Saturday, 15 October 2016

देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है ------ ध्रुव गुप्त /प्रशासन का रवैया क्षोभपूर्ण ------ मधुवन दत्त चतुर्वेदी

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Dhruv Gupt

हमीं से मोहब्बत, हमीं से लड़ाई ! : 
अभी-अभी बृन्दावन में आयोजित नास्तिकों के सम्मेलन और वहां के कुछ धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद आस्तिकता बनाम नास्तिकता का विवाद एक बार फिर विमर्श के केंद्र में है। यह विवाद हमारे देश में हमेशा से चला आ रहा है। प्राचीन भारत में नास्तिकता के सबसे बड़े पैरोकार ऋषि चार्वाक थे जिन्होंने तर्क सहित किसी दैवी सत्ता, स्वर्ग-नरक और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। बौद्ध धर्म ने भी किसी पारलौकिक सत्ता का उल्लेख नहीं किया, लेकिन उसकी निर्वाण की परिकल्पना में मृत्यु के बाद किसी न किसी रूप में जीवन की उपस्थिति का स्वीकार अवश्य है। सच तो यह है कि मनुष्य द्वारा ईश्वर और विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक देवी-देवताओं के आविष्कार के पूर्व समूची मानवता नास्तिक ही थी। आप इसे अच्छी कह लीजिए या बुरी, ईश्वर की खोज दुनिया को मानसिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रभावित करने वाली सबसे प्रमुख खोज थी। तबसे हर दौर में कुछ लोग या कोई न कोई विचारधारा ईश्वर की परिकल्पना का निषेध और प्रतिकार करती रही है। विज्ञान भी किसी पारलौकिक सत्ता के अस्तित्व से इनकार करता है। इसके बावज़ूद आस्तिकता की अवधारणा के पीछे कुछ तो ऐसा है कि आज वैज्ञानिक कहे जाने वाली इक्कीसवी सदी में भी देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है। शायद जीवन की कठोर परिस्थितियों में अपने से इतर समूची सृष्टि के प्रति करुणा, दया, प्रेम, क्षमा और वात्सल्य से भरी किसी नियामक सत्ता पर भरोसा बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी ऐसे लोगों को जीने का संबल देती रही है। जीवन की परिस्थितियां जितनी जटिल होंगी सर टिकाने लायक किसी अभौतिक सत्ता की ज़रुरत उतनी ही बढ़ेगी। आप इसे अंधविश्वास, अफीम या यथास्थिति का स्वीकार कह लीजिए, लेकिन अगर यह भावनात्मक संबल और उम्मीद भी लोगों से छिन जाय बहुत से लोगों के पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता न बचेगा।

दुनिया में जो दस प्रतिशत लोग ख़ुद को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी ऐसे हार्डकोर नास्तिकों की संख्या एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं है जो अपनी अनास्था के साथ तमाम तर्क सहित मजबूती से टिके हुए हैं। इस दस प्रतिशत में निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें ठीक-ठीक पता नहीं कि वे वस्तुतः आस्तिक हैं अथवा नास्तिक। ये विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते वे ऐसे लोग हैं जिनकी आस्तिकता भी संदिग्ध है और नास्तिकता भी। इनकी ईश्वर के बारे में सोचने या जानने में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन मन के किसी कोने में छुपा हुआ एक डर भी है कि अगर सचमुच कोई ईश्वर हुआ तो जीते जी या मरने के बाद उनकी क्या गति होगी। उनका मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्च में भरोसा नहीं है, लेकिन किसी भी धर्म के पूजा-स्थल से गुज़रते हुए ऐसे लोगों के सर स्वतः झुक जाते हैं। पूजा-पाठ और कर्मकांड में आस्था न होते हुए भी वे शादी-ब्याह, श्राद्ध आदि के पारिवारिक आयोजनों में भागीदारी कर लेते हैं। जो धार्मिक रूढ़ियों का प्रखर विरोध भी करते हैं और छिपाकर कपड़ों के नीचे जनेऊ भी धारण करते हैं। सामने खड़ी किसी मुसीबत को देखकर इनके मुंह से 'हे विज्ञान', 'हे मार्क्स' या 'हे तर्कशास्त्र' की जगह 'हे भगवान' 'ओह गॉड' या 'या अल्लाह' ही निकलता है। लब्बोलुबाब यह कि आस्तिकता की जड़ें हमारे भीतर बहुत गहरी हैं। आस्तिकों और दुविधाग्रस्त लोगों में तो है ही, नास्तिकों में कुछ ज्यादा ही गहरी है। इतनी गहरी कि उन्हें चीख-चीखकर और मजमें जुटाकर इसकी घोषणा करनी पड़ती है। जैसे मुहब्बत जितनी गहरी, मुहब्बत के खिलाफ़ अभियान भी उतना ही प्रखर। बहरहाल दुनिया है तो क़िस्म-क़िस्म के वैचारिक द्वंद्व भी रहेंगे। यही दुनिया की खूबसूरती है। सबको अपनी आस्था, अनास्था के साथ जीने का अधिकार है और दोनों की सीमा-रेखा पर खड़े लोगों को इस पूरे संघर्ष का मज़ा लेने का भी।
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वास्तविकता यह है कि, प्रचलित 'आस्तिक ' और 'नास्तिक ' शब्द 'भ्रम ' उत्पन्न करते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार 'आस्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है' और 'नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है' । 
पाखंडी और नास्तिक दोनों संप्रदायों के विद्वान गफलत में जी रहे हैं और मानवता को गुमराह कर रहे हैं।समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
'ईश्वर ' का अर्थ है जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । आज कल पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है । दुनिया से परे जीवन की कल्पना पर इस दुनिया में आग लगाना किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्ता नहीं है। 
(विजय राजबली माथुर ) 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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