Saturday, 21 December 2013

मार्क्स वाद को सफल बनाना है तो अंबेडकर से कुछ सीखिए---बिजेन्द्र सिंह

न्यूयार्क और वाशिंगटन में तय नीति के अंतर्गत भाजपा में मोदी को आगे बढ़ा कर इन्दिरा कांग्रेस का मार्ग सुगम किया गया है। 'सांप्रदायिक ध्रुवीकरण'का लाभ सीधा-सीधा कांग्रेस को मिलेगा और जनता फिर वैसे ही लूटी जाएगी। यही समय है कि वामपंथियों को आगे आकर संसदीय राजनीति को मजबूत करना चाहिए। वरना तो 'चिड़ियाँ चुग गईं खेत'...ही होगा।

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  •  Sir, note karen, Bampanthi jab tak desh ki most oppressed classes- Dalit,Minorities and OBCs ko leadership tak nahi pahuchne dete, tab tak kabhi bhi in vargon ka biswas prapt nahi kar sakte. Marx oppressed classes ko leader dekhna chahate the, aap unko follower se aage nahi aane dete hen. Marxvad ko safal banana hai to Ambedkar se kuchh sikhiye. Shoshiton men Ab tak Ambedkar se unche kad ka kabil, samajhdar aur imandaar leader nahi hua.Apni soch me parivartan laiye. Aapki boddhik imandaari ka ye imtahan kaa samaya hai. Kripaya mujhe galat na samjha jaye. Meri sat pratishat bafadari Karl Marx aur desh ke sarvahara ke prati hai, Ismen Mujhe koi shak nahi hai.Is liye likha ki men bhi aapki tarah kranti ko safal dekhna chahate hun.
     
    ( सर, नोट करें, बामपंथि जब तक देश की मोस्ट अप्रेस्ड क्लासेज - दलित,माइनोरिटीज़ एंड  ओ बी सीज़  को लीडरशिप तक नही पहुचने देते, तब तक कभी भी इन वर्गों का विश्वास  प्राप्त नही कर सकते।  मार्क्स अप्रेस्ड क्लासेज़  को लीडर देखना चाहते थे, आप उनको फॉलोवर से आगे  नही आने देते हें।   मार्क्स वाद को सफल बनाना है तो अंबेडकर से कुछ सीखिए।  शोषितों में अब तक अंबेडकर से उँचे कद का काबिल, समझदार और ईमानदार लीडर नही हुआ। अपनी सोच मे परिवर्तन लाइए. आपकी बोद्धिक ईमानदारी का ये इम्तहान का समय है।  कृपया मुझे ग़लत ना समझा जाए।  मेरी शत प्रतिशत बफादारी कार्ल मार्क्स और देश के सर्वहारा के प्रति है, इसमें मुझे कोई शक नही है। इस लिए लिखा की में भी आपकी तरह क्रांति को सफल देखना चाहते हूँ। )
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    मैं भी बिजेन्द्र सिंह जी के दृष्टिकोण से शतशः सहमत हूँ  किन्तु एक नज़र खुद को दलित वर्ग का विद्वान बताने वालों के परस्पर विवाद पर भी नज़र दाल लें: 
    डॉ लालजी निर्मल
जाति के वर्तमान स्वरुप के रहते आप हजरत गंज या रामपुर के मुख्य चौराहे पर बाल्मीकि चाट भंडार खोल लीजिये , शुरू करिए दुसाध कांटिनेंटल रेस्टोरेंट ,इतना ही नहीं पासवान मिस्ठान भंडार की स्वीकार्यता भी देख लीजिये । निजी क्षेत्र में दलित की स्वीकार्यता ६ माह भी नहीं हो पाएगी । मिडिया और न्याय पालिका में वंचितों की उपस्थिति आपसे छिपी नहीं है । जमीनों में अपनी भागीदारी जग जाहिर है, ले दे कर आरक्षण के कारण हम सब आज कंप्यूटर चलाने की स्थिति में हो पाए है | जाति की प्रासंगिकता देखिये, सामान्य निर्वाचन क्षेत्रो से कोई दलित आज भी निर्वाचित हो कर नहीं आ सकता ।मन्दिरो में पड़ा लाखो टन सोना एक जाति विशेष की संपत्ति बनी हुई है । जाति को कमजोर करके ही विभिन्न क्षेत्रो में भागीदारी मिल सकती है । जाति की कट्टर उपस्थिति के बीच दलितों की आर्थिक स्वावलंबन की कल्पना दिवा स्वप्न ही तो है |

डा. निर्मल जी के सन्दर्भ में ---
जाति के विनाश के बिना कुछ नहीं हो सकता, यह सही है. पर जाति हमने नहीं बनाई, इसलिए इसको मिटाने में हम अपनी उर्जा-शक्ति क्यों नष्ट करें? हम अपने आर्थिक विकास पर धयान क्यों नहीं दें .
 https://www.facebook.com/nitendra.adarsh/posts/536508573077790

Parmanand Arya:
 समाजशास्त्र में एक सिध्दान्त होता हे, संस्कृतिकरण का सिद्धान्त इसके मुताबिक जो शोषित और दलित जातियां या व्यक्ति अपने वर्गीयचिन्तन और सरोकारों से मुक्त होते हैं ऐसे लोग सामाजिक और आर्थिक तरक्की करने के बाद अपने रीति-रिवाजों,ऐतिहासिक परम्पराओं से पिन्ड छुडाना चाहते हैं,अर्थात सांस्कृतिक तौर पर उसी चिन्तनधारा का अनुकरण करते हें जिससे वह अभी तक सताए और दबाए जा रहे थे. यही है--सांस्कृतिक अनुकरण जिसके कारण हम पाते हैं कि आज दलितों और वंचितों का उतना उत्पीडन ब्राह्मण जातियां नहीं करतीं जितना कि पिछडे वर्गों द्वारा किया जा रहा है..... धर्म-परम्पराएं, ब्राह्मणवाद.. इसी प्रवर्ति को प्रोत्साहित और प्रेरित करता है और अपने फायदे के लिेए उन्हे इस्तमाल करता है...... इसी के तहत गुजरात के दंगों में दलित के खिलाफ दलित ( मुसलमानों के खिलाफ आदिवासी जातियों ) का इस्तमाल किया गया था.... यही प्रवत्ति आप बहुएं जलाने, व उत्पीडन के मामलों में भी देख सकते हैं जहां बहुएं जलाने या उनके उत्पीडन में ससुराल में सास.ननद आदि महिलाओं की भूमिका अपने पुरुष सहयोगियों से कहीं ज्यादा बढ चढ कर होती है....
“समाज का वंचित वर्ग अंतिम कतार से निकल कर मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है लेकिन आज भी दलित-पिछड़ों के साथ किसी न किसी रूप में भेदभाव बरकरार है। दलित अधिकारी के सरकारी कार्यालय से सेवानिवृत्ति होने ओर उस कुर्सी पर बैठने वाला अधिकारी कमरे को गंगा जल से पवित्र करवाता है। शिक्षा संस्थान भी जाति प्रेम से अछूते नहीं है। लखनऊ यूनीवर्सिटी इसका अदाहरण बना है।“

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(यह वाक्यांश बताता है कि समाज में धड़ल्ले से संविधान विरोधी/गैर कानूनी कार्य चलते हैं जिनको तथाकथित वैज्ञानिक/प्रगतिशील लोगों के संरक्षण की ठोस प्राप्ति भी होती है। समाज की मुख्य धारा में जुड़ना चाहने का मतलब गलत बातों को अपनाना कतई नहीं होना चाहिए किन्तु पढे-लिखे ओहदेदार लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं जिसकी ही परिणति हैं ऐसे निंदनीय कृत्य। 

एक सरकारी निगम में कार्यरत परिचित अधिशासी अभियंता महोदय जो खुद को दलित भी मानते हैं और पोंगा-पंथियों के दीवाने भी बने हुये हैं क्यों ढ़ोंगी ब्रहमनवाद के पीछे भागते हैं मैं समझ न सका?आगरा में वह तब मेरे संपर्क में आए थे जब इन ब्रहमन वादियों द्वारा ही उत्पीड़न का शिकार चल रहे थे। मैंने उनका ज्योतिषयात्मक समाधान ‘वेदिक विधि’से करवाया और उनको पोंगा-पंथी ब्राहमनवाद से बचने का लगातार परामर्श दिया। किन्तु वह समाधान मुझसे प्राप्त करते हुये भी लगातार ब्राह्मण वादियों के इशारे पर भी चलते आ रहे हैं इसका खुलासा 23 जनवरी 2013 को तब हुआ जब उन्होने अपने नए घर मे ‘गृह-प्रवेश’ के अवसर पर मुझसे ‘वास्तु-हवन’ के साथ-साथ ‘सत्यनारायन कथा’ भी करवा देने को कहा। मैंने उनको स्पष्ट कह दिया कि वह किसी दूसरे से हवन करवा लें मुझसे ढोंग नहीं हो सकता। चूंकि यह बात उन्होने ऐन दिन के दिन काही थी अतः बिना ‘सत्यनारायन कथा’ करवाए मुझसे हवन तो करवा लिया किन्तु उनके रिश्तेदार व परिवारीजन कथा न होने से ‘रुष्ट’ रहे। वे लोग ढ़ोंगी मूर्ती पूजा भी करते हैं पंडितों के फेर में भी फंसे रहते हैं। क्या यही है समाज की मुख्य धारा में शामिल होने का मतलब?यदि उस गलत को समर्थन देंगे जो आधारित ही है शोषण और उत्पीड़न पर तो फिर कसूर किसका है?
यदि शोषण-उत्पीड़न का विरोध करना है तो सबसे पहले ढोंग-वाद पर प्रहार करना होगा,बताना होगा जो सदियों से चल रहा है वह गलत है न कि खुद उसी में शामिल होकर खुश होना चाहिए।---विजय राजबली माथुर)



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