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Tuesday, 1 May 2018

यह देश खतरनाक दौर से गुजर रहा है ------ सीमा आज़ाद



Seema Azad
दस्तक मई-जून २०१८ का संपादकीय

यह देश खतरनाक दौर से गुजर रहा है
20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट में बदलाव कर उसे ऐसा बना दिया कि उसका दुरूपयोग तो क्या, उपयोग करना भी मुश्किल हो जायेगा। लगभग इसी समय सुप्रीम कोर्ट से ही विवि में विभागवार आरक्षण करने का फैसला आया, जिससे एससी एसटी ही नहीं ओबीसी वर्ग भी आरक्षण से बाहर हो जायेगा। वास्तव में यह शिक्षण संस्थानों में आरक्षण खत्म करने का ही एक नया तरीका है, जो बीएचयू में पहले से ही लागू हो रहा था। जिसे कोर्ट में चुनौती देने पर उसने सही ठहराया और इस मौके की ताक में बैठे मनुवादी यूजीसी ने बीएचयू के तरीके को पूरे देश के शिक्षण संस्थानों पर लागू करने का फरमान तुरन्त जारी कर दिया, जिसके बाद इन वर्गों में आक्रोश के बाद समाज में एक बार फिर सवर्ण और अवर्ण के बीच की खाई अधिक चौड़ी होने लगी। 
इन सबके बीच ही दो तीन खबरों पर और ध्यान दीजिये-राजस्थान में एक दलित युवक को ठाकुर लड़कों ने इसलिए जान से मार दिया, क्योंकि वह उनके सामने घोड़े पर सवार होकर चलता था। कासगंज में एक दलित लड़की की शादी में बारात ठाकुरों की बस्ती से होकर निकलेगा या नहीं और इसमें दूल्हा घोड़ी पर चढ़ेगा या नहीं, यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा और हाईकोर्ट ने इस पर हस्तक्षेप करने से इंकार कर, अर्जी खारिज कर दी।
इन सभी घटनाओं को देखते हुए कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायधीशों की टिप्पणी ताजा हो जाती कि ‘देश खतरनाक दौर से गुजर रहा है।’ 
उप्र में ‘इनकाउण्टरों’ की संख्या एक साल के अन्दर ही 1000 की संख्या पार कर चुकी है, मारे जाने वालों में बड़ी संख्या मुसलमानों और पिछड़ी जातियों की है। विभिन्न जांचों में ये इनकाण्टर फर्जी साबित होते जा रहे हैं, फिर भी मुख्यमंत्री विधानसभा में यह बयान दे रहे हैं कि ‘इनकाउण्टर जारी रहेंगे, इसके खिलाफ बोलने वाले खुद अपराधी कहे जायेंगे।’ यानि उप्र में भी गुजरात और छत्तीसगढ़ के शासन का तरीका अपनाया जाने लगा है, सेना-पुलिस का प्रमोशन और सत्ता का रथ लोगों की लाशों पर चढ़कर आगे बढ़ रहा है। धीरे-धीरे यह तरीका पूरे देश में लागू किया जा रहा है। संविधान की शपथ लेकर संविधान की धज्जियां उड़ाना, खुद को कानून से ऊपर रखना और विरोधियों को संविधान विरोधी, अपराधी और देशद्रोही बताना सत्ता की मुख्य कार्यवाही होती जा रही है। हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले आतंकवादि के मुकदमों को कमजोर कर, उनके बाहर निकलने का रास्ता बनाना और आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम नौजवानों को जेल में डालते जाना और फासी पर लटकाना, यह आज की राजनीति की स्वाभाविक सी दिखने वाली घटना लगने लगी है।
सैद्धांतिक भाषा में यह फासीवाद है, जो कि विश्व आर्थिक मंदी की एक अभिव्यक्ति है, जिससे निपटने के लिए पूंजीपतियों के नुमाइन्दे सत्ताधीश लोगों के अन्तर्विरोधों को बढ़ाने और इससे फायदा उठा कर सत्ता में आने और बने रहने का जतन करती है। फासीवाद को सैद्धांतिक रूप से परिभाषित करने वाले ज्यॉर्जी दिमित्रोव का कहना है-
‘‘साम्प्रदायिक फासीवाद हमेशा अपने समय की वर्चस्वशाली साम्राज्यवादी शक्ति के हितों से जीवनी शक्ति हासिल करता है, फिर उसके हितों की सेवा करता है.....’’
‘‘........फासीवाद का मुख्य वाहक है राष्ट्रवाद। हर जगह फासीवाद जनसमुदाय की राष्ट्रवादी भावनाओं को अपने हाथ का खिलौना बनाता है और सत्ता में आने के लिए उन्माद भरे आन्दोलन छेड़ता है।’’
आगे उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी आर्थिक स्थिति से उत्पन्न फासीवाद हर देश में अलग-अलग तरीके से आता है। जाहिर है उस देश की राजनैतिक सामाजिक स्थिति के हिसाब से आता है और ऊपर की घटनायें भारत में यहां की राजनैतिक आर्थिक स्थिति के अनुरूप आये फासीवाद का ही नमूना है, जो मनुवादी, ब्राह्मणवादी, साम्प्रदायिक फासीवाद है। यानि भारत का साम्प्रदायिक फासीवाद साम्राज्यवादी दमन के लिए यहां के मनुवादी व्यवस्था को अपना अवलम्ब बनाये हुए है। भारतीय फासीवाद के इस स्वरूप पर बात करने के लिए पहले फासीवाद के स्रोत- साम्राज्यवादी पूंजी के आर्थिक संकट की बात करते हैं।
मार्क्सवाद को समृद्ध करते हुए लेनिन ने पूंजी के साम्राज्यवादी स्वरूप की व्याख्या करने वाली पुस्तक ‘साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था’ लिखी। जिसमें उन्होंने मंदी दर मंदी गुजरने के बाद वैश्विक स्तर पर पूंजी के एकाधिकारी चरित्र को समझाया है, जिसमें बड़े कॉरपोरेट बड़ी पूंजी के रूप में छोटे कॉरपोरेट यानि छोटी पूंजी को निगलते जाते हैं। अधिक से अधिक मुनाफे के लिए प्राकृतिक संसाधनों और श्रम की लूट अपने चरम पर पहुंच जाती है, जिससे पूरी दुनिया में अराजकता की स्थिति खड़ी हो जाती है और पूंजी का दमन जनता पर बढ़ जाता है साथ ही तीखा हो जाता है। इस दमन को आसान बनाने के लिए पूंजी की एकाधिकारी शक्तियां लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़े करने वाले रास्तों को तलाशती हैं, जिनमें साम्प्रदायिकता उनका चिर-परिचित और स्वाभाविक तरीका है। उतना ही स्वाभाविक, जितना कि ऐसी अराजक स्थिति से निपटने का एक ही रास्ता है- पूंजी के एकाधिकारी स्वरूप और मुनाफे की अर्थव्यवस्था को खत्म करना। 
भारत में पूंजी के इस फासीवादी स्वरूप को लागू कराने का ठोस आधार देने का काम करने वाली विचारधारा ‘मनुवाद’ सैकड़ों सालों से मौजूद है, जिसने लोगों को वर्णव्यवस्था की जातीय श्रेणीबद्धता में बांट रखा है और समाज के एक बड़े शोषित हिस्से को एक ‘वर्ण’ के रूप में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक तौर पर संकरे हाशिये पर ढकेलकर रखा है। इसने लोगों को वर्ण और जातियों के आधार पर शासक और शोषितों में बांट रखा है। इसने मुसलमानों और वर्णव्यवस्था के बाहर के लोगों को ‘म्लेच्छ’ घोषित कर रखा है। इसने महिलाओं को इंसान होने का दर्जा देने की बजाय हर उम्र में किसी पुरूष की सम्पत्ति या संरक्षिता घोषित कर रखा है। संविधान के माध्यम से इन्हें कुछ जनवादी अधिकार दिलाने की कोशिश अम्बेडकर ने की, लेकिन आज की फासीवादी सत्ता उन अधिकारों को भी छीनने पर अमादा है। यानि भारत की ब्राह्णवादी मनुवादी व्यवस्था साम्राज्यवादी पूंजी के मंदी के संकट को हल करने की जमीन मुहैया करा रही है। मनुवाद के माध्यम से वह समाज में पहले से शोषण झेल रही एक बड़ी आबादी को उनके शिक्षा, रोजगार, भोजन, आवास और कई अन्य अधिकारों से पल्ला झाड़ सकती है, क्योंकि सवर्णांे का एक बड़ा तबका उनके साथ नहीं आयेगा, बल्कि खुद सरकार के साथ मिल कर इस तबके को हाशिये पर ढकेलने में तत्पर हो रहा है। 
वास्तव में साम्राज्यवादी पूंजी के एकाधिकारी स्वरूप अख्तियार करने की स्थिति में राजनीति, समाज और संस्कृति में भी इसकी अभिव्यक्ति एकाधिकार के ही रूप में होती है। यानि समाज में मुनाफे की एकाधिकारी होड़ ‘एक राष्ट्र’ के विचार से आगे बढ़ता हुआ, एक धर्म, एक वर्ण, एक लिंग, एक झण्डा, ‘राष्ट्रभक्ति’ की एक ही अभिव्यक्ति, एक गीत, एक भाषा, एक रंग, एक नेता या मुखिया तक जा पहुंचता है, जिसे हम आज घटित होता देख भी रहे हैं। 
भारतीय संविधान ने भले ही सबको जनवाद देने का दावा किया, लेकिन वह इसमें सफल नहीं रह सका, क्योंकि उसने दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों आदिवासियों और महिलाओं को जनवादी अधिकार देने वाले आर्थिक आधार मुहैया नहीं कराये। आज भी ज्यादातर दलित और पिछड़े भूमिहीन हैं, जबकि ऊपरी दो वर्णों के पास उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा जमीनें और सम्पत्ति हैं। महिलाओं को तो सम्पत्ति में संवैधानिक अधिकार भी काफी संघर्षों के बाद मिला। जाति, वर्ण, लिंग, धर्म के आधार पर इनकी जनवाद की लड़ाई अभी बाकी ही थी, कि साम्प्रदायिक फासीवाद ने इन सबके संवैधानिक अधिकारों को भी छीनने की शुरूआत कर दी है। यहां की मनुवादी ब्राह्मणवादी सोच और इसका आज तक मौजूद मजबूत आर्थिक आधार इनके अधिकारों को छीनने में सहयोगी की भूमिका में नजर आ रहा है, भले ही पूंजी के दमन की प्रवृति उनको भी नहीं बख्श रही है, लेकिन वे इसमें ही खुश हैं कि वे किसी से ‘ऊपर’ है, किसी के बरख्श ‘शासक’ हैं। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां ‘ब्राह्मणवाद’ से तात्पर्य ब्राह्मण जाति से नहीं, बल्कि जातियों की उस श्रेणीबद्धता से है, जिसमें हर जाति के नीचे एक जाति है। और हर जाति किसी जाति से अपने को श्रेष्ठ या ब्राह्मण समझती है, वह उसके यहां का खाना नहीं खाती है, न ही उनके यहां वैवाहिक रिश्ता बनाती है। सबसे ऊपरी वर्ण की जातियां अगर कई जातियों से श्रेष्ठ हैं, तो सबसे निचले वर्ण की जातियां भी कई जातियों से खुद को श्रेष्ठ या उनके मुकाबिल खुद को शुद्ध या ब्राह्मण मानती हैं। 
भारत की इस पृष्ठभूमि में दमनकारी एकाधिकारी साम्राज्यवादी पूंजी हमारे देश में इस मनुवादी ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था के कंधे पर सवार होकर तबाही मचा रही है, यह कंधा उसे वह आधार मुहैया करा रहा है, जिसके बल पर वह यहां अपने मरणासन्न साम्राज्य का विस्तार कर रही है। भारतीय फासीवाद की यही विशेषता है। इस बात को इस तरह से कहना भी सही होगा कि भारतीय जनता पार्टी, जो कि मनुवादी ब्राह्मणवाद का सबसे सच्चा प्रतिनिधित्व करती है, को भारत की जनता ने नहीं, बल्कि वेंटिलेटर पर पहुंच चुकी साम्राज्यवादी पूंजी ने अपने लिए चुना है, जो भारत में अपनी वैचारिकी के कारण फासीवादी दमन को सबसे अच्छे तरीके से लागू करवा सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि सरकारों को चुनने में जनता की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन उसकी यह भूमिका आज के साम्राज्यवादी समय में ‘आभासी’ हो गयी है। इसका ताजा उदाहरण हाल ही में कांग्रेस और भाजपा के बीच फेसबुक वाला झगड़ा है, जिसमें दोनों ने एक-दूसरे की पोल खोली, कि किसने चुनाव के समय किस कॉरपोरेट की मदद लोगों का दिमाग तैयार करने के लिए ली है। ‘फेसबुक’ और तमाम सोशल साइट्स लोगों की निजी जानकारियों को चुनावों के समय बेचकर लोगों का ‘माइण्डसेट’ तैयार करने का काम कर रही हैं। फेसबुक के संचालक मार्क जुकरबर्ग ने इसे अमेरिकी कांग्रेस में स्वीकार किया है। इसके अलावा बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा चुनावी पार्टियों को अरबों, खरबों का चन्दा, निजी विमान से लेकर हर तरह की सुविधा देने की खबरें भी अब कहीं न कहीं से लीक हो ही जाती है, जिनसे पता चल जाता है कि किस समय बिजनेस घराने किस पार्टी के पक्ष में जनता के बीच पैसा बहा रहे हैं। 2014 में उनकी पहली पसन्द मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ही थी, इसलिए उसकी जीत हुई। दरअसल साम्राज्यवादी पूंजी सरकार चुनकर उन पर पानी की तरह रूपये बहाकर जनता से उन्हें चुनवाने का प्रचार अभियान चलाती है, पिछले कई चुनावों के अन्दर की खबरें पढ़ें, तो यह बात साफ हो जाती है। आज आधार कार्ड द्वारा हर व्यक्ति की जानकारी डिजीटल बना देने से चुनावों में ‘जनमत’ तैयार कर लेना और भी आसान हो गया है, यह बात खुद सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड पर होने वाली बहस के दौरान कहा। 2014 के चुनावों में केन्द्र में भाजपा ‘प्रचंड बहुमत’ (यह शब्द भी कॉरपोरेटी मीडिया का दिया हुआ है, जो कि जीती हुई पार्टी के पक्ष में माहौल बनाता है, और विरोधी पक्षों को डराता है) से इसलिए आयी, क्योंकि एक तो साम्राज्यवादी नीतियों को लागू करते जाने के कारण जनता कांग्रेस ने नाराज चल रही थी, दूसरे उसके पास लोगों पर दमन करने वाली लोगों को बांटकर दमन को ‘मैनेज’ कर लेने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी विचारधारा भाजपा के मुकाबिल कमजोर थीं। फिलहाल भाजपा उनकी पहली पसन्द है। चुनाव से ही एक के बदले दूसरे दल को चुन कर इस फासीवाद को हरा देने की बात सोचने वाले दरअसल फासीवाद को विश्व के वित्तीय संकट से जोड़कर न देखकर उसे देश की एक अलग-थलग परिघटना के रूप में देखने की गलती कर रहे हैं। अव्वल तो भाजपा ही इस पूंजीवादी संकट से निपटने के लिए पूंजीपतियों की पहली पसन्द है, जिसे चुनावों से शिकस्त देना मुश्किल है, लेकिन यदि अत्यधिक दमन से उपजी जागरूकता की वजह से भाजपा सत्ता से बाहर हो भी गयी, तो वह इतनी मजबूत हो गयी है कि सत्ता से बाहर रहकर भी वह कारपोरेटी पूंजी के हितों को साधती रह सकती है। 
कांग्रेस और दूसरे चुनावी दल भी साम्राज्यवादी पूंजी के हितों को साधने में एक दूसरे से होड़ लेते दिख रहे हैं, इसलिए इनका जनता के प्रति साधुभाव रखना असम्भव है। इसे नहीं भुलाया जा सकता कि 1991 में साम्राज्यवादी हमला तेज होने के बाद कांग्रेस के शासनकाल में ही बाबरी मस्जिद ढहाई गयी, कई बड़े दंगे हुए, आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम नौजवानों को फंसाने का सिलसिला शुरू हुआ और गौरक्षा के नाम पर झज्जर जैसा काण्ड भी हुआ। घटनायें और भी है, जो कांग्रेस के मनुवादी ब्राह्मणवादी चरित्र का बयान करती हैं, भले ही भाजपा का यह चरित्र अधिक बर्बर और उजागर है। इसलिए इस दौर में एक चुनावी दल को हराकर दूसरे को जिताकर राहत पा लेने की बात सोचना इस खतरनाक दौर को सिर्फ पार्टियों के चरित्र को फासीवाद के कारण तक सीमित कर देना है। इस तर्क से भी सोचें तो भाजपा को हराकर कांग्रेस को सत्ता में ले आने पर भी भाजपा और उनके अनुसंगी संगठन समाज में बने ही रहेंगे और अपना काम करते रहेंगे। कांग्रेस उन पर रोक लगायेगी ऐसा सोचना भी नासमझी है, उल्टे पिछली घटनायंे बताती हैं कि कांग्रेस सहित दूसरे चुनावी दल उनके साम्प्रदायिक कर्मांे को अपने हित के लिए इस्तेमाल ही करती रही है। 
दरअसल फासीवाद को हराना केवल सत्ता में बैठी एक पार्टी को हराना भर नहीं है। यह निहायत निष्क्रिय सोच है, जिससे कुछ नहीं बदलने वाला। इस फासीवाद को टक्कर देने का मतलब है समाज में अराजकता फैलाने वाली इस अर्थव्यवस्था के खिलाफ चल रही लड़ाई का हिस्सा बनना, उसके लिए जरूरी है कि मनुवादी व्यवस्था को पोषित करने वाली सत्ता को समाज से समाप्त कर देने के लिए लड़ना, जो लोगों को छूत-अछूत में बांटने का काम कर रही है।
सीमा आज़ाद

Thursday, 29 October 2015

बीजेपी दलित, पिछड़ा आरक्षण के विरोध का नेतृत्व करती रही है --- प्रीतमजी



Pritam Jee
29-10-2015  Edited ·
नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के इस चुनावी पिछड़ा प्रेम को समझने के लिए गुजरात के बारे में समझ लेना आवश्यक होगा. गुजरात में जब दलित आरक्षण लागू किया गया था तो उस वक़्त ब्राह्मण, पाटीदार और बनिया वर्ग का ज़बरदस्त विरोध सामने आया जिसने बाद में 1981 में दलित विरोधी आंदोलन का रूप लिया और बीजेपी ने इस दलित विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया था.
इस दलित विरोधी आन्दोलन ने दंगों की शक्ल अख्तियार की और गुजरात के 19 में से 18 जिलों में दलितों को निशाना बनाया गया. इन दंगों में मुस्लिमों ने दलितों को आश्रय दिया और उनकी मदद भी की. वास्तव में दलित, पिछड़ा और आदिवासी गुजरात की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या बनाते हैं.
इसी को अपने साथ मिलाकर 1980 में कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त की थी. यह गठजोड़ जिसे अंग्रेजी के खाम यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम कहा जाता है, ने पहली बार ब्राह्मण और पाटीदारों को सत्ता के केंद्र से दूर कर दिया.
हालांकि इसके ठीक बाद बीजेपी ने 1980 में अपने कट्टर हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर काम करना शुरू किया और आडवानी की रथ यात्रा ने उस प्रक्रिया को तेज़ किया, जिसमें सवर्ण और उच्च जाति के लोगों ने सत्ता से दूर होने के आधार पर एकजुट होकर आरक्षण विरोधी आन्दोलन को चलाया. साथ ही इसने गुजरात के भगवाकरण के लिए भी परिस्थितियां पैदा की.
1980 में कांग्रेस की जीत के बाद बीजेपी ने दलित विरोधी रणनीति में परिवर्तन कर इसे सांप्रदायिक रंग दिया और अब निचली जाति के दलित, आदिवासी समूह को मुस्लिमों के विरुद्ध खड़ा किया. इसी कारण 1981 में आरक्षण विरोधी आन्दोलन ने 1985 में सांप्रदायिक हिंसा का रूप धारण कर लिया और इसे आडवानी ने अपनी रथयात्रा से और भी उन्मादी और हिंसक बनाया. 1990 में जब आडवानी रथ यात्रा के ज़रिए देश में जहर घोल रहे थे, उस वक़्त गुजरात में उनके सिपहसलार नरेन्द्र मोदी थे जो गुजरात बीजेपी महासचिव थे.
बीजेपी न केवल दलित, पिछड़ा आरक्षण के विरोध का नेतृत्व करती रही है, बल्कि सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी की सरकार ने गुजरात में इस आरक्षण के लाभ को भी सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग से रोका है. ‪#‎आरक्षण‬
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 संकलन-विजय माथुर

Monday, 28 October 2013

भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है---पी. सी. हादिया/कँवल भारती


आरक्षण पर एक विहंगम दृष्टि
https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/3464677072904 
आरक्षण पर अभी हाल में पी. सी. हादिया की पुस्तक ‘रिजर्वेशन, अफरमेटिव एक्शन एंड इनक्लुसिव पालिसी’ पढने को मिली, जो आरक्षण के पक्ष-विपक्ष और परिणाम पर एक विहंगम दृष्टि डालती है. आरक्षण पर हर पहलू से गम्भीर विचार करने वाली यह मुझे पहली पुस्तक लगी. इस किताब में 18 अध्याय हैं और इसका फोरवर्ड गुजरात हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वाई, आर. मीना ने लिखा है. किताब के परिचय में हादिया लिखते हैं कि भारत में हिन्दूधर्म और मनुस्मृति के समय से ही शूद्रों, अछूतों और आदिवासियों पर राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक शासन करने के लिए सारी सत्ताओं और विशेषाधिकारों का आरक्षण द्विजों के लिये मौजूद रहा है. ये विशेषाधिकार सिर्फ उन पर शासन करने के लिए ही नहीं थे, बल्कि उनको अधिकारों से वंचित करने के लिए भी थे. वह लिखते हैं कि भारत अतीत में जो विदेशी हमलावरों से अपनी सीमाओं की रक्षा नहीं कर सका, उसका यही कारण था कि एक वर्ण विशेष को ही लड़ने का अधिकार था, शेष दूसरी जातिओं के लोगों को राज्य की सेनाओं से बाहर रखा जाता था. अगर सेना में भारी संख्या में दलित जातिओं की भरती की जाति, तो भारत विदेशी शासकों का गुलाम नहीं बनता. इसलिए हादिया लिखते हैं कि भारत में विदेशी शासन के लिए केवल हिन्दूधर्म ही जिम्मेदार है.
हादिया आगे बहुत ही रोचक जानकारी देते हैं कि सिपाही-विद्रोह के बाद जब रानी विक्टोरिया ने कम्पनी राज समाप्त कर भारत का शासन अपने हाथों में लिया, तो उन्होंने ब्रिटिश सेवाओं में भर्ती के लिए जाति और धर्म के भेदभाव को कोई मान्यता नहीं दी थी. इस के तहत सतेन्द्र नाथ टैगोर पहले भारतीय थे, जो 1863 में काविनेनटेड सिविल सर्विस में चुने गये. यही वह सर्विस थी, जो बाद में इण्डियन सिविल सर्विस के नाम से जानी गयी. वह आंबेडकर के हवाले से बताते हैं कि ‘आईसीएस में भारतीय युवकों को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नौ छात्रों को, जो सभी उच्च जातियों के थे, छात्रवृत्ति देकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा था. लेकिन सरकार के इन प्रयासों के बावजूद आईसीएस में भारतीयों की संख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई थी, क्योंकि भारतीयों की मेरिट उस लेबिल की थी नहीं. 1920 में ICS की 35 प्रतिशत सीटें भारतीयों के लिए आरक्षित कर दी गयी थीं और 1922 के बाद से भारत में ही ICS की परिक्षाएं भी होने लगी थी. पर, इस आरक्षण के बावजूद अपर कास्ट हिन्दू 1942 में कुल आरक्षित 1056 सीटों में से 363 पर ही अपनी योग्यता दिखा पाए थे.’ इससे हमें पता चलता है कि भारत में ब्रिटिश राज के अंतर्गत अपर कास्ट हिन्दू आरक्षण का लाभ ले रहे थे. लेखक कहता है कि अगर आरक्षण न होता, तो ICS में उनकी उपस्थिति इतनी भी नहीं होती. लेकिन यह विडंबना ही है कि जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गये, तो देश पर शासन करने की सम्पूर्ण सत्ता इन्हीं (अयोग्य) हिन्दुओं के हाथों में आयी.
किताब का दूसरा अध्याय उस हौवा पर है, जो योग्यता के नाम पर खड़ा किया गया है. यह इस किताब का सबसे पठनीय और महत्वपूर्ण अध्याय है. इस अध्याय में उन तमाम छल-प्रपंचों पर चर्चा की गयी है, जिन्हें परिक्षाओं में उच्चतम नम्बर प्राप्त करने के लिए अपर कास्ट हिन्दुओं ने बनाया हुआ है. इस अध्याय में भारत के विभिन्न न्यायलयों में आरक्षण पर दिए गये अनेक महत्वपूर्ण फैसलों का भी तार्किक विश्लेषण किया गया है. लेखक ने इस अध्याय में formal समानता और proportional समानता दोनों किस्म की समानताओं पर चर्चा की है, जो बहुत ही तर्कपूर्ण है. अध्याय का अंत डा. आंबेडकर के इस कथन से होता है कि ‘यदि अगर सभी समुदायों को समानता के स्तर पर लाना है, तो इसका सिर्फ एक ही हल है कि असमानता से पीड़ित लोगों को समानता के स्तर पर लाया जाये.’
इस किताब का अंतिम अध्याय reservation sans tears है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है. मैं समझता हूँ कि अभी तक आरक्षण के इतने सारे पहलुओं पर सम्यक चिन्तन और विमर्श आप कहीं नहीं पाएंगे, जो इस अध्याय में है. यह अध्याय भारत के पूर्व राष्ट्रपति के आरनारायण की इस चेतावनी से समाप्त होता है, जो उन्होंने 25 जनवरी 2000 को कहा था कि ‘पीड़ित लोगों के कोप से बचो.’
26 अक्टूबर 2013

संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर