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करुनाभ अनुला के ऋषित्व को कोटिश: नमन
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कुछ बल्लेबाज क्रिकेट की पिच पर धीरे-धीरे खेलते हुए लम्बे समय तक क्रीज़ पर जमे रहते हैं परन्तु जब उनके खाते की जाँच-पड़ताल होती है तो निराशा हाथ लगती है। वहीं कुछ ऐसे जीवट और दमदार बल्लेबाज होते हैं जो गंभीरता से रन बनाने के लिए ही क्रीज़ पर उतरते हैं। ऐसे खिलाड़ियों के खेलने का ढंग ही निराला होता है। उनके बल्ले से बेहतरीन स्टोक निकलते हैं और रनों की बरसात होने लगती है। दर्शक-गण उनका खेल देख अवाक रह जाते हैं। उंनकी छोटी पाली सी पाली दर्शकों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाती है| उनका असमय पेवेलियन में लौटना दर्शकों को वेदना से भर देता है| प्रो. करुणाभ अनुला की इकत्तीस वर्षीय जीवन-पाली दूसरे प्रकार के क्रिकेट खिलाड़ियों जैसी थी। छोटी सी आयु में उसने जो कीर्तिमान हासिल किये वे गर्व करने योग्य है। कहा जाता है- ’होनाहर बिरवान के होत चीकने पात’! यह कहावत करुनाभ अनुला पर सटीक बैठती है| वह बचपन से ही कुशाघ्र-बुद्धि थी। कठिन से कठिन कामों को हंसते-हंसते हुए अंजाम देना उसे बाखूबी आता था। चुनौतियाँ उसके साहस के सामने बौनी हो जाती थीं। अनेक शैक्षिक एवं सामाजिक सभाओं में उसकी मर्मस्पर्शी संबोधन कला का मैं गवाह रहा हूँ। उसके विचार नपे-तुले और मानवीयता से ओत-प्रोत होते थे। उसने एशिया लाइट शिक्षा संस्थान, शेखूपुरा, लखनऊ से प्रारंभिक शिक्षा के पडाव को पार कर आई.टी.कालेज, लखनऊ विश्वविद्यालय, जे.एन.यू. और उसके बाद विज्ञान-भवन में ब्याख्यान-माला तक की यात्रा उसने बड़ी सहजता से पूर्ण की थी| यह यात्रा फूलों भरी हरगिज़ न थी। कदम कदम पर काँटे और मुसकिलों के पहाड़ उसकी राह में खड़े थे किन्तु तथागत भगवान बुद्ध धम्म-बोध और भारतरत्न डा. भीमराव अंबेडकर की चेतना के सहारे सारी बाधाओं को अपनी कर्मनिष्ठा के बल पर एक-एक करके पार करती चली गई। नवयुग डिग्री कालेज, लखनऊ में अध्यापन-काल के दौरान छात्रों-अध्यापिकाओं वह समान रूप से लोकप्रिय थी| मैं उससे जब मिला भारतीय परंपरा के अनुसार उसने दोनों हाथों को जोड़कर जयभीम! नमो बुद्धाय! द्वारा अभिवादन किया| उसकी शौम्य छवि मेरी मन:चेतना में आज भी अंकित है। उसका व्यक्तित्व ’यथा नामे तथा गुण:’ था। करुणा की आभा उसके कार्य और व्यवहार दोनों में झलकती थी। उनके असमय निधन से बौद्धिक समाज को बड़ी क्षति पहुँची है जिसकी पूर्ति असंभव है। करुणाभ अनुला यद्यपि अब हमारे बीच में नहीं हैं तदपि उनके नेत्रदान और देहदान से उत्पन्न करुणा का स्रोत संसार में सदैव प्रवाहमान रहेगा। परोपकार की ऐसी वृत्ति आज के छीना-झपटी वाले युग में अति दुर्लभ है। प्राचीन गाथाओं में ऋषि दधीच का नाम देह-दानियों में बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने अस्त्र-शस्त्र बनाने हेतु अपनी अस्थियाँ देवताओं को दान की थीं। किन्तु करूणाभ के नेत्रदान और देहदान देवता और अदेवता के भेदों से परे है। परोपकार की यह वृत्ति जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि की सीमाओं से परे है। करुणाभ अनुला के नेत्रों से दो दृष्टिहीनों को नया जीवन मिलेगा। वे संसार की रौनक को अपनी आँखों से निहार सकेंगे। त्याग की यह भावना प्रोफेसर करुणाभ अनुला को ऋषित्व से उच्च पद का अधिकारी बनाती है| मेडिकल कालेज में अध्ययनरत चिकित्सकों को अपना हुनर सवांरने में उनका शरीर मूल्यवान सिद्ध होगा। प्रो. करुणाम अनुला का पुरषार्थ आने वाली पीड़ियों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हो और मानवीयता के प्रति उनके समर्पण से हम सब प्रेरणा लेते रहें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। करुनाभ अनुला के ऋषित्व को कोटिश: नमन|
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कुछ बल्लेबाज क्रिकेट की पिच पर धीरे-धीरे खेलते हुए लम्बे समय तक क्रीज़ पर जमे रहते हैं परन्तु जब उनके खाते की जाँच-पड़ताल होती है तो निराशा हाथ लगती है। वहीं कुछ ऐसे जीवट और दमदार बल्लेबाज होते हैं जो गंभीरता से रन बनाने के लिए ही क्रीज़ पर उतरते हैं। ऐसे खिलाड़ियों के खेलने का ढंग ही निराला होता है। उनके बल्ले से बेहतरीन स्टोक निकलते हैं और रनों की बरसात होने लगती है। दर्शक-गण उनका खेल देख अवाक रह जाते हैं। उंनकी छोटी पाली सी पाली दर्शकों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाती है| उनका असमय पेवेलियन में लौटना दर्शकों को वेदना से भर देता है| प्रो. करुणाभ अनुला की इकत्तीस वर्षीय जीवन-पाली दूसरे प्रकार के क्रिकेट खिलाड़ियों जैसी थी। छोटी सी आयु में उसने जो कीर्तिमान हासिल किये वे गर्व करने योग्य है। कहा जाता है- ’होनाहर बिरवान के होत चीकने पात’! यह कहावत करुनाभ अनुला पर सटीक बैठती है| वह बचपन से ही कुशाघ्र-बुद्धि थी। कठिन से कठिन कामों को हंसते-हंसते हुए अंजाम देना उसे बाखूबी आता था। चुनौतियाँ उसके साहस के सामने बौनी हो जाती थीं। अनेक शैक्षिक एवं सामाजिक सभाओं में उसकी मर्मस्पर्शी संबोधन कला का मैं गवाह रहा हूँ। उसके विचार नपे-तुले और मानवीयता से ओत-प्रोत होते थे। उसने एशिया लाइट शिक्षा संस्थान, शेखूपुरा, लखनऊ से प्रारंभिक शिक्षा के पडाव को पार कर आई.टी.कालेज, लखनऊ विश्वविद्यालय, जे.एन.यू. और उसके बाद विज्ञान-भवन में ब्याख्यान-माला तक की यात्रा उसने बड़ी सहजता से पूर्ण की थी| यह यात्रा फूलों भरी हरगिज़ न थी। कदम कदम पर काँटे और मुसकिलों के पहाड़ उसकी राह में खड़े थे किन्तु तथागत भगवान बुद्ध धम्म-बोध और भारतरत्न डा. भीमराव अंबेडकर की चेतना के सहारे सारी बाधाओं को अपनी कर्मनिष्ठा के बल पर एक-एक करके पार करती चली गई। नवयुग डिग्री कालेज, लखनऊ में अध्यापन-काल के दौरान छात्रों-अध्यापिकाओं वह समान रूप से लोकप्रिय थी| मैं उससे जब मिला भारतीय परंपरा के अनुसार उसने दोनों हाथों को जोड़कर जयभीम! नमो बुद्धाय! द्वारा अभिवादन किया| उसकी शौम्य छवि मेरी मन:चेतना में आज भी अंकित है। उसका व्यक्तित्व ’यथा नामे तथा गुण:’ था। करुणा की आभा उसके कार्य और व्यवहार दोनों में झलकती थी। उनके असमय निधन से बौद्धिक समाज को बड़ी क्षति पहुँची है जिसकी पूर्ति असंभव है। करुणाभ अनुला यद्यपि अब हमारे बीच में नहीं हैं तदपि उनके नेत्रदान और देहदान से उत्पन्न करुणा का स्रोत संसार में सदैव प्रवाहमान रहेगा। परोपकार की ऐसी वृत्ति आज के छीना-झपटी वाले युग में अति दुर्लभ है। प्राचीन गाथाओं में ऋषि दधीच का नाम देह-दानियों में बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने अस्त्र-शस्त्र बनाने हेतु अपनी अस्थियाँ देवताओं को दान की थीं। किन्तु करूणाभ के नेत्रदान और देहदान देवता और अदेवता के भेदों से परे है। परोपकार की यह वृत्ति जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि की सीमाओं से परे है। करुणाभ अनुला के नेत्रों से दो दृष्टिहीनों को नया जीवन मिलेगा। वे संसार की रौनक को अपनी आँखों से निहार सकेंगे। त्याग की यह भावना प्रोफेसर करुणाभ अनुला को ऋषित्व से उच्च पद का अधिकारी बनाती है| मेडिकल कालेज में अध्ययनरत चिकित्सकों को अपना हुनर सवांरने में उनका शरीर मूल्यवान सिद्ध होगा। प्रो. करुणाम अनुला का पुरषार्थ आने वाली पीड़ियों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हो और मानवीयता के प्रति उनके समर्पण से हम सब प्रेरणा लेते रहें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। करुनाभ अनुला के ऋषित्व को कोटिश: नमन|
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