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मैगसायसाय से बदल नहीं गई मेरी दुनिया
सप्ताह का इंटरव्यू
रवीश कुमार
न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये बहसें वही चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं
आप उनसे सहमत हो सकते हैं, आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। शैली और तेवर ही नहीं, उनका कंटेंट भी उन्हें और उनकी पत्रकारिता को खास बनाता है। और अब तो वह मैगसायसाय पुरस्कार हासिल करने वाले हिंदी के पहले पत्रकार हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं रवीश कुमार की। तीखा विरोध झेलकर और कठिन अवरोधों से गुजर कर मैगसायसाय पुरस्कार समिति के शब्दों में ‘बेजुबानों की आवाज’ बने रवीश कुमार से बातचीत की है प्रणव प्रियदर्शी ने। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:
• पहले तो आपको बहुत बधाई। मैगसायसाय पुरस्कार पाकर लौटने के बाद जब आप दोबारा काम में जुटे तो आसपास की दुनिया में, कामकाज के माहौल में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं/
शुक्रिया। कोई बदलाव नहीं है। वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। चूंकि संसाधन नहीं हैं तो बहुत सारे मैसेज यूं ही पड़े रह जाते हैं, हम उन पर काम नहीं कर पाते। मैसेज तो बहुत सारे आते हैं। ट्रोल करने वालों ने मेरा नंबर गांव-गांव पहुंचा दिया है। अब लोग उसी नंबर को अपना हथियार बना रहे हैं। वे अपनी खबरें मुझे भेजते हैं, चाहते हैं कि मैं दिखाऊं। पूरे मीडिया का काम कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। फिर भी, जितना हो सकता है, उतना तो किया जाए, इसी सूत्र पर मैं चल रहा हूं।
• आपने हाल में बताया कि पुरस्कार के बाद जितने भी मैसेज मिले, वे सब पॉजिटिव थे। क्या इस पुरस्कार ने झटके में सबकी सोच बदल दी या पहले से ही उसमें अंतर आ रहा था धीरे-धीरे
दोनों ही बातें थीं। जो मुझे देखते हैं उनका एक बड़ा हिस्सा खुद भी दबाव में रहता है। रिश्तेदारों-मित्रों के नाराज होने का डर रहता है। तो ये सब साइलेंट थे और इन्हें पुरस्कार के सहारे अपनी बात कहने का मौका मिला। दूसरी बात, बहुत से लोग बदल भी रहे हैं। पुरस्कार से पहले भी मेरे पास ऐसे कई मैसेज आते थे कि मैं आपको गाली देता था पर अब लगता है कि मैंने गलती की, क्या आप मुझे माफ कर सकते हैं/ यह बड़ी सुंदर बात है। वे माफी नहीं मांगते, मेरे सामने स्वीकार नहीं करते तो भी उनका काम चल जाता।
• यह तो मनुष्य में विश्वास बढ़ाने वाली बात है...
बिल्कुल। यह ऐसी बात है जो साबित करती है कि लोग बदलते हैं। हमें अपना काम पूरी निष्ठा से करना चाहिए क्योंकि हमारे पाठकों और दर्शकों पर देर-सबेर उसका असर होता है।• एक बात आजकल नोट की जा रही है कि लोगों की सोच निर्धारित करने में सूचनाओं की भूमिका लगातार कम हो रही है। इसकी क्या वजह है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं/
सचाई यह है कि न्यूजरूम से सूचनाएं गायब ही हो गई हैं। वहां धारणाओं पर काम होता है। तो जो चीज रहेगी नहीं, उसकी भूमिका कैसे बढ़ेगी/ चैनलों में रिपोर्टर ही नहीं हैं। सो सूचनाओं तक पहुंचने की चिंता छोड़कर वे धारणाओं पर बहस कराते रहते हैं। यह भयावह है। सूचनाओं के बगैर नागरिक धर्म नहीं निभाया जा सकता। नागरिकों को ही इसकी चिंता करनी पड़ेगी।
• इस पोस्ट ट्रुथ दौर में खबरों के स्वरूप को लेकर भी बहस चल रही है। कहते हैं, खबर वही है जो लोग सुनना चाहते हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं/
दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं है जो न्यूज के बगैर रह सके। और न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये सारी बहसें वही लोग चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। उसकी एक ही परिभाषा हो सकती है, हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, वह अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है।
• सरकारें तो हमेशा से पत्रकारिता के सामने एक चुनौती के रूप में रही हैं। आज सत्ता तंत्र से लड़ना पत्रकारिता के लिए ज्यादा मुश्किल क्यों साबित हो रहा है/
देखिए, पिछली सरकारों का जिक्र करके आज की सरकार को रियायत नहीं दी जा सकती। कभी ऐसा नहीं था कि सभी चैनल एक तरह की बहस चला रहे हैं। समझना होगा कि यह संपूर्ण नियंत्रण का दौर है। आपात काल की बात हम करते हैं, पर आपात काल में जनता सरकार के साथ नहीं थी, वह मीडिया के साथ थी। इस बार जनता के भी एक हिस्से को मीडिया के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है।
• जब आप पत्रकारिता में आए थे तब क्या लक्ष्य थे आपके सामने/
कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था। नौकरी मिल जाए, मैं अच्छा लिखूं, मेरा लिखा पसंद किया जाए…... यही बातें थीं। पर रिपोर्टिंग के दौरान जब भी बाहर जाता तो लोग बड़ी उम्मीद से देखते। देखता, अनजान आदमी मेरे लिए कुर्सी ला रहा है, कोई भाग कर पानी ला रहा है। मन में सवाल उठता कि यह आदमी मुझे जानता भी नहीं है क्यों मेरे लिए इतना कर रहा है। धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सरकार से, प्रशासन से इसे कोई उम्मीद नहीं है। जानता है कि सत्ता का तंत्र मेरे बारे में नहीं सोचेगा, पर पत्रकार सोचेगा क्योंकि वह हमारे बीच का है, हमारा आदमी है। लोगों की ये भावनाएं, उनकी उम्मीदें मुझे जिम्मेदार बनाती गईं।
• अब आगे का क्या लक्ष्य है/
आगे के लिए भी वही है नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे और मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे…, बस।
http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html |
मैगसायसाय से बदल नहीं गई मेरी दुनिया
सप्ताह का इंटरव्यू
रवीश कुमार
न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये बहसें वही चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं
आप उनसे सहमत हो सकते हैं, आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। शैली और तेवर ही नहीं, उनका कंटेंट भी उन्हें और उनकी पत्रकारिता को खास बनाता है। और अब तो वह मैगसायसाय पुरस्कार हासिल करने वाले हिंदी के पहले पत्रकार हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं रवीश कुमार की। तीखा विरोध झेलकर और कठिन अवरोधों से गुजर कर मैगसायसाय पुरस्कार समिति के शब्दों में ‘बेजुबानों की आवाज’ बने रवीश कुमार से बातचीत की है प्रणव प्रियदर्शी ने। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:
• पहले तो आपको बहुत बधाई। मैगसायसाय पुरस्कार पाकर लौटने के बाद जब आप दोबारा काम में जुटे तो आसपास की दुनिया में, कामकाज के माहौल में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं/
शुक्रिया। कोई बदलाव नहीं है। वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। चूंकि संसाधन नहीं हैं तो बहुत सारे मैसेज यूं ही पड़े रह जाते हैं, हम उन पर काम नहीं कर पाते। मैसेज तो बहुत सारे आते हैं। ट्रोल करने वालों ने मेरा नंबर गांव-गांव पहुंचा दिया है। अब लोग उसी नंबर को अपना हथियार बना रहे हैं। वे अपनी खबरें मुझे भेजते हैं, चाहते हैं कि मैं दिखाऊं। पूरे मीडिया का काम कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। फिर भी, जितना हो सकता है, उतना तो किया जाए, इसी सूत्र पर मैं चल रहा हूं।
• आपने हाल में बताया कि पुरस्कार के बाद जितने भी मैसेज मिले, वे सब पॉजिटिव थे। क्या इस पुरस्कार ने झटके में सबकी सोच बदल दी या पहले से ही उसमें अंतर आ रहा था धीरे-धीरे
दोनों ही बातें थीं। जो मुझे देखते हैं उनका एक बड़ा हिस्सा खुद भी दबाव में रहता है। रिश्तेदारों-मित्रों के नाराज होने का डर रहता है। तो ये सब साइलेंट थे और इन्हें पुरस्कार के सहारे अपनी बात कहने का मौका मिला। दूसरी बात, बहुत से लोग बदल भी रहे हैं। पुरस्कार से पहले भी मेरे पास ऐसे कई मैसेज आते थे कि मैं आपको गाली देता था पर अब लगता है कि मैंने गलती की, क्या आप मुझे माफ कर सकते हैं/ यह बड़ी सुंदर बात है। वे माफी नहीं मांगते, मेरे सामने स्वीकार नहीं करते तो भी उनका काम चल जाता।
• यह तो मनुष्य में विश्वास बढ़ाने वाली बात है...
बिल्कुल। यह ऐसी बात है जो साबित करती है कि लोग बदलते हैं। हमें अपना काम पूरी निष्ठा से करना चाहिए क्योंकि हमारे पाठकों और दर्शकों पर देर-सबेर उसका असर होता है।• एक बात आजकल नोट की जा रही है कि लोगों की सोच निर्धारित करने में सूचनाओं की भूमिका लगातार कम हो रही है। इसकी क्या वजह है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं/
सचाई यह है कि न्यूजरूम से सूचनाएं गायब ही हो गई हैं। वहां धारणाओं पर काम होता है। तो जो चीज रहेगी नहीं, उसकी भूमिका कैसे बढ़ेगी/ चैनलों में रिपोर्टर ही नहीं हैं। सो सूचनाओं तक पहुंचने की चिंता छोड़कर वे धारणाओं पर बहस कराते रहते हैं। यह भयावह है। सूचनाओं के बगैर नागरिक धर्म नहीं निभाया जा सकता। नागरिकों को ही इसकी चिंता करनी पड़ेगी।
• इस पोस्ट ट्रुथ दौर में खबरों के स्वरूप को लेकर भी बहस चल रही है। कहते हैं, खबर वही है जो लोग सुनना चाहते हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं/
दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं है जो न्यूज के बगैर रह सके। और न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये सारी बहसें वही लोग चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। उसकी एक ही परिभाषा हो सकती है, हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, वह अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है।
• सरकारें तो हमेशा से पत्रकारिता के सामने एक चुनौती के रूप में रही हैं। आज सत्ता तंत्र से लड़ना पत्रकारिता के लिए ज्यादा मुश्किल क्यों साबित हो रहा है/
देखिए, पिछली सरकारों का जिक्र करके आज की सरकार को रियायत नहीं दी जा सकती। कभी ऐसा नहीं था कि सभी चैनल एक तरह की बहस चला रहे हैं। समझना होगा कि यह संपूर्ण नियंत्रण का दौर है। आपात काल की बात हम करते हैं, पर आपात काल में जनता सरकार के साथ नहीं थी, वह मीडिया के साथ थी। इस बार जनता के भी एक हिस्से को मीडिया के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है।
• जब आप पत्रकारिता में आए थे तब क्या लक्ष्य थे आपके सामने/
कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था। नौकरी मिल जाए, मैं अच्छा लिखूं, मेरा लिखा पसंद किया जाए…... यही बातें थीं। पर रिपोर्टिंग के दौरान जब भी बाहर जाता तो लोग बड़ी उम्मीद से देखते। देखता, अनजान आदमी मेरे लिए कुर्सी ला रहा है, कोई भाग कर पानी ला रहा है। मन में सवाल उठता कि यह आदमी मुझे जानता भी नहीं है क्यों मेरे लिए इतना कर रहा है। धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सरकार से, प्रशासन से इसे कोई उम्मीद नहीं है। जानता है कि सत्ता का तंत्र मेरे बारे में नहीं सोचेगा, पर पत्रकार सोचेगा क्योंकि वह हमारे बीच का है, हमारा आदमी है। लोगों की ये भावनाएं, उनकी उम्मीदें मुझे जिम्मेदार बनाती गईं।
• अब आगे का क्या लक्ष्य है/
आगे के लिए भी वही है नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे और मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे…, बस।
http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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