Monday 22 June 2015

कोई भी बदलाव आएगा तो जनता के चरित्रगत बदलाव के साथ ही आएगा--- विभांशु दिव्याल

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )




संवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं - विभांशु दिव्याल:
इधर मैं पारस्परिक संवाद और सहकार या आपसदारी की बात लगातार उठाता रहा हूं। मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि ये बातें सुनने-पढ़ने में भले अच्छी लगें पर इन्हें मानेगा कौन! कुछ कहते हैं कि राजनीतिक दलों के बीच गुप्त संवाद और सहकार पहले से ही चल रहा है। सतह पर जो वाक्विरोध दिखता है, दरअसल वह उनके बीच की नूराकुश्ती है जो आम जनता को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए चलाई जा रही है। कुछ और मित्र सवाल उठाते हैं कि संवाद क्यों और किनके बीच, जबकि जनता स्वयं भ्रष्ट है जो बार-बार धूतरे और भ्रष्टों के हाथ में अपने भविष्य की चाबी थमा देती है। कुछ और मानते हैं कि जब अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों को इस देश की राजनीति इतिहास के कूड़ेदान में डाल सकती है तो छोटे-छोटे संवादों और हल्की-फुल्की आपसदारियों की तो औकात ही क्या! मेरे ये मित्र जो कुछ कह रहे हैं उसमें पूरी-पूरी सचाई है। इस दौर का यथार्थ यही है। भ्रष्ट राजनीतिक-धार्मिक-सांस्कृतिक कुसंस्कारों के विरुद्ध किसी विवेकपूर्ण वैचारिक हस्तक्षेपी प्रयास को आगे बढ़ाने वालों को या तो अनसुना कर दिया जाता है या फिर उन्हें पागल करार दे दिया जाता है। और अगर ऐसे प्रयास करने वाले ज्यादा जिद्दी हुए, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा संघर्षशील हुए तो इनमें से किसी की हत्या करा दी जाती है, किसी को जलाकर मार दिया जाता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ तो तमाम झूठे आपराधिक आरोपों में फंसा दिया जाता है। यदि हस्तक्षेपी प्रयास करने वाला थोड़ा प्रभावशाली हुआ तो उसको ध्वस्त करने के लिए उस पर बलात्कार जैसे अपराध के मुकदमे लगा दिए जाते हैं। ऐसा कोई कुकर्म नहीं है जो सत्ता के इर्द-गिर्द न हो रहा हो और ऐसा भी कोई कुकर्म नहीं है जो सत्ताधारी या सत्ताकांक्षी अपने को चुनौती देने वाले के विरुद्ध न कर डालते हों। लेकिन प्रश्न तो यह है कि क्या दुज्रेय दिखने वाली बेहूदगी के विरुद्ध बात करना ही बंद कर दिया जाए, क्या परिवर्तन के विचारों और प्रयासों को तिलांजलि दे दी जाए और यह मानकर कि ऐसे प्रयास कभी सफल नहीं होंगे, चुप होकर बैठ जाया जाए?मेरा मानना है कि चुप बैठकर हम परिवर्तन की संभावना को लावारिस नहीं छोड़ सकते। तमाम विपरीत और बेहया परिस्थितियों के बावजूद सार्थक हस्तक्षेप के स्वरों को मौन नहीं कर सकते। यह सही है कि भ्रष्ट और संवेदनहीन सत्ता जनता के भ्रष्ट संबंधों के बल पर ही कायम होती है या फिर जनता को भ्रष्ट, विचारविहीन और संवदेनाविहीन बनाकर कायम की जाती है। हमारे इस कथित लोकतंत्र में जनता को बरगलाने-फुसलाने, उसे भ्रष्ट बनाने और उसको जाति-धर्म जैसे खेमों में विभाजित कर शक्तिविहीन बनाने के प्रयास व्यावहारिक राजनीति के चरित्रगत हिस्से हैं। अगर आज सबसे कठिन काम कोई है तो वह है जनता को उसके भ्रष्ट संबंधों और क्षुद्र स्वार्थो से बाहर निकालना और उसे मौजूदा राजनीति के असली चरित्र के प्रति जागरूक और समझदार बनाना। लेकिन यह भी सही है कि इस कठिन काम को सिरे चढ़ाए बिना हम किसी भी सार्थक बदलाव की कल्पना नहीं कर सकते। कोई भी बदलाव आएगा तो जनता के चरित्रगत बदलाव के साथ ही आएगा।अगर जनता में चरित्रगत बदलाव लाना है, यानी जनता को स्वयं उसकी अपनी कमजोरियों और वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक ढांचे की विकृतियों के विरुद्ध सचेत और समझदार बनाना है तो इसके लिए प्राथमिक तौर पर पारस्परिक स्वस्थ संवाद के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। हम किसी भी स्तर पर कहीं भी किसी भी स्वस्थ बदलाव की बात करें तो उसके लिए संवाद जरूरी है। संवाद से ही वह समझदारी पैदा होती है जिसके जरिए हम अपनी बात दूसरों को समझा पाते हैं और दूसरों की बात समझ पाते हैं। जनता के बीच संवाद की संस्कृति पैदा करके हम उसके अंदर वह विवेक पैदा कर सकते हैं जिससे वह समझ सके कि कहां क्या गलत है और क्या सही, क्या करने में उसका भला है और क्या करने में बुरा, किसके साथ खड़ा होना हितकारी है और किसके साथ खड़े होना अहितकारी, कौन लोग सचमुच देश-समाज को आगे ले जा सकते हैं और कौन नहीं, उसकी अपनी कौन-सी रीति-नीतियां स्वयं उसके लिए घातक हैं और कौन-सी वे रीति-नीति हो सकती हैं जिनको अपनाने से उसका भला हो सकता है और उसकी समस्याएं सुलट सकती हैं।मगर किसी भी ऐसे निष्कर्षशील स्वस्थ संवाद के लिए वह मूलभूत संवेदना जरूरी है जिसकी नींव पर संवाद खड़ा होता है और सहकार या आपसदारी पैदा होती है। यह मूलभूत संवेदना है, दूसरों को भी अपनी तरह इंसान मानने और समझने की। यानी यह मानने की कि प्रकृतिप्रदत्त मानवीय प्रवृत्तियों के साथ जिस तरह के इंसान हम हैं, उसी तरह के इंसान दूसरे भी हैं। जिस तरह सामाजिक व्यवहारों के बीच हम स्वयं को रखते हैं, दूसरे भी वैसे ही रखते हैं। जिस तरह हम अपने परिवार को प्रेम करते हैं, दूसरे भी करते हैं। जैसी भौतिक और सामाजिक सुरक्षा हम अपने लिए चाहते हैं, वैसी ही दूसरे भी चाहते हैं। अपने लिए जिस तरह की सुख-समृद्धि का सपना हम देखते हैं, वैसे ही दूसरे भी देखते हैं। जिस तरह का व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही दूसरे भी हमसे चाहते हैं। जिस तरह हम अपनी जाति, धर्म, क्षेत्रगत पहचानों को प्यार करते हैं, उसी तरह दूसरे भी अपनी पहचानों को प्यार करते हैं। अगर आप अपनी धर्म-संस्कृति को श्रेष्ठ मानते हैं तो उसी तरह दूसरे भी अपने धर्म अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ समझते हैं। कुल मिलाकर अपनी मानवीय संरचना में जिस तरह के हम हैं, दूसरे भी उसी तरह के हैं। दूसरों को अपनी तरह मानने की यह वह संवेदना या चेतना है जो स्वस्थ संवाद और सहकार को संभव बनाती है और बेहतर भविष्य के रास्ते खोलती है। मगर यह चेतना भी स्वत: निर्मित नहीं होती। इसके निर्माण और फैलाव के लिए भी संवाद और सहकार यानी आपसदारी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं। संवाद और आपसदारी की प्रक्रिया तो चलनी ही चाहिए, पता नहीं कब किस प्रयास की चिंगारी मशाल का रूप ले ले।
https://www.facebook.com/vibhanshu.divyal/posts/1023237994353669
**************************************************************************
फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणियाँ :




 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

No comments:

Post a Comment

कुछ अनर्गल टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम है.असुविधा के लिए खेद है.