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Sunday, 22 September 2019

नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे , बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे ------ रवीश कुमार द्वारा प्रणव प्रियदर्शी

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http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html

मैगसायसाय से बदल नहीं गई मेरी दुनिया
सप्ताह का इंटरव्यू

रवीश कुमार
न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये बहसें वही चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं


आप उनसे सहमत हो सकते हैं, आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। शैली और तेवर ही नहीं, उनका कंटेंट भी उन्हें और उनकी पत्रकारिता को खास बनाता है। और अब तो वह मैगसायसाय पुरस्कार हासिल करने वाले हिंदी के पहले पत्रकार हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं रवीश कुमार की। तीखा विरोध झेलकर और कठिन अवरोधों से गुजर कर मैगसायसाय पुरस्कार समिति के शब्दों में ‘बेजुबानों की आवाज’ बने रवीश कुमार से बातचीत की है प्रणव प्रियदर्शी ने। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:


• पहले तो आपको बहुत बधाई। मैगसायसाय पुरस्कार पाकर लौटने के बाद जब आप दोबारा काम में जुटे तो आसपास की दुनिया में, कामकाज के माहौल में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं/ 


शुक्रिया। कोई बदलाव नहीं है। वैसे ही काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। चूंकि संसाधन नहीं हैं तो बहुत सारे मैसेज यूं ही पड़े रह जाते हैं, हम उन पर काम नहीं कर पाते। मैसेज तो बहुत सारे आते हैं। ट्रोल करने वालों ने मेरा नंबर गांव-गांव पहुंचा दिया है। अब लोग उसी नंबर को अपना हथियार बना रहे हैं। वे अपनी खबरें मुझे भेजते हैं, चाहते हैं कि मैं दिखाऊं। पूरे मीडिया का काम कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। फिर भी, जितना हो सकता है, उतना तो किया जाए, इसी सूत्र पर मैं चल रहा हूं।


• आपने हाल में बताया कि पुरस्कार के बाद जितने भी मैसेज मिले, वे सब पॉजिटिव थे। क्या इस पुरस्कार ने झटके में सबकी सोच बदल दी या पहले से ही उसमें अंतर आ रहा था धीरे-धीरे


दोनों ही बातें थीं। जो मुझे देखते हैं उनका एक बड़ा हिस्सा खुद भी दबाव में रहता है। रिश्तेदारों-मित्रों के नाराज होने का डर रहता है। तो ये सब साइलेंट थे और इन्हें पुरस्कार के सहारे अपनी बात कहने का मौका मिला। दूसरी बात, बहुत से लोग बदल भी रहे हैं। पुरस्कार से पहले भी मेरे पास ऐसे कई मैसेज आते थे कि मैं आपको गाली देता था पर अब लगता है कि मैंने गलती की, क्या आप मुझे माफ कर सकते हैं/ यह बड़ी सुंदर बात है। वे माफी नहीं मांगते, मेरे सामने स्वीकार नहीं करते तो भी उनका काम चल जाता।


• यह तो मनुष्य में विश्वास बढ़ाने वाली बात है...


बिल्कुल। यह ऐसी बात है जो साबित करती है कि लोग बदलते हैं। हमें अपना काम पूरी निष्ठा से करना चाहिए क्योंकि हमारे पाठकों और दर्शकों पर देर-सबेर उसका असर होता है।• एक बात आजकल नोट की जा रही है कि लोगों की सोच निर्धारित करने में सूचनाओं की भूमिका लगातार कम हो रही है। इसकी क्या वजह है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं/


सचाई यह है कि न्यूजरूम से सूचनाएं गायब ही हो गई हैं। वहां धारणाओं पर काम होता है। तो जो चीज रहेगी नहीं, उसकी भूमिका कैसे बढ़ेगी/ चैनलों में रिपोर्टर ही नहीं हैं। सो सूचनाओं तक पहुंचने की चिंता छोड़कर वे धारणाओं पर बहस कराते रहते हैं। यह भयावह है। सूचनाओं के बगैर नागरिक धर्म नहीं निभाया जा सकता। नागरिकों को ही इसकी चिंता करनी पड़ेगी।


• इस पोस्ट ट्रुथ दौर में खबरों के स्वरूप को लेकर भी बहस चल रही है। कहते हैं, खबर वही है जो लोग सुनना चाहते हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं/


दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं है जो न्यूज के बगैर रह सके। और न्यूज क्या है यह अगर भीड़ को ही तय करना है तो फिर न्यूजरूम में पत्रकार की जरूरत ही क्या है/ न्यूज यह है, न्यूज वह है... ये सारी बहसें वही लोग चला रहे हैं जो आज की सत्ता के हिसाब से चलना चाहते हैं। न्यूज की परिभाषा पहले से तय है। सत्य की कई परिभाषाएं नहीं होतीं। उसकी एक ही परिभाषा हो सकती है, हां झूठ की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, वह अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है।

• सरकारें तो हमेशा से पत्रकारिता के सामने एक चुनौती के रूप में रही हैं। आज सत्ता तंत्र से लड़ना पत्रकारिता के लिए ज्यादा मुश्किल क्यों साबित हो रहा है/

देखिए, पिछली सरकारों का जिक्र करके आज की सरकार को रियायत नहीं दी जा सकती। कभी ऐसा नहीं था कि सभी चैनल एक तरह की बहस चला रहे हैं। समझना होगा कि यह संपूर्ण नियंत्रण का दौर है। आपात काल की बात हम करते हैं, पर आपात काल में जनता सरकार के साथ नहीं थी, वह मीडिया के साथ थी। इस बार जनता के भी एक हिस्से को मीडिया के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है।


• जब आप पत्रकारिता में आए थे तब क्या लक्ष्य थे आपके सामने/


कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था। नौकरी मिल जाए, मैं अच्छा लिखूं, मेरा लिखा पसंद किया जाए…... यही बातें थीं। पर रिपोर्टिंग के दौरान जब भी बाहर जाता तो लोग बड़ी उम्मीद से देखते। देखता, अनजान आदमी मेरे लिए कुर्सी ला रहा है, कोई भाग कर पानी ला रहा है। मन में सवाल उठता कि यह आदमी मुझे जानता भी नहीं है क्यों मेरे लिए इतना कर रहा है। धीरे-धीरे अहसास हुआ कि सरकार से, प्रशासन से इसे कोई उम्मीद नहीं है। जानता है कि सत्ता का तंत्र मेरे बारे में नहीं सोचेगा, पर पत्रकार सोचेगा क्योंकि वह हमारे बीच का है, हमारा आदमी है। लोगों की ये भावनाएं, उनकी उम्मीदें मुझे जिम्मेदार बनाती गईं।


• अब आगे का क्या लक्ष्य है/



आगे के लिए भी वही है नौकरी चलती रहे, सैलरी मिलती रहे और मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचती रहे…, बस।

http://epaper.navbharattimes.com/details/61277-51651-2.html

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Tuesday, 3 October 2017

जर्जर होते जनतंत्र के चौथे स्तम्भ को बचाने की मुहिम

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कभी अकबर इलाहाबादी  ने  कहा था : 
'' खींचो न तीर कमानों को न तलवार निकालो। 
   जब तोप मुक़ाबिल हो  तब अखबार निकालो। । "
रेलवे की रु 50 /- मासिक की नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद में 'सरस्वती ' के रु 20/- मासिक पर  संपादक बनने वाले आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी का कथन था कि, साहित्य में वह शक्ति छिपी होती है जो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती । 
अखबारों के संपादक साहित्यकार लोग ही होते थे जो न केवल खबरों को पाठकों तक पहुंचाते थे बल्कि वे जनता को सतत जागरूक भी करते थे और स्वतन्त्रता आंदोलन में सहयोग करने हेतु प्रेरित करते थे। 
समय समय पर विदेशी सत्ता ने अखबारों को नियंत्रित करने के जो प्रयास किए और आज़ादी के बाद भी 'प्रेस ' पर जो हमले हुये उनका विस्तृत वर्णन " भारत में पत्रकारिता पर हमला कोई नई बात नहीं " वीडियो में किया गया है। 
2014 के बाद गठित मोदी नीत भाजपा सरकार के शासन में जन सरोकार रखने वाले पत्रकारों की हत्या, चरित्र हनन, धमकी, मानहानी मुकदमे आदि की बाढ़ आ गई है। गांधी जयंती पर दिल्ली  सहित देश के विभिन्न प्रेस क्लबों पर पत्रकारों ने मानव श्रंखला बना कर विरोध प्रदर्शन किया। पत्रकारों की चर्चा में भी इस समस्या पर विमर्श हुआ । द वायर हिन्दी द्वारा इस दिशा में सराहनीय कार्य सम्पन्न हुये। लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ 'पत्रकारिता ' की स्वतन्त्रता व पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना लोक अर्थात जनता का भी कर्तव्य बनता है अतः उसे आगे आ कर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि, अपराधी तत्वों को नियंत्रित व दंडित करे। 


 


संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Wednesday, 30 July 2014

पत्रकारिता के क्षेत्र में धैर्य व संयम की ज़रूरत ---अनीता गौतम





https://www.facebook.com/anita.gautam.39/posts/668987146523594

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30 जूलाई 2014 


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इन दो प्रसिद्ध पत्रकारों के विचारों को पढ़ने के बाद 1965-67 में पढे आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी के विचार याद आ गए। आचार्य जी ने रेलवे की रु 50/-प्रतिमाह की नौकरी छोड़ कर रु 20/-प्रतिमाह पर अलाहाबाद से प्रकाशित 'सरस्वती' के संपादक का पद सम्हाला था। यह निर्णय उनके लिए पारिवारिक हितों के प्रतिकूल था तो भी उनको इसी में खुशी हुई क्योंकि उनका लक्ष्य व्यापक था-देश व समाज की सेवा करना । रेलवे की नौकरी से वह सिर्फ अपने परिवार का ही भला कर सकते थे जबकि सरस्वती के संपादक के रूप में उन्होने कई दूसरे लोगों को लेखन द्वारा देश-हित के लिए प्रेरित किया। उनका मत था कि,'साहित्य समाज का दर्पण' होता है। अर्थात समृद्ध साहित्य समृद्ध समाज का प्रतिविम्ब होगा। साहित्य सृजन में त्याग व बलिदान की भावना से ही समृद्धि आ सकती है। साहित्य की शक्ति के संबंध में आचार्य जी ने लिखा है कि," साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। "

आज़ादी से पहले 'पत्रकार' साहित्य सृजक हुआ करते थे और इसी लिए ब्रिटिश सरकार उनका उत्पीड़न किया करती थी जिसे वे स्वाधीनता आंदोलन में दी गई आहुती मान कर झेला करते थे। सांप्रदायिक सौहार्द व एकता के लिए 'गणेश शंकर विद्यार्थी' जी का बलिदान एक ज्वलंत उदाहरण है। 

आज़ादी के बाद भी धर्मवीर भारती ,मनहर श्याम जोशी आदि अनेकों पत्रकारों ने उसी परंपरा का निर्वहन किया। परंतु आज बाजारवाद ,उदारवाद,नव-उदारवाद के युग में पत्रकारिता देश व समाज को जागरूक करने का साधन न होकर पैसा कमाने का एक उपक्रम मात्र रह गई है। आज पत्रकार स्वतंत्र नहीं है बल्कि उसका नियंता उसका नियोक्ता पूंजीपति है जो अपने वर्ग-हित में अपने- अपने कर्मचारियों से लेखन करवाता है।

आज के संपादक व पत्रकार नए पत्रकारों को वाकई प्रोत्साहित नहीं करते हैं जैसा कि अनीता गौतम जी ने अपनी चिंता व्यक्त की है। निर्भीक व साहसी पत्रकारों का भी आज नितांत आभाव है जैसा कि वैदेही सचिन जी के आव्हान से स्पष्ट है। 

एक बड़े कारपोरेट घराने के एक अखबार के प्रधान संपादक महोदय अखबार मालिक व सरकारों के हिसाब से अपने विचारों को बदलते रहते व न्यायोचित ठहराते रहते हैं। आगरा में जब वह वाराणासी के एक अखबार के स्थानीय संपादक थे तब विहिप के समर्थक थे। फिर वहीं के सेकुलर माने जाने वाले दूसरे अखबार के संपादक बने तब सेकुलर विचारों के अगुआ हो गए । एक टी वी चेनल की वैतरणी पार करते हुये अब जिस कारपोरेट घराने के अखबार में पहुंचे हैं वह पहले कांग्रेस समर्थक था अब 2014 के चुनावों के बाद नई सरकार का समर्थक प्रतीत हो रहा है और यह संपादक महोदय वक्त के साथ करवट बदल चुके हैं।

इन परिस्थितियों में नए पत्रकारों को धैर्य व संयम की प्रेरणा रख कर निराश न होने की जो सीख अनीता गौतम जी ने दी है वह सराहनीय व अनुकरणीय है साथ ही 'निर्भीकता व साहस' कायम रखने का वैदेही सचिन जी सुझाव भी नए पत्रकारों की हौसला अफजाई के लिए ज़रूरी है। 

आज नए पत्रकारों के समक्ष फिर आज़ादी के आंदोलन सरीखी चुनौती उपस्थित है और इसका मुक़ाबला भी 'त्याग व बलिदान ' की भावना से ही किया जा सकेगा आर्थिक प्रलोभन से नहीं।
(विजय राजबली माथुर )
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