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30 जूलाई 2014
इन दो प्रसिद्ध पत्रकारों के विचारों को पढ़ने के बाद 1965-67 में पढे आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी के विचार याद आ गए। आचार्य जी ने रेलवे की रु 50/-प्रतिमाह की नौकरी छोड़ कर रु 20/-प्रतिमाह पर अलाहाबाद से प्रकाशित 'सरस्वती' के संपादक का पद सम्हाला था। यह निर्णय उनके लिए पारिवारिक हितों के प्रतिकूल था तो भी उनको इसी में खुशी हुई क्योंकि उनका लक्ष्य व्यापक था-देश व समाज की सेवा करना । रेलवे की नौकरी से वह सिर्फ अपने परिवार का ही भला कर सकते थे जबकि सरस्वती के संपादक के रूप में उन्होने कई दूसरे लोगों को लेखन द्वारा देश-हित के लिए प्रेरित किया। उनका मत था कि,'साहित्य समाज का दर्पण' होता है। अर्थात समृद्ध साहित्य समृद्ध समाज का प्रतिविम्ब होगा। साहित्य सृजन में त्याग व बलिदान की भावना से ही समृद्धि आ सकती है। साहित्य की शक्ति के संबंध में आचार्य जी ने लिखा है कि," साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। "
आज़ादी से पहले 'पत्रकार' साहित्य सृजक हुआ करते थे और इसी लिए ब्रिटिश सरकार उनका उत्पीड़न किया करती थी जिसे वे स्वाधीनता आंदोलन में दी गई आहुती मान कर झेला करते थे। सांप्रदायिक सौहार्द व एकता के लिए 'गणेश शंकर विद्यार्थी' जी का बलिदान एक ज्वलंत उदाहरण है।
आज़ादी के बाद भी धर्मवीर भारती ,मनहर श्याम जोशी आदि अनेकों पत्रकारों ने उसी परंपरा का निर्वहन किया। परंतु आज बाजारवाद ,उदारवाद,नव-उदारवाद के युग में पत्रकारिता देश व समाज को जागरूक करने का साधन न होकर पैसा कमाने का एक उपक्रम मात्र रह गई है। आज पत्रकार स्वतंत्र नहीं है बल्कि उसका नियंता उसका नियोक्ता पूंजीपति है जो अपने वर्ग-हित में अपने- अपने कर्मचारियों से लेखन करवाता है।
आज के संपादक व पत्रकार नए पत्रकारों को वाकई प्रोत्साहित नहीं करते हैं जैसा कि अनीता गौतम जी ने अपनी चिंता व्यक्त की है। निर्भीक व साहसी पत्रकारों का भी आज नितांत आभाव है जैसा कि वैदेही सचिन जी के आव्हान से स्पष्ट है।
एक बड़े कारपोरेट घराने के एक अखबार के प्रधान संपादक महोदय अखबार मालिक व सरकारों के हिसाब से अपने विचारों को बदलते रहते व न्यायोचित ठहराते रहते हैं। आगरा में जब वह वाराणासी के एक अखबार के स्थानीय संपादक थे तब विहिप के समर्थक थे। फिर वहीं के सेकुलर माने जाने वाले दूसरे अखबार के संपादक बने तब सेकुलर विचारों के अगुआ हो गए । एक टी वी चेनल की वैतरणी पार करते हुये अब जिस कारपोरेट घराने के अखबार में पहुंचे हैं वह पहले कांग्रेस समर्थक था अब 2014 के चुनावों के बाद नई सरकार का समर्थक प्रतीत हो रहा है और यह संपादक महोदय वक्त के साथ करवट बदल चुके हैं।
इन परिस्थितियों में नए पत्रकारों को धैर्य व संयम की प्रेरणा रख कर निराश न होने की जो सीख अनीता गौतम जी ने दी है वह सराहनीय व अनुकरणीय है साथ ही 'निर्भीकता व साहस' कायम रखने का वैदेही सचिन जी सुझाव भी नए पत्रकारों की हौसला अफजाई के लिए ज़रूरी है।
आज नए पत्रकारों के समक्ष फिर आज़ादी के आंदोलन सरीखी चुनौती उपस्थित है और इसका मुक़ाबला भी 'त्याग व बलिदान ' की भावना से ही किया जा सकेगा आर्थिक प्रलोभन से नहीं।
(विजय राजबली माथुर )
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आज के संपादक व पत्रकार नए पत्रकारों को वाकई प्रोत्साहित नहीं करते हैं जैसा कि अनीता गौतम जी ने अपनी चिंता व्यक्त की है। निर्भीक व साहसी पत्रकारों का भी आज नितांत आभाव है जैसा कि वैदेही सचिन जी के आव्हान से स्पष्ट है।
ReplyDelete...सच यह बहुत चिंताजनक स्थिति है .. आज पहले जैसे सीधे, सरल, सहज लोगों का अभाव हर क्षेत्र में साफ़ नज़र आता है ...
बहुत सार्थक चिंतन ...