Tuesday, 13 August 2019

नवउदारवादी शक्तियां मन्दिरवादी शक्तियों द्वारा अपना खेल खेल रही हैं ------- हेमंत कुमार झा

Hemant Kumar Jha
18 hrs
क्या 90 के दशक से शुरू हुआ मंडल आंदोलन अपनी मौत मर चुका है? क्या इस आंदोलन में वह ऊर्जा बाकी नहीं रही जो नए दौर के युवाओं को खुद से जोड़ सके? क्या इसके बरक्स खड़ा हुआ मंदिर आंदोलन इसे लील गया?

कभी राजनीति को गतिशीलता देने वाला मंडल आंदोलन आखिर स्वयं ही गतिहीन क्यों लग रहा?

ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब ढूंढने की कोशिश में हमें उत्तर भारत की राजनीति की पतन गाथा के अनेक सूत्र मिलते हैं।

दरअसल, नेतृत्व का चरित्र आंदोलन की दशा और दिशा के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नेतृत्व के चरित्र का दोहरापन और उसकी वैचारिक दिशाहीनता आंदोलन को न सिर्फ कमजोर करती है बल्कि किसी घुन की तरह उसे खोखला कर देती है।

वरना...यह एक ऐसा आंदोलन था जिसकी वैचारिकता में भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति के प्रतिगामी मूल्यों से जूझने की ऊर्जा तो थी ही, सर्वग्रासी नवउदारवाद की नकारात्मकताओं से संघर्ष करने की क्षमता भी थी।

यद्यपि, इसकी शुरुआत मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद हुए राजनीतिक-सामाजिक उथल-पुथल से हुई, लेकिन अपनी व्यापकता में यह आंदोलन उन सिफारिशों से भी आगे की चीज था।

एक दौर आया...जब राजनीतिक और सांस्कृतिक उपेक्षा झेल रहे लोग मुखर होने लगे। वे अपनी मुखरता के साथ सड़कों पर निकलने लगे और सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उनके पास इस बार ऐसा आत्मविश्वास था जो अतीत में कभी नहीं था। जातीय पूर्वाग्रहों, समाज और राजनीति पर सामंती जकड़ के खिलाफ इतना मजबूत विरोध अतीत में कब सामने आया था यह इतिहासकार ही बता सकते हैं, सामान्य जन की स्मृति में तो ऐसा कोई अन्य उदाहरण शायद ही हो।

यद्यपि प्रत्यक्ष मुद्दा यही था, लेकिन यह आंदोलन महज सरकारी नौकरियों या आरक्षण तक सीमित नहीं रह गया था। यह सामाजिक रूप से वंचित जमातों का उस द्वंद्व में उतरना था जिसमें सामने ऐसी शक्तियां थीं जिनके साथ श्रेष्ठता बोध का अहंकार था, जो अवसरों पर अपने एकाधिकार को अपने श्रेष्ठता बोध से वैधता देते थे और जिनके साथ पारंपरिक रूप से संरचनात्मक शक्ति थी।

इतिहास 90 के दशक के इस द्वंद्व को भविष्य में बहुत गरिमा की नजर से देखने वाला है, भले ही व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से शिक्षा ले रहे आज के युवा इसे समझने को भी तैयार न हों।

जो पीढ़ी स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में नहीं जानती, उससे जुड़े मूल्यों को नहीं जानती वह मंडल आंदोलन के मूल्यों को समझने से इन्कार करे तो इसमें आश्चर्य कैसा?

मंदिर आंदोलन, जैसा कि अक्सर कहा जाता है, हिन्दू समुदाय को एकजुट करने का एक उपक्रम था क्योंकि, जैसा कि वे कहते हैं, मंडल आंदोलन के कारण समाज में जातीय विभाजन और विद्वेष बढ़ता जा रहा था।

जातीय आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ जब लोग आवाज उठाएंगे, अपने नैसर्गिक अधिकारों के लिये एकजुट होंगे और परंपरा से शक्तिसम्पन्न समुदायों से उनका द्वंद्व सतह पर आएगा तो माहौल में शहनाई की मधुर ध्वनि तो नहीं ही गूंजेगी। जो कोलाहल मचेगा उसमें कर्कशता की उपस्थिति स्वाभाविक है।

मंदिर आंदोलन को न सिर्फ सामंती शक्तियों का पुरजोर समर्थन मिला, जो इस उत्तर औद्योगिक दौर में भी खास कर गांवों में प्रभावी रही हैं, बल्कि उनके साथ वे नवउदारवादी शक्तियां भी एकजुट हो गईं जिनके व्यापक उद्देश्यों में मंदिर आदि का कोई अस्तित्व नहीं था।

नवउदारवाद के ध्वजवाहकों के लिये सांस्कृतिक श्रेष्ठता और हीनता की भावनाओं से भरा विभाजित समाज बेहद मुफीद रहता है जबकि समानता के लिये संघर्ष करने वाली शक्तियां उन्हें अपना दुश्मन नजर आती हैं।

समानता के लिये संघर्ष जब आगे बढ़ता है तो यह सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण कर आर्थिक मुद्दों पर भी अपनी राय व्यक्त करने लगता है। जाहिर है, मुक्त आर्थिकी के गलियारे से आती शोषक शक्तियां और उभरते नव ब्राह्मणों के लिये मंडल आंदोलन एक कांटा था जिसे निकालना ही था। तो...इनके लिये मंदिर आंदोलन एक नाव बन गया और अन्य सामाजिक-आर्थिक आंदोलन उस नाव में छेद के समान थे जिन्हें हर हाल में बंद करना था।

'डायनेस्टी' राजतंत्र की अनिवार्यता रही हो, लेकिन आंदोलन से निकल कर आकार लेती राजनीतिक पार्टियों के लिये यह अभिशाप साबित हो सकती है क्योंकि यह आंदोलन की ऊर्जा को कुंद करती है, उसके तेज को हर लेती है।

आंदोलनों की विचार यात्रा पारिवारिक विरासतों के नीचे दब कर जब अपना सैद्धांतिक तेज खो देती है तो बच जाते हैं बाढ़ के रेला के गुजरने के बाद सिर्फ रेत के निष्प्राण ढूह... जो भले ही कितने भी ऊंचे हों, उनमें वह प्रेरक शक्ति नहीं होती जो मार्गों को आलोकित कर सके, नए मार्गों का अन्वेषण कर सके।

मंडल आंदोलन, जिसे महज संयोगवश यह नाम मिला क्योंकि मंडल आयोग के लागू होने के बाद कोलाहल भरे माहौल में ही यह परवान चढ़ा था, बाहरी तौर पर जातीयता से ग्रस्त नजर आता था। लेकिन, अगर यह अपनी नैसर्गिक विचार यात्रा पर चलता रहता तो समय के साथ इस पर से जातीयता का रंग उतर जाता और गरीब सवर्ण युवाओं का साथ और समर्थन भी इसे मिलता।

उत्तर भारत में वामपंथी दलों की जमीन इस आंदोलन के कारण यूं ही नहीं खिसक गई। यह कहना मुद्दे को सरलीकृत करना होगा कि महज जातीय विभाजन के कारण वामदलों के वोट मंडल आधारित पार्टियों को मिलने लगे।

दरअसल, अपने प्रारंभिक दौर में मंडलवादी पार्टियों की वैचारिकी में नवउदारवाद के खिलाफ संघर्ष की चेतना के दर्शन होते थे। यह उत्तर भारत के वामपंथ से आगे की राजनीतिक यात्रा थी जिसमें जाति का नाम लेकर सत्य से जूझने का मनोबल था। कोई कृत्रिमता नहीं, कोई छद्म नहीं। यही सहजता एक दिन उन्हें तमाम वंचित समुदायों का नेतृत्व प्रदान कर सकती थीं क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण युवाओं का बड़ा वर्ग तब भी नेतृत्व विहीन था, आज भी नेतृत्व विहीन है।

लेकिन, विचार सम्पन्न आंदोलन से निकली पार्टियों ने सबसे पहले जो चीज खोई वह थी वैचारिकी...जो उनकी स्वीकार्यता को व्यापकता और गहराई दे सकती थी।

मन्दिरवादी शक्तियां आज राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं और उनकी आड़ में नवउदारवादी शक्तियां खुल कर अपना खेल खेल रही हैं। जिनके हाथों की तख्तियों पर शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के नारे लिखे होने थे, उन वंचित समुदाय के युवाओं के हाथों में त्रिशूल और तलवार हैं जिसका प्रदर्शन रामनवमी और शिवरात्रि के जुलूसों में करके वे मुदित हैं। जिनके कंधों पर प्रतिगामी सांस्कृतिक मूल्यों की लाशें होनी थी, जिन्हें किसी बियाबान में फेंक कर उन्हें उनसे मुक्त होना था, उनके कंधों पर कांवड़ हैं और भांग, गांजा आदि के नशे में धुत हो वे कल्पित परलोक सुधारने को व्यग्र हैं...इहलोक की आपराधिक उपेक्षा करते हुए।

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