Saturday, 26 October 2013

गणेशशंकर विद्यार्थी ---Indrabhuwan Tripathi



जन्म- 26 अक्टूबर, 1890, प्रयाग; मृत्यु- 25 मार्च, 1931) एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के 'स्वाधीनता संग्राम' में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुँह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।

जीवन परिचय

गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग (आधुनिक इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे और उर्दू तथा फ़ारसी ख़ूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।

व्यावसायिक शुरुआत
गणेशशंकर विद्यार्थी अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर जी को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी।

सम्पादन कार्य

इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने करेंसी ऑफ़िस में नौकरी की, किन्तु यहाँ भी अंग्रेज़ अधिकारियों से इनकी नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' के लिए बुला लिया। विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गये और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक का इनका जीवन अत्यन्त संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी सम्पादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में 'प्रताप' (साप्ताहिक) के सम्पादक हुए। इन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज़ बुलन्द की।

लोकप्रियता
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किये गये अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा पत्रकार, शैलीकार एवं निबन्ध लेखक रहे थे। यह अपनी अतुल देश भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबन्ध त्याग और बलिदान सम्बन्धी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।

साहित्यिक अभिरूचि

पत्रकारिता के साथ-साथ गणेशशंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरूचियाँ भी निखरती जा रही थीं। आपकी रचनायें 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया था। हिन्दी में "शेखचिल्ली की कहानियाँ" आपकी देन है। "अभ्युदय" नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था, से भी विद्यार्थी जी जुड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर "प्रताप" अखबार की शुरूआत की। 'प्रताप' भारत की आज़ादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ। कानपुर का साहित्य समाज 'प्रताप' से जुड़ गया। क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेशशंकर विद्यार्थी 'जंग-ए-आज़ादी' के एक निष्ठावान सिपाही थे। महात्मा गाँधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी, क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।[3]

भाषा-शैली

गणेशशंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है।






संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त माथुर

1 comment:

  1. silsilewaar jankari ganeshshankar vithyaarthi ke bare men ......acchhi lagi .....

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