तुमको खुदा मान लिया
      राख के ढेर में हम
      खामोश होकर रह गए ...

      प्यार - पूजा
      शब्द - आरती ...
      सोचकर बढ़ती गई
      ये तो वक़्त ने है बताया
      खून की पगडंडियाँ बनती गयी !..."

      माँजरा क्या है सब समझ सकते हैं सम्पादक महोदया के  इस उद्बोधन से।

यह एक हकीकत है कि उक्त सम्पादक जी काव्य रचयिता ब्लागर्स से हजारों की रकम लेकर कभी किसी कभी किसी प्रकाशक के यहाँ से पुस्तकें छपवा कर अपना व्यापार चलाती हैं। जब ब्लागर्स शोहरत के लालच मे धन व्यय करने को लालायित हैं तो वह कोई समस्या नहीं है। लेकिन यदि 'वटवृक्ष' के सम्पादक के नाते रकम एंठी गई होगी और मालिकान से छिप कर तब तो 'समस्या' उठी ही होगी। ताज्जुब यह है कि पत्रिका के मालिकान ने किस भय से सम्पादक के विरुद्ध कारवाई नहीं की और उनको अपने विरुद्ध हल्ला मचाने की छूट प्रदान कर दी?

सम्मान गलत हुआ हो या सही ,जिनका सम्मान हुआ उनको 40 चोर कहने का क्या औचित्य?कहने वाले ब्लागर साहब कारपोरेट घराने की मज़ेदार नौकरी मे हैं। वह उक्त संपादक महोदया के पूना निवास पर पाँच घंटे बिता कर-चाय,नाश्ता,खाना,मीट,मुर्गा,मच्छी खा कर और शराब आदि से जो मेहमान नवाज़ी करा कर आए थे उसी की 'डकार' और 'उल्टी' है उनका यह अभद्र,अश्लील,असामाजिक लेखन। किसी भी आयोजन मे उसके आयोजकों द्वारा निर्धारित व्यक्ति किसी दूसरे को अपनी मंचस्थ 'कुर्सी' किस अधिकार से हस्तांतरित कर सकता है?क्या चेनल शास्त्र मे ऐसा होता है?

यह ब्लागर साहब संकीर्ण पोंगापंथी ढ़ोंगी विचार-धारा के ध्वजा वाहक हैं और 'हवन' जैसी वैज्ञानिक पद्धति के विरोधी। यह पुरोहितवाद के संरक्षण के हिमायती हैं । ज्योतिष के मेरे वैज्ञानिक विश्लेषण की खिल्ली इनके ही ब्लाग पर उक्त संपादक महोदया ने तब उड़ाई थी जबकी  अपने बच्चों की चार कुंडलियों का विश्लेषण मुझसे करा चुकी थीं और 'रेखा के राजनीति'मे आने का मेरा विश्लेषण सही सिद्ध हो चुका था।  अतः उनका लेखन मुझे तो 'खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे' ही लगता है।

1 comment:

  1. पुरस्कारों की दूकान खोलने में हर्ज़ ही क्या है . जिन्हें मिला वे उत्साहित हैं तो
    पुरस्कार मिल मिलके भैया
    कुछ तो हिंदी सुधरी होगी ?

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