Sunday, 31 January 2016

घायल ही जाने घायल की गति

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    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Thursday, 28 January 2016

पर आदमी तन्हा है ------ Sanjay Sinha

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लेकिन यहां सिंगापुर में बैठ कर मुझे लगा कि आधुनिकता अपने साथ अकेलापन लेकर आगे बढ़ रही है।
सड़कें चमचमा रही हैं।। शहर जगमगा रहा है। तकनीक के एक इशारे पर सारी सुविधाएं कदमों में हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं।
पर आदमी तन्हा है।
तो क्या एक दिन हम भी एक दूसरे के बेहद करीब होंगे, पर हक़ीकत में बहुत दूर होंगे।
जब-जब मैं रिश्तों में इस दूरी को देखता हूं, मुझे अपना वतन, अपना घर, अपना परिवार और आप सब बहुत याद आने लगते हैं।




 कल शाम मैं सिंगापुर के एक रेस्त्रां में बैठा था।
मेरा मन पिज़्जा खाने का था। आर्किड रोड पर हल्की बारिश के बीच मैंने उस इटालियन रेस्त्रां में बैठ कर पिज्ज़ा का ऑर्डर किया। मेरे ठीक बगल वाली मेज पर एक दंपत्ति बैठे थे। उन्होंने भी पिज़्जा ऑर्डर किया था। मैं मन ही मन सोच रहा था कि यहां के लोग कितने खुश रहते हैं। पति-पत्नी या दोस्त शाम को साथ घूमने निकलते हैं, साथ बैठते हैं, डिनर करते हैं।
पर मैं इस बात पर हैरान था कि दोनों दंपत्ति करीब आधे घंटे तक उस टेबल पर बैठे रहे, लेकिन दोनों ने आपस में एक शब्द भी बात नहीं की। दोनों लगातार अपने-अपने मोबाइल फोन पर लगे रहे।
मेरा कौतूहल बढ़ गया था। उन्होंने अपना डिनर किया और बिल देकर कर चले गए। मेरा भी खाना हो चुका था। पर मुझे लगा कि अभी मुझे कुछ देर और यहां रुकना चाहिए। मैं समझना चाह रहा था कि आख़िर तकनीक ने हमें एक दूसरे के करीब किया है, या दूर कर दिया है।
कुछ देर बाद मेरी निगाह दूसरी मेज़ पर पड़ी। वहां भी एक युवा दंपत्ति आए। उन्होंने भी खाने का ऑर्डर किया। दोनों पति-पत्नी या दोस्त ने अपने लिए अलग-अलग खाने के ऑर्डर किए थे। मेरा पिज़्जा खत्म हो चुका था। पर मैं कुछ देर और रुकना चाह रहा था, इसिलिए मैंने फिश ऑर्डर कर दिया। मुझे मालूम था कि फिश में देर लगेगी।
मैं चुपचाप दूसरी टेबल की ओर देखता रहा। वहां भी वही हाल था। दोनों लोग आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे। पुरुष तो अपने साथ आईपैड जैसी कोई चीज लिए हुए था, और वो उसमें पूरी फिल्म देख रहा था। महिला लगातार फोन पर लगी थी।
***
मैं और मेरी पत्नी कभी कहीं किसी रेस्त्रां में जाते हैं, तो हम ऑर्डर चाहे जो करें, पर थोड़ी ही देर में हम एक दूसरे के ऑर्डर पर हाथ मारने लगते हैं। पत्नी तय करके गई होती है कि वो सिर्फ डोसा खाएगी और मैं छोले भटूरे। लेकिन दो मिनट के बाद आधा भटूरा वो खा जाती है, और मैं उसका डोसा साफ कर चुका होता हूं। दुनिया के सारे गमों की चर्चा हम खाने की मेज पर कर लेते हैं।
लेकिन यहां सिंगापुर में बैठ कर मुझे लगा कि आधुनिकता अपने साथ अकेलापन लेकर आगे बढ़ रही है।
सड़कें चमचमा रही हैं।। शहर जगमगा रहा है। तकनीक के एक इशारे पर सारी सुविधाएं कदमों में हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं।
पर आदमी तन्हा है।
तो क्या एक दिन हम भी एक दूसरे के बेहद करीब होंगे, पर हक़ीकत में बहुत दूर होंगे।
जब-जब मैं रिश्तों में इस दूरी को देखता हूं, मुझे अपना वतन, अपना घर, अपना परिवार और आप सब बहुत याद आने लगते हैं। मुझे तब तक अकेलापन का अहसास नहीं होता, जब तक ऐसी चुप्पी से मैं गुजर नहीं चुका होता हूं। तीन दिन हो गए, सिंगापुर में। अब यहां इस रेस्त्रा में बैठ कर मुझे अकेलापन बहुत साल रहा है।
पता नहीं ये लोग इस सच तो समझते हैं या नहीं, पर अकेलापन एक सज़ा है।
रेस्त्रां में लोग एकांत की तलाश में आते हैं और अकेले हो कर चले जाते हैं।

@Rishtey @Sanjay Sinha








संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 27 January 2016

'हिंसा असहिष्णुता और अविवेक' की सरकार ------ Madhuvandutt Chaturvedi

 नेहरू के फर्जी पत्र को रचकर मोदी सरकार ने जिस विवाद को जन्म दिया है उसने ऐसी बहस पैदा की है जिसका नुकसान खुद सुभाष बाबू की क्षवि को होगा । हिटलर और तोजो जैसे तानाशाहों के साथ खड़े सुभाष बाबू का मूल्याङ्कन करते हुए हम 26 जनवरी 1930 से पढ़े जाने वाले 'पूर्ण स्वराज के संकल्प पत्र' को पास कराने में नेहरू-सुभाष की सहयोगी भूमिका को कैसे विस्मृत कर सकते हैं । यदि मोदी सरकार हिटलर समर्थक सुभाष को उभारेगी तो स्वातंत्र्य योद्धा सुभाष नेपथ्य में जायेगा और मेरे जैसे लोग नेहरू के समर्थन में शहीद-ए-आजम भगत सिंह को उद्धृत क्यों न करेंगे जिन्होंने अपनी फांसी से महज 3 साल पहले 1928 में कीर्ति में लिखे अपने आलेख में सुभाष बाबू को ' मात्र भाबुक बंगाली' और नेहरू को 'क्रन्तिकारी' 'अन्तर्राष्ट्रीयतावादी' कहकर सुभाष बाबू के 'संकीर्ण और सैन्य राष्ट्रवाद' के खतरे से आगाह किया था । इस अमर क्रन्तिकारी ने लिखा था कि पंजाब के नौजवानों को जिस बौद्धिक खुराक की जरुरत है वह नेहरू से मिल सकती है सुभाष से नहीं । बेशक सुभाष अनगिनत भारतीयों के राष्ट्रवाद की प्रेरणा हैं लेकिन ये भी सच है कि नेहरू के बरअक्स वे दूसरे पायदान पर हैं । लेकिन नेहरू बनाम सुभाष का विवाद नेहरू और सुभाष का नहीं बल्कि आरएसएस का है जो कभी सुभाष या नेहरू के साथ नहीं रहा। बहरहाल इस वक्त की सरकार में बैठे लोगों का 'अविवेक असहिष्णुता और हिंसा' से स्पष्ट नाता देश के लिए घातक है , देश की शानदार विरासत के लिए भी और भविष्य के लिए देश के संकल्पों के लिए भी ।


  
'हिंसा असहिष्णुता और अविवेक' की सरकार :
-----------'पहली बार केंद्र में ऐसे लोगों को बहुमत मिला है जिनका गोत्र कांग्रेसी 

नहीं है' और ' पहली बार चुनाव ऐसे नेताओं के नेतृत्व में हुआ है जो 

आजादी के बाद पैदा हुए हैं' ये दो वाक्य मोदी ने लोकसभा चुनावों के 

परिणामों के ठीक बाद उसी दिन गुजरात की दो सभाओं में अलग अलग 

कहे थे । यह स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की विरासत से विचलन का 

उद्घोष था । नई सरकार ने घरेलू और बाहरी बरताव में यह साबित भी 

किया है और शायद इसी लिए महामहिम राष्टपति ने कल अपने सम्बोधन में हलके से ही सही 'हिंसा असहिष्णुता और अविवेक' को लताड़ लगाई है । मोदी मंडली ने अभी तक के कार्यकाल में इन्हीं तीन नकरात्मकताओं को पुष्ट किया है । हाल ही में नेहरू बनाम सुभाष के विवाद को हवा देकर सवतंत्रता आंदोलन की इस विरासत को ठेस पहुँचाने का प्रयास किया है जिसके चलते वैचारिक विरोधियों का भी चरित्र हनन और व्यक्तिगत हमले न करने की परंपरा थी । वस्तुतः मोदी के 'गैर कांग्रेसी गोत्र' का अर्थ स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत से हीन लोगों की सरकार से था । उनके पास अपने न राष्ट्रीय नायक हैं न राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी का कोई इतिहास । इसलिए वे उस पुरानी विरासत को ध्वस्त करने पर आमादा हैं । नेहरू के फर्जी पत्र को रचकर मोदी सरकार ने जिस विवाद को जन्म दिया है उसने ऐसी बहस पैदा की है जिसका नुकसान खुद सुभाष बाबू की क्षवि को होगा । हिटलर और तोजो जैसे तानाशाहों के साथ खड़े सुभाष बाबू का मूल्याङ्कन करते हुए हम 26 जनवरी 1930 से पढ़े जाने वाले 'पूर्ण स्वराज के संकल्प पत्र' को पास कराने में नेहरू-सुभाष की सहयोगी भूमिका को कैसे विस्मृत कर सकते हैं । यदि मोदी सरकार हिटलर समर्थक सुभाष को उभारेगी तो स्वातंत्र्य योद्धा सुभाष नेपथ्य में जायेगा और मेरे जैसे लोग नेहरू के समर्थन में शहीद-ए-आजम भगत सिंह को उद्धृत क्यों न करेंगे जिन्होंने अपनी फांसी से महज 3 साल पहले 1928 में कीर्ति में लिखे अपने आलेख में सुभाष बाबू को ' मात्र भाबुक बंगाली' और नेहरू को 'क्रन्तिकारी' 'अन्तर्राष्ट्रीयतावादी' कहकर सुभाष बाबू के 'संकीर्ण और सैन्य राष्ट्रवाद' के खतरे से आगाह किया था । इस अमर क्रन्तिकारी ने लिखा था कि पंजाब के नौजवानों को जिस बौद्धिक खुराक की जरुरत है वह नेहरू से मिल सकती है सुभाष से नहीं । बेशक सुभाष अनगिनत भारतीयों के राष्ट्रवाद की प्रेरणा हैं लेकिन ये भी सच है कि नेहरू के बरअक्स वे दूसरे पायदान पर हैं । लेकिन नेहरू बनाम सुभाष का विवाद नेहरू और सुभाष का नहीं बल्कि आरएसएस का है जो कभी सुभाष या नेहरू के साथ नहीं रहा। बहरहाल इस वक्त की सरकार में बैठे लोगों का 'अविवेक असहिष्णुता और हिंसा' से स्पष्ट नाता देश के लिए घातक है , देश की शानदार विरासत के लिए भी और भविष्य के लिए देश के संकल्पों के लिए भी । यह अविवेक न केबल ऐतिहासिक विषयों में दिखा है बल्कि गत वर्ष की विज्ञान कांग्रेस हो या म्यांमार में आतंकवादी कार्यवाही की लंपट वाहवाही हो या नेपाल पाकिस्तान और चीन के साथ सम्बन्ध हों अर्थव्यवस्था की बदहाली हो मंहगाई हो या फिर सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ोत्तरी अथवा दलितों अल्पसंख्यकों का दमन हो सब जगह परिलक्षित हुआ है ।
https://www.facebook.com/madhuvandutt/posts/863379080441493
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Monday, 25 January 2016

मोदी गो बैक का नारा लगाने वाले छात्रों को रिहाई मंच द्वारा सम्मानित किया गया ------ शाहनवाज आलम

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रिहाई मंच के प्रवक्ताओं शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने जारी बयान में कहा है कि ‘मोदी गो बैक’ का नारा देकर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के छात्रों ने पूरी दुनिया को यह संदेश दिया है कि तर्कशील समाज इस फासिस्ट निजाम को बर्दास्त नहीं करेगा चाहे वह इसे रोकने के लिए कितने भी सुरक्षा प्रबंध कर ले। उन्होंने कहा कि मोदी ने रोहित की मौत की वजह जो भी रही हो कहकर अपनी दलित विरोधी सरकार की संलिप्तता को उजागर कर दिया है कि चाहे कितने भी रोहित मर जाएं मोदी और उनकी सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। मोदी को ‘मां भारती’ के लाल की इतनी ही चिंता थी तो उन्होंने क्यों नहीं उसके दोषियों को सजा देने की बात कही। मोदी और उनके मंत्री पहले ही साफ कर चुके हैं कि दलित और मुस्लिम उनकी फासिस्ट राजनीति के लिए कुत्ते के पिल्ले से ज्यादा की अहमयित नहीं रखते हैं। उन्होंने कहा कि ‘मोदी गो बैक’ के नारे से तिलमिलाए मोदी असफलताओं से सीखने की बात कह रोहित और उसके न्याय के लिए लड़ने वाले साथियों को नैतिकता की शिक्षा देना बंद करें। मंच ने कहा कि जिस अच्छे-बुरे का भेद सिखाने वाली शिक्षा के बारे में मोदी बात कर रहे थे उसी संविधान सम्मत चेतना से लैश होकर रोहित लड़ रहा था और उसके न होने पर इंसाफ के लिए उसके साथी लड़ते हुए लखनऊ से ‘मोदी गो बैक’ का नारा दिया है। 
द्वारा जारी- 
शाहनवाज आलम(प्रवक्ता, रिहाई मंच) 09415254919


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23 जनवरी 2016 को परिवर्तन चौक, लखनऊ से दो पहर  एक बजे से एक जुलूस के रूप में बुद्धिजीवियों, संस्कृति कर्मियों व वामपंथियों का एक प्रदर्शन  'डॉ अंबेडकर' प्रतिमा, हजरतगंज पर पहुंचा व जनसभा में परिणत हो गया। सभा की अध्यक्षता भाकपा माले के जिलासचिव रमेश सिंह सेंगर ने  की। 

इसी सभा में  रिहाई मंच द्वारा 'मोदी गो बैक ' का नारा लगाने वाले बहादुर छात्रों को सम्मानित किया गया। 

सभा में बोलते हुये भाकपा के जिलामंत्री  कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ द्वारा रोहित वेमुला की हत्या के लिए उत्तरदाई तत्वों की कटु निंदा की व जनता से आह्वान किया कि वे शोषण -अन्याय के विरुद्ध एकजुट हों। 

जलेस के नलिन रंजन सिंह ने कहा कि शिक्षा संस्थानों में दलित छात्रों व अध्यापकों के शोषण-उत्पीड़न का मूल कारण प्रशासन व प्राचार्यों की नियुक्ति में आरक्षण का न होना है। उन्होने इस ओर ध्यान दिये जाने की मांग उठाई। 

वीरेंद्र यादव, राकेश आदि अन्य सभी वक्ताओं ने 'मोदी गो बैक' का नारा लगाने वाले बहादुर छात्रों की भूरी-भूरी प्रशंसा की। सभी ने जनता से फासिस्ट ,सांप्रदायिक शक्तियों से सावधान रहने व परस्पर एकजुटता  की अपील की। 

सभा में भाकपा की ओर से शामिल होने वालों में जिलामंत्री ख़ालिक़ साहब के अतिरिक्त मास्टर सत्यनारायन  और विजय माथुर भी थे। 
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संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 23 January 2016

रोहित वेमुला को लेकर मोदी सरकार की राजनीतिक हत्यारी संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध मार्च ------ Kaushal Kishor



रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर
मोदी सरकार की राजनीतिक हत्यारी संस्कृति के खिलाफ वामपंथी दलों, जन संगठनों और बुद्धिजीवियों ने लखनऊ मे निकाला प्रतिरोध मार्च
लखनऊ, 23 जनवरी। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या की धटना के विरोध में तथा मोदी सरकार की हत्यारी राजनीतिक संस्कृति के खिलाफ आज शनिवार को वामपंथी दलों और जन संगठनों की ओर से संयुक्त प्रतिरोध मार्च निकाला गया। मार्च परिवर्तन चौक से चलकर जीपीओ पार्क पहुंच कर सभा में बदल गया। इसमें वामपंथी दलों व जन संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ छात्रों, महिलाओं, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों ने भी भाग लिया। प्रदर्शनकारी अपने हाथों में मोदी सरकार की हत्यारी संस्कृति के विरोध में नारे लिखे तख्तियां लिये थे। मार्च का नेतृत्व भाकपा (माले) के जिला प्रभारी कामरेड रमेश सिंह सेंगर, माकपा की नेता कामरेड मधु गर्ग और भाकपा के जिला मंत्री कामरेड मो खालिद द्वारा किया गया।
इस अवसर पर हुई सभा को जाने माने आलोचक वीरेन्द्र यादव, जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर, इप्टा के महासचिव राकेश, जनवादी लेखक संघ के सचिव नलिन रंजन सिंह, एपवा की प्रदेश अध्यक्ष ताहिरा हसन, माकपा के नेता प्रशान्त सिंह, एडवा की रूपा सिंह, भाकपा के जिला मंत्री मो खालिद आदि ने संबोधित किया। सभा की अध्यक्षता भाकपा माले के जिला प्रभारी रमेश सिंह सेंगर ने किया तथा संचालन किया माले के युवा नेता राजीव गुप्ता ने।
वक्ताओं का कहना था कि जिन हालातों में रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए बाध्य किया गया, वह आत्महत्या न होकर हत्या है जिसके लिए केन्द्र सरकार के मंत्री और विश्वविद्यालय के कुलपति जिम्मेदार है। वक्ताओं का यह भी कहना था कि मोदी सरकार जिस तरह शैक्षणिक संस्थानों का भगवाकरण में लगी है उससे इनकी स्वयत्ता तथा गुणवत्ता खतरे में पड़ गई है। लखनऊ विश्वविद्यालय भी इसका शिकर है। घृणा व भय का ही वातावरण नहीं तैयार किया जा रहा बल्कि आम लोगों के जीने के अधिकार पर हमले हो रहे हैं, तर्क व विवेकशील लोगों की हत्या की जा रही है। इस फासीवादी निजाम को लेकर प्रगतिशील व जनवादी दलों और बुद्धिजीवियों में जबरदस्त रोष है। कल अम्बेडकर विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री मोदी का वहां के छात्रों द्वारा विरोध उसी का उदाहरण है। सभा में ये छात्र भी मौजूद थे। इनका यहां अभिनन्दन भी किया गया।
आज के प्रतिरोध मार्च के माध्यम से मांग की गई कि रोहित वेमुला के लिए जिम्मेदार केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी, श्रम राज्यमंत्री बंडारू दत्तात्रेय व विश्वविद्यालय के कुलपति को बर्खास्त कर उन्हें गिरफ्तारी किया जाय, शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्ता बहाल हो, उनका भगवाकरण न किया जाय, लोकतांत्रिक अधिकारों व स्वतंत्रता पर हमले बंद हो तथा घृणा व उन्माद फैलाने वाले सांप्रदायिक संगठनों की फासिस्ट कार्रवाइयों पर रोक लगे। कल प्रधानमंत्री का विरोध करने वाले अम्बेडकर विश्वविद्यालय के छात्रो की गिरफ्तारी की भी निन्दा की गई तथा मांग की गई कि उन पर कायम मुकदमें वापस लिये जाय।ं
इस मार्च में कवि भगवान स्वरूप कटियार, शकील सिद्दीकी, एस आर दारापुरी, रिहाई मंच के शाहनवाज आलम, बी एन गौड़, के के चतुर्वेदी, उमेश चन्द्र नागवंशी,  नाइश हसन, सीमा राना, कलम के रिषी श्रीवास्तव, निर्माण मजदूरों के नेता सुरेन्द्र प्रसाद, रंगकर्मी कल्पना पाण्डेय, एपवा की विमला किशोर, आइसा की पूजा शुक्ला सहित बड़ी संख्या में छात्रों, महिलाओं और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया।



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Sunday, 17 January 2016

देशद्रोह के आरोप से दोषमुक्त ------मुहम्मद शुऐब व राजीव यादव

**सिर्फ मुसलमान होने के नाते हमें आतंकी बताकर फंसा दिया गया- अजीजुर्रहमान
छोड़ने के वादे से मुकरने वाली सरकार से मुआवजे की कोई उम्मीद नहीं- शेख मुख्तार
देश के खिलाफ नारे लगाने के झूठे आरोप ने मुझे सबसे ज्यादा झटका दिया- अली अकबर
मेरे बेटे की बुरी मानसिक हालत के लिए पुलिस और सरकार गुनहगार- अल्ताफ हुसैन, अली अकबर के पिता
सपा ने चुनावी वादा पूरा किया होता तो पहले ही छूट गए होते बेगुनाह- मु0 शुऐब
देशद्रोह का फर्जी मुकदमा दर्ज कराने वाले पुलिस व खुफिया अधिकारियों के खिलाफ हो कारवाई
रिहाई मंच ने बेगुनाहों के लिए जमानतदार के बतौर खड़े होने की अवाम से की अपील
साढ़े 8 साल जेल में रहने के बाद बरी हुए अजीर्जुरहमान, मो0 अली अकबर, शेख मुख्तार हुसैन ने बयान किया अपना दर्द
....................**रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने ....................पुर्नवास व मुआवजा न देना साबित करता है कि अखिलेश यादव हिन्दुत्वादी चश्मे से बेगुनाहों को आतंकवादी ही समझते हैं। उन्होंने पूछा कि सरकार को बताना चाहिए कि इन बेगुनाहों के पास से पुसिल ने जो  आरडीएक्स, डिटोनेटर और हैंडग्रेनेड बरामद दिखाया उसे वह कहां से मिला। किसी आतंकी संगठन ने उन्हंे ये विस्फोटक दिया या फिर पुलिस खुद इनका जखीरा अपने पास रखती है ताकि बेगुनाहों कों फंसाया जा सके। उन्होंने कहा कि ऐसी बरामदगी दिखाने वाले पुलिस अधिकारियों का समाज में खुला घूमना देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से कुछ मीडिया संस्थानों ने इनके छूटने पर यह खबर छापी की ये सभी पाकिस्तानी है असल में यह वही जेहनियत है जिसके चलते पुलिस ने देश के खिलाफ नारा लगाने का झूठा एफआईआर करवाया। 


लखनऊ 16 जनवरी 2016। 8 साल 7 महीने लखनऊ जेल में रहने के बाद देशद्रोह के आरोप से दोषमुक्त हो चुके अजीर्जुरहमान, मो0 अली अकबर, शेख मुख्तार हुसैन, उनके परिजनों, रिहाई मंच के अध्यक्ष अधिवक्ता मुहम्मद शुऐब व राजीव यादव ने आज यूपी प्रेस क्लब लखनऊ में प्रेस वार्ता की। 

24 परगना के बशीर हाट के रहने वाले 31 वर्षीय अजीर्जुरहमान ने बताया कि उसे 11 जून 2007 को सीआईडी वालों ने चोरी के इल्जाम में उठाया था। 16 जून को कोर्ट में पेश करने के बाद 22 जून को दोबारा कोर्ट में पेश कर 26 तक हिरासत में लिया। जबकि यूपी एसटीएफ ने मेरे ऊपर इल्जाम लगाया था कि मैं 22 जून को लखनऊ अपने साथियों के साथ आया था। आप ही बताएं की यह कैसे हो सकता है कि जब मैं 22 जून को कोलकाता पुलिस की हिरासत में था तो यहां कैसे उसी दिन कोई आतंकी घटना अंजाम देने के लिए आ सकता हूं। 12 दिन की कस्टडी में यूपी एसटीएफ ने रिमांड में 5 लोगों के साथ लिया और बराबर नौशाद और जलालुद्दीन के साथ टार्चर किया जा रहा था जिसे देख हम दहशत में आ गए थे कि हमारी बारी आने पर हमारे साथ भी ऐसा ही किया जाएगा। टार्चर कुछ इस तरह था कि बिजली का झटका लगाना, उल्टे लटका कर नाक से पानी पिलाना, टांगे दोनों तरफ फैलाकर खड़ाकर डंडा से पीटना, नंगा कर पेट्रोल डालना, पेशाब पिलाना इन जैसे तमाम जिसके बारे में आदमी सोच भी नहीं सकता, हमारे साथ किया जाता था। 6 दिन तक लगातार एक भी मिनट सोने नहीं दिया। हमारा रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले लखनऊ से बाहर जहां ईट भट्टा और एक कोठरी नुमा खाली कमरा पड़ा था, वहां ले जाकर गाड़ी रोका और मीडिया के आने का इंतजार किया। यहां लाने से पहले एसटीएफ वालों ने हमसे कहा था कि मीडिया के सामने कुछ मत बोलना। इस बीच धीरेन्द्र नाम के एक पुलिस कर्मी ने सीमेंट की बोरी और फावड़ा लिया और कोठरी के अंदर गया फिर कोठरी के अंदर गड्डा खोदा, बोरी के अंदर से जो भी सामान ले गए थे गड्डे के अंदर टोकरी में रख दिया। फिर जब सारे मीडिया वाले आ चुके तो हमको गाड़ी से निकालकर उस गड्डे के पास से एक चक्कर घुमाया जिसका फोटो मीडिया खींचती रही। एसटीएफ वालों ने मीडिया को बताया कि ये आतंकी हैं जो कि यहां दो किलो आरडीएक्स, दस डिटोनेटर और दस हैंड ग्रेनेड छुपाकर भाग गए थे। इनकी निशानदेही पर यह बरामद किया गया है। मीडिया वाले बात करना चाह रहे थे पर एसटीएफ ने तुरंत हमें ढकेलकर गाड़ी में डाल दिया। 

अजीजुर्रहमान ने बताया कि हम लोगों को जब यूपी लाया गया उस समय उसमें एक लड़का बांग्लादेशी भी था। पूछताछ के दौरान उसने बताया कि वह हिन्दू है और उसका नाम शिमूल है। उसके बाद दो कांस्टेबलों ने उसके कपड़े उतरवाकर देखा कि उसका खतना हुआ है कि नहीं। जब निश्चिंत हो गए की खतना नहीं हुआ है तो पुलिस वालों ने उससे कहा कि यह बात कोलकाता में क्यों नहीं बताया। उसके बाद दो कांस्टेबल उसे फिर से कोलकाता छोड़ आए। सिर्फ मुसलमान होने के नाते हमें आतंकी बताकर फंसा दिया गया। 

मिदनापुर निवासी शेख मुख्तार हुसैन जो कि मटियाबुर्ज में सिलाई का काम करते थे ने बताया कि उसने एक पुराना मोबाइल खरीदा था। उस समय उसकी बहन की शादी थी। उसी दौरान एक फोन आया कि उसकी लाटरी लग गयी है और लाटरी के पैसों के लिए उसे कोलकाता आना होगा। इस पर उसने कहा कि अभी घर में शादी की व्यस्तता है अभी नहीं आ पाउंगा। उसी दौरान उसे साइकिल खरीदने के लिए नंद कुमार मार्केट जाना था तो उसी दौरान फिर से उन लाटरी की बात करने वालों का फोन आया और उन लोगों ने कहा कि वे वहीं आ जाएंगे। फिर वहीं से उसे खुफिया विभाग वालों ने पकड़ लिया। जीवन के साढे़ आठ साल बर्बाद हो गए। उनका परिवार बिखर चुका है। उन्होंने अपने बच्चों के लिए जो सपने बुने थे उसमें देश की सांप्रदायिक सरकारों, आईबी और पुलिस ने आग लगा दी। उनके बच्चे पढ़ाई छोड़कर सिलाई का काम करने को मजबूर हो गए, उनकी बेटी की उम्र शादी की हो गई है। लेकिन साढे आठ साल जेल में रहने के कारण अब वे पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं। अब उनके सामने आगे का रास्ता भी बंद हो गया है। क्योंकि फिर से जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए जो पैसा रुपया चहिए वह कहा से आएगा। सरकार पकड़ते समय तो हमें आतंकवादी बताती है पर हमारे बेगुनाह होने के बाद न तो हमें फंसाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती है और न ही मुआवजा मिलता है। पत्रकारों द्वारा सवाल पूछने पर कि मुआवजा की लड़ाई लड़ेगे पर शेख मुख्तार ने कहा कि छोड़ने के वादे से मुकरने वाली सरकार से मुआवजे की कोई उम्मीद नहीं। 

24 परगना बनगांव के रहने वाले अली अकबर हुसैन ने कहा कि देश के खिलाफ नारे लगाने के झूठे आरोप ने उसे सबसे ज्यादा झटका दिया। जिस देश में हम रहते हैं उसके खिलाफ हम कैसे नारा लगाने की सोच सकते हैं। आज जब यह आरोप बेबुनियाद साबित हो चुके हैं तो सवाल उठता है कि हम पर देश के खिलाफ नारा लगाने का झूठा आरोप क्यों मढ़ा गया। उन्होंने कहा कि हमारे वकील मु0 शुऐब जो कि हमारा मुकदमा लड़ने (12 अगस्त 2008) कोर्ट में गए थे को मारा पीटा गया और हम सभी पर झूठा मुकदमा दर्ज कर दिया गया कि हम देश के खिलाफ नारे लगा रहे थे। 

जेल की पीड़ा और अपने ऊपर लगे आरोपों से अपना मानसिक असंतुलन का शिकार हो चुके अली अकबर के पिता अल्ताफ हुसैन ने कहा कि मेरे बेटे की हालत की जिम्मेदार पुलिस और सरकार है। एयर फोर्स के रिटायर्ड अल्ताफ ने कहा कि जिस तरह से झूठे मुकदमें में उनके लड़के और अन्य बेगुनाहों को फंसाया गया ऐसे में एडवोकेट मुहम्मद शुऐब की मजबूत लड़ाई से ही इनकी रिहाई हो सकी। उन्होंने कहा कि हमारे बेटों के खातिर मार खाकरद भी जिस तरीके से शुऐब साहब ने लड़ा उससे इस लड़ाई को मजबूती मिली। पत्रकार वार्ता में रिहा हो चुके लोगों के परिजन अब्दुल खालिद मंडल, अन्सार शेख भी मौजूद रहे। 

पत्रकार वार्ता के दौरान जेल में कैद आतंकवाद के अन्य आरोपियों के बारे में सवाल पूछने पर अजीजजुर्रहमान ने बताया कि उनके साथ ही जेल में बंद नूर इस्लाम की आंख की रौशनी कम होती जा रही है। लेकिन मांग करने के बावजूद जेल प्रशासन उनका इलाज नहीं करा रहा है। शेख मुख्तार से यह पूछने पर कि अब आगे जिंदगी कैसे बढ़ेगी, उन्होंने कहा कि बरी होने के बाद भी हमें जमानत लेनी है और अभी तक हमारे पास जमानतदार भी नहीं है। हम एडवोकेट मोहम्मद शुऐब के उपर ही निर्भर हैं। इस सिलसिले में मोहम्मद शुऐब से पूछने पर कि जमानत कैसे होगी ये कहते हुए वो रो पड़े कि आतंकवाद के आरोपियों के बारे में फैले डर की वजह से मुश्किल होती है और लोग इन बेगुनाहों के जमानतदार के बतौर खड़े हों। इसीलिए मैंने इसकी शुरूआत अपने घर से की मेरी पत्नी और साले जमानतदार के बतौर खड़े हुए हैं। इन भावनाओं से प्रभावित होते हुए पत्रकार वार्ता में मौजूद आदियोग और धर्मेन्द्र कुमार ने जमानतदार के बतौर खड़े होने की बात कही। मु0 शुऐब ने समाज से अपील की कि लोग ऐसे बेगुनाहों के लिए खड़े हों। इस मामले में अभी और जमानतदारों की जरूरत है अगर कोई इनके लिए जमानतदार के बतौर खड़ा होगा तो ये जल्दी अपने घर पहंुच जाएंगे। 

रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि सपा सरकार ने अगर आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को छोड़ने का अपना चुनावी वादा पूरा किया होता तो यही नहीं इन जैसे दर्जनों बेगुनाह पहले ही छूट गए होते। उन्होंने कहा कि सपा ने चुनाव में मुसलमानों का वोट लेने के लिए उनसे झूठे वादे किए। जिसमें से एक वादा छूटे बेगुनाहों के पुर्नवास और मुआवजे का भी था। लेकिन किसी भी बेगुनाह को सरकार ने उनकी जिन्दगी बर्बाद करने के बाद आज तक कोई मुआवजा या पुर्नवास नहीं किया है। पुर्नवास व मुआवजा न देना साबित करता है कि अखिलेश यादव हिन्दुत्वादी चश्मे से बेगुनाहों को आतंकवादी ही समझते हैं। उन्होंने पूछा कि सरकार को बताना चाहिए कि इन बेगुनाहों के पास से पुसिल ने जो  आरडीएक्स, डिटोनेटर और हैंडग्रेनेड बरामद दिखाया उसे वह कहां से मिला। किसी आतंकी संगठन ने उन्हंे ये विस्फोटक दिया या फिर पुलिस खुद इनका जखीरा अपने पास रखती है ताकि बेगुनाहों कों फंसाया जा सके। उन्होंने कहा कि ऐसी बरामदगी दिखाने वाले पुलिस अधिकारियों का समाज में खुला घूमना देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से कुछ मीडिया संस्थानों ने इनके छूटने पर यह खबर छापी की ये सभी पाकिस्तानी है असल में यह वही जेहनियत है जिसके चलते पुलिस ने देश के खिलाफ नारा लगाने का झूठा एफआईआर करवाया। आज असलियत आपके सामने है कि यह अपनी बात कहते-कहते भूल जा रहे हैं। मानसिक रुप से असुंतलित हो गए हैं। ऐसे में देशद्रोह और आतंकी होने का फर्जी मुकदमा दर्ज कराने वाले असली देशद्रोही हैं उनपर मुकदमा होना चाहिए। उन्होंने सरकार से सवाल किया कि क्या उसमें यह हिम्मत है?  

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने बताया कि आफताब आलम अंसारी, कलीम अख्तर, अब्दुल मोबीन, नासिर हुसैन, याकूब, नौशाद, मुमताज, अजीजुर्रहमान, अली अकबर, शेख मुख्तार, जावेद, वासिफ हैदर वो नाम हैं जिन पर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर उनकी पूरी जिंदगी बर्बाद कर दी गई। जिनके बरी होने के बावजूद सरकारों ने उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाई। तो वहीं ऐसे कई नौजवान यूपी की जेलों में बंद हैं जो कई मुकदमों में बरी हो चुके है जिनमें तारिक कासमी, गुलजार वानी, मुहम्मद अख्तर वानी, सज्जादुर्रहमान, इकबाल, नूर इस्लाम है। उन्होंने कहा कि सरकार बेगुनाहों की रिहाई से सबक सीखते हुए इन आरोपों में बंद बेगुनाहों को तत्काल रिहा करे और सांप्रदायिक पुलिस कर्मियों के खिलाफ कारवाई करे। उन्होंने कहा कि जब इन बेगुनाहों को फंसाया गया तब बृजलाल एडीजी कानून व्यवस्था और बिक्रम सिंह डीजीपी थे और उन्होनें ही मुसलमानों को फंसाने की पूरी साजिश रची। जिनकी पूरी भूमिका की जांच के लिए सकरार को जांच आयोग गठित करना चाहिए ताकि आतंकवाद के नाम पर फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा दी जा सके। मंच ने यूएपीए को बेगुनाहों को फंसाने का पुलिसिया हथियार बताते हुए इसे खत्म करने की मांग की है। 

द्वारा जारी- 
शाहनवाज आलम
(प्रवक्ता, रिहाई मंच) 
09415254919

Saturday, 16 January 2016

:सृजन का संतोष या आनन्द कहीं दिखायी नहीं देता ------ वीरेन्द्र जैन

वीरेन्द्र जैन
            यह, वह कठिन समय है जब लेखक बढ़ रहे हैं और पाठक कम हो रहे हैं। पुस्तकें समुचित संख्या में छप रही है किंतु उनके खरीददार कम होते जाते हैं। पुस्तक मेलों में काफी भीड़ उमड़ती है पुस्तकों की प्रदर्शनी को निहारती है, ढेर में रखी पुस्तकों को पलटती है और जाकर चाट-पकोड़ी फास्ट फूड खाती है, स्वेटर मफलर जैकिट खरीदती है, मित्रों परिचितों से गले मिलती है, सैल्फी लेती देती है और दिन सफल करके लौट आती है। वहाँ से मिले सूची पत्र रद्दी के ढेर में रख देती है।
             इस कठिन समय को मैं भिन्न समय कहना चाहता हूं। प्रकाशक पुस्तकें इसलिए छाप रहे हैं, क्योंकि वे बिक रही हैं, उन्हें सरकारी पुस्तकालय और शिक्षा विभाग समेत रेल, रक्षा, व विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान खरीद रहे हैं। उनकी कीमतें ऊंची रखी जा रही हैं और सम्बन्धित अधिकारियों को खरीद पर भरपूर कमीशन दिया जा रहा है, जो बहुत ऊपर तक पहुँच रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र का यह धन अंततः जनता की जेब से जा रहा है। पुस्तक प्रकाशन और इसकी खरीद बिक्री में प्रकाशक और सरकारी खरीद के लिए जिम्मेवार अधिकारी मालामाल हो रहे हैं। कोई प्रकाशक गरीबी में नहीं जी रहा है, सबके पास भव्य बंगले हैं, गाड़ियां हैं, दौलत का नंगा प्रदर्शन है, वे अधिकारियों को जो पार्टियां देते हैं उनमें पैसा पानी की तरह बहाते हैं। कोई देखने वाला नहीं है कि जो पुस्तकें खरीदी गयीं उनमें से कितनी पढ़ी गयी हैं, या पढ़े जाने लायक हैं? किसी को नहीं पता कि उनको खरीद किये जाने का आधार क्या है? प्रकाशित पुस्तकों के पाँच प्रतिशत लेखकों को भी रायल्टी नहीं मिलती। अधिकांश लेखक इस बात से खुश हो जाते हैं कि प्रकाशक ने कृपा करके उनकी पुस्तक छाप दी है। बहुत बड़ी संख्या में लेखक अपना पैसा लगा कर अपनी पुस्तकें छपवाते हैं और सरकारी सप्लाई की दर पर मुद्रित कीमत से अपनी लागत की पुस्तकें खरीद लेते हैं। वे खुद का पैसा खर्च करके विमोचन समारोहआयोजित करते हैं जिसमें प्रकाशक मुख्य अतिथि की तरह मंच पर बैठता है। यही कारण है कि आज ज्यादातर सम्पन्न और अतिरिक्त आय अर्जित करने वाले वर्ग के  लेखक प्रकाशित हो रहे हैं।
            जिस तरह किसी कुत्ते को हड्डी मिल जाती है, जिसे चूसते चूसते उसकी जुबान से खून निकलने लगता है और वह अपने ही खून को हड्डी में से निकला खून समझ कर उसे और ज्यादा चूसता जाता है, उसी तरह लेखक भी अपना ही खून चूस चूस कर खुश होता रहता है। उसके अपने पैसे से किताब छपती है जो उसके ही पैसे से उसके घर पर आती है, और ‘सौजन्य भेंट’ देने के काम आती है। भेंट पाने वाला सौजन्यता में ही दो चार शब्द प्रशंसा के कह देता है भले ही उसने उसे पढी ही न हो। ऐसी पुस्तकें कम ही पढ़ी जाती हैं। आमतौर पर पुस्तक मेलों में पाक कला, बागवानी, घर का वैद्य, या कैरियर से सम्बन्धित पुस्तकें ही बिकती हैं।
            पुस्तक आलोचना का और भी बुरा हाल है। आलोचक के नाम पर कुछ चारण पैदा हो गये हैं जो प्रत्येक प्रकाशित पुस्तक की बिना पढ़े प्रशंसा की कला में सिद्धहस्त हैं। प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिका में भी पुस्तक आलोचना के नाम पर जो कुछ छपता है वह प्रकाशन की सूचना और फ्लैप पर लिखी टिप्पणी से अधिक कुछ नहीं होती है। कथित आलोचक उसमें दो चार पंक्तियां और एकाध उद्धरण जोड़ कर उसे समीक्षा की तरह प्रकाशित करा देता है। ऐसा आलोचना कर्म कोई भी कर देता है। एक आलोचक को कम से कम विषय और विधा की परम्परा व समकालीन लेखन का विस्तृत अध्ययन होना चाहिए जिसे वह दूसरी भाषाओं के साहित्य के साथ तुलना कर के परखता है। उसके सामाजिक प्रभाव के बारे में अपने विचार व्यक्त करता है व पुस्तक की उपयोगिता या निरर्थकता को बताता है। एक अच्छी आलोचना स्वयं में रचना होती है जिसके सहारे न केवल कृति को समझने में मदद मिलती है अपितु विधा के समकालीन लेखन और प्रवृत्तियों की जानकारी भी मिलती है। एक पुस्तक समीक्षा अनेक दूसरी पुस्तकों को पढ़ने के प्रति जिज्ञासा पैदा कर सकती है।
            पुस्तक प्रकाशन से लेकर पुस्तक मेले तक छद्म ही छद्म फैला हुआ है। प्रकाशक, लागत लगाने वाले और सरकारी खरीद में मदद कर सकने वाले महात्वाकांक्षी व्यक्ति को लेखक के रूप में अधिक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं और ऐसे ही लोगों को छापना चाहते हैं। दूसरी ओर उनकी कृतियों को पाठक पढ़ना नहीं चाहते, खरीदना नहीं चाहते। ऐसे ही लेखकों के व्यय की भरपाई के लिए नये नये सरकारी पुरस्कार पैदा किये जा रहे हैं, जुगाड़े जा रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि बहुत सारे पुरस्कृत और सम्मानित लेखकों के प्रशंसक और पाठक नहीं के बराबर हैं। सामान्य पाठक के लिए ऐसा लेखन कौतुकपूर्ण वस्तु बन चुका है। सरकारी पुरस्कारों से वह भ्रमित रहता है कि जरूर इस कृति में कुछ महत्वपूर्ण होगा जो उसकी समझ में नहीं आ रहा, जबकि उसमें कुछ होता ही नहीं है। कम प्रतिभा वाले लेखक समूहों ने अपनी-अपनी संस्थाएं बना ली हैं जिनके माध्यम से वे खुद पुस्तकें प्रकाशित करके एक दूसरे को आभासी पुरस्कार लेते देते रहते हैं. ‘अहो रूपम अहो ध्वनिम’ करते रहते हैं व अपना फोटो संग समाचार खुद छपवा कर खुद को धोखा देते रहते हैं।
            सच तो यह है कि लेखन की दुनिया में गहरी बेचैनी, निराशा, ईर्षा, कुंठा, शोषण, धूर्तता छायी हुयी है। सृजन का संतोष या आनन्द कहीं दिखायी नहीं देता। यहाँ मसखरों से लेकर बहुरूपियों तक फैंसी ड्रैस वालों से लेकर नशाखोर तक भरे हुये हैं। कभी मुकुट बिहारी सरोज ने लिखा था-
गर्व से मुखपृष्ठ जिनको शीश धारें, आज उन पर हाशियों तक आ बनी है
क्योंकि मुद्रित कोश की उपलब्धियों से, कोठरी की पाण्डुलिपि ज्यादा धनी है
अक्षरों को अंक करके रख दिया है, तुम कसम से खूब साहूकार हो
तुम कसम से खूब रचनाकार हो 
साभार :
http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/2016/01/15/% 

Friday, 15 January 2016

सेना दिवस पर लेफ्टिनेंट जनरल जैकब का स्मरण

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    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 13 January 2016

युद्ध कभी विकल्प नहीं होता ------ संजय सिन्हा



आप मुझे कायर कहिए। आप मुझे डरपोक कहिए। पर आप प्लीज़ युद्ध की दुआ मत कीजिए। 
आपने युद्ध की रिपोर्टिंग नहीं की है। मैंने की है। 
मैं कारगिल युद्ध का चश्मदीद हूं। मैं उस मेजर पुरुषोत्तम की मौत का भी चश्मदीद हूं, जिसकी चर्चा कल यूं ही अपने फेसबुक परिजन Rajeev Chaturvedi ने कर दी थी। मैं नहीं जानता था कि चतुर्वेदी जी मेजर पुरुषोत्तम को जानते भी होंगे। 
तब मैं ज़ी न्यूज़ में रिपोर्टिग करता था। मेरे बॉस ने मुझे एक शाम बुला कर कहा कि संजय, तुम्हें कल कारगिल के लिए निकलना है। वहां पाकिस्तानी घुसपैठिए घुस आए हैं। 
मैंने सुबह इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट ली। उड़ान भरने के साथ ही एयर होस्टेस की ओर से अनाउंसमेंट हुई कि विमान की सारी खिड़कियां बंद रखें। मतलब खुले आसमान को देखने पर रोक लगा दी गई थी। 
हम कब जम्मू पहुंचे, पता ही नहीं चला। जम्मू में भी हमें बाहर देखने की मनाही थी। हमारा विमान श्रीनगर पहुंचा। वहां से सीधे हम लाल चौक स्थित अहदूस होटल पहुंचे। 
अब हमें कारगिल के लिए निकलना था। 
पर कारगिल जाने के लिए तब कोई तैयारी नहीं थी। हमारे साथ उसी होटल में और भी कई पत्रकार ठहरे थे। 
किसी पत्रकार ने बताया कि संजय, कल तुम मेरे साथ बादामीबाग छावनी चलना। वहां मेजर पुरुषोत्तम से मिलना। वो सेना के जनसंपर्क अधिकारी हैं। वो पत्रकारों की खूब मदद करते हैं। 
मैं मुस्कुराया।” अच्छा! तो कल रात जो रम की बोतल तुम्हारे कमरे में थी, वो वहीं से आई है।” मेरे पत्रकार साथी के होठों पर चार इंच लंबी मुस्कुराहट दौड़ गई। 
मैं अगली सुबह बादामीबाग छावनी में था। 
मेरे सामने एक मुस्कुराता हुआ नौजवान खड़ा था। 
“हैलो, मिस्टर सिन्हा, मैं मेजर पुरुषोत्तम।”
“जी आपकी बहुत तारीफ मैंने सुनी है।”
“पता नहीं तारीफ वाली क्या बात है, पर आपको जब भी यहां श्रीनगर में किसी चीज की ज़रूरत हो, तो आप मुझसे बिना किसी पूर्व सूचना के भी मिल सकते हैं।”
“फिलहाल तो मैं सिर्फ कारगिल जाना चाहता हूं। अगर सेना की कोई गाड़ी जा रही हो तो मुझे बता दें।”
“ओह! अभी तुरंत तो संभव नहीं। पर मैं आपको भिजवा दूंगा। अभी आप अहदूस में ही आराम कीजिए। श्रीनगर के मज़े लीजिए।”
“श्रीनगर में मज़ा कैसा? यहां तो हर जगह तनाव ही तनाव है। लाल चौक पर तो आए दिन फायरिंग होती है।”
“ओह! आप इतने से घबरा गए। हमें देखिए, न जाने कब हम पर हमला हो जाए। हमें तो जरा भी घबराहट नहीं होती। जनाब, ये श्रीनगर है। यहां तो पानी में भी इतना लोहा है कि लोहा भी डर जाए।”
“मेजर साहब, आपको तो शायर होना चाहिए था। कहां फौज में फंस गए!”
“यार सिन्हा, फौज से अच्छी कोई नौकरी नहीं। यहां आदमी पूरे टिप-टाप में रहता है। गोली लग जाए और आदमी मर भी जाए तो एकदम टिप-टाप मरता है। किसी सैनिक को तुमने कभी बिस्तर पर पड़े-पड़े खांसते हुए मरते देखा है? एक सैनिक को आप संसार के किसी कोने में भेज दीजिए, वो खुद को फंसा हुआ महसूस नहीं करता। और ये तो कशमीर है। वही कश्मीर जिसके लिए कहा जाता है कि अगर संसार में कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। 
मैं स्वर्ग में हूं।”
***
आम तौर पर मेरे सभी साथी मुझे संजय ही बुलाते थे। लेकिन पहली बार कोई मुझे सिन्हा नाम से संबोधित कर रहा था। 
पहली ही मुलाकात में मैं समझ गया था कि पुरुषों में उत्तम ये शख्स जो पुरुषोत्तम नाम से जाना जा रहा है, वो है बहुत बिंदास और दिलचस्प आदमी। 
मेरी समझ में ये बात भी आ चुकी थी अगर मुझे कारगिल तक पहुंचना है, तो यही आदमी मदद कर सकता है।। 
***
वो गर्मी का मौसम था। श्रीनगर में भी ठंड नहीं थी। हम अहदूस होटल से निकलते, दिन भर श्रीनगर और आसपास के इलाकों में घूमते और कारगिल जाने को बेचैन रहते। अगले दिन मेजर पुरुषोत्तम का फोन आया। “सिन्हा, कल तुम अपनी कैमरा टीम तैयार रखना। कारगिल निकलना है।” 
बाकी की कहानी आपको मुझसे अधिक पता है। सैनिक वहां सिर्फ दुश्मनों से लोहा भर नहीं ले रहे थे, हम पत्रकारों की भरपूर मदद भी कर रहे थे। 
कारगिल से टीवी पर खूब रिपोर्टिंग हुई। हमारे दफ्तर को अंदाज़ा था कि कारगिल में काफी मुश्किल हालात हैं, इसलिए उन्होंने कई रिपोर्टरों की टीम बना दी और ये तय हुआ कि एक टीम दिल्ली वापस बुलाई जाए और दूसरी टीम वहां भेज दी जाए। ऐसा ही हुआ। 
मैं कारगिल से वापस श्रीनगर पहुंचा, दिल्ली से दूसरी टीम वहीं अहदूस होटल पहुंच चुकी थी। 
मेरे साथी ने मुझसे पूछा कि कारगिल कैसे पहुंचना होगा। 
मैंने मुस्कुराते हुए कहा कि अपने मेजर पुरुषोत्तम हैं न! वो बताएंगे। 
शाम को मैं अपने साथी को लेकर मेजर से मिलने गया। मेजर एकदम प्रसन्न भाव से मिले। “चिंता न करो, जी। भिजवा देंगे। बताओ क्या लोगे?” 
“चाय।”
“यार, चाय भी लेने की चीज है?”
मेरे दोस्त ने मुझे कोहनी मारी। यार मैं तो दिल्ली से निकला था बहुत टेंशन में कि पता नहीं श्रीनगर में क्या हालात हों। एयरपोर्ट से होटल तक पहुंचने में मेरी जान निकली पड़ी थी। दिल्ली में बैठ कर और टीवी पर खबरें देख कर तो मेरा दम निकला पड़ा था। पर यहां तो मेजर साहब से मिल कर सारी टेंशन गायब हो गई। मैंने कहा कि हां, मैं भी पहली बार सेना के इस जनसंपर्क अधिकारी से मिला हूं। ये बंदा बड़ा खुशदिल है। और सबसे बड़ी बात कि मीडिया फ्रेंडली है। 
अपने साथी को मेजर से मिलवा कर मैं दिल्ली के लिए निकल पड़ा। 
***
जहां तक मुझे याद आ रहा है, कारगिल का युद्ध खत्म हो चुका था। हम जीत गए थे। आज मैं यहां ये बयां नहीं करने जा रहा कि कितने सैनिक हमारे शहीद हुए थे। कितनी लाशें मैंने खुद देखी थीं। कारगिल की कितनी विधवाओं से मैं खुद मिला था। कइयों के छोटे-छोटे बच्चों को मैंने मां से ये पूछते हुए खुद सुना था कि मम्मी, पापा की फोटो टीवी पर क्यों आ रही है।
टीवी मीडिया उन दिनों नया-नया था। एक-एक कर सारी टीमें वहां गई थीं। खूब रिपोर्टिंग हुई। कभी लिखने बैठा तो मैं तब सेना अध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक के साथ एकदम अकेले सीमा तक की उन यात्राओं और यादों को भी जरूर आपसे साझा करूंगा कि एक सैनिक को शहीद कह देना जितना आसान होता है, उसके पीछे की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं रह जाती है। पर फिलहाल उसका वक्त नहीं है। फिलहाल तो वक्त है मेजर पुरुषोत्तम की कहानी सुनाने का।
***
युद्ध खत्म हो चुका था। पर श्रीनगर भितरघात का शिकार था। आतंकवाद अपने चरम पर था। हालात का जायजा लेने के लिए हम एक बार फिर श्रीनगर में थे। फिर उसी अहदूस होटल में। लाल चौक पर आए दिन धमाके हुआ करते थे। पर हमें किसी बात का डर नहीं था। अपने पास मेजर पुरुषोत्तम थे। 
मैं दिन भर रिपोर्टिंग करता और शाम को मेजर से मिलता। मेजर साहब अब मीडिया के लिए सेना वाले नहीं रह गए थे। वो हमारे लिए मीडिया मैन बन गए थे। उनके पास दिन भर पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता। संसार की सारी खबरें उनके पास होतीं। मैंने कई बार देखा, कोई नया पत्रकार कहीं से उनका नाम पूछता हुआ उनके पास पहुंचता, तो वो उससे ऐसे मिलते, मानो वर्षों से जान पहचान हो। वो बहुत मजबूती से हाथ मिलाते। पहली मुलाकात में ही ऐसा लगता कि बंदे में दम है। इतनी गर्मजोशी उनके चेहरे पर होती कि आदमी ये भूल जाता कि वो फिलहाल जिस शहर में है, वो बारूद के ढेर पर है। हम बादामी बाग इलाके में होते, तो लगता कि यहां कोई क्या कर लेगा। ये तो श्रीनगर की सबसे महफूज जगह है।
अब श्रीनगर में सर्दी शुरू हो चुकी थी। हमें मेजर से मिलना था। 
तभी खबर आई कि आतंकवादियों ने बादामी बाग छावनी पर हमला कर दिया है। 
“बादामी बाग? वहां कोई कैसे घुस सकता है। वो तो सैनिकों का इलाका है। यार वहां तो मेजर पुरुषोत्तम भी होंगे।”
“नहीं यार, वो नहीं रहे। कुछ पत्रकार वहां उनसे मिलने गए हुए थे। वो उनके साथ बैठे थे। तभी अचानक गोलियों की आवाज़ आई। 
मेजर को अपनी चिंता नहीं थी। उन्हें चिंता थी तो बस अपने पत्रकार साथियों की। उन्होंने पता नहीं कैसे, लेकिन सभी पत्रकारों को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और खुद उन आतंकवादियों से लोहा लेने लगे। इसी हमले में हमारा मेजर शहीद हो गया। उसके साथ कुछ और जवान भी शहीद हुए हैं।”
हमारा खबरची मुझे बता रहा था। मेरे कान सुन्न पड़ चुके थे। 
जबलपुर का वो नौजवान, जो कहता था कि एक सैनकि को कहीं भी भेज दो, वो खुश रह लेगा, अब नहीं है?
कारगिल में किसी पहाड़ी पर चढ़ कर सीमा पार से बम लुढ़का कर भारत की सीमा में गिरा देना आसान था। पर यहां श्रीनगर में एकदम सेना की नाक के नीचे भला कैसे कोई इस तरह गोला-बारूद से लैस होकर घर में घर में घुस कर हमला कर सकता है? दुश्मन तो सीमा पार था, पर यहां कौन?
***
मेजर पुरुषोत्तम मेरी यादों से कभी मिटे ही नहीं। मेरी क्या, मुझे लगता है कि जो भी पत्रकार कारगिल वार के दिनों में श्रीनगर गया होगा, उसकी यादों में मेजर पुरुषोत्तम बसे होंगे। 
पर कल जब मैंने कहा कि नीतिविहीन रणनीति एक ऐसी आग है, जिसकी लपटें दुश्मनों की तुलना में खुद को अधिक जलाती हैं, इसलिए युद्ध को कभी विकल्प नहीं बनाना चाहिए, तो कई लोगों ने मुझे कायर कहा। मुझसे कहा कि मुझे पठानकोट जाकर उन सात शहीदों के घर के लोगों से मिलना चाहिए और उनसे पूछना चाहिए कि युद्ध या शांति? 
मैं उन लोगों से कहना चाहता हूं कि पठानकोट में जो हुआ, वो भितरघात है। आप युद्ध की बात करते हैं। सात में आप इतने विचलित हैं। सोचिए ये आंकड़ा सात सौ या सात हज़ार हो जाए तो आप पर क्या बीतेगी?
***
मैं इतनी लंबी पोस्ट नहीं लिखता। लेकिन आपको ये बताना चाह रहा था कि जैसे कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने शांति की राह चुन ली थी, वैसे ही आपका ये रिपोर्टर, जो हर सुबह रिश्तों की कहानियां आपको सुनाता है, वो बारूद की सुरंग में घुस कर रिपोर्टिंग कर चुका है। वो लाशों के बीच रातें गुजार चुका है। वो दहशत के धमाकों बीच पीटीसी कर चुका है। वो सबकुछ करके, सबका हश्र देख कर आज शांति की बातें करता है, रिश्तों की बातें करता है। आपका ये रिपोर्टर आपसे रिश्तों की कहानियां इसलिए साझा करता है क्योंकि इसने मृत्यु के दंश को बहुत करीब महसूस किया है। क्योंकि ये जानता है कि जब अपना कोई इस संसार से चला जाता है, तो उसकी विजय गाथा चाहे जितनी लंबी लिखी जाए, सड़कों के नाम उसके नाम पर रख दिए जाएं, लेकिन घर वालों के सीने में धड़कने वाला दिल हर सुबह अपनी गति से समझौता करता है। 


युद्ध कभी विकल्प नहीं होता। 
युद्धनीति और राजनीति दो अलग-अलग चीज़ें हैं। युद्ध नीति भले तलवार का जवाब तलवार से देने को व्याकुल हो, लेकिन राजनीति गिरती तलवार के आगे सिर झुका कर बच निकलने की शिक्षा भी देती है। 
कई बार जानबूझ कर दुश्मन युद्ध के लिए सिर्फ इसलिए भी उकसाते हैं, ताकि आप उसमें फंस जाएं। 
जरासंध ने भी मथुरा में कृष्ण को बहुत उकसाया था युद्ध के लिए। 
पर कृष्ण उसमें नहीं फंसे। उनसे ये तक कहा गया था कि आप रण छोड़ रहे हैं। 
कृष्ण ने कहा था छोड़ नहीं रहा, बल्कि बहादुरी से पीछे हट रहा हूं। कहने वाले ने उनसे कहा था कि भगवन आप तो रणजीत समझे जाते रहे हैं, आप रणछोड़ क्यों बन रहे हैं। 
तब कृष्ण ने जवाब दिया था, “इतिहास इस पर विचार करेगा कि मैं रणछोड़ क्यों बना। भले इतिहास की किताब में मेरी सही तस्वीर न उभरे, लेकिन मथुरा के इतिहास में रक्त के छींटे तो नहीं बिखरे होंगे।” 
कभी-कभी अनिच्छा को भी इच्छा की तरह स्वीकार करना चाहिए।

‪#‎Rishtey‬ Sanjay Sinha


*  साभार *     https://www.facebook.com/sanjayzee.sinha/posts/10207578791964578

Friday, 8 January 2016

शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण का ही अभियान है संदीप पांडे का बीएचयू से निकाला जाना: Masihuddin Sanjari

 **संदीप पांडे ने राज्य के भय अभियान की परवाह किए बिना हर तरह का जोखिम
उठाते हुए आतंकवाद और माओवाद के नाम पर निर्दोशों के ऊपर किए जाने वाले
अत्याचारों के खिलाफ मज़बूती से आवाज़ उठाई है।**

संदीप पाण्डेय को हटाया जाना बी.एच.यू.का साम्प्रदायिक संस्थानीकरण का उदाहरण
शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण का ही अभियान है संदीप पांडे का बीएचयू से
निकाला जाना: Masihuddin Sanjari Coordinator Rihai Manch Azamgarh
Division

मैग्सेसे पुरस्कार विजेता गांधीवादी नेता संदीप पांडे काे बनारस हिंदू
विश्वविद्‍यालय से बतौर गेस्ट फैकल्टी के बर्खास्त किए जाने के पीछे असल
कारण नक्सली होना या राष्ट्र विरोधी होना नहीं है जैसा कि आरोप लगाया गया
है बल्कि देश के शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण अभियान का हिस्सा है।

देश की साम्प्रदायिक और फासीवादी विचारधारा ने राष्ट्रवाद के मुखौटे में
(जो सदा से उसका हथियार रहा है) स्पष्ट रेखा खींच दी है जिसके अनुसार देश
के नीच जाति के कहे जाने वाले वर्ग के गरीबों और मज़लूमों के साथ
कारपोरेट जगत एंव राज्य की क्रूरता के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले उनके
रास्ते के सबसे बड़े कांटा हैं और वह उन्हें किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं
करेंगे।

संदीप पांडे ने राज्य के भय अभियान की परवाह किए बिना हर तरह का जोखिम
उठाते हुए आतंकवाद और माओवाद के नाम पर निर्दोशों के ऊपर किए जाने वाले
अत्याचारों के खिलाफ मज़बूती से आवाज़ उठाई है।

अपनी सादगी के लिए विख्यात संदीप पांडे ने उस समय आज़मगढ़ का दौरा किया
था जब पूरा मीडिया इस जनपद को 'आतंकवाद की नर्सरी' बताने के लिए अपनी
ऊर्जा लगा रहा था। अंधविश्वास और गैर वैज्ञानिक सोच के खिलाफ उनकी
सक्रियता ने साम्प्रदायिक एंव फासीवादी शक्तियों काे दुश्मन बना दिया था।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस मानवतावादी को गेस्ट फैकल्टी के बतौर काम करने
से रोक कर उसके जनपक्षधर अभियान को कमज़ोर करने का सपना पालने वाले अपने
मकसद में कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे। हकीकत तो यह है कि इस बर्खास्तगी से
उनको अपने मानवतावादी अभियान को गति देने और वैज्ञानिक चेतना के प्रकाश
को फैलाने का पहले से ज्यादा समय मिलेगा।

संदीप पांडे लिंगभेद के खिलाफ सशक्त आवाज़ हैं। उन्होंने नारी को देवी
कहने का ढोंग भले ही नहीं किया लेकिन जब भी देश की निर्भयाओं का उत्पीड़न
हुआ तो वह उसके प्रतिरोध में मैदान में नज़र आए। बीएचयू प्रशासन को मालूम
होना चाहिए कि जिसकी तस्वीरों से तुम्हें डर लगता है संदीप पांडे उसके
लिए मैदान में लड़ता है।

Wednesday, 6 January 2016

वह परिवारवाद और धनबल की जीत है-अनिल यादव

धनबल -बाहुबल की  राजनीति करने वाली सपा सरकार ने  ग्राम -स्वराज के सपने की  हत्या कर दी है-इंसाफ अभियान 

सपा प्रवक्ता  जिसे लोकतंत्र  में सपा  की जीत बता रहे हैं ,वह परिवारवाद और धनबल की जीत है-अनिल यादव 

 लखनऊ 4 जन.2016 . उत्तर प्रदेश में 75जिलों में 33 निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष होना यह साबित करता है की धनबल -बाहुबल की  राजनीति करने वाली सपा सरकार ने  ग्राम -स्वराज के सपने की  हत्या कर दी है। इंसाफ अभियान  ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार देते हुए कहा कि एटा ,कासगंज ,फीरोजाबाद ,मैनपुरी ,कानपुर देहात ,कानपूर नगर ,इटावा ,झाँसी ,जालौन ,हमीरपुर ,महोबा ,चित्रकूट ,भदोही ,ग़ाज़ीपुर ,आजमगढ़ ,बलिया ,मऊ ,देवरिया ,बस्ती ,सिध्दार्थनगर ,श्रावस्ती ,गोंडा ,बहराइच ,फ़ैजाबाद ,बाराबंकी ,लखनऊ ,लखीमपुर ,हरदोई ,बदायूं ,अमरोहा बुलंदशहर ,गाज़ियाबाद में निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष बनाये जाने की प्रक्रिया सपा के सामंती चरित्र को उजागर   किया है। 
इंसाफ अभियान के प्रवक्ता अनिल यादव ने  कहा कि सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी जिसे लोकतंत्र  में सपा   की जीत बता रहे हैं ,वह परिवारवाद और धनबल की जीत है। उन्होंने  कहा कि जिस तरह से  मुलायम सिंह ने लोक सभा और विधान सभा में अपने कुनबे पहुँचाया अब उनके मंत्री -विधायक  उन्ही  नक़्शे कदम पर चल रहे   हैं. इंसाफ अभियान उत्तर प्रदेश इस धनबल -बाहुबल  लैस परिवारवाद  खिलाफ अभियान चलाएगा। 

इंसाफ अभियान के संगठन सचिव लक्ष्मण प्रसाद ने  कहा कि जिला पंचायत चुनाव में कई जगह तो सपा के मंत्रियों ने प्रत्याशी  खड़े होने नही  दिए,रघुराज प्रताप सिंह इसके बड़े उदाहरण  हैं। उन्होंने आरोप लगाया की प्रतापगढ़ में 11 सीटों पर रघुराज प्रताप के डर से लोग पर्चे तक नही  भरे। ऐसे में सपा के द्वारा इसे लोकतंत्र जीत बताना शर्मनाक है। 

  द्वारा  जारी 
अनिल यादव 
9454292339