Wednesday 18 July 2018

विश्वगुरु बनने का भ्रामक सपना देखते देखते..............पतनोन्मुख पीढ़ियों का अभिशाप झेलने को विवश ------ हेमंत कुमार झा



Hemant Kumar Jha
जो समाज अपने विश्वविद्यालयों को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में तब्दील कर देता है वह अपने बौद्धिक पतन की राह तो खोलता ही है, नैतिक पतन की ओर भी बढ़ता है।

व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में 'आइडियाज ' जन्म लेते हैं जिनका अंतिम उद्देश्य व्यवसाय को बढ़ाना ही हो सकता है, जबकि विश्वविद्यालय स्वतंत्र चिंतन और ज्ञान के केंद्र होते हैं। जब किसी विश्वविद्यालय को व्यवसाय के सिद्धांतों के अनुसार चलाने की कोशिशें होती हैं तो फिर मुनाफा उनका पहला लक्ष्य होता है और चिंतन पक्ष कमजोर हो जाता है।

मुनाफा की संस्कृति में बौद्धिक और वैचारिक उत्कर्ष की कल्पना करना व्यर्थ है। वहां नैतिकता के नए मानक तय होते हैं जिनका संबंध 'मनुष्यता' नामक शब्द से सबसे कम होता है। तंत्र से जुड़े हर अंग, चाहे वे शिक्षक हों, छात्र हों, कर्मचारी हों या फिर कुलपति ही क्यों न हों, सबकी परिभाषाएं बदल जाती हैं, उनके आपसी संबंधों का स्वरूप बदल जाता है।

आप भारत के अधिकांश निजी विश्वविद्यालयों को देखें। इनके द्वारा संचालित कोर्सेज की पड़ताल करें, इनके परिसरों की संस्कृति का विश्लेषण करें। आपको कहीं से ये विश्वविद्यालय नहीं लगेंगे, बल्कि लकदक मॉल लगेंगे। कुलपति की जगह 'सी ई ओ' टाइप का कोई व्यक्ति मिलेगा जिसकी पहली चिंता ऐसे कोर्सेज को प्रमुखता देने की होगी जिनमें अधिक नामांकन, प्रकारान्तर से अधिक मुनाफा की संभावना हो। आप अगर इस बात की कल्पना करते हैं कि यहां समाज विज्ञान और मानविकी जैसे विषयों में उत्कृष्ट शोध होते होंगे या हो सकते हैं , तो यह आपका भ्रम साबित होगा। मुनाफा की संस्कृति में संचालित संस्थानों में मनुष्यता के उत्थान आधारित शोध होने का कोई मतलब नहीं बनता।

समाज विज्ञान और मानविकी संबंधी अध्ययन और शोध मनुष्यता के उन्नयन के लिये आवश्यक हैं, व्यवस्था को अधिकाधिक मानवीय बनाने के लिये आवश्यक हैं। कोई व्यवसायी इसके लिये कुछ दान तो दे सकता है लेकिन इसे अपनी जिम्मेदारी नहीं मान सकता। यह जिम्मेदारी तो सरकारों की है जिससे वे मुंह मोड़ रही हैं। सरकारें अब सैद्धांतिक रूप से ही जनता की प्रतिनिधि रह गई हैं, व्यावहारिक रूप से वे कारपोरेट की प्रतिनिधि मात्र रह गई हैं। कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना का एक पालतू सा कम्पोनेंट...'सरकार '। इतिहास के किसी दौर में सत्ताएं इस कदर पूंजी संचालित नहीं रहीं।

भारत इस मायने में अनूठा है कि यहां उच्च शिक्षा के निजी संस्थान संचालित करने वालों की नैतिकता निम्नतम स्तरों पर है। आप यहां के निजी संस्थानों की तुलना यूरोप या अमेरिका से नहीं कर सकते। वहां फीस स्ट्रक्चर चाहे जो हो, शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाता। जबकि, भारत के अधिकतर निजी संस्थानों में शैक्षणिक गुणवत्ता पर ध्यान देने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं की जाती। ये डिग्री और डिप्लोमा बेचने वाली दुकानें हैं, जिनसे निकल कर अधिकांश डिग्रीधारी रोजगार के बाजार में किसी लायक नहीं पाए जाते।

'एसोचैम' (Associated Chambers of Commerce and Industry of India) जब यह घोषित करता है कि भारत के 75 प्रतिशत से अधिक तकनीकी ग्रेजुएट्स रोजगार के लायक नहीं, तो यह विश्लेषित करने की जरूरत है कि इनमें से कितने ग्रेजुएट्स निजी संस्थानों से निकले हैं और कितने सरकारी संस्थानों से। आश्चर्य नहीं कि इन 'बेकार' ग्रेजुएट्स में अधिकतर निजी संस्थानों से ही निकले हुए युवा हैं। तरह तरह की मनमानी फीस वसूल कर ये निजी संस्थान जब युवाओं को बिना गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के, महज कागजी डिग्री देकर रोजगार के बाजार में एड़ियां रगड़ने को भेजते हैं तो उन संस्थानों की कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जाती। हर तरह से चले जाते हैं वे युवा, जिन्हें "राष्ट्र का भविष्य" कहते नेतागण थकते नहीं।

तो...देश और समाज के भविष्य को निजी पूंजी के हाथों शोषित और छले जाने को विवश करती यह व्यवस्था कैसे भविष्य का निर्माण कर रही है, इस पर विमर्श होना चाहिये। शिक्षा मनुष्यता और सभ्यता की विकास यात्रा का सबसे अहम सोपान है, लेकिन जब शिक्षा ही बाजार के हवाले कर दी जाए तो सभ्यता और मनुष्यता, दोनों का आहत होना तय है। बाजार मूलतः मनुष्यता विरोधी होता है क्योंकि मुनाफा की संस्कृति में मनुष्यता पनप ही नहीं सकती।

देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों को 'स्वायत्तता' देने का जो स्वांग रचा जा रहा है, वह और कुछ नहीं, उच्च शिक्षा को अधिकाधिक बाजार के हवाले करने की कारपोरेट हितैषी योजना ही है। अभी तो शुरुआत है। देखते जाइये, धीरे-धीरे पूरा तंत्र बाजार के हवाले होगा और देश की 90 प्रतिशत आबादी के लिये गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा महज सपना रह जाएगी।

कारपोरेट कम्पनियों में तब्दील विश्वविद्यालय न समाज के चिंतन को नई दिशा दे सकते हैं न आने वाली पीढ़ियों के बौद्धिक उत्कर्ष को नए धरातल दे सकते हैं। मुनाफा की संस्कृति में बंधती शिक्षा-संरचना समाज को नैतिक रूप से पतनोन्मुख ही करेगी।

इस भूल में न रहें कि अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध हावर्ड और येल जैसे विश्वविद्यालय या ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड जैसे संस्थान निजी संस्थान हैं। निश्चय ही ये सरकारी नहीं हैं, लेकिन इनकी संरचना ऐसी है कि इन्हें भारत के निजी विश्वविद्यालयों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इन्होंने अपने देश का मान पूरी दुनिया में ऊंचा किया है और शोध एवं चिंतन के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित किये हैं। शैक्षणिक उत्कृष्टता के मानकों को नए धरातल देते ये संस्थान मुनाफा की संस्कृति से तो कतई संचालित नहीं हैं। जाहिर है, उन संस्थानों का उदाहरण देकर हम भारत में उच्च शिक्षा को बाजार के हवाले करने का समर्थन नहीं कर सकते। जो कदम जन विरोधी हैं वे सर्वथा त्याज्य हैं और उनका सशक्त प्रतिरोध होना चाहिये। 
भारत के अधिकांश निजी संस्थान छात्रों को ग्राहक बनाते हैं और शिक्षकों को दलाल। शोषित दोनों होते हैं और मालामाल सिर्फ वह व्यवसायी होता है जिसकी पूंजी लगी है। हमारे देश के नियामक तंत्र के भ्रष्टाचार और खोखलेपन के जीते-जागते सबूत हजारों की संख्या में देश भर में फैले निजी शिक्षक प्रशिक्षण कालेज, मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज आदि हैं जो आवश्यक अर्हताएं पूरी किये बिना संचालित हैं और अधकचरे ग्रेजुएट्स की भरमार पैदा कर रहे हैं।

वैसे भी, हम अमेरिका और अन्य विकसित यूरोपीय देशों के उदाहरण पर नहीं चल सकते। वहां का जीवन स्तर, लोगों की आमदनी का स्तर, नियामक तंत्रों की सजगता आदि की कोई तुलना हमारे देश की स्थितियों से नहीं की जा सकती। 
हम भारत हैं और हमें भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ही चलना होगा। वरना...विश्वगुरु बनने का भ्रामक सपना देखते देखते हम बौद्धिक और नैतिक रूप से पतनोन्मुख पीढ़ियों का अभिशाप झेलने को विवश होंगे।
साभार : 

https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/1720124231428816

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