Hemant Kumar Jha
20-07-2018सामाजिक न्याय के संघर्ष का राजनीतिक पराभव और इसके नेताओं की प्रतिबद्धताओं का नैतिक विचलन 20वीं और 21वीं सदी के संक्रमण काल की ऐसी उल्लेखनीय घटना है जिसे इतिहास रेखांकित करेगा। इस पराभव और विचलन ने बहुसंख्यक आबादी के संघर्षों को दिशाहीन कर दिया और ऐसी सत्ता-संरचना को मजबूती दी जिसके खिलाफ लड़ने के लिए ही इसका उद्भव हुआ था।
1990 के दशक में सामाजिक न्याय की लड़ाई एक नए दौर में पहुंची और सत्ता की राजनीति में दलित-पिछड़ों की बढ़ती भागीदारी ने एक नई राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया। निस्संदेह...यह नए भारत का उदय था।
जातीय धरातल पर राजनीतिक शक्तियों का यह हस्तांतरण भारतीय सामाजिक इतिहास का बेहद महत्वपूर्ण अध्याय साबित हुआ। कई नेता उभरे जो खुदमुख्तार और कद्दावर राजनीतिक शख्सियत बन गए और जिनके हर भाषण में सामाजिक न्याय के लिये प्रतिबद्धता की गूंज सुनाई देती रही। यही प्रतिबद्धता उनकी राजनीतिक पूंजी भी बनी और उनके समर्थकों के एकनिष्ठ समर्थन का आधार भी। लेकिन, देश और दुनिया के बदलते हालातों ने इन नेताओं के वैचारिक भटकाव और अपने समर्थक समूहों के व्यापक हितों के प्रति विचलन को उजागर करने में अधिक देर नहीं लगाई। राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर हावी होती कारपोरेट संस्कृति के सामने ये नेता मजबूती के साथ खड़े तो नहीं ही रह सके, बल्कि नीति नियामक संरचना के समक्ष अनेक मायनों में इन्होंने आत्मसमर्पण भी कर दिया। अंततः सामाजिक न्याय का ऐतिहासिक संघर्ष अस्मितावादी राजनीति के दायरे में सीमित होकर रह गया और इस संघर्ष के अग्रणी योद्धाओं को सत्ता-संरचना ने अपने में समाविष्ट कर इनके तेज को हर लिया।
1990 के दशक में भारत में दो बातें एक साथ शुरू हुईं। आर्थिक सुधारों के नाम पर व्यवस्था के कारपोरेटीकरण की शुरुआत और दूसरी, सामाजिक न्याय की शक्तियों का बढ़ता राजनीतिक प्रभाव। ये दोनों प्रवृत्तियां सैद्धांतिक तौर पर एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं और एक के सशक्त होने पर दूसरे का प्रभावहीन होना तय था। दिलचस्प यह कि दोनों को ही "युग की मांग" भी कहा गया।
नवउदारवादी सत्ता-संरचना की विशेषता है कि यह अत्यंत लचीली होती है और प्रतिरोधी शक्तियों को निस्तेज कर आत्मसात करने में इसके लिये न जाति मायने रखती है न धर्म, न कोई सामाजिक सोपान। यही वह सत्ता-संरचना है जो वास्तविक अर्थों में धर्म और जाति निरपेक्ष है। धर्म और जाति इनके लिये टूल हैं और राजनीतिक धरातल पर धार्मिक या जातीय मसीहाओं को इस्तेमाल कर लेने में इन्हें महारत हासिल है।
दशक बीतते-बीतते सामाजिक न्याय का संघर्ष अपनी वैचारिकता खोने लगा और अंततः जातीय कोलाहल में बदल गया। जितनी जातियां उतने नेता। हर जाति के अलग-अलग नेता, जो असल में नेता नहीं वोटों के ठेकेदार बने और बड़ी तबीयत से नवउदारवादी सत्ता-संरचना ने इन ठेकदारों के माध्यम से दलित-पिछड़ा राजनीति को नियंत्रित करना शुरु किया।
सामाजिक न्याय के योद्धाओं का सत्ता-संरचना में फिट हो जाना इस संघर्ष की धार के कुंद हो जाने का सबसे बड़ा कारण बना। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि संघर्ष को वैकल्पिक नेता नहीं मिले। कोई भी संघर्ष जब विचारधारा आधारित होता है तो एक नेता के विचलन के बाद उसका स्थान दूसरा ले लेता है और मुहिम जारी रहती है। लेकिन, यह संघर्ष बहुत हदों तक अपनी वैचारिक जमीन खो चुका था। इसके नेता "राजनीतिक बाबा" में बदल चुके थे और उनके हित उनके समर्थक समूहों के हितों के साथ न होकर सत्ता-संरचना के हितों के साथ जुड़ गए। अपने "बाबाडम" को निष्कंटक बनाए रखने के लिये उन्होंने अपने आसपास परिवार और अन्य खास लोगों का सुरक्षा घेरा बनाया और निर्णय प्रक्रिया को इसी घेरे में कैद कर लिया।
नतीजा...सामाजिक न्याय से जुड़े मौलिक सवाल नेपथ्य में जाने लगे और कृत्रिम सवालों को कोलाहल का रूप देकर भ्रम की संरचना निर्मित की जाने लगी।
भूमि सुधार के बिना सामाजिक न्याय की बातें करना बेमानी है। लेकिन, इस मुद्दे को योजनाबद्ध तरीके से कभी उभरने ही नहीं दिया गया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के 52 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। ये लोग कौन हैं और इतिहास की किन तर्कहीन प्रक्रियाओं ने इन्हें भूमिहीन रहने दिया, ये सवाल सामाजिक न्याय के संघर्ष के घोषणापत्र में सबसे पहला होना चाहिए था।
शिक्षा के निजीकरण का उग्र विरोध किये बिना उन लोगों के हितों की सुरक्षा की ही नहीं जा सकती जो सामाजिक न्याय के दायरे में हैं। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा तक बहुसंख्यक आबादी की पहुंच को अवरुध्द कर उन्हें हाशिये पर छोड़ देना प्रभु वर्ग की ऐसी सुनियोजित साजिश है जिसके खिलाफ राजनीतिक मैदानों में कहीं कोई प्रभावी आवाज नहीं सुनाई दे रही। यह सामाजिक न्याय के संघर्ष की प्रत्यक्ष पराजय है। हजारों वर्षों से शिक्षा तंत्र की मुख्यधारा से बहिष्कृत समुदायों को लोकतांत्रिक भारत में अवसरों की समानता के संवैधानिक अधिकारों के तहत जो अवसर मिल सकते थे , उन्हें बेदर्दी से खुलेआम छीना जा रहा है और मान लिया गया है कि यही उभरते हुए नए भारत का स्वीकृत कंसेप्ट है।
संसाधनों के निवेश की प्राथमिकताएं, स्वास्थ्य संबंधी नीतियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिनकी ओर व्यवस्था के बढ़ते कदम सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का प्रत्यक्ष हनन करते हैं।
लेकिन... जिस संघर्ष की उठती हुई लपटें सत्ता-संरचना के निर्वात शीत और स्याह अंधेरे में गुम होती जाएं उसकी तपिश को तो अप्रभावी हो ही जाना है।
निर्मम और स्वार्थी कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना को सबसे प्रखर चुनौती भारत का दलित-पिछड़ा समुदाय ही दे सकता था। लेकिन...एक संघर्ष यात्रा आधी राह में ही भटक चुकी है। इसने प्रतीक के कुछ चमकते कंगूरे तो खड़े किए, लेकिन सतह के घने होते अंधेरे से जूझने में नाकाम रही।
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24-07-2018 |
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