Wednesday, 24 June 2015

प्रतिभा की धनी, कलम की खिलाड़ी और महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत अनीता गौतम जी ------ रूपेश वत्स


 जन्म दिवस : 24 जून पर विशेष ------



Anita Gautam shared Rupesh Vats's post.
रूपेश वत्स जी, पता नहीं आपके द्वारा दिए गए इस सम्मान के हकदार हैं भी या नहीं , पर आभारी है आपके इस अनोखी पहल में जगह पाकर। तहे दिल से शुक्रिया ।



https://www.facebook.com/anita.gautam.39/posts/794873853934922

एक बेहतर सफल गृहणी के साथ-साथ अपने सपनो को पूरा करना किसी चुनौती से कम नहीं ! इसके लिए जज्बा और हिम्मत की जरूरत होती है जो शायद हर महिलाओं में नहीं होती है ! “पत्रकार एक नजर में” सीरिज के 18वें अंक में मिलिए प्रतिभा की धनी, कलम की खिलाड़ी और महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत अनीता गौतम जी से :-
अनिता गौतम जी का जन्म 24 जून को पटना में हुआ था ! इनकी प्रारंभिक शिक्षा राजकीय कन्या उच्च विद्यालय, पटना में हुयी ! इन्होने एम.ए की पढाई इतिहास विषय से ए.एन. कॉलेज पटना, मगध विश्वविद्यालय से की ! हिन्दी लेखन में इनकी विशेष रूचि रही है राजनीति पर विशेष नजर के साथ-साथ समाजिक सरोकार से जुड़ी ख़बरें लिखना इन्हें खूब पसंद है ! इनका मानना है की सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर लिखने से ही समाजिक उत्थान संभव है ! पहली बार इनकी एक अपनी कविता के अलावा दो रिपोर्ट दिल्ली से निकलने वाली अखबार अमृत-वर्षा में छपी थी । इसके बाद इन्होने पत्रकारिता की शुरुआत की ! अनीता जी डीएनए, बिंदिया , प्रभात खबर, स्कैनर, चर्चित बिहार, बिहार अभ्युदय आदि मैगजीन और अखबारों के लिए भी लगातार विभन्न विषयों पर लिखती रही हैं ! वर्तमान समय में तेवर तेवरऑनलाइन डॉट कॉम (www.tewaronline.com) में संयुक्त संपादक के पद पर कार्यरत हैं । इसके अलावा भारत के पड़ोसी देशों से बनते बिगड़ते रिश्ते और इनमें सुधार की गुंजाइश पर नजर रखना भी इनके शौक में शामिल है । बिहार की बेहतरी के लिए भी लिखना इन्हें अच्छा लगता है। ये महिला और उनसे जुड़ी समस्याएं और उनके निदान पर विचार- विमर्श में शामिल होती रहती हैं हाल ही में मुझे भी इन्हें दूरदर्शन पर वाद-विवाद में देखने का मौका मिला ! इनकी एक खासियत यह भी है की ये सिर्फ बहस में भाग नहीं लेती बल्कि बहस के बाद जो निकल कर आता है उन पर लिखती भी है । नये लेखकों की किताबें पढ़ना और उनकी समीक्षा करना इनके शौक में शुमार है साथ ही लिखना और खूब पढ़ना पसंद है। कहानी औऱ कविता लिखना , छोटी छोटी लाइनों में अपनी बात लिखना , हिन्दी को सरह बनाती हैं ! इनका यह मानना है की अलंकृत भाषा ने युवा पीढी को हिन्दी से दूर कर दिया है इसलिए ये आसान शब्दों में अपनी बात को युवाओं को समझाने की कोशिश करती हूं। सोशल साईट फेसबुक पर भी इनकी जोरदार उपस्थिति हैं व्यक्तिगत तौर पर मैं इनके लिखे किसी सन्देश, खबरे आदि मिस नहीं करता ! इनके लेखनी में केवल दम ही नहीं बल्कि बेहतरीन जानकारी छिपी होती है ! अनीता जी हमारे समाज के लिए किसी आदर्श से कम नहीं हैं ! मैं इनके लेखनी का मुरीद हूँ और इनके होंसले और जज्बे को सलाम करता हूँ ! इनकी लिखी एक कहानी आप भी इस लिंक को खोलकर पढ़ सकते हैं **+**
 http://tewaronline.com/?p=2181&cpage=1#comment-9084
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**+**इंगित कहानी पर मैंने यह टिप्पणी दी थी :
vijai mathur says:
‘सच्चा प्यार’ और ‘दिली मोहब्बत’ को ‘बेबसी’ के रूप मे मार्मिक ढंग से पेश करके आपने समाज मे व्याप्त ढ़ोंगी -पाखंडी धार्मिक रूढ़ियों के जिंदंगियों पर पड़ने वाले ‘मनोवैज्ञानिक प्रभाव’ को बखूबी रेखांकित किया है।
http://tewaronline.com/?p=2181&cpage=1#comment-9084 
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 https://www.facebook.com/anita.gautam.39/posts/668987146523594

मीडिया में आधी आबादी की नगण्य भागीदारी!

अनिता गौतम.
मीडिया में महिलाओं की भूमिका उनकी स्थिति और स्थान आज चौतरफा बहस का मुद्दा बना हुआ है। हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को अनमने मन से भले स्वीकार किया जा रहा है पर उनकी वास्तविक स्थिति आज भी समाज में कमतर आंकी जाती है।  मीडिया संस्थानों में महिला पत्रकारों की स्थिति दोयम दर्जे की है, इस कड़वे सच से इनकार नहीं किया जा सकता है। कदम कदम पर यहां नारी विभेद की तस्वीर बिल्कुल साफ देखी जा सकती है।
महिलाओं की स्थिति की समीक्षा जब कभी करने की कोशिश होती है, तो उसी क्षेत्र के पुरुषों की कार्य शैली से की जाती है। आकड़ों को ही आधार बनाया जाये तो पत्रकारिता में आज महिला कहां खड़ी हैं, खासकर पुरुषों की तुलना में तो उनकी असमान्य उपस्थिति को समझना मुश्किल नहीं है। दूसरे कार्यक्षेत्रों की तरह मीडिया में भी नारी विभेद का मतलब उनकी क्षमता को कम कर के आंकना, पुरुषवादी सोच और महिलाओं की दीन-हीन दशा का प्रस्तुतिकरण ही आधार बनता है। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात पर होती कि स्त्री के आधुनिकीकरण और उनके बराबरी के अधिकारों को भी मनोविज्ञान की कसौटी पर तराशा जाता है।
नारी विभेद और मनोवैज्ञानिक आधार उन्हें संरंक्षण की श्रेणी में लाता है पर खुल कर लिखने की आजादी से वंचित कर देता है। महिला पत्रकार का मतलब महिलाओं की समस्या को समझने की कोशिश और उसी आधार पर लेखन की उम्मीद, व्यवहारिक समस्याओं के समाधान की पहल, समाज में स्त्री पर बर्बरता की कहानियों के आधार पर महिला पत्रकारों की लेखनी का बांधा जाना मीडिया में महिलाओं के लिये सर्वमान्य है।
देश की राजधानी की बात अगर छोड़ दे तो छोटे छोटे राज्यों और गांव कस्बों में महिला पत्रकार अपनी मूलभूत सुविधाओं तक से भी वंचित हैं। यूं तो पत्रकार को किसी जेंडर में नहीं बांधा जा सकता है पर बात जब लेखनी और उसकी स्वतंत्रता की हो तो इस अलगाव को बड़ी सहजता से समझा जा सकता है। महिला पत्रकारिता सुरक्षा और संरंक्षणात्मक हो गयी है जबकि इसे अपनी पहचान और बराबरी की दरकार है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ साथ मीडिया हाउस भी महिला पत्रकारिता में बराबरी की अवहेलना करता आया है।
आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति से भरी महिलायें बड़ी संख्या में पत्रकारिता में अपने कदम रखती है, परन्तु पुरुषों की सनक भरी पत्रकारिता की शिकार होकर हाशिये पर ढकेल दी जाती हैं या फिर उनकी कलम की धार को कांट-छांट और संपादन के नाम पर कुंद कर दिया जाता है।
इन सबके साथ समय समय मीडिया में महिला की स्थिति की जो तस्वीर निकल कर आती है उस से पूरी पत्रकारिता को शर्मशार होना पड़ता है।
साहित्य और मीडिया में महिलाओं की लेखनी अपने मुकाम तक पहुंचे इसके लिए उनकी भागीदारी को बढ़ाना, साथ में हर गतिविधि में उन्हें सम्मान मिले ऐसी संभावनाओं पर विचार करने की जरुरत है। सुरक्षा, सहयोग, संकोच और विशेष सुविधाओं से बाहर आकर अपने अस्तित्व की पहचान करनी होगी।  व्यवहारिक स्तर पर मानसिकता की बराबरी को तवज्जो देना और आत्मसम्मान की जरूरत पर बल देने की आवश्यकता है।



Monday, 22 June 2015

कोई भी बदलाव आएगा तो जनता के चरित्रगत बदलाव के साथ ही आएगा--- विभांशु दिव्याल

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संवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं - विभांशु दिव्याल:
इधर मैं पारस्परिक संवाद और सहकार या आपसदारी की बात लगातार उठाता रहा हूं। मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि ये बातें सुनने-पढ़ने में भले अच्छी लगें पर इन्हें मानेगा कौन! कुछ कहते हैं कि राजनीतिक दलों के बीच गुप्त संवाद और सहकार पहले से ही चल रहा है। सतह पर जो वाक्विरोध दिखता है, दरअसल वह उनके बीच की नूराकुश्ती है जो आम जनता को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए चलाई जा रही है। कुछ और मित्र सवाल उठाते हैं कि संवाद क्यों और किनके बीच, जबकि जनता स्वयं भ्रष्ट है जो बार-बार धूतरे और भ्रष्टों के हाथ में अपने भविष्य की चाबी थमा देती है। कुछ और मानते हैं कि जब अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों को इस देश की राजनीति इतिहास के कूड़ेदान में डाल सकती है तो छोटे-छोटे संवादों और हल्की-फुल्की आपसदारियों की तो औकात ही क्या! मेरे ये मित्र जो कुछ कह रहे हैं उसमें पूरी-पूरी सचाई है। इस दौर का यथार्थ यही है। भ्रष्ट राजनीतिक-धार्मिक-सांस्कृतिक कुसंस्कारों के विरुद्ध किसी विवेकपूर्ण वैचारिक हस्तक्षेपी प्रयास को आगे बढ़ाने वालों को या तो अनसुना कर दिया जाता है या फिर उन्हें पागल करार दे दिया जाता है। और अगर ऐसे प्रयास करने वाले ज्यादा जिद्दी हुए, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा संघर्षशील हुए तो इनमें से किसी की हत्या करा दी जाती है, किसी को जलाकर मार दिया जाता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ तो तमाम झूठे आपराधिक आरोपों में फंसा दिया जाता है। यदि हस्तक्षेपी प्रयास करने वाला थोड़ा प्रभावशाली हुआ तो उसको ध्वस्त करने के लिए उस पर बलात्कार जैसे अपराध के मुकदमे लगा दिए जाते हैं। ऐसा कोई कुकर्म नहीं है जो सत्ता के इर्द-गिर्द न हो रहा हो और ऐसा भी कोई कुकर्म नहीं है जो सत्ताधारी या सत्ताकांक्षी अपने को चुनौती देने वाले के विरुद्ध न कर डालते हों। लेकिन प्रश्न तो यह है कि क्या दुज्रेय दिखने वाली बेहूदगी के विरुद्ध बात करना ही बंद कर दिया जाए, क्या परिवर्तन के विचारों और प्रयासों को तिलांजलि दे दी जाए और यह मानकर कि ऐसे प्रयास कभी सफल नहीं होंगे, चुप होकर बैठ जाया जाए?मेरा मानना है कि चुप बैठकर हम परिवर्तन की संभावना को लावारिस नहीं छोड़ सकते। तमाम विपरीत और बेहया परिस्थितियों के बावजूद सार्थक हस्तक्षेप के स्वरों को मौन नहीं कर सकते। यह सही है कि भ्रष्ट और संवेदनहीन सत्ता जनता के भ्रष्ट संबंधों के बल पर ही कायम होती है या फिर जनता को भ्रष्ट, विचारविहीन और संवदेनाविहीन बनाकर कायम की जाती है। हमारे इस कथित लोकतंत्र में जनता को बरगलाने-फुसलाने, उसे भ्रष्ट बनाने और उसको जाति-धर्म जैसे खेमों में विभाजित कर शक्तिविहीन बनाने के प्रयास व्यावहारिक राजनीति के चरित्रगत हिस्से हैं। अगर आज सबसे कठिन काम कोई है तो वह है जनता को उसके भ्रष्ट संबंधों और क्षुद्र स्वार्थो से बाहर निकालना और उसे मौजूदा राजनीति के असली चरित्र के प्रति जागरूक और समझदार बनाना। लेकिन यह भी सही है कि इस कठिन काम को सिरे चढ़ाए बिना हम किसी भी सार्थक बदलाव की कल्पना नहीं कर सकते। कोई भी बदलाव आएगा तो जनता के चरित्रगत बदलाव के साथ ही आएगा।अगर जनता में चरित्रगत बदलाव लाना है, यानी जनता को स्वयं उसकी अपनी कमजोरियों और वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक ढांचे की विकृतियों के विरुद्ध सचेत और समझदार बनाना है तो इसके लिए प्राथमिक तौर पर पारस्परिक स्वस्थ संवाद के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। हम किसी भी स्तर पर कहीं भी किसी भी स्वस्थ बदलाव की बात करें तो उसके लिए संवाद जरूरी है। संवाद से ही वह समझदारी पैदा होती है जिसके जरिए हम अपनी बात दूसरों को समझा पाते हैं और दूसरों की बात समझ पाते हैं। जनता के बीच संवाद की संस्कृति पैदा करके हम उसके अंदर वह विवेक पैदा कर सकते हैं जिससे वह समझ सके कि कहां क्या गलत है और क्या सही, क्या करने में उसका भला है और क्या करने में बुरा, किसके साथ खड़ा होना हितकारी है और किसके साथ खड़े होना अहितकारी, कौन लोग सचमुच देश-समाज को आगे ले जा सकते हैं और कौन नहीं, उसकी अपनी कौन-सी रीति-नीतियां स्वयं उसके लिए घातक हैं और कौन-सी वे रीति-नीति हो सकती हैं जिनको अपनाने से उसका भला हो सकता है और उसकी समस्याएं सुलट सकती हैं।मगर किसी भी ऐसे निष्कर्षशील स्वस्थ संवाद के लिए वह मूलभूत संवेदना जरूरी है जिसकी नींव पर संवाद खड़ा होता है और सहकार या आपसदारी पैदा होती है। यह मूलभूत संवेदना है, दूसरों को भी अपनी तरह इंसान मानने और समझने की। यानी यह मानने की कि प्रकृतिप्रदत्त मानवीय प्रवृत्तियों के साथ जिस तरह के इंसान हम हैं, उसी तरह के इंसान दूसरे भी हैं। जिस तरह सामाजिक व्यवहारों के बीच हम स्वयं को रखते हैं, दूसरे भी वैसे ही रखते हैं। जिस तरह हम अपने परिवार को प्रेम करते हैं, दूसरे भी करते हैं। जैसी भौतिक और सामाजिक सुरक्षा हम अपने लिए चाहते हैं, वैसी ही दूसरे भी चाहते हैं। अपने लिए जिस तरह की सुख-समृद्धि का सपना हम देखते हैं, वैसे ही दूसरे भी देखते हैं। जिस तरह का व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही दूसरे भी हमसे चाहते हैं। जिस तरह हम अपनी जाति, धर्म, क्षेत्रगत पहचानों को प्यार करते हैं, उसी तरह दूसरे भी अपनी पहचानों को प्यार करते हैं। अगर आप अपनी धर्म-संस्कृति को श्रेष्ठ मानते हैं तो उसी तरह दूसरे भी अपने धर्म अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ समझते हैं। कुल मिलाकर अपनी मानवीय संरचना में जिस तरह के हम हैं, दूसरे भी उसी तरह के हैं। दूसरों को अपनी तरह मानने की यह वह संवेदना या चेतना है जो स्वस्थ संवाद और सहकार को संभव बनाती है और बेहतर भविष्य के रास्ते खोलती है। मगर यह चेतना भी स्वत: निर्मित नहीं होती। इसके निर्माण और फैलाव के लिए भी संवाद और सहकार यानी आपसदारी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं। संवाद और आपसदारी की प्रक्रिया तो चलनी ही चाहिए, पता नहीं कब किस प्रयास की चिंगारी मशाल का रूप ले ले।
https://www.facebook.com/vibhanshu.divyal/posts/1023237994353669
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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 13 June 2015

PREM DHAWAN - UNSUNG HERO --- Sanjog Walter

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PREM DHAWAN - UNSUNG HERO:
Born in Ambala on June 13, 1923, Prem Dhawan was to see many places in his childhood since his father, engaged in the service of the British empire as a Jail Superintendent, had a transferable job. Prem Dhawan went to College in Lahore, where his senior was the illustrious Inder Kumar Gujral, who later on became the Prime Minister of India. One of his classmates was the great poet-lyricist, Sahir Ludhianvi.The three took active interest in politics and also the college union, and Prem developed a passion for the freedom struggle. As we can see, this led him to write many patriotic songs. He joined the Communist Party of India, and participated in many actions against the British. Later he went to Mumbai to join the IPTA, and found this a platform to express the revolutionary ideas through songs, dances and writings. Here he came in contact with Pt. Ravi Shankar, under whom he learnt classical music. From Shanti Roy Bardhan,, who had broken away from Ravi Shankar’s elder brother the great Uday Shankar’s dance troupe, he learnt classical dance.
Prem Dhawan joined the film industry as an assistant to music director Khurshid Anwar in Pagdandi (1946). He made his debut as a lyricist in Ziddi (1948). This movie also made history of sorts, with Kishore Kumar singing for Dev Anand for the first time - the song, Marne ki duayen kyoon maangoon, in typical Saigal style. The movie also had Lata’s Chanda re jaa re jaa re, a brilliant composition in Raga Chhayanat.
If one sees his rich repertoire of verses, one wonders why he was not considered in the same league as Shailendra, Hazrat, Sahir and Anand Bakshi. He had memorable partnerships with the doyens like Khemchand Prakash, Hans Raj Behl, Salil Chaudhuri, Anil Biswas, Ravi and Chitragupta. Some of his movies with the MDs are :Anil Biswas - Tarana (1951) and Hmdard (1953) Hans Raj Behl – Sawan, Miss Bombay, Resham, Miss Bombay, Miss Goodnight
Salil Chaudhury – Tangawali (1955), Jaagte Raho (1956) and Kabuliwala (1961)
Ravi – Dus Lakh, Ek Phool Do Mali, Pyar ka Sagar, Ek Saal, Apna Ghar
Chitragupta – Guset House, Baazigar, Rocket Girl, Kabhi Dhoop Kabhi Chaon, Bada Aadmi, Aadhi Raat ke Baad, Chalbaaz, Aplam Chaplam Prem Dhawan as Music director
With the insistence of Manoj Kumar, Prem Dhawan turned music director with the movie Shaheed, where he came out with great music for songs written by himself – Aye watan aye watan, Mera rangde basanti chola, Sarfarosh hi tamanna (original lyrics by Ram Prasad Bismil). He came out with another top performance in the movie Pavitra Paapi, which had many lovely numbers, including Kishore Kumar’s Teri Duniya se hoke majboor chala, and Mohd, Rafi’s Allah re Allah kar pyaar bhai.
Prem Dhawan also gave music to a few more movies like Naxalites, Veer Abhimanyu, Bharat ke Shaheed, Kisan Aur Bhagwan, Mera Desh Mera Dharam and Raat ke Andhere Mein.
Prem Dhawan himself danced for a song with Cuckoo in the film Singaar (1949). He also did choreography in Naya Daur (Udein Jab Jab Zulfein Teri), Bimal Roy’s Do Bigha Zameen, Arzoo (1950), Dhool ka phool, Goonj Uthi Shehnai and Waqt.
Although a detailed biography of the great artist is not within the writer’s scope and ability, the versataility of Prem Dhawan, as can be seen in his contributions to Hindi films as a lyricist, music director, dancer director and choreographer, places him in the top bracket. It is matter of great regret that he has not received his dues. He has not worked with top music directors of his time, nor was he associated with any big banner. So we see his works not reaching the masses. Often the gems have got lost in some obscure songs in some obscure movies. This is only an attempt to bring readers to search him out from the archives, and also a way of expressing my admiration to the great man, who passed away on May 7, 2001..



 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 8 June 2015

जीवन क्या है ? समझा रहे हैं डॉ. मनीष कुमार दीवान --- डॉ. मनजीत सिंह

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जीवन क्या है ? .......
विलियम शेक्सपियर (William Shakespeare) ने था कि जिंदगी एक रंगमंच है और हम लोग इस रंगमंच के कलाकार | सभी लोग जीवन (Life) को अपने- अपने नजरिये से देखते है| कोई कहता है जीवन एक खेल है (Life is a game), कोई कहता है जीवन ईश्वर का दिया हुआ उपहार है (Life is a gift), कोई कहता है जीवन एक यात्रा है (Life is a journey), कोई कहता है जीवन एक दौड़ है (Life is a race) और बहुत कुछ|
मैं आज यहाँ पर “जीवन” के बारें में अपने विचार share कर रहा हूँ और बताने की कोशिश करूंगा की जीवन क्या है? (What is Life)|

What is Life – जीवन क्या है? – Life is a Game

मनुष्य का जीवन एक प्रकार का खेल है| Life is a Game
और मनुष्य इस खेल का मुख्य खिलाडी|

यह खेल मनुष्य को हर पल खेलना पड़ता है|

इस खेल का नाम है “Game of Thoughts (विचारों का खेल)”|

इस खेल में मनुष्य को दुश्मनों से बचकर रहना पड़ता है|

मनुष्य अपने दुश्मनों से तब तक नहीं बच सकता जब तक मनुष्य के मित्र उसके साथ नहीं है|

मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र “विचार (thoughts)” है, और उसका सबसे बड़ा दुश्मन भी विचार (Thoughts) ही है|

मनुष्य के मित्रों को सकारात्मक विचार (Positive Thoughts) कहते है और मनुष्य के दुश्मनों को नकारात्मक विचार (Negative Thoughts) कहा जाता है|

मनुष्य दिन में 60, 000 से 90, 000 विचारों(Thoughts) के साथ रहता है|

यानि हर पल मनुष्य एक नए दोस्त (Positive Thought) या दुश्मन (Negative Thought) का सामना करता है|

मनुष्य का जीवन विचारों के चयन (Selection ofThoughts) का एक खेल है|

इस खेल में मनुष्य को यह पहचानना होता है कि कौनसा विचार उसका दुश्मन है और कौनसा उसका दोस्त, और फिर मनुष्य को अपने दोस्त को चुनना होता है|

हर एक दोस्त (One Positive Thought) अपने साथ कई अन्य दोस्तों (Positive Thoughts) को लाता है और हर एक दुश्मन (One Negative Thought) अपने साथ अनेक दुश्मनों (Negative Thoughts) को लाता है|

इस खेल का मूल मंत्र यही है कि मनुष्य जब निरंतर दुश्मनों (Negative Thoughts) को चुनता है तो उसे इसकी आदत पड़ जाती है और अगर वह निरंतर दोस्तों (Positive Thoughts) को चुनता है, तो उसे इसकी आदत पड़ जाती है|

जब भी मनुष्य कोई गलती करता है और कुछ दुश्मनों को चुन लेता है तो वह दुश्मन, मनुष्य को भ्रमित कर देते है और फिर मनुष्य का स्वंय पर काबू नहीं रहता और फिर मनुष्य निरंतर अपने दुश्मनों को चुनता रहता है|

मनुष्य के पास जब ज्यादा मित्र रहते है और उसके दुश्मनों की संख्या कम रहती है तो मनुष्य निरंतर, इस खेल को जीतता जाता है| मनुष्य जब जीतता है तो वह अच्छे कार्य करने लगता है और सफलता उसके कदम चूमती है, सभी उसकी तारीफ करते है और वह खुश रहता है|

लेकिन जब मनुष्य के दुश्मन, मनुष्य के मित्रो से मजबूत हो जाते है, तो मनुष्य हर पल इस खेल को हारता जाता है और निराश एंव क्रोधित रहने लगता है|

मनुष्य को विचारों के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि मनुष्य के दुश्मन, मनुष्य को ललचाते है और मनुष्य को लगता है कि वही उसके दोस्त है|

जो लोग इस खेल को खेलना सीख जाते है वे सफल हो जाते है और जो लोग इस खेल को समझ नहीं पाते वे बर्बाद हो जाते है|

इस खेल में ज्यादातर लोगों कि समस्या यह नहीं है कि वे अपने दोंस्तों और दुश्मनों को पहचानते नहीं बल्कि समस्या यह है कि वे दुश्मनों को पहचानते हुए भी उन्हें चुन लेते है|

ईश्वर (या सकारात्मक शक्तियाँ), मनुष्य को समय-समय पर कई तरीकों से यह समझाते रहते है कि इस खेल को कैसे खेलना है लेकिन यह खेल मनुष्य को ही खेलना पड़ता है| जब मनुष्य इसमें हारता रहता है और यह भूल जाता है कि इस खेल को कैसे खेलना है तो ईश्वर फिर उसे बताते है कि इस खेल को कैसे खेलना है|
(साभार डॉ. मनीष कुमार दीवान सर)

https://www.facebook.com/drmanjit.singh1/posts/884106394961595 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Sunday, 7 June 2015

नीरज जी को साहित्य शिरोमणि तूफानों पर चल कर मिला

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दिनांक 06 जून 2015 को प्रख्यात कवि गण गोपाल दास नीरज जी व पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह जी को 'साहित्य शिरोमणि ' सम्मान से अलंकृत किया गया है। इन दोनों महानुभावों को हार्दिक बधाई व अभिनंदन।


( संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश)

Thursday, 4 June 2015

Nutan Behl --- Sanjog Walter

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Nutan Behl (4 June 1936 – 21 February 1991), better known as Nutan,was an actress. She appeared in more than 70 Hindi films in a career spanning over four decades. Regarded as one of the finest female actors in the history of Hindi cinema,Nutan was noted for playing unconventional parts, and her performances often received praise and accolades.Nutan started her career at the age of 14 in the 1950 film Hamari Beti, directed by her mother Shobhna Samarth. She subsequently starred in such films as Nagina and Humlog (both 1951). Her role in Seema (1955) garnered her wider recognition and a Filmfare Award for Best Actress. She continued playing leading roles through the 1960s until the late 1970s and went on win the award on four other occasions for her roles in Sujata (1959), Bandini (1963), Milan (1967) and Main Tulsi Tere Aangan Ki (1978). Some of her other films of this period include Sone Ki Chidiya (1958), Anari (1959), Chhalia (1960), Tere Ghar Ke Saamne (1963), Saraswatichandra (1968), Anuraag (1972) and Saudagar (1973).In the 1980s, Nutan started playing character roles and continued working until shortly before her death. She portrayed mostly motherly roles in such films as Saajan Ki Saheli (1981), Meri Jung (1985) and Naam (1986). Her performance in Meri Jung earned her a sixth and last Filmfare Award, this time in the Best Supporting Actress category. Nutan holds the record of five wins of the Best Actress Award at Filmfare, which was held only by her for over 30 years until it was matched by her niece Kajol in 2011; she is overall the most-awarded actress in the female acting categories at Filmfare, with six awards alongside Jaya Bachchan.In 1974, she was awarded the Padma Shri by the Government of India.Nutan was married to Rajnish Behl from 1959 till her death of cancer in 1991. Their son, Mohnish Behl is a character actor in Hindi films and television.Nutan was born into a Marathi family of four children as Nutan Samarth to director-poet Kumarsen Samarth and his actress wife Shobhna Samarth. Nutan was the eldest child of actress Shobhna Samarth. She had three other siblings, 2 younger sisters and a younger brother. Her younger sister Tanuja is also an actress, and Chatura, who did not work in Bollywood. Her parents separated when she was still a child. Kajol, Tanuja's daughter, is an actress.Nutan is related to many of the screen stars of the past fifty years .She started her career as actress as a fourteen-year-old in Hamari Beti (1950). This film was produced by her mother, Shobhana. In 1952 she was the winner of Miss India.Her first big break was Seema, for which she won her first Filmfare Best Actress Award. She followed her success with a romantic comedy, Paying Guest, in which she co-starred with Dev Anand. In 1959 she starred in two hit films, Anari (with Raj Kapoor) and Bimal Roy's Sujata (with Sunil Dutt). In the 1960s and 1970s she had many more successful films including Chhalia (1960), Saraswatichandra (1968), Devi (1970) and Main Tulsi Tere Aangan Ki (1978).In 1960 she starred opposite Raj Kapoor once again in Manmohan Desai's Chhalia. She received another Filmfare nomination for the role. She formed a popular screen couple with co-star Dev Anand and the two acted in four films together - Paying Guest (1957), Baarish (1957), Manzil (1960) and Tere Ghar Ke Samne (1963).In 1963, Nutan starred in Bimal Roy's socio-realist Bandini as Kalyani, a young prisoner who was convicted after poisoning the wife of her lover (Ashok Kumar). The story follows her life in prison and how later she has to make a choice between her past love and a young prison doctor (Dharmendra) who fell in love with her. Nutan had to be persuated to act in the film as she had quit acting post marriage. Bandini was a major critical success, which was attributed by critics mostly to Nutan's portrayal, which regarded as one of the finest performances in the history of Hindi cinema.The film won the Filmfare Award for Best Movie and she received her third Best Actress Award. The Bengal Film Journalists' Association, while ranking the film as the third-best Indian film of the year, acknowledged her with the Best Actress (Hindi section) award.Her fourth Filmfare Award came for Milan (1967). She starred opposite Amitabh Bachchan in 1973's Saudagar (1973), for which she received a sixth Filmfare nomination and a third BFJA award. In 1978, she made an astonishing return to the screen as the righteous Sanjukta Chauhan in Main Tulsi Tere Aangan Ki (1978). For this performance, she received an eighth Filmfare career nomination and won her fifth Filmfare best actress award, at the age of 42. She thus became a record holder in the category, having won five award for Best Actress at Filmfare. At age 42, she is also the oldest winner of the award. Nutan was perhaps the only actress of her generation to command leading roles in her 40s, with tremendous success. Following this, she starred in Saajan ki Saheli (1981), as an ignorant, jealous wife to a husband who knowingly befriends the daughter she abandoned at childbirth.In the remaining 1980s she played roles in blockbuster films such as Meri Jung (1985), Naam (1986) and Karma (1986). Karma was notable for being the first time she was paired with actor Dilip Kumar. For Mere Jung she won a Filmfare Award for Best Supporting Actress. Her last film released while she was alive was Kanoon Apna Apna in 1989. She died in 1991 of cancer. Two of her films Naseebwala (1992) and Insaniyat (1994) were released after her death.Nutan was noted for her willingness to play unconventional roles and several of her roles were labelled "path-breaking".Actresses like Sadhana and Smita Patil noted Nutan as their influence.Sadhana was once quoted as saying, "If there was any actress I modelled myself in the lines of it was the versatile Nutan in Seema, Sujata and Bandini. Parakh was a film where I really followed Nutan.
On 11 October 1959, she married naval Lieutenant-Commander Rajnish Behl. Their son, Mohnish Behl, born in 1963, later entered films as well.Nutan died in February 1991, of cancer, at the age of 54.copy


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  संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश