Hemant Kumar Jha
समस्या यह है कि भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिससे पार्टी को प्रेरणा और वैचारिक ऊर्जा मिलती है, अपने आर्थिक चिंतन के लिये नहीं, बल्कि अपने विशिष्ट सांस्कृतिक चिंतन के लिये जाना जाता है।1925 में जब संघ की स्थापना हुई थी तो इसके प्रमुख लक्ष्यों में सांस्कृतिक मुद्दे ही थे। वह सांस्कृतिक कोलाहल का दौर भी था और संघ के घोषित लक्ष्य बहुत सारे लोगों को आकर्षित करते थे।
1951 में जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई तो इसे आरएसएस का राजनीतिक फ्रंट माना गया। लोगों से संवाद कायम करने में जनसंघ भी सांस्कृतिक पहलुओं पर ही अधिक जोर देता था। इसने संसद से सड़क तक इन मुद्दों के लिये अनेक अभियान चलाए। यद्यपि, बतौर राजनीतिक दल, इसके चिंतन के अपने आर्थिक पक्ष भी थे लेकिन इन मुद्दों पर कभी भी इसने प्रभावी बहसों का सूत्रपात नहीं किया। इसकी आर्थिक सोच की एक स्पष्ट झलक तब मिली जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स उन्मूलन का इसने मुखर विरोध किया था। राजे-महाराजाओं और जमींदारों की पार्टी कहे जाने वाले जनसंघ के लिये यह बहुत अस्वाभाविक भी नहीं था।
समान नागरिक संहिता, धारा 370 आदि तो इसके एजेंडा में थे ही, अखंड भारत का स्वप्न, जो संघ की आंखों में तैरता था, जनसंघ के नेताओं के लिये भी एक आकर्षक सपना था। अयोध्या विवाद में भी इसका अपना एक पक्ष था जो बाद के दशकों में इसके उत्थान में प्रभावी साबित हुआ।
अपने सांस्कृतिक पक्ष की वजह से जनसंघ को अन्य राजनीतिक दलों से अक्सर राजनीतिक अछूत का व्यवहार झेलना पड़ता था। यद्यपि, 60 के दशक में कुछेक राज्य सरकारों में इसे शामिल होने का मौका दिया गया था।
पहली बार इसे व्यापक वैधता मिली जयप्रकाश आंदोलन के दौरान, जब खुद जेपी ने इसे सर्टिफिकेट दिया और जनता पार्टी में शामिल किया।
संघ के राजनीतिक फ्रंट की स्वीकार्यता के लिये यह महत्वपूर्ण था कि जेपी ने इसकी अनुशंसा की थी, मोरारजी ने इसके सदस्यों को अपनी सरकार में शामिल किया था और चरण सिंह तथा चंद्रशेखर सरीखे नेता इसके सहयात्री बन गए थे।
अंतर्विरोध सामने आने लगे, जो आने ही थे। अंततः जनता पार्टी टूटी और जनसंघ के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ।
मूलतः सांस्कृतिक उद्देश्यों से परिचालित राजनीतिक दल को न्यूनतम औपचारिकताओं के निर्वहन के लिये अपना आर्थिक पक्ष भी रखना ही था।
तो..."गांधीवादी समाजवाद" के रूप में भाजपा ने अपना आर्थिक चिंतन प्रस्तुत किया। यद्यपि, 1980 के दशक में इस चिंतन की प्रासंगिकता और भाजपा के साथ इसके सामंजस्य पर बहुत सारे लोगों को संदेह था।
लेकिन, अटल जी ने इन विरोधाभासों को अपनी वक्तृता से झांप दिया। इस तरह, गांधी के साथ अपने को जोड़ कर स्वीकार्यता बढाने का यह एक उपक्रम मात्र था और भाजपा कभी अपने इस घोषित आर्थिक दर्शन के प्रति अधिक आग्रही नहीं दिखी।
लोकसभा में 2 सदस्यों से सत्ता तक के भाजपा के सफर में उसके आर्थिक चिंतन का कोई योगदान नहीं था। सांस्कृतिक मुद्दों को लेकर ही यह जनता के पास गई और इस दौरान इसने जिन बहसों को जन्म दिया उनका लोगों की शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार आदि से कोई संबंध नहीं था।
जैसा कि इतिहास है, अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और उसके बाद एक पूरे कार्यकाल के लिये आई।
कैसे आई...इसके पीछे अनेक कारक थे। हिन्दी पट्टी के सवर्ण मध्य वर्ग का भाजपा के प्रति बढ़ते आकर्षण की पृष्ठभूमि में कांग्रेस के क्षय की भूमिका तो थी ही, दुनिया भर में आर्थिक उदारवाद के साथ राइट विंग की जुगलबंदी की भी अपनी भूमिका थी। यह एक समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय है कि हिन्दी पट्टी का सवर्ण मध्य वर्ग किस तरह आर्थिक मुद्दों की उपेक्षा कर सांस्कृतिक मुद्दों के प्रति आग्रही होता गया और इन आग्रहों ने किस तरह इस पूरे क्षेत्र में भाजपा की आधारभूमि को विस्तार दिया।
बहरहाल, सरकार बनी तो वास्तविकताएं सामने थीं। आर्थिक मुद्दों पर भाजपा को क्लियर स्टैंड लेना ही था जो इसने लिया भी।
गांधीवादी समाजवाद कहीं नेपथ्य में रह गया और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने मुक्त आर्थिकी की राह पर पूर्ववर्त्ती कांग्रेस सरकार से भी तीव्र गति से कदम बढ़ाने शुरू किये। पहली बार विनिवेश मंत्रालय का गठन किया गया और सरकारी/सार्वजनिक उपक्रमों की बोलियां लगने लगीं।
कामकाजी वर्ग के लिये लोकप्रिय और कवि हृदय प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा तोहफा यह आया कि सरकारी नौकरियों में पेंशन का खात्मा हो गया।
अटल सरकार की आर्थिक नीतियों पर भाजपा के मातृ संगठन की कौन सी वैचारिक छाया थी, यह कभी समझ में नहीं आया।
हां, यह जरूर था कि जब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार विदेशी पूंजी के लिये रास्तों को आसान बनाती जा रही थी तो 'स्वदेशी जागरण मंच' नाम का संघ का एक आनुषंगिक संगठन 'स्वदेशी-स्वदेशी' की रट लगाते हुए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर रहा था।
वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में मुक्त बाजार के अभियान के शोर में स्वदेशी का राग अप्रासंगिक तो था ही, हास्यास्पद भी था।
यही दौर था जब संघ के आर्थिक चिंतन की सीमाएं उजागर होने लगी क्योंकि उसका मानस पुत्र मुक्त बाजार का ध्वजवाहक बन गया था। विकास का 'कारपोरेट मॉडल' ही उसका अभीष्ट था और अपने मातृ संगठन की कोई प्रेरणा उसके साथ नहीं थी।
2004 में एनडीए की हार का एक प्रमुख कारण उनके 'इंडिया शाइनिंग' के नारे का पिटना ही था। यह इस बात का संकेत था कि उनकी आर्थिक नीतियां जनता की कसौटियों पर खरी नहीं उतरीं क्योंकि इसने समाज के विशिष्ट वर्ग की समृद्धि बढाने में तो योगदान दिया किन्तु आमलोगों की बेहतरी के लिये कुछ खास नहीं हो सका।
2014 में भाजपा की जीत की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी का आकर्षण तो मुख्य था ही, यूपीए सरकार की बदनामियों और नाकामियों की भी इसमें बड़ी भूमिका थी।
पहली बार अपने दम पर सत्ता में आया संघ का राजनीतिक फ्रंट सांस्कृतिक मुद्दों पर तो उससे प्रेरणा पाता रहा, लेकिन आर्थिक नीतियों में कारपोरेट हितैषी बनने के सिवा उसके पास अन्य कोई रास्ता नहीं था। मोदी सरकार के आर्थिक चिंतन में कोई मौलिकता नहीं थी। कारपोरेट ने उन्हें लाने में महती भूमिका निभाई थी और उनके पूरे कार्यकाल में वह अपनी उस भूमिका की कीमत वसूलता रहा।
देश का आर्थिक स्वास्थ्य खराब होना ही था और यह नजर भी आना था, अगर हम देश की कसौटी पर सिर्फ उसके विदेशी मुद्रा भंडार या जीडीपी आदि के प्रायोजित आंकड़ों को न रख कर बेरोजगारों की विशाल संख्या को भी रखें, गरीबों की बड़ी आबादी को भी रखें, उनकी जरूरतों को भी रखें।
इसमें क्या आश्चर्य कि 2019 के आम चुनाव आते-आते देश के तमाम ज्वलंत आर्थिक मुद्दे नेपथ्य में चले गए और वाया पुलवामा, वाया बालाकोट, वाया पाकिस्तान भाजपा का राष्ट्रवाद मुख्य राजनीतिक मुद्दा बन गया।
संघ को और मोदी-शाह की जोड़ी को श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपनी सफल रणनीतियों से और अथक परिश्रम से विमर्शों का रुख उस ओर मोड़ने में सफलता हासिल की जहां आर्थिक सवालों की कोई अहमियत नहीं रह गई और बेरोजगारी की त्रासद मार झेलता युवा वर्ग राष्ट्रवाद के बुखार से तपने लगा।
2019 के चुनाव परिणाम भारतीय राजनीति की पतन गाथा के महत्वपूर्ण अध्यायों में शुमार किये जाएंगे जिनमें अर्थव्यवस्था की ऐसी- तैसी कर चुका प्रधानमंत्री पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांगते देखा गया, सत्ताधारी दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बालाकोट की उस घटना के हताहतों के नाम पर वोट मांगते देखा गया जिस घटना के परिणामों की विश्वसनीयता ही संदिग्ध थी। यूपी-बिहार जैसे मैदानों में विपक्ष इतना कल्पनाशून्य और नाकारा नजर आया जिसके लिये जातीय समीकरण ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग था।
बहरहाल, पहले से भी प्रचंड बहुमत से भाजपा जीती। यह संघ की दीर्घकालीन योजनाओं का सुचिंतित परिणाम तो था ही, मोदी-शाह की जोड़ी के उत्साह भरे राजनीतिक अभियान और अथक परिश्रम का नतीजा भी था। इस श्रेय से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता।
लेकिन, अर्थव्यवस्था तो व्यावहारिक चीज है और ठोस यथार्थ पर ही इसकी चुनौतियों से जुझा जा सकता है। तो...यथार्थ की इस भूमि पर सरकार की असफलता अब बड़े संकट का रूप ले चुकी है।
जब भारत के गृह मंत्री कश्मीर के लिए जान देने की बात कर रहे हैं, रक्षा मंत्री पीओके के सिवा कुछ और सुनने के मूड में अब नहीं रहने की घोषणाएं कर रहे हैं, प्रधानमंत्री कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को साधने में व्यस्त हैं, खबरें आ रही हैं कि ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल उद्योग से लेकर विनिर्माण सहित तमाम ऐसे क्षेत्रों में मंदी पांव पसार रही है जो बड़ी संख्या में रोजगार देते हैं। बैंकिंग सेक्टर में न सिर्फ रोजगार के अवसर सिकुड़ रहे हैं बल्कि यह स्वयं भी रुग्ण हो चुका है। दुनिया के अनेक बड़े अर्थशास्त्रियों के भारत संबंधी बयान डराने वाले हैं और हालात के निरंतर बदतर होते जाने की खबरों से सोशल मीडिया गूंज रहा है।
लेकिन, इस देश के सिर्फ कूढ़मगज लोग ही नहीं, पढ़े-लिखे लोगों का एक बड़ा वर्ग भी इन सच्चाइयों से मुंह मोड़ कर कश्मीर में मिली 'जीत' को सेलिब्रेट कर रहे हैं और अब उनकी आंखें अयोध्या की ओर देख रही हैं।
भाजपा ने कश्मीर और अयोध्या या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर सदैव अपनी स्पष्ट राय रखी और आज अपनी सत्ता की दोपहरी में वह जो कर रही है उसका उसे पूरा राजनीतिक हक है।
लेकिन, सरकारों का मुख्य काम जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को हल करना है, उनके जीवन स्तर में बेहतरी लाना है, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में प्रभावी भूमिकाएं निभाना है।
लेकिन, लोगों ने इन सब कामों के लिये तो मोदी जी को वोट दिया ही नहीं था। जिस भावनात्मक रौ में लोगों ने उन्हें वोट दिया उसके परिणामों के लिये भी तैयार रहना होगा।
पता नहीं, पाकिस्तान को मोदी जी कितने सबक सिखा पाएंगे, लेकिन जो सबक इस देश के बेरोजगारों को अब सीखना है, बड़ी संख्या में रोजगार गंवा रहे कामगारों को सीखना है वह बहुत मार्मिक है।
नौकरी गंवा कर घर लौट रहे लाखों पिताओं के छोटे-छोटे बच्चों को तो यह भी पता नहीं कि कितनी बड़ी विभीषिका से उनका परिवार दो चार होने वाला है और यह क्यों हो रहा है। वे जब बड़े होंगे तो इस दौर का बेहतर विश्लेषण कर सकेंगे कि उनके पिता की पीढ़ी ने ऐसी शक्तियों को सत्ता सौंपी थी जिनके पास कोई सार्थक आर्थिक चिंतन था ही नहीं जो उनके बचपन को और उनके भविष्य को संवार सकता।
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