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पत्रकारिता के अपनी मूलभावना से भटकाव को उजागर करने के लिए द वायर ने जिस मीडियाबोल कार्यक्रम को चलाया है उसका उद्देश्य अच्छा होते हुये भी यह कार्यक्रम संचालक महोदय के मौलिक रूप से सांप्रदायिक झुकाव के कारण निष्पक्ष नहीं रह पाता है। एपिसोड 50 में ज़्यादातर ध्यान पंडित राव साहब पर दिया गया जबकि जावेद अंसारी साहब को बीच - बीच में हस्तक्षेप करना पड़ा तब उनकी बात सामने आ पाई। इसी एपिसोड पर एक टिप्पणी में रिटायर्ड IPS ध्रुव गुप्ता जी के दिल्ली की सेलफ़ी में प्रकाशित एक लेख का लिंक दिया जिसमें ब्रिटिश काल में उर्दू के एक निर्भीक पत्रकार के बलिदान का ज़िक्र था उस पर कार्यक्रम के संचालक द्वारा यह टिप्पणी करना उनके सांप्रदायिक दृष्टिकोण को और मजबूती से दर्शाता है ------
उनकी यह टिप्पणी दर्शाती है कि, ध्रुव गुप्तजी का उर्दू पत्रकार की शहादत वाला लेख उनको बेहद चुभा तभी तो उनके साथ - साथ मुझे भी 'सजा ए मौत ' शब्द से लपेट दिया। यदि 1857 में मुझे मौत की सजा मिल चुकी थी फिर उनके एपिसोड पर टिप्पणी क्या मेरी मृतात्मा ने की थी ? लेकिन बड़ी चालाकी से से यह महाशय खुद को सत्तारूढ़ सांप्रदायिक शक्तियों से अलग दिखाने के लिए विशिष्ट अंदाज पेश करते हैं जिस पर एपिसोड 51 में ओम थानवी साहब ने कड़ाई से उनका प्रतिरोध किया जिस पर वह चुप्पी साध गए । इससे पूर्व के कई एपिसोड्स में वह बाजपेयी जी के प्रेस सलहकार रहे टंडन जी को अत्यधिक तवज्जो देते रहे हैं जो उनके सांप्रदायिक दृष्टिकोण को उजागर करता है।
चूंकि फडणवीस इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम में शरीक होने आए, इस नाते उन्हें खुश करने के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने जज मौत पर क्लीनचिट वाला खुलासा किया। चूंकि जज की मौत नागपुर के गेस्ट हाउस में हुई थी। अगर मौत का मामला संदिग्ध है तो महाराष्ट्र सरकार भी इस केस में घिरती नजर आ रही थी। ऐसे में देखा जाए तो इंडियन एक्सप्रेस ने इस प्लांटेड खबर के जरिए खुद जज बनकर फडणवीस और उनके बॉस यानी अमित शाह को क्लीन चिट देने की कोशिश की।...........दि कारवां मैग्जीन की स्टोरी तब खारिज होती जब जज के पिता, बहन, भांजी में से कोई यह स्पष्टीकरण देता कि मौत सामान्य है। इंडियन एक्सप्रेस भूल गया कि पीड़ित परिवार न्याय मांग रहा है। परिवार तो सिर्फ न्यायिक जांच की मांग कर रहा है। संविधान ने हर पीड़ित को यह अधिकार दिया है कि वह जांच की मांग करे। न्यायिक जांच से पहले ही सरकार का जवाब लेकर इंडियन एक्सप्रेस उस दिन आया, जिसन दिन उसके कार्यक्रम में फडणवीस मुख्य अतिथि रहे।
इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर दो खबरें ध्यान खींचती हैं। एक तरफ जज लोया की संदिग्ध मौत पर उठते सवालों पर पर्दा डालने वाली खबर है, दूसरी तरफ मुस्कुराते फडणवीस की तस्वीर वाली फोटो है। क्या इन दो खबरों में कोई कनेक्शन है। क्या फडणवीस को खुश करने के लिए सबसे दिलेर अखबार ने अपनी साख की भी ऐसी-तैसी कर ली। ऐसे कई सवाल सोमवार को खबरी बिरादरी में चर्चा-ए-खास रहे।
जो संदेह के घेरे में है, जिन जजों की भूमिका संदिग्ध है। जिन पर सवाल उठ रहे हैं। उन्हीं से बातकर छाप दी पूरी कहानी जो पीड़ित परिवार है, उससे इंडियन एक्सप्रेस ने बात करने की जरूरत ही नहीं समझी। जज लोया की संदिग्ध मौत के मामले में उठ रहे जिन सवालों का जवाब महाराष्ट्र सरकार को देना चाहिए, संदेह के घेरे में आए लोगों को देना चाहिए, उन सवालों का आधा-अधूरा जवाब लेकर किस हड़बड़ी में इंडियन एक्सप्रेस सामने आया। यह समझ से परे है। पूरी स्टोरी पढ़िए तो दिखेगा कि दि कारवां ने अपनी स्टोरी में जो सवाल उठाए हैं, उसका जवाब देने की इंडियन एक्सप्रेस कोशिश कर रहा है। मगर आधी-अधूरी और गलत तरीके से। जो साथी जज खुद संदेह के घेरे में हैं, उनके और उनके साथियों जुबानी छाप दी पूरी कहानी। ईसीजी की रिपोर्ट छापी, वो भी जज की मौत से एक दिन पहले की। एक दिसंबर को पांच बजे सुबह जज लोया हास्पिटल में भर्ती होते हैं, इंडियन एक्सप्रेस ईसीजी की जो रिपोर्ट छापकर दावा करता है कि जज का इसीजी न होने का दावा झूठा है, वह रिपोर्ट एक दिन पहले 30 नवंबर की है। यानी जज के भर्ती होने से पहले ही ईसीजी हास्पिटल में तैयार हो गई थी। कमाल है साहब। इस मामले में जब इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पर सवाल उठने लगे तो अखबार ने डैमेज कंट्रोल के लिए खबर अपडेट की। जिसमें हास्पिटल की ओर से सफाई पेश करते हुए लिखा गया है कि 30 नवंबर की तिथि गलती से अंकित हो गई थी। चूंकि मामला हाईप्रोफाइल है तो ऐसी गलतियां आसानी से कोई क्यों स्वीकार कर लेगा। इंडियन एक्सप्रेस की एनकाउंटर रिपोर्ट ने जज की मौत का रहस्य और गहरा कर दिया। इस रिपोर्ट पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। लोग चौंक रहे हैं कि जो संपादक राजकमल पिछले साल मौदी की मौजूदगी में जर्नलिज्म ऑफ करेज का पाठ पढ़ा रहे थे, उन्हीं के संपादन में इंडियन एक्सप्रेस जैसा अखबार सरकार बहादुर की सेवा में तनकर खड़ा हो गया। इंडियन एक्सप्रेस के सोमवार के अंक हाथ में लीजिए। पहले पन्ने पर नजर डालिए। दो खबरें प्रमुखता के साथ लगी मिलेंगी। सेकंड लीड के तौर पर जज लोया की संदिग्ध मौत को झुठलाने वाली खबर प्रकाशित है। जिसमें अंग्रेजी मैग्जीन द कारवां की रिपोर्ट में उल्लिखित पीड़ित परिवार के तमाम दावे को नकारा गया है। बीच में एक अन्य खबर लगी है। यह इंडियन एक्सप्रेस समूह के कार्यक्रम की खबर है। जिसमें एक तस्वीर छपी है। इस तस्वीर में देवेंद्र फडणवीस मुंबई के 26-11 हमले की बरसी पर पीड़ित परिवारों के बीच मौजूद हैं। जिस दिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस इंडियन एक्सप्रेस के इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनते हैं, उसी दिन यह खबर प्लांट होती है। कोई भी खबर पढ़कर यह बता देगा इसमें संदेह के घेरे में खड़े सभी लोगों को क्लीनचिट देने की कोशिश हुई है। एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं- चूंकि फडणवीस इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम में शरीक होने आए, इस नाते उन्हें खुश करने के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने जज मौत पर क्लीनचिट वाला खुलासा किया। चूंकि जज की मौत नागपुर के गेस्ट हाउस में हुई थी। अगर मौत का मामला संदिग्ध है तो महाराष्ट्र सरकार भी इस केस में घिरती नजर आ रही थी। ऐसे में देखा जाए तो इंडियन एक्सप्रेस ने इस प्लांटेड खबर के जरिए खुद जज बनकर फडणवीस और उनके बॉस यानी अमित शाह को क्लीन चिट देने की कोशिश की। वरिष्ठ पत्रकार का मानना है कि दि कारवां मैग्जीन की स्टोरी तब खारिज होती जब जज के पिता, बहन, भांजी में से कोई यह स्पष्टीकरण देता कि मौत सामान्य है। इंडियन एक्सप्रेस भूल गया कि पीड़ित परिवार न्याय मांग रहा है। परिवार तो सिर्फ न्यायिक जांच की मांग कर रहा है। संविधान ने हर पीड़ित को यह अधिकार दिया है कि वह जांच की मांग करे। न्यायिक जांच से पहले ही सरकार का जवाब लेकर इंडियन एक्सप्रेस उस दिन आया, जिसन दिन उसके कार्यक्रम में फडणवीस मुख्य अतिथि रहे। सवाल उठता है कि क्या जर्नलिज्म ऑफ करेज की बात करन वाले संपादक राजकमल झा फडणवीस और उनके बॉस को खुश करने के लिए पीड़ित परिवार की आवाज पर पर्दा डालने में जुट गए। नवनीत मिश्र इंडिया संवाद https://www.facebook.com/rani.karmarkar.7/posts/783020708551046